ओ अलबर्ट! / कमल

Gadya Kosh से
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गहराती शाम के साथ मोबाइल पर मैसेज आते ही टाइटेनिक फिल्म की सिग्नेचर-ट्यून बज उठी। शिवनाथ प्रसाद लपक कर फोन तक पहुंचा। उसे किसी और के मैसेज की प्रतीक्षा थी, मगर वहां तो अलबर्ट तिर्की का मैसेज था। वह अनमने से मैसेज पढ़ने लगा- “पता नहीं क्यों लेकिन पिछले चैबीस घंटे मेरे लिए अनोखे थे, अभूतपूर्व। एक अजीब-सी निराशा, उदासी और अंधेरा मेरे चारों ओर फैलता जा रहा है। जिससे बचने की हर कोशिश नाकाम हो रही है। ऐसा नहीं कि इस अंधेरे से बचने की कोशिश मैंने नहीं की। ...दिल बहुत घबरा रहा है। पुराने और भयानक अंधेरों से डर लग रहा है। क्या करुँ ? कुछ समझ में नहीं आ रहा। क्या करुँ ? क़ाश तुम मेरे पास होते।”

मित्रता के प्रारंभिक दिनों में पहले फोन पर उन दोनों के बीच लंबी-लंबी बातें हुआ करती थी। फिर बातों का कद छोटा होने लगा। पहले उनके बीच अरस्तु, न्यूटन, लियोनार्ड द विन्ची, महात्मा गाँधी, अलेक्जेंडर, पिकासो, बुद्ध आदि महान लोगों के अच्छे और प्रेरक कथनों वाले एस.एम.एस. का आदान-प्रदान होता था। धीरे-धीरे गहराती मित्रता के साथ फिर वे जोक्स और घटिया सेक्सी जोक्स तक भी पहुंच गये। वो भी ऐसे-ऐसे नॉन-वेज जोक्स कि यदि कोई पक्का वेजेटेरियन पढ़ ले तो सीधे खुदा को प्यारा हो जाए। लगता था, उनके बीच वह सिलसिला बना रहेगा। लेकिन उन्ही दिनों अलबर्ट तिर्की का तबादला राँची से दुमका हो गया। वहां जाने के बाद से ही उसके एस.एम.एस का स्वर पूरी तरह बदल गया। वह अक्सर अपनी तकलीफों और परेशानियों वाले मैसेज भेजने लगा था। वे एस.एम.एस. उसे अजीब तो लगते, मगर जवाब में शिवनाथ प्रसाद हर बार अच्छे और उत्साहवर्द्धक मैसेज दे कर उसका मन संभाल लेता। पहले तो उसे लगा था, किसी लड़की-वड़की का चक्कर होगा और साहब बहादुर को भी वहां जा कर अंततः वह रोग लग ही गया, जिसके न लगने की वह कसमें खाता रहता था। खैर कोई बात नहीं, वह उम्र ही कुछ ऐसी होती है। लेकिन बाद में जब उसकी बातें खुलनी शुरू हुईं तो बात कुछ और ही निकली। वह किसी लड़की के लिए नहीं, उन संतालों के साथ हुए धोखे से परेशान था। और अब वह किसी भी तरह उन लोगों को कुचक्र से बचाना चाहता था। न जाने क्यों उनमें वह इतना ज्यादा इन्वोल्व हो गया था, जैसे कि अब उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य बस वही रह गया हो। शिवनाथ प्रसाद के लिए उसकी बातें अप्रत्याशित थीं।

शिवनाथ प्रसाद उसे जब भी फोन करता, हर बार समझाता, “देखो, बेवजह का दूसरों की तकलीफों के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए।”

लेकिन समझाने का उस पर कोई असर न था । उल्टे अलबर्ट तर्की के उन एस.एम.एस. की संख्या भी घटने लगी। ...परन्तु फिर भी वे कभी बंद नहीं हुए थे। मगर पिछले कुछ हफ्तों में उसके जो थोड़े से मैसेज आये थे, उन सब का स्वर लगभग हर बार वैसा ही निराशाजनक रहता था। मानों हर क़ीमत पर सफल होने के अपने प्रयासों में वह लगातार असफल होता जा रहा है।

कोई और अवसर होता तो शायद शिवनाथ प्रसाद एक अच्छा-सा जवाब दे देता या शायद जवाब न भी देता, मगर उस दिन न जाने किस बात पर वह स्वयं भी परेशान था। उसने झल्ला कर जवाब दिया, “भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारे अंधेरे।’ फिर उसने अपना मोबाईल ऑफ कर दिया।

क्या वह अलबर्ट तिर्की के अधिक भावुक हो जाने का असर था, या शिवनाथ प्रसाद के उस मैसेज का ? या फिर पिछली शाम की पिटायी में उसके दिमाग के किसी नाजुक हिस्से में लगी गंभीर चोट का परिणाम। या वह किसी सुनियोजित षड़यंत्र का शिकार हुआ था ? या वह एक बेमतलब की बात को तिल का ताड़ बनाने का परिणाम था? ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता।

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उनकी दोस्ती एक ही जगह पर नौकरी के कारण, राँची में हुई थी।

“अलबर्ट तिर्की ! बड़ा इंटरेस्टिंग नाम है यार। क्या तुम परम वीर चक्र विजेता अलबर्ट एक्का के रिश्तेदार हो ?” शिवनाथ प्रसाद ने अपनी आदत के अनुसार ही चुहल करते हुए उससे पूछा था। मगर उसका संजीदा उत्तर सुन कर हमेशा के लिए उसका मुरीद बन गया।

“सिर्फ मैं ही क्यों, जिसने देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये, उस परम वीर अलबर्ट एक्का का रिश्तेदार तो हर भारतवासी है । क्यों ?” अलबर्ट तिर्की के चेहरे पर बड़ी आकर्षक मुस्कान थी।

“वाह, क्या बात कही है यार! तुमने तो अपना दिल खुश कर दिया।” कहते हुए शिवनाथ प्रसाद ने उसे अपनी बांहों में भींच लिया था। फिर बांहों का वह बंधन उनके बीच मजबूत होता चला गया था।

“वैसे मुझमें और उस वीर में एक समानता तो जरूर है।” अलबर्ट तिर्की हंसते हुए बोला, “हम दोनों ने अपने-अपने समय में फिरायलाल चैक पर गोलगप्पे जरूर खाये हैं।”

उसकी वह बात सुन कर दोनों की समवेत हंसी वहां गूंज गई।

“...और हम दोनों में एक बड़ा फर्क भी है।” अलबर्ट ने अपनी आवाज को नाटकीय बनाते हुए कहा।

शिवनाथ प्रसाद की हंसी को ब्रेक लगा, “भला वह क्या ?”

“वह ये कि उसी फिरायलाल चैक पर उस परमवीर की सैनिक वेश वाली मूर्ति लगा कर उसका नामाकरण अलबर्ट एक्का चैक हो गया है। मेरे नाम पर कोई चैक नहीं है।” वह जोरों से हंसा। उसकी जीवंत हंसी ऐसी लगती थी, जैसे झारखंड का कोई सच्चा झरना अपनी पूरी रवानी से बह रहा हो।

लगभग हमउम्र और एक सी रुचियों ने उन्हें करीब ला दिया था। अगर पिछले दिसंबर में अलबर्ट तिर्की का तबादला दुमका न हुआ होता, तो अभी वे दोनों साथ बैठे गप्पें मार रहे होते। दुमका जाने के बाद से उसकी शुरुआती बातें जरूर चौंकाने लगी थीं, लेकिन शिवनाथ प्रसाद ने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। पिछली होली में अलबर्ट जब राँची आया था, तब भी सब ठीक-ठाक ही लगता रहा था। वह वहां देखी गई खास जगहों के बारे में बड़े उत्साह से बताता रहा था।

“अरे यार दुमका से लगभग दस किलोमीटर पर एक जगह है, ततलोई जहाँ गर्म पानी का कुंड है । उससे लगते कुएं का पानी तो खौलता रहता है । और लगभग बीस किलोमीटर दूर पत्ताजोड़ी के गाँव को ए.एस.आई. वालों ने ‘गुप्त काशी’ का नाम दे रखा है । वहां एक सौ से भी ज्यादा मंदिर हैं । प्राचीन काल के उन मंदिरों की बाहरी दीवारों पर उकेरे गये चित्रों का रंग और चमक इतने वर्षों की धूप, ठंढ और बारिश झेल कर आज भी इतने गहरे हैं कि हैरान करते हैं ।”

ततलोई के बारे में वह जानकारी शिवनाथ प्रसाद के लिए भी आकर्षक थी, “मैं तो आज तक सोचता था, केवल राजगीर में ही गर्म पानी का कुंड है। दुमका में इतना कुछ है, सोचा न था। तुम्हारी बातों से लगता है जल्द ही दुमका घूमने का प्रोग्राम बनाना होगा।”

“हां, हां जल्द बनाओ। बड़ा मज़ा आयेगा।” अलबर्ट तिर्की ने मुहर लगायी।

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दुमका में उसकी पोस्टिंग लोन सेक्शन में थी। दरअसल वह लोन रिकवरी के मामलों का एक्सपर्ट था। उसकी वह क्षमता ही उसे अपने सहकर्मियों से अलग करती थी। जहां भी वसूली में कोई और असफल हो जाता, वहां जा कर वह सारा काम निबटा आता। उसके बात करने का ढंग बहुत आकर्षक था। उसकी बातें जादुई लगती थीं। वह अपनी बातों से हर किसी को प्रभावित कर लेने की क्षमता रखता था।

पिछले कुछ समय से उस बैंक की दुमका वाली ब्रांच में लोन रिकवरी के मामले गड़बड़ा रहे थे। इसलिए उसके बैंक द्वारा उसे खासतौर पर वहां भेजा गया था। वहां जाने के क्रम में उसने यही सोचा था कि कर्ज वसूली के लिए सीधे-साधे आदिवासियों को समझाना और भी आसान होगा और उसे लोन रिकवरी के लिए अपने सामान्य काम की तरह केवल क़र्ज को रिशिड्यूल ही करना पड़ेगा। लेकिन उस दिन दुमका शहर से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर बसे गाँव रानीघाघर में एक और ही आश्चर्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।

“क्या कहते हो तुमने कर्ज नहीं लिया है?” अपनी पूछ-ताछ के क्रम में अलबर्ट तिर्की चौंका था। कर्ज ले कर लोग हड़पने के लिए दिवाला पिटने, बीमार होने, चोरी, नुकसान आदि कई तरह के बहाने गढ़ लेते हैं लेकिन कर्ज लेने से मुकर जाने का वह बहाना उसके लिए बिल्कुल नया था।

रैरू चैतंबा ने तत्परता से जवाब दिया, “नहीं साहब, हमने कोई कर्ज नहीं लिया है।”

उस गांव में अभी दोपहर नहीं हुई थी। गांव के एक किनारे पर बरगद की छांव में ईंटों का चबूतरा घेरा हुआ था, जहां बैठ कर वह उन चारों से बातें कर रहा था। खपरैल और फूस की छत वाले आस-पास फैले संतालों के घर भले ही छोटे-बड़े अलग-अलग आकारों के थे, लेकिन साफ-सफाई और बाहरी दीवारों पर सफेद, लाल तथा काली मिट्टी से बने पशु-पक्षियों और विभिन्न आकृतियों वाले कलात्मक चित्र समान रूप से आकर्षक थे। जो संतालों की पीढि़यों से चली आ रही चित्रकला का प्रत्यक्ष प्रमाण थे। इधर- उधर कुछ छोटे बच्चे, मुर्गियां, बतखें और बकरियां कूद-फांद कर रही थीं।

“तो इन कागजों पर तुम्हारा अंगूठा नहीं है क्या ?” उसने फाइल में रखे कागज निकाले।

रैरू चैतंबा ने अपनी नजरों पर जोर डालते हुए देखा ओर फिर सहमति में गर्दन हिलायी, “निशान तो मैंने ही लगाया था। लेकिन कर्ज के लिए नहीं ।”

“क़र्ज नहीं तो फिर किस बात के लिए ?” अलबर्ट तिर्की के स्वर में उपहास का पुट था। उसने उन लोगों को घेरना शुरू कर दिया।

“जो साहब रुपया देने आये थे, वो तो बोले थे कि हमें सरकार मदद दे रही है और वह रुपया हमको लौटाना भी नहीं पड़ेगा ।”

“मदद के लिए ?” अलबर्ट तिर्की फिर से चौंक, “मगर यह कर्ज तो तुमने मोटरसायकिल खरीदने के लिए लिया था।”

“क्या कहते हैं साहब ?” अब उपहास की बारी रैरू चैतंबा की थी, “अगर कर्ज ही लेना होगा तो हम खेती करने के लिए लेंगे या मोटरसायकिल चढ़ने के लिए। फिर हमको तो बैलगाड़ी चलाने के सिवा और कुछ आता नहीं मोटरसायकिल कैसे चलाएंगे ? आप अपना कागज ठीक से देखिए, उसमें जरुर कुछ गलती है। एक बार आप बोलते हैं, जो रुपया हम लिये हैं, वह सरकारी मदद नहीं कर्ज था और दूसरी बार बोलते हैं कि हम मोटरसायकिल चढ़ने के लिए कर्ज लिए हैं।”

अलबर्ट तिर्की को भी वह चक्कर कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसे मिले कागजों के आधार पर स्पष्ट था कि रैरु चैतंबा नाम के उस चालीस वर्षीय संताल ने कर्ज ले कर मोटरसायकिल ली और लगभग साल भर ई.एम.आई. की किस्तें देने के बाद किस्तें देनी बंद कर दीं। अब बकाया और उस पर ब्याज आदि लेकर वह लगभग पचास हजार का देनदार है। वैसा ही क़र्ज उसके साथ बैठे शेष तीनों ने भी ले रखा था।

“अगर तुमने कर्ज नहीं लिया तो साल भर किस्तें क्यों भरते रहे ?”

“साल भर किस्तें ? नहीं साहब, हम कोई किस्त नहीं भरे हैं।”

“तुम नहीं भरे तो कौन भरा ?” साम, दाम, दंड, भेद की सहायता लेता अलबर्ट कड़े स्वर में बोला।

परन्तु उधर से रैरू चैतंबा का वैसा ही शांत उत्तर आया, “अब हम का जानें साहब। जो मोटरसायकिल लिया होगा, वही किस्त भरा होगा । हम तो नहीं भरे हैं ।”

अलबर्ट तिर्की के लिए सब कुछ उलझता जा रहा था। उसने तो पहले किसी ऐसी स्थिति का सामना नहीं किया। उसके काम में अक्सर यही होता था कि कोर्ट-कचहरी, पुलिस आदि का डर दिखाने और समझाने-बुझाने के बाद सामने वाला अपना बाकी लोन दे दिया करता था। उसे ज्यादा से ज्यादा यही करना होता कि वह लोन लौटाने का समय अथवा किस्तों को पुनः संयोजित करवा दिया करता था। लेकिन यहां के लोन का तो चक्कर ही कुछ और था। उसे रैरू चैतंबा और उसके साथ बैठे लोग झूठ बोलते नहीं लगे । जरूर कुछ और गड़बड़ है ।

“अच्छा मुझे बताओ, वह कर्ज नहीं सरकारी मदद है, यह बात तुम्हें कैसे पता चली ?” उसने बात की तह तक जाने के लिए पूछा ।

“हमें तो उसी बाबू ने बताया, जो रुपये देने आया था ।”

“क्या कहा था, उसने ?”

“देखिए साहब, जब वह पहले आया था, तब यही बोला कि सरकार की तरफ से गांवों में क़र्ज बांटने आया हैं। हम लोगों को आसान किस्तों पर कर्ज मिल रहा है।”

“...तो तुमने क़र्ज लिया न।”

“नहीं साहब। वो हमसे बोला कि टी.वी., फ्रिज, मोटर सायकिल, टेबल-कुर्सी, सोफा आदि जैसी चीजों के लिए कर्ज मिल रहा है। उसकी बातों पर हमलोगों को तो हंसी आ गई। ई कोई शहर थोड़े न है, गांव है। वह सब चीज की तो शहर में रहने वालों को दरकार होती है। हमें तो अपनी खेती-बाड़ी, बीज-खाद, पशु आदि ऐसी ही चीजों के लिए क़र्ज की जरुरत होती है। या फिर कभी शादी-बियाह, पूजा-त्यौहार में। तब वह बोला, उन सब चीजों के लिए इस समय सरकार कर्ज नहीं देगी। कर्ज के लिए सरकार की अलग-अलग योजना होती है न इसलिए। अब हम गांव के अनपढ़-गंवार लोग सरकार की योजना क्या जाने ? बस हमने उसका कर्ज लेने से मना कर दिया।” रैरू चैतंबा इत्मिनान से बता रहा था। बाकी तीनों चुपचाप बैठे सहमति में सर हिला रहे थे। उन तीनों के नाम भी अलबर्ट तिर्की की फाइल में थे।

“तो, तुम लोगों ने कर्ज नहीं लिया?” अलबर्ट तिर्की पूरी तरह आश्वस्त होना चाहता था।

“नहीं, बिल्कुल नहीं। हम अपना देवता का कसम खा कर बोलते है। वैसे भी एक साल पहले कर्ज लेने के कारण चुरवा हंसदा के साथ जो हुआ था, उसके बाद हम लोग अब कर्ज लेने के बारे में सपने में भी नहीं सोचते। जब भूखे ही मरना है तो कर्ज ले कर बेइज्जत हो कर मरने से कहीं अच्छा है कि कर्ज ना ले कर इज्जत से मरें। हम गलत बोल रहे हैं का, साहब ?” उसकी बड़ी-बड़ी आँखें अलबर्ट पर टिकी थीं।

उसकी बात अलबर्ट की उत्सुकता जगाने वाली थी, कोई जवाब देने से पहले चुरवा हंसदा के बारे में जानना जरूरी था, “चुरवा हंसदा को क्या हुआ था ?”

“होता क्या, उसने बीज और खाद के लिए कर्ज लिया था। कर्ज तो उसे मिल गया, लेकिन बीज और खाद उसे अपनी मर्जी की दुकान से नहीं, बल्कि बैंक की बतायी गई दुकान से ही लेने पड़े। तब वह कोई बड़ी बात नहीं लगी थी। खेती-बुवाई के बाद भी सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। उस बरस पानी भी ठीक ही बरसा था । मगर पता नहीं क्या गड़बड़ हुई, उसकी सारी फसल खराब हो गई। वह हैरान परेशान था । उधर दुकान वाले ने उसे ही दोष दिया और कहा कि वह गलत तरीके से खाद डाल दिया। साहब हम लोग तो पीढि़यों से जंगलों में ही पैदा हुए और पलते रहे हैं। पेड़-पौधे कैसे उगते और कैसे फूल-फल देते हैं, यह हम नहीं जानेंगे क्या ? अब वो दुकान वाला हमको बतायेगा कि खेती कैसे की जाती है ? असल बात तो है कि उसके बीज और खाद में ही खोट था। वह अपना खोट छिपा रहा था। दूसरी तरफ बैंक वाले उसके सर पर सवार थे, बोले कि उन्हें फसल खराब होने से कोई मतलब नहीं, कर्ज तो चुरवा ने लिया है वह उसको हर हाल में लौटाना ही पड़ेगा। बैंक के आदमी उसके घर से दुधारू जानवर खोल कर ले गये और चुरवा हंसदा उस काली रात को अपने गले में फंदा लगा कर झूल गया।”

“बस, इतनी सी बात पर फाँसी लगा ली ? अरे वह फिर से कर्ज ले कर अपनी खेती या कोई और काम-धंधा कर सकता था ।” अलबर्ट तिर्की ने अपनी राय दी।

“साहब, यह इतनी सी बात नहीं है। आप लोगों के शहरों में जीने के लिए बहुत सारी चीजें होती हैं, लेकिन हमारे पास तो केवल इज्जत होती है। इज्जत एक बार ही जाती है। वह गयी तो फिर जीना किस काम का ?” रैरू ने बुझी आवाज में कहा।

चुरवा की कहानी सुन कर अलबर्ट तिर्की को झटका लगा। वह कुछ पल मौन रहा। लेकिन उन लोगों के कर्ज का चक्कर अभी भी अनसुलझा था ।

“...तो तुम लोगों ने उस आदमी से कर्ज नहीं लिया। वह आदमी चला गया ?”

“हां उस दिन तो वह चला गया था। लेकिन उसके एक हफ्ते बाद वह फिर आया और बोला कि इस बार वह सरकारी सहायता बाँटने आया है । अपनी-अपनी ज़मीन का कागजा़त ले कर आओ। हर एक को उसके हिसाब से सहायता मिलेगी । कम जमीन तो एक हजार, ज्यादा जमीन तो दो हजार और सबसे बड़ी बात कि हमको वह रुपया लौटाना भी नहीं पड़ेगा । तब हम चारों अपना जमीन का कागजात दिखा कर दो-दो हजार लिये। क्यों चतरु सोरेन, करमा मरांडी, बिन्दो मुरमू बताओ साहब को।”

“हां हुजूर, यही बात हुई थी।” उसके पास बैठे तीनों आदिवासी बोल उठे।

“उस आदमी ने तुम्हें सही नहीं बताया था। तुम लोगों ने कागजों पर अंगूठा लगा कर कर्ज लिया था, मुफ्त की सरकारी मदद नहीं समझे।”

“अब लिखा-पढ़ी की बात हम का जाने। हम तो वही जानते हैं, जो हमें बताया गया है।”

“तो फिर आज जान लो। तुम लोगों के नाम पर कर्ज है। वसूली तो तुम लोगों से ही करनी होगी न। कैसे भी हो तुम लोग थोड़ा-थोड़ा कर के लौटा देना, मैं तुम लोगों का किस्त कम करवा दूंगा, समझे।”

“साहब, आप भी कैसा बात बोलते हैं। जब हम लोग कर्ज लिये ही नहीं हैं तो लौटाना किस बात का?” बोलते हुए बिन्दो मुरमू की आवाज ज़रा तीखी हो गई थी।

“देखो, गुस्सा करने से काम नहीं चलेगा। मेरा तो काम ही है कर्ज वसूल करना, मेरी तुम लोगों से कोई दुश्मनी थोड़ी न है।”

“साहब ये तो ठीक बात नहीं है। कोई हमसे धोखा किया तो उसे पकड़ने की जगह आप हमसे ही गलत वसूली कर रहे हैं। आप क्या चाहते हैं, क्या हम भी चुरुवा हंसदा की तरह जान दे दें ?” रैरू चैतंबा की आवाज में निराशा झलक रही थी।

“तुम लोगों को कागजों पर देख-भाल कर अंगूठा लगाना चाहिए था। तुम्हारे कर्ज का सबूत ये कागज हैं। उस आदमी के धोखे का तुम्हारे पास कोई सबूत है क्या ?” अलबर्ट तिर्की का सीधा-साधा वसूली-कानून उसकी आवाज में बोल रहा था ।

“वाह साहब, वाह! आपका तो अच्छा न्याय है। हम तो कर्ज लेने नहीं गये थे, वो काहे आया था हमारे गांव ? आप भी सुन लीजिए, अगर हम चुरूवा हंसदा की तरह जान दे सकते हैं तो जान ले भी सकते हैं । हमसे जबरदस्ती मत कीजिएगा ।” बिन्दो मुरमू की आवाज में आग थी।

“अरे बिन्दो, ऐसा फालतू बात काहे कहता है । ई साहब का क्या दोष है ? तुम अपना मुंह बंद रखो, मुझे बात करने दो ।” कहते हुए रैरू चैतंबा ने बिन्दो मुरमू को मना किया और बोला, “साहब हम लोगों ने सारी बातें आपको बता दी हैं, अब आप ही बताइये हम लोग क्या करें ? क्या वह रुपया जमा करें जो हमने लिया ही नहीं ? दूसरे का कर्जा हमको देना होगा क्या ?”

उनकी बातें सुन कर अलबर्ट तिर्की किंकर्तव्यविमूढ़ रह गया था ।

तभी उधर से गुजरती एक फटेहाल महिला, जिसके सर पर पत्तों का गट्ठर था, को दिखाते हुए रैरू चैतंबा ने धीमी आवाज में कहा, “वह चुरवा की बेवा है। देखिए, अपनी जमीन और पति को खो कर अब कितनी कठिनाइ से जीवन बिता रही है।”

उसकी हालत बहुत दयनीय थी, “यह कोई काम क्यों नहीं करती ?”

“और क्या काम करेगी। हम संतालों में किसी स्त्री का हल चलाना, खेत को समतल करना, बरमा से छेद करना, कुल्हाड़ी चलाना, बंशी-काँटा से मछली पकड़ना, कपड़ा-खटिया आदि बुनना छप्पर छाना, तीर-धनुष चलाना, उस्तरे का उपयोग। आदि सब वर्जित है। बस इन पत्तों का दोना वगैरा बना कर गुजारा करती है।”

कुछ देर के मौन के बाद वह बोला, “अच्छा तुम लोगों ने जो बातें मुझे कही हैं, वही बातें बैंक में हमारे बड़े साहब से चल कर कहोगे ?”

“हां साहब, हम कहेंगे। जो सच है, वह कहने से डर कैसा ? जैसे भी हो हमारा माथा से कर्ज का यह दाग हटवा दीजिए।” चारों एक स्वर से बोल उठे।

“ठीक है, तुम लोग कल ग्यारह बजे तक बैंक आ जाना, मैं वहीं मिलूंगा। मैं पूरी कोशिश करूंगा, अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो कल तुम्हारे कर्ज माफ करवाने का उपाय कर लूंगा।” वे चारों बहुत खुश हुए।

वहां से निकल कर अलबर्ट तिर्की ततलोई की ओर चल पड़ा। शाम से पहले वह ततलोई और गौरियाडूबा दोनों गाँवों में जांच कार्य कर लेना चाहता था।

“वापस मेन रोड से जाइएगा तो बहुत देर लगेगी। उस रास्ते में सीधे चल कर आधा मील पर पहाड़ी के पास दाहिने मुड़ जाइएगा। सामने ही ततलोई है।” रैरू चैतंबा ने उसे सामने वाली राह दिखाई।

वह निकल पड़ा। अपनी समझ से वह बिल्कुल रैरू की बतायी राह पर आया था, लेकिन पता नहीं कहां एक गलत मोड़ ले बैठा। और अगले दो घंटों तक वह जंगल में ही भटकता रह गया, ततलोई नहीं पहुँचा। वही जंगल में उसे गायें चराते कुछ कुछ बच्चे मिले, जिन्होंने उसे सही राह बतायी और वह दोपहर ढलने पर ततलोई पहुंच पाया, वहां उसे दोपहर में ही पहुंच जाना चाहिए था।

“कईला सोरेन घर पर है क्या ?” पूछ-पाछ कर उसने दरवाजा खटखटाया।

थोड़ी देर बाद आ कर जिसने दरवाजा खोला, वह कईला सोरेन की पत्नी थी, “नहीं वो तो नहीं हैं। काम से मिहिजाम गये हैं। आप कौन हैं ?”

“मैं बैंक से आया हूं।” उसके स्वर में निराशा थी। इतनी कठिनाई से वह आ पाया और जिससे मिलना था, वही गायब है, “ठीक है, मैं परसों फिर आऊँगा। आप उससे कहिएगा, घर पर ही रहे।”

“ठीक है मैं बोल दूंगी। लेकिन आप परसों नहीं, अगले सोमवार को आइएगा। वह इतवार को आयेंगे।”

“अच्छा।” कह कर वह लौट पड़ा। डूबते सूरज वाली शाम की लालिमा से भरे आकाश में पंछी अपने घोसलों को लौट रहे थे। सूरज की रोशनी के सामने आये बादल आकाश पर अजीब-अजीब अकृतियां बना रहे थे। प्रकृति की सुंदरता अपना रूप दिखा रही थी। ऐसा साफ आकाश तो गाँवों की खुली-खुली हरियाली में ही मिलता है। शहर में तो सिर उठाने की भी फुर्सत नहीं मिलती। वह दृश्य देख कर उसके दिन भर की थकान मिट गयी थी। वह मोटरसायकिल चलाते हुए अपना पसंदीदा गीत गुनगुनाने लगा। शाम गहराने से पहले वह अपने कमरे पर लौट आया था।

अगले कई सप्ताह वह इसी तरह इस गाँव से उस गाँव घूमता, अपने काम में व्यस्त रहा। अपनी कार्यवाही के दौरान जितने भी फंसे हुए लोन नन रिकवरी के केस थे, चाहे रानीघाघर हो या गौरियाडूबा, कुमारडीहा हो या पत्ताजोड़ी, तातलोई हो या कुंडाहित, उसको लगभग वैसी ही बातों का सामना करना पड़ा। अगर उनके नाम से कर्ज पचास हजार पास हुआ था, तो उन आदिवासियों को हजार-पाँच सौ दे कर शेष रकम कहीं और हड़प ली गई थी। सरकारी रकमें तो कई तरीकों से हड़पे जाने के केस उसने देखे थे, लेकिन वह तरीका उसके लिए सर्वथा नया था।वह हैरान हो रहा था....ये तो करोड़ों के हेर-फेर का चक्कर था।

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एक रात टिन बाजार चौंक के रास्ते में बंगाली मालिक के ग्रीन होटल से तीन तंदूरी रोटियां और एक प्लेट तड़का खाने के बाद जब वह अपने कमरे में बिस्तर पर लेटा, तो उसकी आदत के प्रतिकूल नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। काफी देर तक वह बस करवटें ही बदलता रहा था, उसे नींद नहीं आयी। तब उसने फोन उठाया और राँची में शिवनाथ प्रसाद का नंबर लगाने लगा।

“अरे यार, यहां संताल परगना में अजीब-अजीब केस हैं। भोले-भाले आदिवासियों को पता भी नहीं और उन पर पचास-साठ हज़ार का लोन चढ़ा हुआ है।”

“स्साले, सपना देख रहे हो क्या ?” उधर से शिवनाथ प्रसाद ने हंसते हुए कहा, “कहीं ऐसा भी हो सकता है, कि बैंक से लोन लो और पता न चले ?”

“अगर कोई और आपको ला कर दे रहा हो ? वह भी आपके घर में ला कर और आपको केवल अंगूठा लगाना हो, तब ?”

“तब भी यह तो पता चलेगा ही न कि कर्ज ले रहे हैं!” शिवनाथ प्रसाद चिल्लाया था।

“यही तो कलाकारी है। पहले-पहल मैं भी तुम्हारी तरह चिल्लाया था। जब आराम से बैठ कर पता किया तो विचित्र ही कहानी सामने आ रही है। उन सबको कंज्यूमर लोन के अंतर्गत मोटरबाईक, टी.वी., डी.वी.डी. आदि जैसी चीजों के लिए लोन दिये गये हैं। मगर उसे ला कर देने वाले एजेन्ट द्वारा कुछ और ही बताया गया है।”

“कुछ बताया तो गया है...”

मगर अलबर्ट तिर्की ने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा, “...बताया गया है कि उन्हें खेती के लिए सरकार मदद दे रही है और वो रुपये उन्हें लौटाने भी नहीं होंगे। यह कह कर उन्हें हज़ार-पाँच सौ रूपये दे, कागजातों पर अंगूठे लगवा लिए गये। उन सरल और सीधे-साधे आदिवासियों ने अंगूठा लगाया, रूपये लिए और अपने-अपने घर चले गये। मूढ़ी और नमक-मिर्च के साथ दस-पाँच रुपये की पोचई (चावल की देसी शराब) पी कर आनंद में डूब जाने वालों के लिए तो हज़ार-पाँच सौ रुपये एक साथ पाना बहुत बड़ा जश्न हो जाता है।”

“यह तो अनोखा तरीका है यार। बाकी रूपयों का क्या होता है, वे कहां जाते हैं ?” वह सब सुन कर अब शिवनाथ प्रसाद की आवाज भी धीमी हो गई थी ।

“यह अभी पता नहीं चला है । पता चलते ही तुम्हें बताऊँगा ।” अलबर्ट तिर्की ने कहा।

“अब तुम्हारी क्या योजना है ? ऐसे में उनसे कर्ज कैसे वसूलोगे ?”

“कर्ज वसूली का प्रश्न ही कहां है ! तीन-चार महीने खेती और बाकी समय इधर-उधर मजदूरी कर अपना जीवन बसर करने वालों से कर्ज की वसूली कहां हो पायेगी, यार। अभी तो उन लोगों को कर्ज माफी के लिए बॉस से मिलाने की योजना है, फिर देखता हूं, क्या होता है।” कह कर अलबर्ट ने फोन काट दिया।

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अगले दिन नियत समय पर रैरू चैतंबा, चतरु सोरेन, करमा मरांडी, बिन्दो मुरमू उसके पास जा पहुंचे। वह जब उन्हें बेंच पर बैठा कर मैनेजर के कमरे की ओर बढ़ा, तब तक बीच वाली काँच की दीवार से हो कर मैनेजर मिस्टर पी.के.दत्ता की नजर उस पर पड़ चुकी थी। उनके कमरे में घुस कर अलबर्ट ने अभिवादन किया ।

“वे लोग कैन हैं ?” मिस्टर दत्ता ने पूछा।

“सर मैं लोन रिकवरी के लिए इन्हीं लोगों से मिलने गया था। इन पर बैंक का कर्ज है। लेकिन ये सब अपने कर्ज के बारे में बड़ी अजीब बात बताते हैं।” फिर उसने मिस्टर दत्ता को सारी बातें बतायीं।

मिस्टर दत्ता ने एक नजर बाहर बैठे उन चारों पर डाली और फिर अलबर्ट को देखने लगे, बोले कुछ नहीं।

अलबर्ट ने पूरे आत्मविश्वास और अपनी बातों से जादुई असर डालने की अपनी पूरी क्षमता का प्रयोग करते हुए कहना जारी रखा, “सर, वे इतने गरीब हैं कि साल भर खाने का अन्न भी अपनी खेती से नहीं उपजा सकते हैं। खेती का समय न होने पर वे इधर-उधर मजदूरी आदि कर के अपना काम चलाते हैं। ऐसी स्थिति में उनसे कर्ज वापसी का कोई उपाय नहीं है। सबसे प्रमुख बात तो यह है कि उन आदिवासियों के साथ धोखा हुआ है। उन्हें तो वह रकम मिली ही नहीं जिसे चुकाने के लिए कहा जा रहा है। इसलिए मेरी रिक्वेस्ट है कि उनके कर्जे माफ करने का कोई उपाय किया जाए। साथ ही उस ऐजेन्ट का पता लगा कर उस पर कार्यवाही की जाए, जिसने धोखा किया है।”

मिस्टर दत्ता ने पहली बार मुँह खोलते हुए पूछा, “क्या वे लोग उस एजेन्ट का नाम बता रहे हैं?”

“नहीं सर। वे उसका नाम नहीं जानते। वे तो यह भी नहीं जानते थे कि उन पर कर्ज है।”

उसका उत्तर मिस्टर दत्ता को इत्मिनान देने वाला था। उनके हाव-भाव से यही लग रहा था कि उन्होंने बड़े ध्यान से उसकी बात सुनी है। सामने रखे ग्लास को उठा कर उन्होंने दो घूंट पानी पिया, फिर अपना निर्णय सुनाया, “मिस्टर तिर्की, आपकी बातों से सहमत होने का कोई कारण मुझे नहीं दिखता। हमारे धंधे में कर्ज देने के बाद वसूली होती है, माफी नहीं । हमने कर्ज देना था, दे दिया, अब वसूली करनी है तो करनी है बस। अब कर्ज दिलाने वाले एजेन्ट ने उन लोगों से क्या झूठ-सच कहा, क्या नहीं, यह जानने में न तो हमारी दिलचस्पी है और न ही हम जानना चाहते हैं। और आपकी दिलचस्पी भी केवल कर्ज वसूली में होनी चाहिए। वैसे भी आपकी बहाली बैंक द्वारा की गई है न कि उन आदिवासियों द्वारा। आप जितनी अच्छी तरह मुझे कन्विंस कर रहे हैं, वह मेहनत उन्हें समझाने में करें। ओ.के ?”

उनके उस उत्तर से अलबर्ट को झटका-सा लगा। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे उस तरह का टका-सा जवाब मिलेगा। उससे कुछ भी और बोलते न बना। वह चुपचाप बाहर निकल आया। उसने एक नजर बेंच पर बैठे उन चारों पर डाली। वे बड़ी आशा से उसे ही देख रहे थे कि अब शायद उन लोगों को मैनेजर साहब बुला कर सच पूछेंगे। लेकिन अलबर्ट का बुझा चेहरा देख कर वे चुपचाप उठ खड़े हुए।

“देखो, अभी तुम लोग जाओ। मैं कुछ करूंगा। तुम लोगों के लिए जरूर कुछ करूंगा।”

“मैनेजर साहब को बताने की बात थी।” रैरू बोला।

“... वो मैंने बता दिया है, अभी तुम लोग जाओ।” वह उन्हें भी निराश नहीं करना चाहता था, अलबर्ट खामोशी से मुड़ा और अपनी सीट पर जा बैठा।

अलबर्ट ने सोचा था कि उस एजेन्ट की खोज-खबर लेने की बात होगी, संतालों की सहायता कैसे की जाए, इसकी बात होगी। लेकिन उसके लिए मैनेजर का वह रवैया चैकाने वाला था। उसने कितनी आशा से उन चारों को बुलाया था।

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विद्यार्थी जीवन में पढ़ाई-लिखाई अच्छी होने के कारण अलबर्ट तिर्की को पढ़ाई के बाद बहुत जल्द ही नौकरी मिल गई थी। यूं कहा जाए कि उसे बेरोजगारी के दिनों की तकलीफों के अनुभव से वंचित ही रह जाना पड़ा था। अभी नौकरी में आये उसे बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ। या यूं कहा जाए कि अभी वह नौकरियों में वेतन के अलावा वाला धन पीटने के व्यवहारिक ज्ञान से भी वंचित था। इसलिए कर्ज के बाकी हिस्से का पता चलाने में लग गया। वह जहां और जिस पद पर था। वहां उसे वह सब जल्द ही पता चलना था और पता भी जल्द ही चला। जब एक दिन मुस्कराते हुए सुंदर बाबू उसके केबिन में घुसे थे।

“प्रणाम सर। हें...हें...हें आपके दर्शन करने चला आया।” मुँह में पान खाये भद्दे दाँतों के साथ हाथों की आठ अंगुलियों में विभिन्न रत्नों वाली अंगूठियां चमक रही थीं।

‘बैठिए’ के जवाब में उसने फिर वैसे ही कृत्रिम हंसी के साथ कहा, “सर, आपसे पहले जो साहब लोन सेक्शन देखते थे, उनसे मेरा बहुत अच्छा संबंध था। उन्हीं की कृपा से मेरा दाना-पानी चलता था। अब आपकी कृपा से मेरा दाना-पानी वैसे ही चलता रहेगा। हें...हें...हें...।” सुंदर बाबू की चापलूस हंसी उनके पूरे चेहरे पर कीचड़ की तरह फैली हुई थी। सुंदर बाबू के आने और बातें करने के ढंग ने अलबर्ट को सजग कर दिया।

उनके अभिवादन का जवाब दे कर उसने कहा, “भला मैं कौन होता हूँ, आपका दाना-पानी रोकने वाला ? बताइये, आपके लिए क्या कर सकता हूं ?”

“सर, लोन के केस में आदिवासियों के लोन पर पिछले वाले साहब का दस और नॉन-आदिवासियों के लोन पर तीन परसेंन्ट था। मेरी तो प्रार्थना है, वही सिस्टम आगे भी चलता रहे।”

अलबर्ट तिर्की को समझने में देर न लगी, वह संभल कर बैठ गया। उसके सामने एक रहस्य खुलने वाला था। उसने और विस्तार से जानने के लिए पूछा, “तीन और दस, इतना ज्यादा फर्क ?”

“सर आप तो जानते ही हैं, आदिवासियों को इस बात से मतलब नहीं रहता है कि क्या सामान के लिए और कितना लोन है। उन्हें जितने रुपये दे दिये जाते हैं, वे चुपचाप रख लेते हैं। उनके केस में दो-चार हजार से सारा मामला सेट हो जाता है। फिर अपनी फोटो खिंचवाने और अंगूठा लगाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। वे लोग ज्यादा खोज-बीन नहीं करते।”

सारा मामला जान कर अलबर्ट तिर्की का मन किया, सुंदर बाबू को उठा कर बाहर फेंक दे। लेकिन उसने अपने आप पर नियंत्रण रखा और उन्हें चलता किया, “ठीक है सुंदर बाबू, अभी तो मैंने यहां ज्वाइन ही किया है। जरा यहां का काम-धाम समझ लूं, फिर किसी दिन आपके साथ बैठ कर विस्तार से चर्चा करेंगे।”

लेकिन घाघ सुंदर बाबू उसके कक्ष से निकलते हुए यह जान गया था कि उसका दाना-पानी अब उठने को है। वह मन ही मन बुदबुदाया, “कोई बात नहीं, अगर इतने पर आप नहीं मानेंगे तो कमीशन बढ़ा दूंगा, आखिर आप जाएंगे कहां ? “

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उप-राजधानी दुमका में पिछले पाँच घंटों से बिजली नहीं होने के कारण शाम से ही चारों तरफ अंधेरा हो गया था। अलबर्ट तिर्की अपने मोबाइल की रोशनी में नंबर लगा रहा था। दूसरी तरफ नियोन लाईट, वेपर लाईट, हाईमास्ट लाईट आदि के चुंधियाते कृत्रिम प्रकाश में चम-चम करती राजधानी राँची के व्यस्ततम फिरायलाल चौंक के पीछे बनी बहुमंजिली इमारत के अपने छोटे से फ्लैट में शिवनाथ प्रसाद सोने से पहले बिस्तर पर आराम से लेटा ‘लेट-नाईट मूवी’ देख रहा था, जब उसका फोन बजा। ...और अलबर्ट तिर्की एक बार फिर शिवनाथ प्रसाद से बातें कर रहा था। उसकी आवाज में कर्ज के रहस्य को जान लेने के उत्साह के साथ-साथ आदिवासियों के साथ किये जा रहे धोखे का दुख भी था।

“...होता यह है कि सारी चीजें बड़ी ही सफलता से ऐजेंटों के द्वारा संचालित की जाती हैं। सामान ले कर वे बेच देते हैं। कई बार तो दुकानदारों से सांठ-गांठ कर सारी खरीद केवल कागजातों पर ही दिखा दी जाती है। इस तरह सीधे-सरल आदिवासियों को मूर्ख बना कर बेईमानी से कमाया गया कमीशन, ऐजेंटों से ले कर अधिकारियों तक पूरी ईमानदारी से बाँटा जाता है। उधर बैंक रिकार्ड में बकाया उन आदिवासियों के ही नाम पर चढ़ा होता है। अब रिकवरी तो होगी ही । इस प्रकार देखा जाए तो उन लोगों से लोन रिकवर किया जाना है, जिन्होंने कर्ज लिया ही नहीं। जिनके तन पर ठीक-ठाक कपड़ा भी नहीं होता, वे भला हजारों का कर्ज कहां से चुकायेंगे ? जिनकी जिन्दगी अनिश्चितताओं से भरी है। अगर निश्चित हैं तो केवल कठिनाइयां ही। शेष तो उनके जीवन में बस अनिश्चितताओं और आभावों का तूफान होता है।”

वह सब सुन कर कुछ पल शिवनाथ प्रसाद भी हतप्रभ रह गया था फिर बोला, “अब इसमें तो कुछ नहीं किया जा सकता । कर्ज तो उन्हें चुकाना ही होगा।”

“क्यों नहीं किया जा सकता ? क्या कह रहे हो, क्या उन सरल आदिवासियों को इसी चक्कर में छोड़ दिया जाना चाहिए ? नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।” बोलते-बोलते अलबर्ट तिर्की का स्वर अजीब सी दृढ़ता से भर गया था।

“देखो, तुम्हें ज्यादा परेशान होने की कोई जरुरत नहीं है। छल-फरेब करने वाले और ऐसे क़र्जों के चक्कर में डालने वाले वे लोग कभी भी अकेले नहीं होते। तुम्हारे उस कुटिल सुंदर बाबू के साथ और भी लोग होंगे, तुम खामख्वाह किसी मुसीबत में न पड़ जाना। मेरी मानो तो चुपचाप अपना काम करो। अगर वहां काम करने में कठिनाई हो रही हो तो अपना ट्रांस्फर कहीं और करवाने की कोशिश करो।” शिवनाथ प्रसाद ने उसे समझाया था।

“...और अगर उस नयी जगह भी ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करना पड़ा तो ?” अलबर्ट तिर्की के उस प्रतिप्रश्न के बाद शिवनाथ प्रसाद कुछ नहीं कह सका था।

उस बातचीत के बाद एक लंबे समय तक अलबर्ट तिर्की ने कोई फोन नहीं किया । ना ही शिवनाथ प्रसाद उसे कर सका । हां, उनके मोबाइलों के बीच की हवाओं पर यदा-कदा कुछ एस.एम.एस. जरूर तैरते रहते । लेकिन शिवनाथ प्रसाद के मजेदार और गॉर्जियस एस.एम.एस. के जवाब में भी अलबर्ट तिर्की बड़ा ठंढा बना रहता। मस्त-मौला अलबर्ट पहले तो वैसा नहीं था। उसके वैसे रवैये से शिवनाथ प्रसाद को कुछ असामान्य-सा लगता रहता, लेकिन क्या....? उसे पता न चल पाता।

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ऐसे ही एक बार तातलोई गांव में घूमते हुए उसने कुछ संताल औरतों को कपड़ों के नाम पर चीथड़ों में देखा। बस उसके मन में उथल-पुथल होने लगी। कहते हैं कि गाँधी जी ने ऐसे ही किसी दृश्य को देख कर अपनी सारी उम्र केवल लंगोटी के साथ बिता दी। अलबर्ट तिर्की ने वैसा कुछ नहीं किया लेकिन अपने वेतन से खरीद कर रैरू चैतंबा के हाथों चुरवा हंसदा की पत्नी को साड़ी जरूर भेज दी।

कभी-कभी वह पूरे उत्साह में शिवनाथ प्रसाद को फोन कर बैठता, मगर उसका जवाब ठंढा होता। “क्या जरुरत है तुम्हें उन लोगों के पचड़ों में पड़ने की। अपना मन दूसरी मजेदार चीजों में लगाओ। साइबर कैफे में बैठ, हवाओं में फैली नीली-पीली, हरी-गुलाबी एक से एक मस्त-मस्त वेब-साइटों पर नेट-सर्फिंग करो। या फिर मोबाइल से सच्ची मित्रता का दम भरने वाले नंबरों पर फोन करके अपने अकेलेपन का मजा लो, वहां एक से एक मस्त लड़कियां मित्रता करने को चैबीसों घंटे तैयार रहती हैं। सिलसिला आगे बढ़े तो वीक एण्ड में डेटिंग-फेटिंग पर भी निकल लो। अब कुछ को यूं कपड़े दे कर, उन पर कुछ खर्च कर के तुम कौन-सा तीर मार रहे हो। फालतू की बातों में पड़ोगे, तो कहीं के नहीं रहोगे।”

...और अलबर्ट तिर्की सच में कहीं का नहीं रहा था। अपनी नौकरी से इतर कारणों के लिए भाग-दौड़ के उन प्रभावों और सीधे-साधे आदिवासियों के संपर्क में उसके अंतर्मन का कायांतरण हो रहा था। कर्ज वसूली छोड़ कर वह उनको इस मुसीबत से बचाने के उपाय ढूंढने में व्यस्त रहने लगा था।

अपने बॉस से तो उसे निराशा ही मिली थी, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। अगले प्रयास में उसने कई दिनों तक गोड्डा, दुमका, जामताड़ा, मिहिजाम आदि जगहों की खा़क छानी। वहां आदिवासियों की सहायता के नाम पर चलने वाले कई एन.जी.ओ. कार्यालयों के चक्कर लगाए। इस आशा से कि आदिवासियों के नाम पर लाखों करोड़ों कमाने और खर्च करने वाली संस्थाएं, शायद कहीं से उन कुछ संतालों का कर्ज चुकाने का प्रबंध कर सकें। लेकिन उन संस्थाओं से मिले अनुभव तो और भी निराशाजनक थे। वह देख कर हैरान रह गया कि एन.जी.ओ. चलाने वालों की पहली प्राथमिकता उनका अपना फायदा था, वैसा करने के लिए अगर आदिवासियों का कुछ हित हो जाए तो हो जाए । हर जगह उसे लगभग एक सी निराशा ही मिलती रही। वह सब देख कर वह टूटने लगा था। उसका मन उसका साथ छोड़ता-सा लगने लगा था। हां, बिना मांगे हर जगह उसे यह सलाह जरूर मिल जाती कि वह उन फालतू के पचड़ों में पड़ने की जगह चुपचाप अपना काम करे। उसके सहकर्मियों ने भी उसे समझाने का बहुत प्रयास किया। लेकिन उन समझाने वालों के लिए वह तब तक कुत्ते की पूंछ बन चुका था, जो अब कभी सीधी नहीं हो सकती थी।

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उधर से निराश हो कर उसने उन आदिवासियों को सारी स्थिति समझानी चाही। वह चाहता था कि वे अपनी समस्या ले कर कोई सार्थक और बड़ा कदम उठायें। उसने उन्हें अपने विधायक से मिलने और मदद माँगने की बात कही।

“तुम लोग जानते हो न कि तुम्हारे साथ धोखा हुआ है।” एक दिन वह रैरु चैतंबा को समझा रहा था, “तुम सब मिल कर इसके खिलाफ कुछ करते क्यों नहीं ? अपने विधायक से क्यों नहीं मिलते ?”

रैरू चैतंबा की उदास आँखों में मायूसी कुछ और गहरी हो गई, “साहब हम गरीब लोग क्या कर सकते हैं ? अब हमें तो कुछ भी नहीं सूझता। इतने संघर्षों के बाद अपना झारखंड बन गया है, यह सोच कर बहुत खुशी होती थी। झारखंड बनने से पहले तो पता भी नहीं होता था कि अपने इलाके का विधायक कौन है ? विधायक कैसा होता है ? मगर अब तो जिसे हमने बचपन में अपने सामने खेलते देखा होता है, वह विधायक बन जाता है। लेकिन इससे क्या हुआ ? हम और हमारी तकलीफें तो वहीं के वहीं रह गये, जहां झारखंड बनने से पहले थे। पहले शिकायत भी कर लेते थे। अब तो यहां मंतरी और संतरी सब अपने हैं, किससे शिकायत करें ?”

“क्या इस बात को ले कर तुम लोग पहले उससे मिल चुके हो ?” अलबर्ट ने पूछा।

“इस बात के लिए तो नहीं लेकिन कुछ और बातों के लिए कई बार मिलना हुआ है। इतना दिन में एक बात तो हम जान गये हैं कि राजा, राजा होता है चाहे कहीं का हो और परजा, परजा होती है हर जगह।”

अलबर्ट तिर्की ने उन लोगों में एक गहरी निराशा और खामोश उदासी देखी, जिसका कोई अंत नहीं था। परन्तु उनके वैसे उत्तरों के बावजूद उसने उन्हें समझाना जारी रखा। उसे अपने स्तर से पता चला कि उस इलाके के पूर्व सांसद काफी अच्छे आदमी हैं। एक सुबह वह उनके घर जा पहुँचा लेकिन मुलाकात नहीं हुई, वे पंद्रह दिनों के लिए दिल्ली गये हुए थे। वह खाली हाथ लौट आया।

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लेकिन अलबर्ट तिर्की की हरकतें सुंदर बाबू के साथ-साथ कुछ और भी लोगों को नागवार गुजर रही थीं। उस शाम रानीघाघर से लौटते हुए मेन रोड पर चढ़ने से कुछ पहले पेड़ों के झुरमुट में उसे रोक लिया गया था। वो भी हाथ दिखा कर नहीं, बल्कि अपनी सुमो से उसकी बाईक को बगल से ठोक कर। उसकी गति बहुत धीमी थी और वहां की मिट्टी नरम, इसलिए कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ। जब वह उठ कर अपने कपड़े झाड़ रहा था, उसे अपने पीछे से उठने वाली गालियां सुनाई दीं, जो पास आती जा रही थीं।

गुंडे जैसा दिखने वाला एक मोटा आदमी उसके सामने था। जिसके दांये गाल पर चाकू के पुराने घाव का निशान उसके चेहरे को भद्दा बना रहा था, “अबे स्साले बहुत स्मार्ट बनते हो। सीधे-साधे आदिवासियों को उल्टी पट्टी पढ़ा रहे हो। यहां के नेता हम हैं समझे। उन्हें जो भी और जैसा भी समझाना होगा, हम समझाएंगे। उन्हें खेती-किसानी करने दो, नेतागिरी नहीं। आगे से कभी किसी को उलटी-पट्टी मत पढ़ाना। और हां सुंदर बाबू जैसा बोलते हैं, चुपचाप करते चलो नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं। हमारी पहुंच यहां से राँची तक है । तुम्हें आखिरी मौका दे रहे हैं, समझे ।”

अलबर्ट तिर्की को कहीं शारीरिक चोट तो नहीं लगी थी, लेकिन मानसिक पीड़ा से वह उस रात बहुत बेचैन रहा । उसने शिवनाथ प्रसाद से बात करनी चाही । मगर उसका नंबर डायल करने पर हर बार उधर से वही टेप सुनाई देता रहा, “इस समय उपभोक्ता का मोबाइल स्विच आफ है, कृपया थोड़ी देर बाद डायल करें।”

अपनी मानसिक पीड़ा को उससे बांट कर वह हल्का होना चाहता था, लेकिन वह संभव न हो सका । तब उसने एक एस.एम.एस. किया और नींद की दो गोलियां खा कर सो गया।

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ऐसी बातें भला कब छुपती है ? वह भी तब जबकि कई-कई लोगों के स्वार्थों से जुड़ी हुई हों, ढेर सारे रुपयों से जुड़ी हुई हों, नफा-नुकसान से जुड़ी हों । और फिर उसकी गतिविधियां तो रुकने की जगह उल्टे बढ़ने लगीं थीं। एक तरफ वह अपने मिस्टर दत्ता से निराश होने के बाद अन्य अधिकारियों में संभावनाएं तलाश रहा था, तो दूसरी तरफ सचमुच आदिवासियों की चिन्ता करने वाले किसी सच्चे एन.जी.ओ. की तलाश में लगा हुआ था। उसकी सुबह होती तो उन्हीं चिन्ताओं को ले कर और रात होती तो भी वह उन्हीं चिन्ताओं में उलझा रहता। आदिवासियों के लिए भाग दौड़ कर भले ही अलबर्ट तिर्की अपने मन की तसल्ली पाता रहा हो, लेकिन उसका अपना लोन रिकवरी का काम बाधित होने लगा था। उसके टार्गेट पिछड़ने लगे थे। वैसे भी अन्य अधिकारियों की तलाश उसके आस-पास के दत्ता जैसे अद्दिकारियों की बेचैनी बढ़ाने लगी थी। बेचैनी तो मोटे गुंडे जैसे उन छुटभैये नेताओं की भी बढ़ने लगी थी। जिसका परिणाम हुआ कि उसके विरोधी भी अचानक ही बहुत सक्रिय हो गये। उसे एक साथ दो-दो शो-कौज नोटिस मिले। एक लिखित, एक मौखिक। बैंक से लिखित कि टार्गेट पूरा न करने के लिए उस पर विभागीय कार्यवाही क्यों न की जाए ? और उन तथाकथित नेताओं से मौखिक कि फिर उसने सीधे-साधे आदिवासियों को बरगलाया, तो उसके हाथ-पैर तोड़ दिये जाएंगे।

वह एकाएक ही दबाव में आ गया था। बैंक की बात तो फिर भी ठीक थी, क्योंकि वहां से उसे वेतन मिलता था। वसूली के इस जमाने में जब घर के लिए, दुकान के लिए, गाड़ी के लिए, दुपहिया-तिपहिया आदि सब के लिए कर्ज, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड और न जाने क्या-क्या बांटने और फिर उनकी वसूली की जरूरत है। वसूलियों के इस जमाने में जहां हर चीज वसूली की सफलता पर निर्भर करती है, वहां वसूली न कर पाने वालों को कौन पसंद करेगा ? लेकिन हाथ-पैर टूटने वाली बात उसे ज्यादा चुभी थी और वह उस चुभन के खिलाफ तन कर खड़ा हो गया था। अब भला इस ज़माने में ज़हरीली हवा के खिलाफ भी कहीं खड़ा हुआ जाता है ? वह भी तन कर ? बैंक की नोटिस का जवाब आदि तो कागज पर होता रहता, लेकिन दूसरी नोटिस का जवाब देना उसके लिए कठिन साबित हुआ।

समस्या के समाधान के लिए वह जिस तरफ भी बढ़ता, कुछ दूर जा कर उसका रास्ता बंद हो जाता। मुश्किलों के बंधन से निकलने के लिए जितने भी हाथ-पैर मारता, उन बंधनों की जकड़ और भी बढ़ जाती। वह उसके जीवन में गहरी उदासी और सुलगते अंधेरों वाले दिन थे। ऐसे ही निराशा भरे दिनों की एक शाम रानीघाघर से लौटते हुए उसने आदिवासियों का साप्ताहिक हाट देखा। वैसे हाट राँची के अपने इलाके में उसने पहले कभी नहीं देखे थे। आस-पास के कई गाँवों के लोग अपनी जरूरत की चीजें खरीदने-बेचने के लिए वहां जमा होते थे। दोपहर ढलने को थी।उसने समय देखा अभी दुमका लौटने में काफी समय है। वहां घूम-फिर कर अपना मन बहलाने की सोच उसने मोटरसायकिल एक तरफ खड़ी की और उत्साहित मन से हाट में देखने लगा। हाट में बड़ी भीड़ थी। गाँव के हाट शाम होने से पहले ही खत्म हो जाते हैं, ताकि लोग रात से पहले अपने घरों को लौट सकें। इसलिए लोग जल्दी-जल्दी अपनी जरूरतों की चीजें खरीद रहे थे। सामान्य सब्जी-भाजी, चावल-दाल, बर्तनों, खिलौनों, कपड़ों की दुकानों के अलावा महिलाओं के बनाव-सिंगार की भी दुकानें देखना उसे चकित कर गया। लेकिन वह एक भरा-पूरा हाट था। कुछ आगे जाने पर उसने देखा, एक खरीददार महिला अपने थैले से आलू निकाल कर दुकानदार को दे रही थी, जिसके बदले में वह उसे मसाले तथा वैसी कुछ और चीजें दे रहा था। हालाँकि वह महिला बीच-बीच में बोल कर हस्तक्षेप कर रही थी, लेकिन उसे आलुओं के बदले में कितना और क्या-क्या मिलेगा, यह पूरी तरह से उस दुकानदार के द्वारा तय हो रहा था। उसे आश्चर्य हुआ कि वस्तु विनिमय का प्रचलन अभी भी जिन्दा था। वैसा ही वस्तु विनिमय का वह चलन, उसने हाट में कई जगहों पर देखा। उसे घूमते-धूमते काफी देर हो गई, वह लौटने को मुड़ा। हाट भी अपने अंत की ओर था।

तेल बेच रही एक औरत के पास कोई तराजू-बटखरा न देख उसने पूछा, “तेल कैसे नापोगी ?”

उसने पास रखे पीतल-कांसे के लोटे नुमा छोटे बर्तन दिखाते हुए कहा, “ये पईला न है बाबू । एक पाव, आधा सेर और एक सेर का ।”

“सेर है, किलो नहीं ?” उसने उत्सुकता से पूछा।

“नहीं बाबू, यहां तो सेर ही चलता है। किलो तो आपके शहर में चलता है।” उसने हंसते हुए कहा। उसकी हंसी बता रही थी, वह जानती है, अलबर्ट को तेल नहीं लेना है। वह अपनी दुकान समेटने लगी।

अलबर्ट अभी पीछे मुड़ा ही था कि किसी ने गाली देते हुए एक जोर का मुक्का उसके चेहरे पर मारा।

वह गिर पड़ा। उसे पूर्व में धमकाने वाला, भद्दे चेहरे वाला, मोटा गुंडा अपने कुछ आदमियों के साथ उसके सिर पर खड़ा है ।

अभी वह कुछ समझ पाता, उसके पहले ही उसने उसका कालर पकड़ कर उठाया, “स्साले, आदिवासी औरतों की इज्जत नहीं होती है क्या ? छेड़खानी करते हो ।”

दरअसल अलबर्ट तिर्की जब से हाट में घुसा था, तभी से वह उन सब की आँखों में था। अलबर्ट का यूँ ही हाट में आ जाना उनके लिए लाटरी लगने के समान था। और अब जो भी हो रहा था, वह सब उनकी योजना के अनुसार ही हो रहा था।

“नहीं, नहीं बाबू। यह तो हमसे कोई छेड़खानी नहीं किया....” उस तेल बेचने वाली ने विरोध किया।

“तुम भागो यहां से नहीं तो....” मोटे की कड़कती आवाज के बाद वह औरत वहां नजर नहीं आयी।

“देखिए, आपलोग मुझ पर गलत आरोप लगा रहे है।” अलबर्ट ने अपने होंठों से निकलते खून को पोंछते हुए कहा।

“हमलोग गलत बोल रहे हैं और तुम हरिश्चंद्र की औलाद हो। स्साले हमको बुद्धू समझते हो क्या?”

आस-पास भीड़ जुट चुकी थी। जिसे मोटे और उसके साथी जोर-जोर से बता रहे थे। उसे भरे हाट में पकड़ा जा चुका था। मार-पीट, गाली-गलौज और तरह-तरह से जलील करने के साथ-साथ उस पर संताल महिलाओं को फुसलाने और उनके शरीर से खेलने के घिनौने आरोप लगाये गये। अलबर्ट को कुछ भी बोलने का अवसर दिये बिना वे उसे पीटने लगे। सब कुछ इतने व्यवस्थित ढंग से हुआ कि वह हर तरफ से दोषी लग रहा था। अब दोषी को बचाने भला कौन आगे आता ? वह भी उन गुंडों के सामने जिनके लिए हर चीज संभव है ? उन्होंने जी भर कर मार-पीट करने के बाद उसके बेहोश शरीर को जंगल में फेंक दिया ।

रात में काफी देर बाद जब उसे होश आया, पूरा बदन दर्द से तड़प रहा था। सर से बहता खून गर्दन पर सूख कर पपड़ी बना चुका था। वह उठा और किसी तरह गिरते-पड़ते अपने कमरे पर पहुँचा। शरीर से ज्यादा उसका मन दुख रहा था। वह बुरी तरह टूटा चुका था। उसे लग रहा था, उसके तन और मन दोनों मर रहे हैं। वह बिस्तर पर बिखर गया। उसने आधा होश और आधी बेहोशी में उसी रात शिवनाथ प्रसाद को एस.एम.एस. किया था, जो उसका अंतिम एस.एम.एस. साबित हुआ। और अपने मस्तिष्क व स्नायुओं को अंधेरों में डूबने से पहले पूरी ताकत लगा, आँखें खोल कर उधर से आये शिवनाथ प्रसाद का जवाब पढ़ा था। उसके बाद का ठीक-ठीक पता नहीं, अलबर्ट के साथ उस कमरे में क्या हुआ ? पता नहीं, सारी रात वह सो भी पाया या नहीं ? क्योंकि सारी रात रुक-रुक कर उसके कमरे में एक धीमी मगर डरावनी-सी आवाज गूँजती रही थी। वैसे तो वह आवाज किसी ने नहीं सुनी, परन्तु कोई सुन भी लेता तो यह बताना कठिन था, वह आदमी की थी या जानवर की।

अगली सुबह जब पूरब में सूरज नजर आया और चिडि़यों ने चहचहा कर एक और दिन की शुरुआत की बात बतायी थी, तब तक वह अपनी चेतना की दूसरी दुनियां में जा समाया था। गुमसुम बैठा हुआ अलबर्ट अचानक ही कभी हंसने लगा, तो कभी रोने लगा। फिर अचानक ही उसने अपने कपड़े फाड़ डाले और चीखने लगा। देखते ही देखते सदा हंसने-हंसाने और दुनियां-जहान की हजार-हजार बातें करने वाले अलबर्ट के पास की सारी बातें खत्म हो गयी थीं। बार-बार दुहराये जाने वाले उन दो वाक्यों के अलावा और कोई बात उसके पास नहीं बची थी- “मुझे कपड़े दो ...मुझे कपड़े दो ...मैंने कर्ज चुकाने जाना है ...मैंने कर्ज चुकाने जाना है।”