ओ, गंगा बहती हो क्यों? / ममता व्यास
पिछले रात सपने में कुछ अजीब सी आवाजें सुनाई दीं। ऐसा लगा, जैसे कोई दो लोगों की आवजें थीं, जो आपस में बात कर रहे थे। ध्यान से सुना तो पता चला कि वो नदी के दो किनारे थे, जो आपस में बतिया रहे थे, मैं ध्यान से सुनने लगी। इक ने बड़ी बेबाकी से कहा 'दोस्त ये गंगा के किनारे बने-बने मैं तो उकता गया हूँ, ये चंचल लहरे दिन भर मुझे परेशान करती हैं। मैं शान्ति से यहाँ रहता हूँ। ये मुझे अशांत कर देती है बिना पूछे छूती हैं ना चाहते हुए भी भिगो देती हैं रात हो या दिन उफ, कितना शोर करती हैं। मानो कसम ही खा रखी हो, इन्होंने कि सदियों तक पीछा नहीं छोड़ेंगी।
अपने साथी की बात पर, दूसरे किनारे ने मुस्कु राकर जबाव दिया, दोस्त तुम कुछ ज्यादा ही सोच रहे हो। हम पत्थर के किनारे हैं। जड़ है। हमारे पास कुछ भी ऐसा नहीं जो हमारे जीवन में खुशियां लाये। हमें तो इन लहरों का शुक्रगुजार होना चाहिए, ये हमसे रोज मिलने तो आती हैं। वरना हम यूं ही अकेले सूखे-सूखे से रह जाते। लहरे है तो जीवन गतिमान लगता है।
लहरों से खफा हुए किनारे ने फिर कहा। आखिर गंगा को बहने की जरूरत ही क्या है? क्यों बहती है यह? स्वर्ग में शिव के साथ रहती थी ना फि र धरती पर क्यों चली आई? वहाँ सम्मान नहीं मिला होगा इसलिए इस धरती पर सम्मान की खातिर और पूजनीय बनने के मोह में आ गयी होगी।
दूसरे किनारे ने फि र बात संभाली और कहा मत भूलों हमारा अस्तित्व इन्हीं गंगा की लहरों की वजह से हैं किनारे कितने भी टूटे-फू टें हो लहरें फि र भी उन्हें प्रेम करती ही हैं और गंगा के तट पर आने वाले कभी भी किनारों के खुरदुरेपन को नहीं देखते। वो प्रेम से हमारे समीप बैठते हैं प्रतीक्षा करते हैं लहरों की उन किनारों को कभी देखा है? जिनके पास लहरें नहीं। उन उदास किनारों के पास कोई नहीं जाता ना कोई रात को दीपक जलाने आता है ना सुबह सर झुकाने वे अभागे सदियों से लहरों की प्रतीक्षा में हैं, पर लहरों का सामीप्य उन्हें नहीं मिलता। दूर-दूर तक सिर्फ सन्नाटा है न कोई जीव ना कोई जीवन।
तुम तो यूँ ही कहते हो मानो या ना मानो ये गंगा जरूर स्वर्ग से भी इसी चंचलता की वजह से निष्काषित की गयी होगी। यहाँ धरती पर आकर भी ये हमें चैन नहीं लेने देती आखिर ये क्यों बहती है?
हो सकता है दोस्त तुम ही सही हो, लेकिन ये भी तो हो सकता है कि ये गंगा लोगों को तृप्त करने के लिए बहती हो, लोगों कि अशुद्धियां और कलंक खुद में समेटना इसे रुचिकर लगता हो, सभी को अपने प्रेम का अमृत देना चाहती हो यह भी वजह हो सकती है।
तभी, इक नारी स्वर ने लगभग चीखते हुए कहा-चुप हो जाओ जड़ किनारों बहुत देर से मैं तुम लोगों की बात सुन रही हूं।
मैं गंगा, सदियों से बहती आई हूँ। स्वर्ग में भी शिव के शीश पर थी और इस धरती ने भी हमेशा मुझे सम्मान से स्वीकारा है। मुझे मान और अपमान का कतई भय नहीं है। किसी को देना या किसी से कुछ पाने की कोई चाह नहीं है मेरी। मेरा कोई स्वार्थ नहीं। मैं पवित्र, निच्छल, निशब्द बहती हूं, मुझे छूकर लोग सौगंध खाएं, दीये जलाए या अपनी अशुद्धियां मुझमें छोड़ जाए। मुझे इससे कोई फ के नहीं पड़ता। मानो तो मैं गंगा हूं ना मानो तो प्रदूषित पानी।
ओ पत्थर के किनारों, तुमसे जो मेरी लहरें टकराकर बिखर बिखर जाती हैं। तुम उनसे कुछ सीखो। जब तक तुम अपने झूठे अहम् से अकड़े रहोगे तब तक जड़ ही बने रहोगे। तुम्हारे कांधों पर कुछ पल यदि मैंने विश्राम कर लिया तो तुम्हें गुरूर आ गया। मेरे बहने पर ही सवाल उठाने लगे। मेरे बहने की गति पर ही प्रश्न किये जाने लगे क्यों? इस देश का यही दुर्भाग्य है यहाँ नदी और नारी का खूब दोहन, खूब दुरूपयोग किया जाता रहा है, यदि कोई स्त्री या नदी चुपचाप बहती चलती है तो उसकी इस खामोशी पर भी संदेह किये जाते हैं और जो वो वाचाल हो जाए सुनामी बन जाए तो भी आरोपी बनायी जाती है। सदियों से दूसरों के लिए बहना, सहना और प्रेम करते जाना ये हम ही कर सकती हैं तुम नहीं।
तुम, पत्थर हो तुम में कोई स्पन्दन नहीं, संवेदना नहीं तुम टूट जाओगे इक दिन देखना। मेरे प्रेम से भी तुम नहीं पिघलोगे, मेरे साथ नहीं बहोगे तो मैं ठहरेगी नहीं आगे चल दूंगी साहस है तो मुझमें डूब जाओ पिघल जाओ तो कोई बात बने।
मैं तरल हूं। उत्कृष्ट हूं। तभी प्रेम करती हूं। तुम जड़ हो इसलिए मुझ तक कभी पहुँच नहीं पाते। मुझे ही आना होता है तुम तक। आज मैं तुम लोगों की ओछी बातों से मेरा मन अति दुखी है। मैं यही कहूंगी की तुम यूं ही पत्थर बन कर तरसते रहो सदियों तक। कोई लहर तुम्हें अपना ना समझे तुम्हें छुए और दूर चली जाए और तुम आवाज भी ना दे सको। मैं, गंगा असीम से आई हूं। इक दिन असीम में ही मिल जाना है मुझे। मैं अपनी अनंत यात्रा पर हूँ समझे? अब कभी नहीं कहना गंगा बहती हो क्यों?