ओम गंदगीआय नमः / प्रेम जनमेजय
ओम गंदगीआय नमः
आषाढ़ का प्रथम दिवस कवि कालिदास को अच्छा लगा था, मुझे भी अच्छा लगता है और मेरे साथ-साथ पूरी दिल्ली को अच्छा लगता है। पर मेरे अच्छे लगने और कालिदास के अच्छे लगने में उतना ही अंतर है जितना अंतर एक गरीब को अमीर की तुलना में न्याय मिलने का है। अब वो चाहे आषाढ़ के बादल हों या जून की तपती दोपहरी झोपड़े में इतना दम कहां कि वो इनका मुकाबला कर ले। वैसे भी कालिदास के समय में प्रकृति प्रकृति थी, उसका अपना एक चरित्र था। ग्लोबल वार्मिंग ने प्रकृति का चरित्र ही बिगाड़ दिया है, वो अप्राकृतिक हो गई है, उसपर भरोसा नहीं किया जा सकता। जैसे ग्लोबलाईजेशन यानि भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने आदमी को अप्राकृतिक कर दिया है। फिर भी हम भरोसा करते हैं क्योंकि हमारे पास कोई और चारा नहीं है। हम भरोसा करते हैं कि तपती जून के बाद मानसून आएगा और हमारे हालात सुध्र जाएंगें। भरोसा करना हमारी नियति है- चाहे वो आम चुनाव हो या आम का चुनाव हो, दूध-फल-सब्जी की खरीद हो- हम भरोसा करते हैं कि हमें सब कुछ मिलावट रहित मिलेगा। कालिदास के समय में आषाढ़ के बादलों में कोई मिलावट नहीं थी, उन पर भरोसा किया जा सकता था। उस समय बादल मौसम विभाग की घोषणाओं की प्रतीक्षा नहीं करते थे, आ जाते थे। आजकल तो बिजली-पानी की तरह बादल भी प्रतीक्षा करवाते हैं। आषाढ़ का पहला दिवस आ जाता है और समाज में नैतिक मूल्यों-सा शून्य आकाश अपनी नंगई पर इतराता समस्त वंचितों को बादलों के आने का भुलावा देता रहता है। जैसे महानगरों के र्टैफिक के कारण कहीं भी समय से पहुंचना अनिश्चित हो गया है--ट्रैफिक मिला तो आप समय से पहले पहुंचकर दरिया बिछाते हैं और अगर मिल गया तो देर से पहुंचने के कारण पार्टी में बचा -खुचा खाते हैं। वैसे ही मौसम विभाग भारतीय राजनीति-सा अनिश्चित हो गया है। पता नहीं किसी ने ये सोचा है कि नहीं अथवा मेरा ही मौलिक चिंतन है कि कालिदास ने आषाढ़ के पहले दिवस की ही क्यों चर्चा की ? कालिदास महान् कवि हो कर कितने भी खास व्यक्ति हों परंतु आषाढ़ के पहले दिवस की चर्चा कर आम आदमी हो गए। हर आम आदमी अपने ‘पहले’ की ही चर्चा करता है। अब चाहे पहली रात हो जिसे सुहाग रात भी कहते हैं, पहला प्यार हो, पहला वेतन हो, पहला बच्चा हो, पहला भ्रष्टाचार हो यानि दूसरे को छोड़कर जो भी पहला होता है आम आदमी उसकी चर्चा अवश्य करता है। कालिदास ने भी आम आदमी की तरह आषाढ़ की चर्चा की। आप तो जानते ही हैं कि हर खास आदमी के अंदर आम आदमी और हर आम आदमी के अंदर खास आदमी होता है। हर पहली चीज खास होती है पर दूसरी -तीसरी होते ही आम हो जाती है और झुग्गी-झोपड़ी में रहती है। पहली रात दूसरी-तीसरी आदि के बाद क्या होती है इसे आजकल के शादी-शुदा तो क्या कुंवारे भी जानते ही हैं। आषाढ़ के पहले बादलों के बाद जो बरसता है उसके कारण नदी-नाले भर जाते हैं, नगर-निगम की कार्यकुशलता के कारण बदबू और गंदगी में सूअर खुलकर टवैंटी-टवैंटी खेलते हैं और मलेरिया ढेंगू आदि की भीड़ के सामने आम चुनाव की रैलियां भी शरमा जाती हैं। सड़कें गड्ढों में बदल जाती हैं और गड्ढे तलाबों में बदल जाते हैं। अब ऐसे पवित्र वातावरण में कोई आम आदमी नहीं रहना चाहेगा तो कालिदास जैसा खास आदमी कैसे रहता ? तो भक्तों, कालिदास ने इसलिए आषाढ़ के पहले दिवस का ही अह्वान किया और उनके लिए अपनी काव्य-प्रतिभा का सदुपयोग किया। परंतु हुई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया वाली बरसात में दिल्ली या मुम्बई की नगर निगम की कृपा देखते तो बादलों को कहते- जाओ बादल । हमें तो जो नहीं है वो चाहिए- अति सर्दी में गर्मी चाहिए, अति गर्मी में ठंडी चाहिए, अति सूखे में बरसात चाहिए और अति बरसात में सूखा चाहिए। हमने प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा है पर हम प्रकृति से संतुलन की अपेक्षा करते हैं। मेरे मोहल्ले में भी एक आध्ुनिक कालिदास रहते हैं। कालिदास आषाढ़ के पहले दिन की प्रतीक्षा करते थे , हमारे कालिदास कवि सम्मेलन की रात की प्रतीक्षा करते हैं। हमारे कालिदास में इतना कवि -तेज है कि यदि पा्रचीनकालीन कालिदास उन्हें देख भर लें तो कविता करना छोड़ दें। प्राचीनकालीन कालिदास हमारे कालिदास की तुलना में उन्नीस तो क्या शून्य भी नहीं ठहरते हैं। कहां हमारे कालिदास को एक ही कविता को बीसियों मंच पर सुनाकर एक-एक रात के हजारों मिलते हैं वहां प्राचीनकालीन ने इतना लिख कर ‘कितना’ भी नहीं पाया होगा। हमारे इन कवि का नाम है कवि घूमड़। तो हमारे कवि घूमड़ रात भर एक पार्टी में व्यस्त थे। पार्टी इन्होंनें अपने घर में कवि कर्मा को दी थी, अपनी आने वाली रातों को कवि सम्मेलनों से सुहागन बनाने के लिए। पार्टी वही अच्छी होती है जिसमें दारू भी अच्छी हो और अच्छी दारू पी ही तो नींद भी अच्छी आती है। ऐसी ही अच्छी नींद लेने के बाद कवि घूमड़ ने अपनी बाॅलकनी का दरवाज़ा खोला । अपने वातानुकूलित कमरे से बाहर बाॅलाकोनी में निकलकर जैसे ही सुबह की अंगड़ाई ली तो बिना किसी निमंत्रण के आषाढ़ की ;शायदद्ध पहली बूंद ने उनका चुंबन ले लिया। अब चाहे हास्य-व्यंग्य का कवि हो, या पिफर गीतकार अथवा गज़लकार , मन में सबके मयूर होता ही जो बिना लिफाफे के भी नाचता है। मन -मयूर ने नाचने के लिए आकाश की ओर देखा तो पाया कि नाचने के लिए पर्याप्त बादल हैं। कवि घूमड़ के मन -मयूर ने अभी अपने पंख खोलने की प्रक्रिया आरंभ ही की थी कि उनकी नज़र सामने पड़ गई। सामने का दृश्य मन- मयूर के नृत्य के साथ कूकने का भी था। मोर ने अपनी मेारनी को आवाज़ दी। मेारनी उस समय अभी तक काम वाली बाई के न आने के कारण, रात की पार्टी के बरतनों से भरे सिंक को देख रही थी और कोई भी गिलास सापफ न मिलने के कारण ओक से ही पानी पी रही थी। मोर की पुकार सुनकर मोरनी को लगा कि मोर को अवश्य ही कोई कविता सूझी होगी। मोरनी जानबूझकर देरी कर ही रही थी मोर ने पुनः पुकारा- अरे देखो तो सही बाहर कितना अच्छा मौसम है... और रात ही रात में जो चमत्कार हुआ है उसे तो देखो।’ मोरनी तो विवाह होने के बाद से अकेली रात के उसी चमत्कार को जानती है जब मोर के लिए केवल कवि सम्मेलन की रात ही महत्वपूर्ण होती है और दूसरी रातें...। इससे पहले कि मोर जी झुंझला के तीसरी पुकार लगाएं मोरनी ने अपना गाउन संभाला और बाॅलकोनी की ओर प्रस्थान किया। ठंडी हवा के झोंके ने विश्वास दिला दिया कि आज कवि जी दूर की नहीं हांक रहे हैं, मौसम वास्तव में अच्छा है। बाॅलकनी में पहुंचकर मोरनी ने कहा - वाह, कितने घने बादल हैं आसमान में। पकोड़े बनाउं?’ - सामने तो देखो तुम पकोड़ों के साथ मालपुए भी बनाओगी।’ - सामने...! -- जी हां सामने की सारी झुग्गियां रात ही रात में साफ कर दी गई हैं। हमारे सामने से गंदगी साफ हो गई है। अब हमारे फलैट की कीमत दोगुनी हो जाएगी। इन झुग्गी- झोपड़ी वालों के कारण कितनी गंदगी थी, कभी बाॅलकनी में बैठकर चाय तक नहीं पी सकते थे । ’ मेारनी ने देखा कि मोर दूसरी बार भी हांक नहीं रहा था यथार्थ का वर्णन कर रहा था। सामने की झुग्गियों पर बुलडोजर पिफर चुका था। झोपड़ियों में पड़ा सामान बरसात की रिमझिम पफुहारों का आनंद ले रहा था। कुछ अध्नंगे बच्चे इध्र -उध्र दौड़ रहे थे और कुछ मंा की गोद में बैठे मां का लटका मुंह निहार रहे थे। पुरुष अपना बचा खुचा समेट रहे थे। रात को हुई बरसात ने उनका भी दिल तोड़ दिया था और टूटे दिल की समस्या भी बड़ी हो ही जाती है। - जानती हो कपूर साहब बता रहे थे कि पहले झुग्गियां टूटती थीं तो एक दो दिन बाद फिर से बन जाती थीं। पर अब तो जो भी टूट रही हैं, दोबारा नहीं बनेंगी। इनका नंबर भी बहुत दिनों बाद आया है।’ मोर ने अपने पंख फैलाकर मोरनी को उनमे समेटते हुए कहा। मोरनी भी चहकी- ये तो बहुत ही अच्छा हुआ। सच बहुत ही गंद हो गया था समाने। अब ये लोग कहां जाएंगें? - भाड़ में जाएं, हमारी बला से। यहां से तो गंदगी हटी। - पर चंदा, हमारी काम वाली भी तो सामने रहती है। लगता है आज तो वो नहीं आएगी। - अरे हां, इन हालातों में तो ये ही लग रहा है कि वो नहीं आएगी। - लो सुबह- सुबह आ गई एक और मुसीबत, ढेर सारे बर्तन पड़े है पार्टी के, घर गंदा अलग पड़ा है, अब कौन करेगा सफाई? -- किसी और को बुला लो, सौ पचास देकर करा लेना। - किस और को बुलाउफं? सामने देख तो रहे हो, सभी की झुग्गियां टूटी हैं... मुझे तो पल भर के लिए आराम नहीं है। खुद तो रात को पार्टी के मजे लेते हैं, खूब शराबें पीते हैं और सुबह के लिए मुसीबत मेरे लिए छोड़ देते हैं। -- घर का काम मुसीबत है क्या? सभी औरतें घर का काम करती हैं। तुम्हें तो थोड़ा-सा भी काम करना पड़े तो नानी याद आने लगती है। -- नानी याद आती है तुम्हें। एक गिलास पानी का भी लेना हो तो कभी उठकर नहीं लेते हो। औरों के पति अपनी पत्नियों का घर के काम में हाथ बटांते हैं और तुम...। चलो आज मेरे साथ बर्तन साफ करने में मदद करो। - हो सकता है चंदा आ ही जाए। उसे भी तो रोजी-रोटी चाहिए।’ एक कुटिल मुस्कान के साथ मेार जी ने कहा,‘ अभी तो उसने पगार भी नहीं ली है।’ पर मोरनी बहकावे में नही आई और उसने दबंग होकर कहा-- पर आज तो वो आने से रही। बर्तन थोड़ी देर और पड़े रहे तो बदबू मारने लगेंगे। बहाने मत मारो और बर्तन साफ करने में मदद करो। -- तुम... तुम एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि से जूठे बर्तन साफ करने को कह रही हो... होश में तो हो। -- मैं होश में ही हूं और कवि जी ये जूठे बर्तन आपकी ही शराब पीकर बेहोशी का नतीजा हैं। मैं आज अकेले तो इन्हें हाथ लगाने से रही। - तो पड़े रहने दो उन्हें ऐसे ही। ’ मेार मोरनी अब गली के कुत्तों की तरह एक दूसरे पर भौंक रहे थे। गंदगी घर में चारों ओर बिखरी हुई थी। और कवि घूमड़, मूड ठीक करने के लिए नब्बे नम्बर का पान खाने चल दिए।