औरत जो नदी है... / भाग 10 / जयश्री रॉय
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एक दिन इसी तरह सोचते हुए और अकेले भटकते हुए मैं बहुत दूर निकल गया था और बहुत देर बाद गिरती हुई शाम को देखकर यकायक महसूस किया था, कुछ विस्मय से ही, झरती हुई पीली, जर्जर पत्तियों की एक कालीन में डूबा-सा मैं खड़ा हूँ। सन्नाटे के कोलाहल में जज्ब, एकमेव, ठहरी हुई हवा की तरह... सामने समंदर के ऊपर हल्के सफेद कोहरे की घनी परत बिछी हुई है। चारों तरफ डूबती साँझ का नीला अँधेरा है। एक गहरी चुप्पी आकाश से जमीन तक निरंतर उतरते हुए हर तरफ व्याप रही थी। न जाने क्या हुआ था, एक कच्ची दीवार के गिरने की तरह अनायास, मैं अवसाद की अनाम, धूसर अनुभूतियों में भीगकर जड़ होने लगा था। खड़ा नहीं रह पाया था देरतक, ढह गया था गीली रेत पर किसी दीमक खाई हुई खोखली दरख्त की तरह। पड़ा रहा था चुपचाप न जाने कितनी देरतक। दिनों से अंदर धीरे-धीरे इकट्ठी हो रही चीखें और गहन मौन अब बोलना चाहते हैं - बिखराव और क्लेश की यही भाषा... मैं कहीं से दरकने लगा था - बुरी तरह से!
एक समय के बाद धूसर नील आकाश में फैले बेतरतीब बादलों के फाहों के बीच नए मौसम का एक टुकड़ा चाँद निकल आया था। मैंने बुझी आँखों से देखा था, आकाश से फीकी, हल्की चाँदनी उतर रही है - पानी की महीन धार की तरह। पेड़ पौधे भीग रहे हैं निरंतर झरती हुई इस तरल सफेदी में। मुझे अब लौटना होगा। बहुत कोशिश करके एक लंबे समय के बाद मैंने सोचा था - जिंदगी की ओर, उजाले की ओर। मगर ये उजाला किस तरफ है...
उस रात दामिनी के कॉटेज में गहरा अँधेरा पसरा हुआ था - ओर-छोर तक... मैं निराश होकर अपने कमरे में लौट आया था। रोशनी वहाँ भी नहीं थी। अपने कमरा खोलकर अँधेरे में टटोलकर मैंने मोमबत्ती जलाने की कोशिश की थी, मगर तभी पसीने से भीगे दो उष्ण हाथों ने मुझे पीछे से रोक लिया था - उँह, उजाला मत करो, ये मौसम अँधेरे का है, मैंने अपने जिस्म पर भी यही ओढ़ रखा है - खालिस अँधेरा! बस, तुम भी इसमें उतर आओ... ये आवाज रेचल की थी - बहकी हुई, गहरी कामुकता में थरथराती हुई... न जाने कब वह यहाँ लौट आई थी।
उसकी देह के नर्म, मखमली अँधेरे में उतरते हुए मैंने अनायास महसूस किया था, मुझे इस समय उसकी कितनी जरूरत थी... गहरे परितोष के अगले क्षणों में मैंने धीरे से उसके कानों में कहा था - थैंक्स रेचल... वह हल्के से रसमसाई थी - यू वेलकम लव, एनी टाइम...
तुम इतना कुछ देती हो मुझे, अपनी कृतज्ञता बोध की गहरी मनःस्थिति में उदारता के साथ पूछा था मैंने - तुम कभी कुछ माँगती क्यों नहीं?
- मैन, ये लव है। इसमें माँगना कुछ नहीं, बस देना ही माँगता है। बोले तो तुम दे भी क्या सकता है। फिर जो चीज माँगने से भी नहीं मिल सकता, उसे माँगने का कोई सेंस भी तो नहीं है। प्यार में बिना किसी को तकलीफ पहुँचाए जीतना खुशी हो सकता है, हो लेने का। बस, और कुछ नहीं। तुम अपना वर्ल्ड में मस्त, हम अपना वर्ल्ड में मस्त... उसके उदार जीवन दर्शन ने मुझे एकबार फिर से चकित किया था, मुग्ध भी। एक समय तक चुप रहने के बाद उसने मुझसे पूछा था - इतना अपसेट सा तुम आज क्यों लगता है मैन?
अपसेट नहीं, बस थोड़ा कनफ्यूज्ड, मैंने उसे बताया था - माइ वाइफ इज प्रेगनेंट अगेन, हमारी दो बेटियाँ हैं। उसे एक बेटा चाहिए। मगर इस उमर में मैं...
अरे ये तो गुड न्यूज है यार, डोंट वरी, गॉड वीलिंग सब अच्छा ही होगा... नाउ स्टाप वरींग एंड लेटस् सेलिब्रेट... उसने थोड़ी देर पहले जलाई मोमबत्ती फिर से फूँक मारकर बुझा दी थी।
सुबह हम बिस्तर में ही थे जब यकायक दरवाजे पर दस्तक हुई थी - बहुत तेज, सुबह के शांत माहौल में दूरतक गूँजती हुई। मैं चौंककर जाग उठा था। मगर रेचल की नींद नहीं टूटी थी। मैंने उसे झकझोरा था, कई बार। तब कहीं उसने कुनमुनाकर आँखें खोली थी - सोने दो न लव, आज भी तो संडे है।
प्लीज, गेट अप... मैंने एक तरह से धकेलकर ही उसे बाथरूम में भेजा था और पजामे पर अपनी शर्ट पहनते हुए दरवाजे की ओर बढ़ा था। दरवाजा अभी तक लगातार खटखटाया जा रहा था। 'होल्ड ऑन' कहते हुए मैंने दरवाजा खोला था और सामने दामिनी को खड़ी देखकर सन्न रह गया था। वह बेहद परेशान दिख रही थी, उसके कपड़े अस्त-व्यस्त थे। पैरों में घर के स्लीपर्स, खुले हुए बाल...।
- दामिनी, तुम... मेरी जुबान लड़खड़ा गई थी।
- ओह अशेष, दरवाजा खोलने में तुमने कितनी देर कर दी... कहते हुए वह कमरे के भीतर घुस आई थी।
- क्या हुआ, तुम इतनी परेशान क्यों हो? किसी तरह स्वयं को संयमित करते हुए मैं बोला था।
- कल रात उषा को उसके पति ने शराब पीकर जला दिया, मेडिकल में है - काफी सीरियस, अभी नेलशन ने खबर दी है। प्लीज, जल्दी से तैयार हो लो, हमें अभी निकलना होगा, उसे हमारी जरूरत है, फोन पर बहुत रो रही थी। नेलशन ने ही बात करवाई।
- अरे, ये तो सचमुच बहुत बुरा हुआ... अभी मैं अपनी बात समाप्त भी नहीं कर पाया था कि रेचल बाथरूम से निकल आई थी - गीले बालों में, मेरी बड़ी-सी शर्ट पहने, जाँघ से नीचे पूरी तरह से नंगी। उसकी लंबी, गठी हुई टाँगें काँसे के स्तंभ की तरह चमक रही थीं।
- ओह! दामिनी, हाय, यार मैं तो डर ही गई थी, तुम जिस तरह से दरोगा की तरह दरवाजा पीट रही थी, मुझे लगा ऐश का पत्नी ही आ धमका है... चलो, तुम लोग बात करो, हम कॉफी बनाकर लाता है। फिर मेरी तरफ मुड़ी थी, सॉरी, तुम्हारा शर्ट बॅरो किया, अपने कपड़े तो... बात को बीच में ही छोड़कर वह शरारत से मुस्कराते हुए कमरे से बाहर निकल गई थी - तुम्ही से धुलवाऊँगी, चर्च के बाद आंटी भी अब आती ही होगी... मुझे जल्दी से खिसकना होगा...
उसके कमरे से बाहर जाते ही वहाँ गहरा सन्नाटा छा गया था। दामिनी मेरी तरफ देख रही थी, न जाने किस नजर से। उन्हें पढ़ने-समझने की सामर्थ्य मैं खो चुका था। एकदम शून्य होकर खड़ा था, उसकी तरफ एक न देखती हुई-सी नजर से तकते हुए। थोड़ी देर के लिए महसूस हुआ था, हमारे बीच समय भी ठहर गया है, हवा दम साधे पड़ी है, पूरी दुनिया गूँगी, बहरी हो गई है। और दामिनी... वह तो एकदम पाषाण हो गई थी। न जाने कितनी देरतक हम इसी तरह एक-दूसरे की तरफ देखते हुए खड़े रह गए थे और फिर अचानक रेचल फिर कमरे में घुस आई थी, हाथ में कॉफी की ट्रे और मिठाई का प्लेट लेकर - लो, मिस दामिनी, मुँह मीठा कर लो, हमारा ऐश फिर बाप बननेवाला है, कल ही इसकी बीवी ने गुड न्यूज भेजा है।
मुझे लगा था, मैं अब सचमुच बेहोश हो जाऊँगा। उसकी बातें सुनकर दामिनी के चेहरे पर एक ही साथ न जाने कितने रंग आए और गए थे। रेचल ने जैसे ही मिठाई का टुकड़ा उसके मुँह की तरफ बढ़ाया था, दामिनी जैसे चौंककर नींद से जागी थी और फिर आँधी की तरह कमरे से बाहर निकल गई थी। मैंने उसे पुकारकर रोकना चाहा था, मगर मेरे गले से जैसे कोई स्वर ही नहीं निकला था।
उसके जाने के बाद कमरे में यकायक मौन पसर गया था। कुछ देर बाद मैंने रेचल की ओर मुड़कर देखा था। वह कमरे से बाहर निकल रही थी, होठों ही होठों में मुस्कराते हुए। मेरा जी चाहा था, बढ़कर उसका गला घोंट दूँ, मगर अपनी जगह से हिल भी नहीं पाया था।
इसके बाद न जाने मैंने कितनी बार दामिनी को फोन किया था, हर बार फोन बंद मिलता। उसके बँगले पर जाकर भी मुझे हर बार निराश ही लौटना पड़ा था। वह किसी भी तरह मुझे नहीं मिल रही थी। इधर शायद मिसेज लोबो के कान में भी मेरे और रेचल की बात पड़ गई थी। कई दिनों तक उनके घर में रिश्तेदारों का ताँता लगा रहा था। सभी आते-जाते मुझे घूरकर देखते। मिसेज लोबो का रवैया भी काफी बदल गया था। रास्ते में मुझे एकदिन गाँव के चर्च के पादरी मिले थे, मगर उन्होंने मुझे सहज ढंग से नजरअंदाज कर दिया था। मेरे अभिवादन का भी जवाब नहीं दिया था। और फिर एकदिन मिसेज लोबो ने मुझे घर खाली करने का नोटिस दे दिया था। कोई कारण भी नहीं बताया था। पूछने पर व्यंग्य से पूछा था - क्यों, तुमको नहीं मालूम मैन? हम तुमको जेंटलमैन समझता था... मैं चुप रह गया था।
ऑफिस में भी माहौल बदला-बदला-सा लग रहा था। जैसे लोग कतरा रहे थे मुझसे। बहुत पूछने पर किसी ने दबी जुबान से बतलाया था, मेरे नाम पर शिकायत हुई है। मैं एकदम से घबरा उठा था। अब मामला गंभीर होता हुआ प्रतीत हो रहा था। मैंने यहाँ के लोगों के स्वच्छंद व्यवहार को कुछ ज्यादा ही गलत ढंग से ले लिया था शायद। आखिर था तो यह भी भारतीय समाज का एक हिस्सा ही। मूलभूत संवेदनाएँ और चरित्र एक ही था। ऊपरी रंग-रोगन ने मुझे भ्रम में डाल दिया था। अब क्या करूँ... मेरा मन डूबने लगा था। एकदम से जैसे मेरी दुनिया बदल गई थी। सब कुछ गलत हो रहा था - एकदम सिरे से, क्या कुछ सँभालूँ और कहाँ से शुरू करूँ, समझ नहीं पा रहा था। हर तरफ तहस-नहस लगा था और बीच में मैं खड़ा था, एकदम चकित और डरा हुआ...
सबसे ज्यादा दामिनी की बेरुखी ने मुझे तोड़ दिया था। वह मुझे गालियाँ देती, मारती, चीखती-चिल्लाती... मगर कुछ नहीं। उसकी चुप्पी, अडोल खामोशी मुझे तड़पा रही थी। मैं स्वयं को बेहद अपमानित महसूस कर रहा था। रह-रहकर मुझे दामिनी की ठंडी आँखें, उनसे निसृत होती वितृष्णा और घृणा याद आती और मैं आहत हो उठता। क्या मुझे वह और एक अवसर भी नहीं देगी! कुछ तो - कुछ तो वह कहे। उसकी ये चुप्पी मुझे मारे डाल रही थी।
आँफिस में पूछताछ शुरू हो गई थी। इस बात ने मुझे और भी परेशान कर दिया था। उधर उमा भी तरह-तरह के सवाल करके मेरा जीना हराम कर रही थी। उसदिन मिसेज लोबो ने व्यंग्य से मुस्कराते हुए मेरे हाथ में एक कार्ड थमाया था - हमारा रेचल शादी बना रहा है। तुम भी आना जरूर...
यह सुनकर मेरे अंदर कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं हुई थी। कहीं से एकदम पत्थर हो आया था मैं। औरत को कभी समझ नहीं पाऊँगा। एक ही साथ वह अमृत और गरल की धार बन सकती है। प्रेम और हिंसा - दोनों में ही वह सारी सीमाएँ लाँघ सकती है। रेचल के उदार चेहरे के पीछे छिपे उसके अंतर्दाह को मैंने पहचाना नहीं था। प्यार में सिर्फ देने की बात करके वह सबकुछ चुपचाप समेटने की तैयारी में लगी थी। और आज वह मुझे कंगाल करके चली गई थी, अपनी दुनिया बसाने। सोचते हुए मेरा सर फटने लगता। इन दिेनों सबकुछ बहुत जल्दी-जल्दी और अप्रत्याशित ढंग से घटा था मेरे साथ।
घर जाने की बात करके मैंने सात दिन की छुट्टी ली थी अपने ऑफिस से और फिर आँजुना जाकर वहाँ के एक बीच रिसार्ट में चुपचाप पड़ा रहा था दिनों तक। मुझे लग रहा था, मैं किसी मरुभूमि में भटक गया हूँ। दूरतक बस अँधेरा और न खत्म होने वाला सन्नाटा है। कभी-कभी मुझे बेहद डर लगने लगता। अपने अकेलेपन से इतनी घबराहट होती कि रातभर कमरे की बत्ती भी नहीं बुझाता। इस बीच मैं जैसे स्वयं को भी भुला बैठा था। आईने में चेहरा देखता तो खुद को ही पहचान नहीं पाता।
इन सब के बीच शराब का ही एकमात्र सहारा था। उसी में डूबा हुआ मैं हर चीज को भुलाने की कोशिश करता रहा था। दिन-दिनभर बैठकर अरब सागर पर होती बारिश को देखता रहता। कभी बहुत तेज, कभी बूँदा-बाँदी, हल्की फुहार या महीन झींसी... नारियल के पेड़ जोगियों की तरह चुपचाप खड़े भीगते रहते। जैसे ध्यानमग्न हों... देखते हुए प्रतीत होता, जमीन आकाश एक हो गया है। गहरे स्लेटी आकाश के नीचे बिछा धूसर नील समंदर, ऊपर पानी की नन्हीं बूँदों का मटमैला बादल, धुंध और धुआँ... हर तरफ राख की रंगत का-सा बुझा हुआ उजाला... कैसा अवसाद भरा था सबकुछ - जल-थल में एक-सा व्याप्त... सच है, जैसे हमारे मन के अंदर होता है, वैसा ही मौसम बाहर भी होता है। कलतक हर तरफ धूप थी, शरीर हवा और खिलते हुए फूल थे। और आज? बस, ऊपर बरसता हुआ मेघिल, कुहरीला आकाश और नीचे बेडौल, बदरंग समंदर... उसका गंभीर, उदास स्वर - निरंतर, एकरस, जैसे किसी भीषण पीड़ा में अंदर-ही-अंदर घुमड़ रहा हो, ऐंठ रहा हो, छटपटा रहा हो...।
दामिनी कहती थी, आत्ममुग्धता के विरल क्षणों में - किसी बहती हुई नदी को ध्यान से देखा है तुमने अशेष? जब पानी की अबरकी देह झिलमिलाती है, पारा-पारा होकर आकाश की नीली आँखों में कौंधती है, धूप की उजली तितलियाँ लहरों के सतरंगी फूलों पर काँपती-उड़ती हैं, तब जान लो, पक्षी मेरे ही ऐश्वर्य के गीत गाते हैं। मैं धरती पर गुनगुनाती हुई आकाश का गीत हूँ, दुनिया को भेजा हुआ जन्नत का पैगाम हूँ। मैं वह प्यार भरी चिट्ठी हूँ जिसे स्वर्ग ने धरती के नाम लिखा है, मैं मनुष्य के हिस्से में आई हुई अमृत की अकेली बूँद हूँ... मेरी धार के ताव को सहने के लिए आशुतोष का धैर्य चाहिए, उसकी जटाओं की सामर्थ्य चाहिए। तुम क्या बाँधोगे या सहेजोगे मुझे...
सच कहती थी वह, इस उद्दाम नदी को, उसके आकुल प्लावन को सचमुच सहेज नहीं पाया मैं...
इस दौरान लगभग हर घंटे मैंने दामिनी को फोन किया था, मगर उसने कभी उठाया नहीं था। मैं एकदम निराश होने लगा था। और फिर एकदिन अचानक दामिनी ने फोन उठा लिया था।
उसी क्षण मैं उसके बँगले के लिए चल पड़ा था। उस समय की अपनी मनःस्थिति का मैं वर्णन नहीं कर सकता...
दामिनी मिली थी, कितने दिनों के बाद - किसी अजनबी की तरह। मैं उसकी आँखों में अपनी पहचान ढूँढ़ता रहा था, मगर वहाँ बस एक सपाट दीवार थी, जिसे मैं लाँघ नहीं सकता था। बॉल्कनी में खड़ी वह नीचे लॉन की तरफ देखती रही थी। एक अच्छी बारिश के बाद लान की ताजी, नर्म हरियाली धूप के चमकीले टुकड़ों से भर गई थी। सावनी फूलों की गुलाबी पँखुरियाँ पानी की नन्हीं बूँदों से तर थीं - उजली धूप की किरणों में हीरे के झुमके बनी हुईं। हवा में अनाम जंगली फूलों की तेज गंध थी, ठंडक भी। दामिनी की पीठ की तरफ देखते हुए मैं सोच रहा था, अब हमारे बीच फिर से कुछ भी पहले की तरह नहीं हो सकता। दामिनी दूर चली गई थी - हर स्तर पर - बहुत दूर... अब उसका यहाँ - मेरे पास होना - मरु में जल के भ्रम का होना है। वह कहीं नहीं है, मेरी दुनिया में कहीं नहीं है। एकाएक मैं कितना निसंग हो आया था।
दामिनी ने बहुत देर के बाद कहा था, एकदम सपाट और भावहीन स्वर में - जानते हो अशेष, उषा मर गई... आज सुबह। मगर, मरने से पहले उसने पुलिस को दिए हुए अपने बयान में कहा, वह खाना बनाते हुए खुद जल गई थी। मैंने कितना कहा उससे, अपना बयान बदल ले, मगर नहीं! कहती रही, हमारी छोटी बच्ची है मेम साहब, मैं तो नहीं जिऊँगी, मेरे बाद अगर उसका बाप भी जेल चला गया तो उसका क्या होगा? प्यार की मारी हुई ये औरतें...
औरतों की यह सहने की आत्मिक शक्ति... कुछ कहना मुझे जरूरी लग रहा था, मगर क्या, मैं खुद भी नहीं जानता था शायद। बिना सोचे कहता गया - 'नारी, तुम केवल श्रद्धा हो' इसीलिए कहा गया है शायद... यह मेरा फेवरिट कोट था, हर जगह दुहराता फिरता था।
नारी केवल श्रद्धा है... दामिनी ने गहरे व्यंग्य से मेरे शब्द दोहराए थे - यहाँ शब्दों को गहनों की तरह इस्तेमाल करके उनसे औरतों को बहलाया जाता रहा हैं - कितना खूबसूरत जुमला होता है, उन्हें हक भी देते हैं तो सेवा का। मगर मुक्ति या निर्वाण का अधिकार नहीं। औरतों की मुक्ति सिर्फ पति की सेवा में है... अब वह हँस रही थी शायद, बहुत हल्के से, गुनगुनाहट की तरह -
कभी सोचा है, औरतों को उसके स्त्रीत्व से बेदखल कर देने की ये कैसी गहरी साजिश है! संबंध की दुहाई देकर बँधुआ मजदूर बनाकर उसका आजीवन शोषण करने की साजिश... मठों में उसका प्रवेश नहीं, मोक्ष का अधिकार नहीं, प्रजनन, शिक्षा, संपत्ति के अधिकार से वंचित... एक बात बताओ, दुनिया की आधी आबादी को नकारकर तुम इसे मुकम्मल कैसे बनाओगे? वह पहले भी यह सवाल मुझसे कर चुकी है, मगर मेरे पास उसदिन भी इसका जवाब नहीं था, आज भी नहीं है। वह रुकी नहीं थी - यहाँ का जैसे हर रिवाज ही स्त्रियों के खिलाफ गढ़ा गया है। विवाह में स्त्रियों का दान किया जाता है। वह कोई वस्तु है? और कहा जाता है, शादी दो आत्माओं का मिलन है, ये स्वर्ग में बनता है, जन्म-जन्मांतर का रिश्ता... फिर इस पवित्र रिश्ते को दहेज के तराजू में तोला जाता है। कितने कटु थे उसके शब्द -
मेरे लिए तो ऐसी शादियाँ भी वेश्यावृत्ति ही हैं जिनमें दो जून की रोटी और कपड़े, छत के बदले में स्त्री को आजन्म गुलामी करनी पड़ती है - देह से और मन से भी।
मैं उसे चुपचाप सुनता रहा था। और कर भी क्या सकता था। वह उसी तरह मेरी तरफ पीठ किए हुए खड़ी रही थी। उसके खुले बाल हवा में उड़ रहे थे। बारिश से धुले हुए नीले आकाश में जड़े हुए इंद्रधनुष की तरह उदास और एकाकी दिख रही थी वह उस क्षण... एक पल के लिए जी चाहा था, बढ़कर उसे अपनी बाँहों में ले लूँ, झिंझोड़ डालूँ बुरी तरह से। पूछूँ, क्यों इतनी चुप हो, कुछ कहती क्यों नहीं?
मगर मैं ऐसा कुछ भी नहीं कह सका था। चुपचाप पहले की तरह बैठा रहा था, उसे सुनते हुए। दामिनी मुड़ी थी और कुर्सी पर आ बैठी थी। मगर मेरी तरफ एक पलक भी नहीं देखा था। अपने में डूबी बुदबुदाती रही थी - उषा भी चली गई...
ये होना था, दुख मत करो। इसे हम या तुम रोक नहीं सकते, चाहकर भी... मैं तसल्ली के लिए शब्द तलाश रहा था, मगर स्वयं को व्यक्त करने में असमर्थ पा रहा था।
हाँ, सबकुछ पहले से तय होता है... खुद को समझाती हूँ, मगर...बिछड़ने का ये अंतहीन सिलसिला... मेरा तो कोई सखा नहीं, मैं किस गीता पर आस्था रखूँ... ये असंबद्ध-से शब्द उसने बहुत रुक-रुककर धीमी आवाज में कहे थे, जैसे स्वयं से ही संबोधित हो। मैंने उसके चेहरे पर गहराई उदासी की झाँइयाँ देखी थी, कुछ ही दिनों में जैसे वह बूढ़ी हो आई थी, चेहरे का नमक, लुनाई, मोहक लावण्य... सबकुछ सूख गया था। उसे देखते हुए मैं एक गहरी यातना में हो आया था। उसके चेहरे पर खिंचा हुआ मीलों लंबा सन्नाटा और अछोर दर्द - जैसे दोपहर की तेज धूप में झुलसती हुई फूलों की नाजुक पँखुरियाँ... कभी उसी ने कहा था, हरजाई मर्द का छल हरी-भरी अमराई-सी औरत को सूखे बबूल का ढेर बनाकर रख देता है...
- हमारे हिस्से का जीवन हमें जीना है दामिनी... मैंने इस लंबी चुप्पी, जो उसके बात कर चुकने के बाद हमारे बीच पसर गया था, को तोड़ने का प्रयत्न किया था। सुनकर उसने एक गहरी साँस ली थी - हाँ... ये जीवन... फिर हल्के-से मुसकराई थी - मृत्यु को किस्तों में जीने का एक परवर्टेड सुख-सा होता है ये जीवन... पतझड़ के पीले पत्तों की तरह झरता हुआ निरंतर... इसका भी एक मौन संगीत होता है - टूटने का, खत्म होने का - हमेशा - हमेशा के लिए! कभी सुनो, नींद आ जाएगी, जागना नहीं चाहोगे एक उम्रतक के लिए...।
कहते हुए उसे सचमुच जैसे नींद ने आ घेरा था। गहरी साँसें लेती हुई पड़ी रही थी न जाने कितनी देरतक। मैं चारदीवारी के पास खड़े गुलमोहर को देख रहा था। उसके सारे फूल झड़ गए थे। गहरे हरे पत्तों से नंगी डालियाँ भर गई थी। मैं यहाँ बहुत उम्मीद से आया था आज, न जाने किस बात की उम्मीद, मगर अब जी चाह रहा, यहाँ से उठकर चला जाऊँ। दामिनी का व्यवहार, जैसे मैं उसका कोई भी न लगता होऊँ, एक परिचित मात्र, मैं सह नहीं पा रहा था...
न जाने कब दामिनी उठकर बकार्डी की दो बोतलें उठा लाई थी - लो, जमाइकन फ्लेवर, तुम्हें पसंद है... उसका ये कहना मुझे अच्छा लगा था। उसे मेरी पसंद की याद है।
आज सुबह से रोना चाह रही हूँ, मगर रो नहीं पा रही। सोचा था, तुम्हें देखकर रो सकूँगी, मगर... कहते हुए वह यकायक चुप हो गई थी। उसके शब्दों में छिपा दंश मेरे अंदर कहीं गहरे कसका था। ठंडे पेय की घूँट लेती हुई वह कहती रही थी - जब दुख में होती थी, माँ की गोद में छिप जाती थी। माँ को कुछ भी बताना नहीं पड़ता था। वे मेरी मनःस्थिति समझ जाती थीं। कहती थी - नाड़ी कट जाने से क्या साथ छूट जाता है। तू कल भी मेरे भीतर थी और आज भी है, मेरी जिंदगी की तरह। तुझे समझने के लिए मुझे किसी भाषा की जरूरत नहीं पड़ती। मुझे अपनी गोद में समेटकर कहती थी, जितना चाहे रो ले, हल्की हो जाएगी। माँ की गोद में चेहरा छिपाकर रोने का वह सुख मुझसे आज भी नहीं भूलता। प्यार से कोई थाम ले तो दर्द के निर्मम काँटे भी नर्म फूलों में तब्दील हो जाते हैं... कहते हुए दामिनी के शब्द भीगने लगे थे, उनमें हल्की लरज समा गई थी - माँ जबतक थीं, मेरे हर दुख में छिपा एक सुख था। आज जो वह नहीं तो कोई सुख सुख नहीं। जीवन के बहुत थोड़े सुखों में से एक माँ थीं। उनको खोकर क्या खोया है, कह नहीं सकूँगी। हाँ, हमेशा के लिए बेघर हो गई हूँ। उनके आँचल के बगैर कोई छत अब छाँव नहीं देती। वह मेरी धूप और बारिश की छतरी, सर्दी की धूप... सबकुछ थीं।
तो आज भी रो लो, मेरी गोद में... मैंने बढ़कर उसके बालों में उँगलियाँ फिराने की कोशिश की थी, मगर वह परे हट गई थी - नहीं, अब नहीं। कहकर उसने तेजी से अपनी पलकें झपकाईं थीं - माँ थीं तो रोने का कोई अर्थ था, हक भी बनता था। मगर अब रोना दयनीयता के सिवाय कुछ भी नहीं...
मैं शर्मिंदा-सा खड़ा रह गया था। कितनी आसानी से यह आत्मीय चेहरे पिघलकर सपाट दीवार में तब्दील हो जाते हैं। इन दीवारों से टकराकर सिर्फ लहूलुहान हुआ जा सकता है, और कुछ भी नहीं...
दामिनी ने बकार्डी की दूसरी बोतल खोल ली थी - अब तुम जा सकते हो अशेष, शाम घिर आई है... वैसे आने के लिए थैंक्स... मुझे बिना ऑफर किए उसने नई बोतल से पीना शुरू कर दिया था। मेरे अंदर आग की एक तीखी लकीर-सी खिंच गई थी, इतनी अवज्ञा... ये बूँद-बूँद जहर क्यों, स्लो पॉयजनिंग... अगर उसने सबकुछ खत्म कर देने का ठान ही लिया है तो फिर एक ही बार, एक ही झटके में क्यों नहीं। मैं उससे क्षमा ही माँग सकता हूँ, यदि वह चाहेगी तो पैर भी पकड़ लूँगा, मगर वह मुझे एक मौका तो दे। इतना भी मर्यादाबोध वह मुझे नहीं दे रही। इस तरह से व्यवहार कर रही है कि जैसे कहीं कुछ घटा ही नही है। तटस्थता और अवमानना का चरम है ये। मैं इस तरह से जी नहीं पाऊँगा। मैं यकायक हद से गुजर जाने के लिए तैयार हो गया था। इस कगार पर पहुँचकर अब आगे एक गहरी खाईं के सिवा कुछ भी नहीं। मगर पीछे भी तो शून्य ही है।
दामिनी लड़खड़ाती हुई उठ खड़ी हुई थी - आज मैं किसी को एक्सपेक्ट कर रही हूँ अशेष, एक बहुत पुराना मित्र... नवीन... मैं यह नाम पहले भी सुन चुका था, कभी दामिनी के अंतरंग संबध थे उसके साथ। मेरे अंदर कुछ खौलने लगा था, तो ये बात है!
मैंने आगे बढ़कर दामिनी का हाथ पकड़ लिया था - तुम मुझे इग्नोर कर रही हो...
- नहीं तो! दामिनी मुसकराई थी - तुम्हें इग्नोर करने की कोई जरूरत नहीं है।
- हाँ, तुम ऐसा कर रही हो... मैं जिद पर आने लगा था।
- खुद को तुम कुछ ज्यादा ही इंपार्टेंस दे रहे हो अशेष... दामिनी के स्वर का व्यंग्य और भी तीक्ष्ण हो आया था।
- क्या तुम सबकुछ खत्म करना चाहती हो? पूछते हुए मेरी आवाज कँपकँपा आई थी।
- अरे नहीं! उसने अपने कंधे उचकाए थे - तुम रह सकते हो, इतने सारे हैं, तुम क्यों नहीं... फिर कुछ था भी क्या खत्म करने के लिए!
- मतलब...? मैं एकदम से बौखला उठा था।
- मतलब... मेरे शब्दों को दोहराती हुई वह हँसी थी - मतलब - मतलब कुछ नहीं... बात इतनी-सी है कि अबतक तुम्हीं थे, और अब... तुम भी हो!
- दामिनी...
- आज कौन है तुम्हारी 'डेट'? उसकी मुस्कराहट थमी नहीं थी।
मेरा सारा धैर्य अचानक समाप्त हो गया था। निर्णय के इस अवश्यंभावी क्षण में मैंने उसकी कोमल काया झिंझोड़ डाली थी, ऐसे कि उसकी नर्म चंपई कलाइयों पर नीली धारियाँ पड़ गई थीं। मैं टूटा हुआ था, अतः उसे भी तोड़ डालना चाहता था। डूबने से बचने के लिए दूसरे को डुबाने जैसी मनःस्थिति में हो आया था। एक अमूर्त यातना में पारे-सी थरथराती उसकी आँखों में... वह फिर भी अदम्य नजर आई थी - 'कोई भी सवाल करने का अधिकार तुम खो चुके हो अशेष, अपनी कमियों का आरोपण तुम मुझपर करने का प्रयास रहे हो! पहले स्वयं से पूछना सीखो...'
नहीं पूछ सकता, तभी तो तुमसे पूछ रहा हूँ...। आह! छिपाते-छिपाते मैंने स्वयं को किस तरह उसके सामने पूरी तरह से उघाड़ दिया था। उसकी कौंधती आँखों में उस समय मैं कैसा दयनीय लग रहा हूँगा, सोचने की सामर्थ्य भी मुझमें नहीं बची थी। मैंने अपना आखिरी हथियार उठाया था - ये मेरे होने न होने का प्रश्न था - मैंने तुम्हें सबकुछ दिया - ऐश्वर्य, सुख, पहचान...। और तुमने मुझे ही ठग लिया!
ठग लिया...! क्यों, क्या यह सब करने के पीछे तुम्हारी जो मंशा थी वह पूरी नहीं हुई? भोगा नहीं तुमने मुझे जी भरकर, जिस तरह भी चाहा?
उफ! उसकी उन कौंधती आँखों का मारक व्यंग्य...। मैं लहू-लहू हो उठा। अपमान की जलती तीलियाँ मेरी आत्मा तक पहुँच गई थीं। कहीं मेरा सर्वस्व धू-धू हो रहा था - क्या मैं बस इतना ही चाहता था? बात के अंत तक आते-आते मेरी आवाज में बाढ़ की हरहराहट-सी आ गई थी। उसकी काँच जैसी पारदर्शी त्वचा पर रिस आई वितृष्णा ने मुझे गहरे तक दाग दिया था। मैं रोना नहीं चाहता था, बस, बाकि धरती फट जाय...।
अच्छा! तो तुम्हें मुझसे कुछ और भी चाहिए था! कमरे में पहुँचकर वह कपड़े बदलने लगी थी। ब्रेसियर के हुक लगाते हुए उसने बड़े निर्दोष स्वर में कहा था। उसका गुदाज बदन मुझे अब भी कैफियत में डाल रहा था। हद है! वह अनजान बनी चुनौतियाँ दिए जा रही थी। मैं आज सचमुच आहत था। उसकी आवाज में भरी लताड़ को मैं सह नहीं पा रहा था। मेरी दैहिकता को उसने कठघरे में खड़ा कर दिया था। मुझे प्रतिरक्षा में उठना ही था। यह मेरी अस्मिता का प्रश्न था।
तो क्या मैं तुम्हारी इस न जाने किस-किस की जूठन बनी देह के पीछे था? इसी के लिए अपना सबकुछ छोड़ दिया...? खुद को भी एक हद तक खत्म कर डाला...? अपने परिवार के सामने, ऑफिस में, पूरे समाज में मैं आज कहीं मुँह दिखाने के भी लायक नहीं रहा। सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए... अपने आरोपों से आज मैं उसे छलनी कर डालना चाह रहा था। इस निःशेष क्षण में शायद मेरा यही एकमात्र संबल था।
तो आपको आत्मा, प्यार वगैरह की भी तलब होती है! अब ये मत कह बैठना कि मर्द लिंग नहीं, चेतना भी होता है, आत्मा भी होता है...। अपनी उसी मारक हँसी की वन्या में वह एकबार फिर बह गई थी। बिस्तर पर हँसी के जलतरंग में डूबती-उतरती उसकी देह जैसे ईप्सा के चरम रास के लिए ही रची गई थी। उसे हर क्षण इसका इल्म था और ऐतराज भी नहीं था। लड़ने से नहीं, साथ देने से घर्षण सहज हो जाता है। ये घर्षिता की समझदारी है या उसकी विवशता, वही समझती रहे।
मैं अपना आपा खो बैठा था -
अगर मैं न रहा तो तुम भी क्या बचोगी!
तो तुम मुझे धमकी दे रहे हो? मेरी बात का उसपर कोई असर नहीं था। मेरी दुर्बलता को उसने कैसे आर-पार जान लिया था - अशेष, मैं प्रकृति से पानी हूँ, निरंतर अपना रास्ता तलाशती हुई, हर क्षण, हर आकार, हर स्थिति में ढलती हुई... अपना अस्तित्व न खोकर भी दूसरों की शक्ल अख्तियार करने में पूरी तरह समर्थ, सक्षम! मैं जीवन का भी उत्स हूँ, उसे सींचकर हरा करती हूँ। जीवन माँगता है जीवन मुझसे, मुझे मृत्यु का भय मत दिखाओ......
एक पल रुककर वह मुड़ी थी - तुम जैसे मुझे खत्म नहीं कर सकते अशेष, क्योंकि औरत कभी खत्म हो ही नहीं सकती... उसने अपना आँचल सीने पर फैलाया था, शायद स्वयं को और अधिक उजागर करने के लिए - देखो, प्रकृति के पास दो ही विकल्प है - या तो औरत के होने का या कुछ भी न होने का और जीवन कुछ भी न होने का विकल्प कभी चुन ही नहीं सकता। सुन लो जान! मुझसे मत लड़ो, संधि कर लो, समझदारी इसी में है कि तुम मेरी पतलून पलटन में शामिल हो जाओ... ऐसा कहते हुए उसकी आँखों में गहरा व्यंग्य और शरारत उतर आई थी। हँसी छिपाने की कोशिश में चेहरा सुर्ख हो रहा था।
पतलून पलटन... इन शब्दों को उच्चारते हुए मेरा मुँह शायद आश्चर्य से कुछ ज्यादा ही खुल गया था। न जाने वह आज किस मूड में थी...
क्यों, अगर तुम जैसे मर्द घाघरा पलटन बना सकते हैं तो हम औरतें पतलून पलटन नहीं बना सकतीं... उसकी आँखों की नीली कौंध अबतक मारक हो उठी थी, जैसे लहक उठेगी -
यह तुम्हारे अस्तित्व का सवाल है। रही बात मेरी... उसने अपनी साड़ी नाभि के बहुत नीचे तक सरकाई थी, मेरी देह में उबाल खाता लहू यकायक पौरुष की कठिन रेखाओं में तब्दील हो जाना चाहता था, मगर मैंने उसे अपने पैरों के बीच कुचल डाला था। इस हद से ज्यादा जलील मैं हो नहीं सकता था।
एक क्षण रुककर उसने मुझे व्यंग्य से देखते हुए अपनी बात आगे बढ़ाई थी - रही बात मेरी, तो मैं नमक-सी घुली हूँ हर नस में, जीवन का स्वाद हूँ - सनातन स्वाद हूँ। शिवलिंग धारे हूँ - गौरी पट हूँ - समझे मिस्टर लिंगम? फिर पागल कर देनेवाली वही मातवाली हँसी। मैंने धैर्य से उन्माद का वह पल गुजर जाने दिया था - तुम तो कहती थी मुझसे इतना प्यार करती हो...
उससे तो कभी इनकार नहीं किया, मगर इतना तय है कि अपनी माँ की तरह प्यार को कभी मैं अपनी कमजोरी नहीं बनने दूँगी...
मैं तुम्हारा पहला प्यार हूँ... मैं नाराज दिखना चाहता था, मगर दयनीय बनता जा रहा था। अपनी आँखों में रिस आए पिघलाव को मैं रोक नहीं पा रहा था किसी तरह।
हाँ, मगर आखिरी तो नहीं... कभी किसी ने कहा था अशेष, आज सोचती हूँ कि कितना सही कहा था - प्यार जैसी शाश्वत चीज कभी पहली या आखिरी कैसे हो सकती है...
एक स्त्री होकर तुम... न जाने मैं क्या कहना चाह रहा था।
लो, शुरू हो गए... कॉमेडी क्या है, जानते हो, एक मूर्ख से मूर्ख पुरुष भी स्त्री धर्म क्या है, जानता है, मगर एक पंडित भी उनके प्रति अपना कर्तव्य नहीं जानता, सिर्फ अधिकार याद रहता है उनको। कितने जजमेंटल बन जाते हैं लोग औरतों के मामले में... सिर्फ सतीत्व ही स्त्रीत्व नहीं होता, ये कब समझोगे तुमलोग...? कहते हुए उसकी आवाज में बिखराव था, गहरा नशा भी। लहराकर चल रही थी वह, किसी बेसुध नागिन की तरह।
- तुम इस तरह से सोचती हो, यदि पहले जानता... मेरे सारे तर्क, युक्ति गडमड होने लगे थे।
तो तुम्हें कभी न अपनाता, त्याग देता... हैं न अशेष? मेरी बातों को उसने बीच में ही झपट लिया था और फिर मुस्कराने लगी थी -
तुम तो मुझे हमेशा से ही छोड़ते आए हो पुरुष! ...कभी बुद्ध बनकर तो कभी राम होकर... लक्ष्मी भी तुम बनाते हो और वेश्या भी तुम ही बनाते हो। स्त्री तो पैदा भी नहीं होती, बना दी जाती है - इसी दुनिया में। यह तुमसे बेहतर कौन जानता है! कुछ और बात करो... उसके स्वर में वितृष्णा गहरी हो आई थी। आँखों में उसी का नीला जहर ओर-छोर फैला था।
दो पल के लिए हमारे बीच की चुप्पी ऐंठती, खिंचती रही थी। दामिनी के कमनीय चेहरे में आज जलजला-सा कुछ भीषण, कुछ अदम्य था। मैं अंदर ही अंदर सिकुड़ रहा था, बौना पड़ता जा रहा था। मेरे अंदर कोई नैतिक बल नहीं था। किसके सहारे सतर्क होकर खड़ा रहता! मेरी रीढ़ मे जैसे कीचड़ भर गई थी, मैं लथपथ हो रहा था एकदम से। लुंजपुंज... थोड़ी देर बाद जब वह बोली थी, मैं उसकी धार से कट-सा गया था -
स्वर्ग और धरती के बीच त्रिशंकु की तरह जीनेवाली औरत ने तो कभी किसी स्वर्ग की कामना भी नहीं की थी। वह अपना स्वर्ग स्वयं रचना चाहती थी। मगर उसे भी तुमलोगों ने नर्क में बदलकर रख दिया...
न जाने कितनी देर बाद उसने खुद को समेटते हुए हँसी से सजल हो आई आँखों को अपनी उल्टी हथेली से पोंछा था - क्यों मनु, कितनी बार श्रद्धा तुम्हारे हाथों छली जाएगी? तुम्हारी फितरत तो बदलने से रही। दैहिक भूख के वशीभूत हो पशु के स्तर पर जीते चले जाना तो तुम्हारी नियति है ही, मगर श्रद्धा में अब इड़ा का भी समावेश हो गया है, वह अब हृदय भी है और बुद्धि भी... अपराजेय हो गई है! तुम्हारे छल-प्रपंच की पहुँच से बहुत दूर...
श्रृंगार मेज के आईने में समस्त मायावी आरोह-अवरोह के साथ प्रतिबिंबित अपनी काया को निहारते हुए न जाने इसबार वह कैसी पनीली आवाज में बोलने लगी थी। साथ में पलकों की सघन कतारें भी दीए की सुनहली पाँत की तरह झिलमिला उठी थीं।
- माटी की इस बाँबी में कीड़ों की तरह रेंगती हुई जिंदगी तुम्हें चाहिए तो लो, मैं यह तुम्हारे पास रखे जाती हूँ...। उसने अपना आँचल सरकाकर ब्लाउज की डोरियाँ अलगा दी थीं - मगर अब श्रद्धा की श्रद्धा तुम्हारी नहीं, उसका हृदय तुम्हारा नहीं, वह स्वर्ग की थाती हो गई है - प्रेम का दिव्य पुष्प जिसे देवता भी अपने चरणों में रखवाने का दुस्साहस नहीं करता, सर माथे लेता है!
यकायक वह झटके से मुड़कर खड़ी हो गई थी। शायद पलकों पर भीग आए मन को ही छिपाना चाहती थी। इसकी एक झलक भी वह मुझे अब दिखाना नहीं चाहती... मेरा दिल डूबने-डूबने को हो आया था। माटी के मोह में शरीर क्या, आत्मा भी इसमें दबकर रह गई है। मेरे हाथों से मुक्ति का आकाश दूर, बहुत दूर हो गया है। मुझे घुटन हो रही है - ये किसने मेरी जीवन रेखा एक ही झटके से काट दी है!
हाँ, मुझसे - मनु से भूल हुई। बल्कि मैं स्वयं एक भूल हूँ - विधाता के हाथों से हुई शायद पहली और आखिरी भूल। हाड़-मांस का इनसान होना कभी-कभी इतना गलत क्यों हो जाता है...?
मेरी तरफ देखकर वह फिर सामान्य ढंग से मुसकराई थी - जो तुम्हारा काम्य था, वही तुम्हारा प्राप्य है, फिर यह शिकायत क्यों? उसके चेहरे की सहज हो आई रेखाओं में न जाने मैं क्या ढूँढ़ रहा था। अब वहाँ मेरे लिए कुछ भी न था - न प्रेम, न वितृष्णा, न ही कुछ और... उसकी बोलती हुई आँखें आज सपाट दीवार में तब्दील हो चुकी थीं। एक गहरे शून्य के सिवा वहाँ कुछ भी नहीं था। मेरे अंदर एक डूब पैदा होने लगी थी यकायक। कैसा सर्वहारा अहसास था ये!
- मैंने तुम्हें बार-बार स्वयं को संपूर्णता में देना चाहा, मगर तुमने मुझे हर बार खाली हाथ लौटा दिया... और अब तो... मेरे संपूर्ण प्रेम और समर्पण के बदले में तुमने... इतना कहने में ही जैसे वह हाँफ गई थी - जो तुमने किया, पूरे होशो-हवास में किया, सोच-समझकर, फिर तुमसे कुछ पूछकर मैं स्वयं को छोटी क्यों करूँ? इतना आत्मसम्मान तो है मेरा...
मुझमें वहाँ से हट जाने की शक्ति भी नहीं बची थी, कहाँ जाता...! खुद से छूटकर कहाँ जाता...! सदियों की दहलीज पर खड़ा मैं जैसे निर्णय के एक क्षण का मुखापेक्षी था। निर्णय का ये दैवीय क्षण न जाने कितनी पीढ़ियों का दिशा निर्देशन करता है, शताब्दियों को चेहरा देता है और देता है इतिहास को उसका साक्ष्य।
इस विलक्षण क्षण में जैसे वह संपूर्ण मायावी बन गई है - यथार्थ से भी स्पष्ट, मगर स्पर्श से परे! कर्पूर की तरह किसी अलौकिक जगत में अंतर्धान होती हुई-सी। वेश्या के आँगन की मिट्टी से बनी एक दिव्य प्रतिमा। मैं अभिभूत देखता हूँ, देखता हूँ... एक ही सेज पर हमने अपनी-अपनी वासनाओं को जिया है, फिर मैं कैसे उस सेज की एक सिलवट मात्र बनकर रह गया और वह उससे इतना ऊपर उठ गई! - जैसे हाथ बढ़ाकर स्वर्ग ही छू लेगी।
जिस काम को उसने अपने निर्वाण का मार्ग बनाया, वही मेरे लिए एक कलंक क्यों कर बन गया? क्या ये विपर्यय दृष्टिकोण में फर्क की वजह से है या विधाता का कोई दारुण अन्याय? संभोग किसी के लिए शरीर से की गई प्रार्थना है तो किसी के लिए घर्षण की एक ग्लानि मात्र या लंपट होने का आजीवन आक्षेप...
वह मेरी सोच को सुनती हुई-सी कहती है, बहुत शांत और स्थिर आवाज में, बिना किसी उत्तेजना के, जैसे गहरी प्रार्थना में हो - सच्चे प्रेम में अपनी संपूर्ण आस्था और हृदय से किया गया कोई भी काम कभी गुनाह नहीं हो सकता... मगर हवस गुनाह ही होती है... सजा तो तुम्हें मिलनी ही है...
उसकी आवाज गूँजती हुई-सी प्रतीत हुई थी, आकाशवाणी की तरह। सुनकर मैं स्तंभित खड़ा रह गया था - धीरे-धीरे स्वयं को एक लिंग में आपाद-मस्तक परिवर्तित होते चले जाने के एक भयानक अनुभव के साथ। दामिनी की आँखें नीली द्युति में अब भी कौंध रही थीं - अपरिहार्य नियति की तरह...!
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