ओरहान पामुक का एक इंटरव्यू / शिवप्रसाद जोशी
परंपरा की पुनर्खोज को पुरस्कार
(नोबेल पुरस्कार प्राप्त ओरहान पामुक से बातचीत)
ओरहान पामुक अपने देश और समाज और इतिहास और परंपरा की ऐसी एक स्मृति की तरह दृश्यपटल पर लौटे हैं जिसके बारे में कभी उन्होंने ही कहा था कि अगर स्मृतियों को दबाए रखने की कोशिशें की जाएंगी तो कुछ न कुछ हमेशा लौट कर आएगा...जैसे कि मैं.
2005 के मध्य में पहल के 80वें अंक में तुर्की के मशहूर लेखक ओरहान पामुक के रचनाकर्म पर टिप्पणी में इस बात का ज़िक्र था कि वो नोबेल के साहित्य पुरस्कार के प्रबल दावेदारों में हैं. हमें इस बात की ख़ुशी है कि यह संभावना जल्द ही हक़ीक़त में बदल गई. पामुक को नोबेल मिलने की घोषणा का हिंदुस्तान में लेखकों का एक बड़ा वर्ग स्वागत कर रहा है. और पामुक की भारतीय ख़ासकर हिंदी साहित्य जगत में पठनीयता क्यों ज़रूरी है यह मांग और अपेक्षा और पुरअसर हुई है. चौवन साल के ओरहान पामुक अपने लेखन और तु्र्की के निजाम पर अपनी टिप्पणियों से ख़ासी चर्चा हासिल कर चुके हैं. आज अगर तुर्की यूरोपीय संघ बनने की राह पर है तो उसे इस राह की तरफ़ बढ़ाने वालों में पामुक का भी योगदान है. एक लेखक के तौर पर पामुक की यह पहल कुछ कुछ पाब्लो नेरूदा और ग्राबिएल गार्सिया मार्केज़ के अपने अपने देशों में किए गए प्रयत्नों की याद दिलाती है.
2005 के दिसंबर में पामुक अपने ख़िलाफ़ चल रहे देशद्रोह और राष्ट्र की भावना को ठेस पहुंचाने और तुर्कियत को धूमिल करने के आरोप में चलाए गए मुक़दमे में इस्ताम्बूल की एक अदालत में पेश हुए थे. उनके साथ देश के कई और लेखक और रचनाकर्मी इसी तरह के आरोपों के मुक़दमे झेल रहे हैं. 22 जनवरी 2006 को भले ही यूरोप के भारी दबाव में पामुक को आरोपों से बरी कर दिया गया लेकिन मुक़दमे के दौरान उन्हें भारी ज़लालत सहनी पड़ी. फासिस्टों और कट्टरपंथियों के एक गुट ने उन्हें कोर्ट में लाते और वहां से ले जाते वक़्त न सिर्फ़ भद्दी बातें सुनाई बल्कि उनके साथ धक्कामुक्की भी की गई, उनकी कार पर अंडे और पत्थर फेंके गए. वही पामुक ठीक एक साल बाद दिसंबर 2006 में स्टॉकहोम में नोबेल पुरस्कार की चकाचौंध, प्रशंसकों और बेशुमार तालियों के बीच होंगे. उनके विरोधियों को इस बात का अंदाज़ा न था.
प्रस्तुत इंटरव्यू अंश ग्रांटा के स्प्रिंग 2006 के अंक से साभार लिया गया है. अंग्रेज़ी में ये साक्षात्कार किया है पामुक की अनुवादक और तुर्की की युवा तेज़तर्रार लेखर मॉरीन फ्रीली ने. 16 दिसंबर 2005 की तारीख़ से ठीक तीन दिन पहले. उस तारीख़ को पामुक की अदालत में सुनवाई थी. यह बातचीत बहुत लंबी है. क़रीब क़रीब लघु उपन्यास जैसी और बातचीत के विभिन्न क्रमों के दरम्यान पामुक से जुड़े ब्यौरे हैं. जो मौजूदा तुर्की और पामुक के जादू को समझने में मदद करते हैं.
आपके ख़िलाफ़ जो मुक़दमा हुआ है..ऐसे हाल में इन सब चीज़ों का आपके काम पर कितना असर पड़ा है. इन हालात में आप लिख कैसे लेते हैं?
बदक़िस्मती से मैं पिछले तीन महीनों से कुछ नहीं लिख पाया. मैं फिर भी कोशिश कर रहा हूं. मैं खुद पर और ज़्यादा दबाव डाल रहा हूं. अपना नॉवल पूरा करने की डेडलाइन भी मैने तय कर दी है. लेकिन अपनी कल्पनाशीलता का हाल मैं जानता हूं. कुछ आनंद और आवेग के साथ लिखने के लिए मुझे कुछ ख़ास चीज़ों की दरकार है. क़ाग़ज़ और कलम, चाय और कॉफ़ी को परे रख दें, मुझे सबसे ज़्यादा जिस चीज़ की ज़रूरत है वो एक ख़ास तरह की ग़ैरज़िम्मेदारी, फिक्शन के लिए यह बेहद ज़रूरी है. कम से कम मेरे लिए. लेकिन अब मुझसे उम्मीद की जा रही है कि मैं अपने बयानों पर सफ़ाई और सफ़ाई ही देता रहूं, इससे ग़ैरज़िम्मेदारी का जज़्बा गुम हो गया है. यह बच्चों की सी आज़ादी है जो मुझे उम्मीद है मैं वापस पा लूंगा. क्योंकि जितना लंबा यह मामला खिंचता है वो सामाजिक ज़िम्मेदारी भी बढ़ जाती है जो मुझे झेलनी है. और यह दमघोंटू है. मैं वाकई सही काम करना चाहता हूं. मैं सही काम करते हुए दिखना चाहता हूं. कोई लेखक सम्मान नहीं खोना चाहेगा. अपने मुल्क का प्यार और दिलचस्पी नहीं खोना चाहेगा. ख़ासकर तब जब मुल्क अपने तआस्सुर में इस क़दर क़ैद हो.
यह एक ऐसा मसला है जिसकी मैं गहराई से फ़िक्र करता हूं. इसीलिए मैं हमेशा सफ़ाई देता रहता हूं, सफ़ाई देता रहता हूं, सफ़ाई देता रहता हूं. और इसीलिए मेरे बारे में जब गलत मालूमात और झूठ फैलाए जाते हैं तो मैं लड़ता हूं. मैं हमेशा यह साफ़ करता हूं कि मैं जिस चीज़ की तनक़ीद कर रहा हूं वो ये क़ानून है जो अभिव्यक्ति की आज़ादी को रोकते हैं. मैं उस तहज़ीब की भी मुख़ालफ़त करता हूं जो यह सब झेलती है और इस दमन को जारी रखने की इजाज़त देती है. लेकिन सारा मामला इतना बुरा नहीं जितना पहले था. काफ़ी कुछ नरम पड़ा है. शायद हममें से कई लोग महसूस करने लगे हैं कि असल मुद्दा यहां सहनशीलता, अभिव्यक्ति की आज़ादी का है.
ऐसे माहौल में आप ख़ुद पर कैसे क़ाबू रख पाते हैं?
पिछले बसंत में जब मैं न्यूयॉर्क में था इस मामले पर कमज़ोर न पड़ जाने के लिए मैने ख़ुद पर बेहद कड़ा अनुशासन लागू कर दिया. मैं सुबह जल्दी उठ जाता ताकि जो कुछ मैं कर रहा हूं उसे पूरे अनुशासन और ध्यान से कर सकूं. वहां मेरे पास एक दफ़्तर है. एक घर है. और हर रोज़ मैं सुबह जल्दी उठ जाता हूं. और तीन चार घंटे लिखने की कोशिश करता हूं. जहां मुझ तक कोई न पहुंच सके और मैं पहले कुछ कर लूं. कुछ लिख लूं अपने नॉवल को पूरा करने के लिए. मेरी नज़र में ज़्यादातर लेखक हक़ीक़त को रिफ़लेक्ट करने के लिए नहीं बल्कि नियमों के जटिल सेट से भरी एक दूसरी दुनिया की खोज करने के लिए लिखते हैं. जितना ज़्यादा जटिल उतना बेहतर, हालांकि यह दूसरी दुनिया पहली दुनिया से निकलती है लेकिन वास्तविक दुनिया के मुक़ाबले यह कहीं ज़्यादा मानीख़ेज़ ज़्यादा तसल्लीबख़्श होती है. अगर मैं यह पा सकूं. अगर मैं ख़्यालों की इस दूसरी दुनिया में जा सकूं और चंद पैराग्राफ़ लिख सकूं. तो मैं बहुत आत्म सम्मान और ख़ुशी महसूस करता हूं. ठीक उस बच्चे की तरह जो अपने खिलौनों से खेल चुका और अपनी कल्पनाशीलता का दोहन कर चुका रहता है. अगर एक पल के लिए भी मैं ख़्याल की दुनिया में रह सकूं, अगर मै यह ख़ुशी हासिल कर सकूं तब मैं कुछ भी झेल सकता हूं. लेकिन अगर मैं यह नहीं कर पाया तब यह शून्य, इस मुआमले की तमाम छोटी फ़िक्रों से भर जाएगा जो कभी ख़त्म नहीं होगी.
असली सज़ा यह मुक़दमा या इसके नतीजे नहीं. असली सज़ा यह कोर्ट केस है. और इस पूरे मामले से जुड़ा ड्रामा है. पिछले तीन महीनों से मैं जिस दौर से गुज़रा उससे मैं अपनी दूसरी दुनिया भूल गया हूं. इसके प्रति जो अपनी जवाबदेही कह लीजिए होती है. उसे भूल चुका हूं, मैं दुनिया भर में इस मुद्दे पर खिंचे ध्यान का शुक्रगुज़ार हूं और यहां की उदारवादी लेफ्टिस्ट बुद्धिजीवी जमात का भी, यकीकन मैं इससे महफ़ूज़ हुआ हूं लेकिन दूसरी तरफ़ मुझे यह भी लगता है कि मुझे इसका जवाब देना चाहिए. अहसानमंद होता है इंसान. और इससे आपकी कल्पनाशीलता पर असर पड़ता है. और धीरे धीरे यह ज़िम्मेदारी आपको एक सियासी कमेंटेटर या एक एक्टिविस्ट या मज़बूत ख़्यालों वाले एक शख़्स में तब्दील कर देती है. मैं इस तरह का नहीं हूं और मैं ऐसा इंसान नहीं बनना चाहता हूं जो ज़िंदगी से ज़्यादा विचारों की परवाह करता हो.
तो आपको ज़बरन डिप्लोमेट का जामा ओढ़ा दिया गया?
मैं कतई ऐसा नहीं चाहता था. लेकिन मैं मुल्क की ग़लत तस्वीर नहीं पेश करना चाहता कि इस मुक़दमे की आड़ लेकर यूरोप का कंज़रवेटिव तबका, तुर्की के यूरोपीय यूनियन में आने का रास्ता रोके. सबसे ज़्यादा यही बात मुझे चोट पहुंचाती है और मैं इसी बात से चिंतित हूं.
यूरोप की प्रेस में आपके बारे में पढ़कर ऐसा आभास मिलता है कि तुर्की में इकलौते आप ही यूरोप के पक्षधर हैं?
चुनावी नतीजे बताते हैं कि मुल्क की 65 फ़ीसदी जनता यूरोपीय यूनियन के साथ है. मैं शिद्दत से कहता हूं कि मैं अकेला नहीं हूं, तमाम इंटेलेक्चुअल्स, रैडिकल्स, राइटर्स सब इस मुद्दे पर एकजुट हैं. वे तमाम लोग भी जो पिछले तीस साल से सताए जा रहे हैं. तु्र्की के मीडिया में उन्हें जगह नहीं मिलती. बदक़िस्मती से पूरी दुनिया के मीडिया में भी ये नहीं आ पाते. मैं कभी इस बात का ज़िक्र करना नहीं भूलता, राज्य के ख़िलाफ़, प्रतिरोध की इस परंपरा का मैं हमेश ज़िक्र करता रहा हूं.
मैं जानती हूं आप सियासत में मुब्तिला होने के लिए तो नहीं चले थे, फिर ऐसा कैसे हुआ?
किशोर उम्र में मैं वामपंथी विचारों का कायल था. वामपंथ का उस वक़्त बड़ा रसूख था और उसके माने मॉडर्निटीस सेक्यूलेरिज़्म और डेमोक्रेसी हुआ करते थे. मैने सारी किताबें पढ़ डालीं. लेकिन आखिरकार मैं उस वक़्त खा क्या. जैसा कि कहा जाता है महज़ एक अपार्टमेंट का लड़का. अब हम सब अपार्टमेंटों में रहते हैं. लेकिन मेरे बचपन में अपार्टमेंट एक ज़हीन एक पश्चिमी आधुनिक चीज़ थी, मैने सियासक करने के बजाय फॉक्नर और वर्जीनिया वुल्फ को पढ़ना ज़्यादा ठीक समझा. 17 और 18 साल की उम्र में मैं देख सकता था कि सियासत जितनी तेवर वाली नज़र आती है उतनी ही खेमेबंदी वाली होती है. आपको एक ख़ास खेमे से जुड़ना पड़ता है. इसलिए अगर आप वामपंथी थे तो आपको इन कई मार्क्सवादी, लेफ्टिस्ट खेमों में शामिल होना पड़ता. मैं यह सब नहीं करना चाहता था.
मेरे कई अच्छे मार्क्सवादी दोस्त हैं जो मेरे घर आते कई सारी किताबें देखते. इससे मेरा सम्मान बढ़ा. लेकिन कुछ समय बाद कुछ विरोध भी पनपने लगा. शायद उन्हें लगा कि मेरी तरह का पढ़ाकू किस्म का इंसान जो सियासत में दिलचस्पी नहीं रखता और जो अगर किसी मक़सद या मुल्क के लिए काम नहीं कर रहा है तो वो अपनी प्रतिभा को बरबाद ही कर रहा है, यहां तक कि अपनी तहज़ीब की शान में भी गुस्ताख़ी कर रहा है, ज़्यादातर लोगों की नज़र में कला कमतर चीज़ थी लेकिन मेरे लिए अपना ऑटोमन लिगेसी वाला तुर्की महज़ एक ग़रीब मुल्क नहीं था. मुझे लगा कि यह कहीं ज़्यादा जटिल और परेशान था. मुझे सियासत से कोई लेनादेना भला क्यों होता, लेकिन तभी तुर्की की सत्ता ने कुर्द अलगाववादी गुरिल्लों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी. सत्ता बोलने की आज़ादी को कुचलना चाहती थी. उसे लगता था कि हमारा मुल्क ख़ामोश रहे. वही उसके लिए मुफ़ीद है.
जैसे ही 1994 में तुर्की में मेरा उपन्यास द न्यू लाइफ़ आया, लोगों ने मुझसे कुछ न कुछ करते रहने के लिए कहना शुरू कर दिया. मै नहीं जानता कि क्योंकर यह किताब इतनी मशहूर हुई, मै कहूंगा, द न्यू लाइफ़ मेरी सबसे प्रयोदधर्मी और पोएटिक किताब है. शायद यह राष्ट्रीय सेंटीमेंट को छू गई, ट्रेडीशन के गुम होते जाने की बेकली को और पश्चिमपरस्ती और मॉडर्निटी से उपजी बेचैनी को, जो भी हो इस किताब की रिकॉर्ड प्रतियां बिकने लगी थीं और वे कुछ सयाने लोग जिन पर मुझे भरोसा था और जिन्हें मैं चाहता था, मुझसे पूछने लगे..क्या मैं यहां आ सकता हूं, क्या मैं इस याचिका पर दस्तख़त कर सकता हूं, क्या मैं संकट में फंसे किसी व्यक्ति या किसी पत्रिका के बचाव में बुलाई गई बैठक में शिरकत कर सकता हूं..मेरे ख्याल से वो नाटकीय मौका जो सबको याद रहा वो तब आया जब अल्हैगीपसंद(अलगाववादी) गुरिल्लों के ख़िलाफ़ जंग के दरम्यान एक कुर्द अख़बार पर बमबारी कर दी गई, हम बहुत सारे लोग बियोगिलू गए जो अ ला ज्यां पाल सार्त्र नाम के पश्चिम परस्त शहर का सेंटर था. वहां जाकर हमने अख़बार बांटा. मैं बाकी सबके साथ टेलीविज़न पर था. पहली बार अपेक्षा के बाहर कुछ करता हुआ. वहीं से मेरी एक पॉलिटिक्ल शख़्सियत बनने की शुरुआत हुई. एक बार मै यह कर चुका तो सत्ता प्रतिष्ठान, नेशनलिस्ट मीडिया ने मुझे एक तरह से दुश्मन करार दे दिया. चरित्र हनन की मुहिम भी यहीं से शुरू हुई. ज़ाहिर है यह निजी होती गई और आपमें गुस्सा भरती गई. और आपके कुछ निजी दुश्मन बन गए, भयानक रूप से जले भुने लोग..बदले की आग से भरे हुए..यह सब उस दिन से लेकर आज तक जारी है.