ओ मेरे माझी अबकी बार / ममता व्यास
मेरे शहर में बहुत सी झीले हैं। ऊँचें पहाड़ हैं। गहरी झीलें, हरे पहाड़, इन्हें देखने बाहर से खूब लोग आते हैं। वे यहाँ की गहराइयों से, ऊँचाइयों से और हरेपन से, कितना रिश्ता बना पाते हैं ये तो वही जाने; लेकिन मुझे अक्सर वो झील खूब पुकारती है। पर किनारों पर जुटी भीड़ और शोरशराबे के कारण, अक्सर मैं उस पुकार को अनसुना कर जाती हूँ। मैं सोचती हूँ, झील को कभी फुर्सत नहीं मिलेगी (भीड़ से) ना मुझे ही समय... हम दोनों एकदूजे को समझती है। मैं उसे जब अपने घर की छत से देख कर मुस्काती हूँ, तो वो भी जवाब में अपनी कुछ लहरों को मेरे गाँव तक भेज देती है। हम दोनों गुपचुप इस तरह बतियाते है।
लेकिन उस दिन यूँ ही उस झील के किनारे जाना हुआ। वो फिर मुस्काई मेरे स्वागत में, उसके किनारों पर बहुत-सी नावों का हूजुम था। नाव से ज्यादा मछुआरे दिख रहे थे। भीड़ नावों पर लद कर झील की सुन्दरता देखना चाहती थी। आधी भीड़ मोटरबोट पर चढ़ कर झील का आनन्द लेना चाहती थी। मुझे कभी समझ नहीं आया की झील की सुन्दरता उसे दूर से देखने में हैं या उसके पास जाकर छूने में... बहरहाल तभी एक मछुआरे पर मेरी नजर पड़ी। खुद में गुम वो मछुआरा अपनी नाव में बैठा था, उसे कोई जल्दी नहीं थी किसी को नाव में बिठाने की। हम सभी, उसकी नाव में बैठ गए। वो किसी जोगी की तरह चप्पू चलाता था। उसे ना झील की गहराई लुभाती थी ना पहाड़ों की उंचाई। इस झील से उसका पुराना नाता दिखता था। मैंने पूरी झील, उसके चेहरे पर देखी, ज़रुर वो सुन्दर झील उसकी नसों में बहती होगी। उसके भीतर उतर गयी होगी। हर लहर-लहर उस अनपढ़ मछुआरे के चेहरे पर थी। और झील की गहराइयां उसकी आखों में।
भीड़, मछुआरों से बहस कर रही थी और मछुआरे ऐसे नखरे कर रहे थे, मानो दुनिया घुमाने वाले हो, या उसपार ले जाने वाले हों। क्या है? उस पार... झील के उस पार... मैं सोचने लगी... क्यों कोई बंदनी गाती थी, मेरे साजन हैं उसपार, मैं मन मार, हूँ इस पार। हमेशा विरहनें, प्रेम में डूब कर क्यों पुकारती है साजन को। जो उस पार है। लेकिन वो उस पार क्यों है? क्या कभी वो निष्ठुर इस पार नहीं आएगा? छिपकर ओट में से ही बुलाएगा।
उस पार कैसा होगा? क्या उस पार भी गाँव होंगे? लोग होंगे? दिल होंगे, दरिया होंगे, दिल में दरिया होंगे प्रेम के या लोग दरियादिल होगे, जिन्दगी के सफ़र में हमने जितने भी रिश्ते बनाये, वो माझी ही तो थे। हम उनकी नाव में बिठा दिए गए और वो हमें ले गए उनकी मर्जी से। जब चाहा, जहाँ चाहा, उतार दिया। नाव बदलती गयी। माझी बदलते गए लेकिन यात्रा खतम नहीं हुई। जितना भी चले माझी के भरोसे ही नैया रही। कम्बखत रास्ते तय तो हुए लेकिन दूसरों के भरोसे। जो भी माझी (रिश्ते) मिले, जैसे भी मिले कितने भले थे? कितने बुरे? अब ये कौन सोचे... ये क्या कम है की सफ़र कटा तो सही। ये बात अलग है की हर माझी ने अपनी कीमत खूब मांगी हमसे। किस-किस किनारे पे रुके और किस-किस घाट पर, भीड़ में हमारा सामान चोरी हुआ, कौन हिसाब रखे। घर से जब आये थे (ईश्वर के घर से) तो सब कुछ था संदूक में। प्रेम से भरा कलश था। भावनाओं की, अहसासों की गठरी थी। सपनों का बड़ा सा डब्बा था। जिसे मैंने खूब संभाल कर रखा था। इच्छाओं, ख्वाहिशों की पोटलियाँ थी। कोई माझी बचपन ले गया। कोई जवानी मांग बैठा। कोई मन तो कोई तन, कोई मुस्कान छीन ले गया, कोई होश, कोई हंसी, कोई ख़ुशी, कोई पहचान, कोई अरमान... अब तो एक भी सामान नहीं बचा। अब कुछ शेष नहीं। शायद अब सफ़र आसान हो। लेकिन जाना कहाँ है? आवाज सुनकर मैं हैरान हुई। देखा तो एक लहर मेरे करीब आई और बोली कहाँ जाना है तुम्हे? मैंने कहा, उस पार... तुम जहाँ से आई हो, मुझे उस पार जाना है। कोई बुलाता है मुझे। किसी की पुकार खींचती है मुझे। कौन है? उस तरफ? इस ओट के परे ...जिसकी खुश्बू बुलाती है। जो दिखता नहीं पर है। यकीनन है वो... उस पार। अब लहर हँसने लगी और बोली तेरे साजन है उस पार। तू मन मार, है इस पार... मैंने कहा... हाँ शायद हम सभी का साजन, हम सभी का "पिया" वहीं छिप के बैठा है। और हम उसे किनारे से पुकारते है। डूबने के डर से उस पार जाने से कतराते हैं। भला बिना डूबे साजन कैसे मिले? उसकी हर पुकार मन को भेदती है। ये लगन है या अगन है? वो खुश्बू है या बदन है? जिसकी खबर हर पल मुझे है, फिर वो छिपता क्यों है? ओ झील तू ही बता, क्या कोई ऐसा माझी है, जो मुझे उस पार ले जाये। उस पार... जहाँ जाकर फिर कोई वापस नहीं आता। सारी यात्राएँ जहाँ समाप्त हो जाती हो। जहाँ गम भी ना हो। आसूँ भी ना हो। बस प्यार ही प्यार पलता हो। हम कौन है? कहाँ से आये हैं? किस ग्रह से आये और कब तक ठहरेगे यहाँ? इस लम्बी यात्रा में किस माझी को अपना कहे। किससे प्रीत निभाए। जो इस पल अपना लगता है। अगले ही पल वो सपना होता है। सभी कुछ देर के साथी क्यों है? उस पार तक कोई साथ क्यों नहीं निभाता। उस पार से आवाज आती है स्याह रातों को... लेकिन कोई कैसे जाए बिन माझी के? लहर फिर धीरे से मुस्काई बोली। जितनी गहरी प्यास, उतनी गहरी तृप्ति होगी। विरह जितना दुखद, मिलन उतना ही सुखद होगा। तुम पुकारो माझी को, मैं तो चली... लहर चली गई और फिर एक बार उस पार से तेज हवा का झोंका आया और उसने कहा चलो ना वहाँ... मन ने फिर एक बार माझी को पुकारा... ओ मेरे माझी अबकी बार... ले चल पार... मेरे साजन हैं उस पार...