औरत का दर्द / सुदर्शन रत्नाकर

Gadya Kosh से
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एक लम्बे अंतराल के बाद फ़्रूट मार्कीट जाने का मौक़ा मिला था। पहले वहाँ सात-आठ रेहडीवाले होते थे। वे भी एक दूसरे के सम्बंधी। फिर और लोग भी आने लगे। अच्छे फल और ठीक रेट होने के कारण दूर-दूर से ग्राहक उनके पास आते थे। धीरे-धीरे और रेहडियाँ लग गईं और वह फ़्रूट मार्कीट बन गई। प्रतिस्पर्द्धा बढ गई, फलों के भाव ऊँचे-नीचे होने लगे। फिर भी उनका धंधा अच्छा चलता था। मैं भी सप्ताह में एक दो बार फल ख़रीदने जाती थी। दो औरतें साथ-साथ रेहड़ी लगाती थीं। अधिकतर मैं उन्हीं से फल ख़रीदती। छोटे-छोटे बच्चों को गोदी में लिए बड़ी मुस्तैदी से वे काम करतीं। कभी-कभी मैं उनसे बातचीत भी कर लेती थी। ये सब लोग बिहार से रोज़ी-रोटी कमाने के लिए आए हुए थे।

सारा दिन काम करने के बाद भी बस दो वक़्त की रोटी के लिए ही बच पाता है क्योंकि गाँव में परिवार को पैसा भेजना होता है। न कोई छत, न कोई आँगन। झुग्गी-झोंपड़ी ही बस रैन बसेरा है।

मैं दो बरस के लिए बाहर चली गई थी। लौटकर वहीं फल लेने गई। वह रेहड़ी पर बैठी दिखाई दे गई। मैंने कुछ फल ख़रीदे। मेरी पसंद के कुछ फल दूसरी रेहड़ी पर थे। पर वहाँ कोई था नहीं। मैंने उससे पूछा, "यहाँ तो कोई नहीं है किससे फल लूँ।"

वह बोली, "मैडमजी, मेरे साथ जो साँवली-सी औरत बैठती थी न, यह रेहड़ी उसी की है। आप भूल गये क्या। मेरे गाँव की है। उसका पति बहुत बीमार हो गया था, मरते-मरते बचा है। अब थोड़ा ठीक है। वह उसे लेकर गाँव गई हुई है। उसकी रेहड़ी मैं ही चलाती हूँ। अपनी रेहड़ी से अलग फल लाती हूँ, ताकि बिक्री हो सके। मैडम क्या करें बेचारी की कुछ आमदन हो जायेगी और रेहड़ी की जगह भी बनी रहेगी। वापस आने पर वह अपना काम सम्भाल लेगी। मानस ही मानस के काम आता है जी।" वह मुस्कुराने लगी।

मैं विस्मित हो देख रही थी। आज जब ख़ून के रिश्तों में भी होड़ लगी रहती है। वहीं एक ग़रीब, अशिक्षित औरत कितनी ऊँची, कितनी बड़ी बात कह रही थी। एक औरत दूसरी औरत, अपनी मित्र के दर्द को समझ रही थी। उसकी मुस्कराहट में मुझे एक अटूट विश्वास, निश्छलता दिखाई दे रही थी।