औरंगजेब / मृणाल आशुतोष

Gadya Kosh से
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सुशील मॉल से निकल कर पार्किंग की ओर जा ही रहा था कि पीछे से पुकारे जाने पर रुकना पड़ा। मुड़ा तो बचपन का दोस्त सुयश सामने था।

"और बता सुयश! कैसा है भाई?"

"मैं तो ठीक हूँ पर तुमसे ज़्यादा शर्महीन और पतित आदमी मैंने ज़िन्दगी में नहीं देखा।"

" अरे यार, क्या किया मैंने! इतना गुस्से में क्यों है?

"जानबूझकर अनजान मत बनो। शर्म आती है कि तुम मेरे बचपन के दोस्त थे।"

"कुछ बकेगा भी या स्कूल की तरह यहाँ भी केवल भाषण झाड़ेगा?"

" कुछ दिन पहले तेरे घर गया था। चाचाजी से मिला। इतने निर्दय कैसे हो सकते हो तुम?

"अच्छा तो यह बात है!"

"यार, कितनी ग़रीबी झेलकर तुमको पढ़ाया लिखाया। तेरे लिये वह पेठिया में तरकारी भी बेचे। उसका यह फल दे रहे हो।"

" कुछ और कहना है तो कह लो। फिर मैं कुछ बोलूं।

"क्या बोलेगा? चाचाजी के हाथ से चाय का कप छीन लिया। ऐसा करते तेरे हाथ गल क्यों नहीं गए। किसी से मिलने नहीं देते हो। कमरे में बंद आदमी कब तक जियेगा? इससे तो अच्छा है कि ज़हर खिला दो किसी दिन। सब खेल ही ख़त्म हो जाएगा।"

"सुन ध्यान से और बीच में टपकना मत। बाबूजी लकवे के शिकार होने के कारण बिछावन से उठ नहीं पाते हैं। मल-मूत्र सब वहीं पर होता है। ऊपर से मधुमेह ने भी कुछ ज़्यादा ही परेशान किया हुआ है। उस दिन जो कप उनके हाथ से ले ली थी वह चीनी वाली चाय की थी। क्या नहीं ले लेना चाहिए था मुझे? अब उनके लिये अलग चाय नहीं बनती है। मैं और तेरी भाभी भी उनके साथ बिना चीनी वाली चाय ही पीते हैं।"

" क्यों मिलने दूँ किसी को? जो आकर यह कहे कि लकवे का मरीज ज़्यादा दिन नहीं जीता है। अब तो बस भगवान का नाम लीजिये। एक तेरी कांता मौसी के अलावे जितने भी पड़ोसी हैं, बाबूजी से ज़्यादा दर्द उनके शरीर को ही होता है। बाबूजी को ही समझाते थे कि जितना जल्दी चले जाएँ, शरीर को कष्ट उतना कम होगा। बोल भाई, तुम मेरी जगह पर होते तो क्या करते!

"माफ करना भाई! तुमको समझने में भूल हुई।"

"बाबूजी से उतना प्यार करता हूँ जितना मैं और मेरी पत्नी अपने बच्चे से भी नहीं करते। कोई आया उनकी सफ़ाई के लिये तैयार न हुई तो पत्नी ने नौकरी छोड़ दी। अगर उनको ज़िंदा रखने के लिये मुझे निर्दय बनना पड़े तो मैं हूँ निर्दय। हाँ, मैं औरंगजेब हूँ। हाँ, मैंने अपने बाप को क़ैद कर रखा है।"

"वाह भाई! काश ऐसा औरंगजेब हर बाप के नसीब में..."