औरत का बदन ही उसका वतन नहीं / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
औरत का बदन ही उसका वतन नहीं
प्रकाशन तिथि : 08 मार्च 2013


पुरुष केंद्रित समाज और सरकार में रहकर अपनी आर्थिक बुनावट को समर्पित सिनेमा महिलाओं के प्रति न्यायसंगत कैसे हो सकता था, परंतु अपनी सीमाओं के बावजूद उसने समय-समय पर महिलाओं के प्रति उदार रहने की कोशिश जरूर की है, जिसका दावा तो समाज भी नहीं करता। यहां तक कि धर्म भी डंके की चोट पर इस तरह की बात नहीं करता। भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक दौर में पुरुषों ने ही नारी की भूमिकाएं अभिनीत कीं और सोलंके नामक व्यक्ति को 'श्रेष्ठ नायिका' की तरह सराहा भी गया है और पूरे सौ वर्ष तक पुरुष दृष्टिकोण से ही नारी को परदे पर प्रस्तुत किया गया है। अपने हजारों वर्ष पूर्व के आख्यानों और लोकप्रिय किंवदंतियों से प्रेरित सिनेमा यथार्थपरक कैसे हो सकता था। उसके पास अपने कल्पना केंद्रित इतिहास और 'किस्सा तोता-मैना' जैसे लुगदी साहित्य का कच्चा माल था, इसलिए नारी को पूर्वग्रह ग्रसित प्रचारित छवियों में प्रस्तुत किया जाता रहा है, जैसे देवी की छवि, डायन की छवि या तवायफ की छवि।

हमारे सिनेमा की यह विशेषता भी रही है कि स्वयं की बनाई मजबूत दीवारों के लौहकपाटों के बावजूद उसने अपने पुरातन वैचारिक किले में कुछ सुरंगें भी बनाईं, जिनसे निकलकर वह समय-समय पर बाहर आता है और यह काम प्रारंभिक दशकों से जारी है, मसलन चंदूलाल शाह की 'गुण सुंदरी' में अपने देर से घर आने वाले पति की यायावरी से तंग पत्नी के प्रश्न करने पर पति कहता है कि आजकल इस तरह के सवाल पतियों से नहीं पूछे जाते तो पत्नी प्राय: देर से लौटने लगी और उसने ईंट का जवाब पत्थर से दिया कि पत्नियों से इस तरह की बात नहीं करते। भारतीय सिनेमा के वैयाकरण पाणिनी शांताराम ने 'दुनिया ना माने' में सोलह वर्षीय पत्नी को अपने दुजवर बूढ़े पति के खिलाफ बगावत करते तो दिखाया है, परंतु उसकी मृत्यु के बाद वह यह भी कहती है कि इस समाज में युवा अकेली के लिए कोई स्थान नहीं है और बूढ़ा ही पति सही, परंतु उसका रक्षा कवच आवश्यक है।

उत्तरप्रदेश में गुलाबी गैंग चर्चा में रहा है, जिसकी महिला सदस्य व्यभिचारी की डंडे से पिटाई करती है और इससे प्रेरित फिल्म में माधुरी दीक्षित और जूही चावला काम कर रही हैं, परंतु इसी तरह की फिल्म चौथे दशक में भी बनी थी, जब अदालत में पत्नी से जज महोदय कहते हैं कि तुम्हारे पति को तुम्हें पीटने ही नहीं, बेचने तक का अधिकार है तो यह महिला अपना दल बनाती है और कसरत इत्यादि करके घोड़ों पर सवार लंपट पुरुषों के घर डाके डालती है।

सारांश यह कि हर दशक में इस तरह की फिल्में बनती रही हैं। बिमल रॉय तो नारी के हृदय के भीतर ही शूटिंग करने का आभास देते रहे हैं - उनकी 'सुजाता' और 'बंदिनी' महान फिल्में हैं। अगर सातवें दशक में श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल अभिनीत 'भूमिका' में महिला सितारे की त्रासदी प्रस्तुत की है तो पांचवें दशक में इस्मत चुगताई और शाहिद लतीफ ने 'सोने की चिडिय़ा' में ऐसी ही सितारे की दास्तां प्रस्तुत की थी। इसका यह अर्थ नहीं कि मात्र दोहराव ही हुआ है। अरुणा राजे की 'रिहाई' जैसी फिल्म न पहले बनी थी, न बाद में संभव लगता है। इसकी नायिका ने अपने लंबे समय तक घर से बाहर रहने वाले पति की अनुपस्थिति में एक क्षणिक लहर में दूसरे पुरुष की अंतरंगता प्राप्त की, परंतु पूरे गांव और पति तक के आग्रह के बावजूद उसने गर्भपात से इंकार किया और फिल्म का अंतिम संवाद है कि हमसे सीता-सा आचरण रखने की अपेक्षा करने वाले क्या कभी राम-सा आचरण करते हैं। महिला दर्शकों ने इस रिहाई को नकारा। पिंजरा खुला रहने पर भी पंछी नहीं उड़ता। सदियों की पंखविहीनता है।

कुछ ही समय पूर्व प्रदर्शित 'कहानी' की नायिका अपने पति के कातिल को खोज निकालने के लिए कितनी जोखिम भरी यात्रा पर निकलती है और अंत में उसे उस बच्चे की कशिश सालती है, जो उसने अपने कार्य के लिए गर्भवती होने के अभिनय के समय विचार-शैली में जन्मा था। महाभारत में गांधारी का आंखों पर पट्टी बांध लेना उसका विरोध है तो 'द डर्टी पिक्चर' की नायिका का शरीर प्रदर्शन भी उसका विरोध ही है और संजय लीला भंसाली की पारो भी अपने दुजवर पति से कहती है कि जैसे वह अपनी प्रथम पत्नी की स्मृति को हृदय में संजोए बैठा है तो उसे भी अपने प्रथम प्रेम देवा की स्मृति को संजोए रहने का अधिकार है।

दशकों पूर्व जब सेक्स सिंबल मानी जाने वाली ब्रिजिता बारडोट ने अपनी छवि से तंग आकर आत्महत्या का विफल प्रयास किया तो सिमोन द बोआ ने लंबे लेख में िखा कि जब एक महिला प्रसाधन के तमाम बुर्जुआ साधनों को फेंककर अपने स्वाभाविक स्वरूप में सामने आती है तो पुरुषों के पैर कांपने लगते हैं। उनमें स्त्री का सामना करने का साहस ही नहीं है। आज नए रक्षा कानूनों की मांग हो रही है, विरोध के जुलूस निकल रहे हैं, सत्ता हिल गई है, परंतु समस्या के जड़ में पुरुष विचार शैली है, जो आख्यानों और किंवदंतियों के रेशों से बुनी गई है। उसमें परिवर्तन आना ही आवश्यक है। कानून के कवच में हजार छेद बनाने में भारतीय प्रतिभा का कोई जवाब नहीं है। पाकिस्तान की सारा शगुफ्ता की नज्म की पंक्तियां हैं - 'औरत का बदन ही उसका वतन नहीं होता, वह कुछ और भी है, पौरुष का परचम लिए घूमने वालों, औरत जमीन नहीं कुछ और भी है...।'