औरत जो नदी है... / भाग 9 / जयश्री रॉय
उसकी देह की सिहरी हुई रेखाओं पर हँसी की ये मादक रुनझुन... इसे देखना भी अपने आप में एक अनुभव था! हवा से थहराते हरे-भरे खेत-सा उसका शरीर कौतुक के क्षणों में बाजरे की बालियों की तरह खनक-खनक उठता था। ऐसे में मैं अपना होश खो बैठता था। मेरे जानुओं के भार से दबी वह न जाने कैसी तंद्रिल, मदालस आवाज में हाँफती हुई कहती थी - जानते हो अशेष, औरत महज एक योनि नहीं होती, परंतु मर्द शायद आपाद-मस्तक एक लिंग ही होता है। तभी तो बेचारा योनि से आगे बढ़ नहीं पाता, रस के संधान में रसातल में पड़ा रहता है
कभी-कभी उसकी बातें मुझे तिलमिला देतीं। आक्रोश में आकर मैं उसे रौंद डालता। वह रो तक पड़ती। उसकी उन कौंधती आँखों में रसमसाते ये आँसू मुझे एक पाशविक उल्लास से भर देते थे। प्रेम और बलात्कार के बीच की ये महीन-सी रेखा कौन तय करता है... ये सिर्फ औरत को तय करना होता है और वही ये कर भी सकती है। कोई और नहीं। एकबार उसने कहा भी था, जो कि वह बार-बार दुहराती रहती थी - अपनी सभ्यता के लंबे सफर के पदचिह्न तुम मेरे जिस्म पर देख सकते हो - दाँत, नख, खुरों से लेकर सिगरेट, सिगार से जलाए हुए निशानों तक...
हर औरत अपने जीवन में कभी न कभी घर्षित होती है। चाहे ये मानसिक स्तर पर घटा हो या शारीरिक स्तर पर, मगर घटता जरूर है! अपनी त्वचा पर पड़े लाल-नीले धब्बों को सहलाते हुए उसने न जाने कैसी आवाज में कभी कहा था। उस क्षण न मैंने उसकी तरफ देखा था, न उसने ही कुछ और कहा था। बस, अपनी नुची-कुतरी देह को कपड़ों में समेटते हुए उसने मुझे अपनी कौंधती आँखों से देखा भर था और मैं एकबार फिर अपनी भूमिका तय नहीं कर पाया था - मैं उसका प्रेमी था या कोई बलात्कारी! अक्सर यही होता था, उन कौंधती हुई आँखों का तिलिस्म मुझे अधर में लटकाकर रख देता था।
वह मुझसे पारदर्शी रूह की बातें करती रही, मैं उसके जिस्म की मांसल हवस में डूबता रहा और एकदिन 'प्राण के बिना देह क्या है, एक लाश ही तो है और लाशों का ठंडा संबंध जीने की संवेदनहीनता मैं जुटा नही पा रही हूँ...' कहकर वह अचानक चुप हो गई थी। जैसे यकायक अपने ही अंदर से कहीं खो गई हो!
इसके बाद भी उसने मुझे स्वयं में हर तरह से उतरने दिया। मैं उतरा, डूबा, समाया, मगर न जाने क्या था जो पा न सका... उफ्! नैराश्य का वह कैसा मार डालनेवाला सांघातिक दौर था। सबकुछ पा लेना और फिर भी कुछ न पाना। ठगे जाने की हाड़-मज्जे तक धँस आने वाली अनुभूति... ये आस्था-अनास्था के बीच का क्षण कितना मारक होता है! कैसा दुर्दांत... आदमी सौ-सौ मौतें साँस-साँस जीता चला जाता है! मौत को मरना नहीं, जीना अधिक कठिन होता है। और यही मौत मुझे उन कौंधती आँखों ने दी थी। मैं जीने के भ्रम में मरता चला गया और मुझे पता भी न चला। ये कैसा छल था, छल भी था? मैं जान नहीं पाया। उसे आकंठ पीकर, उसके जानुओं के बीच बार-बार स्खलित होकर मैं शेषप्राय हो आया... मगर उसकी जिजीविषा बनी रही, वह बनी रही - अपनी आँखों में तड़ित रेखा का काजल सजाए, देहलता में उत्तेजना के सुर्ख गुलाब उगाए, रसमसाते नितंबों में इंगितों का माताल ज्वार उठाए वह अपनी राह चलती रही - पुरुषों की अतृप्त तृष्णा से रेत हुए हाड़-मज्जे से ईप्सा की तड़फड़ाती कामुक, उत्तेजक मछलियाँ छान लाने में हरबार सक्षम। हर मर्द मानो मछली था और वह पानी थी - नील तिलिस्म भरा जाल थी। खुद में सुलझी, दूसरों को बेतरह उलझाती...
इसी लुकाछिपी और कशमकश में कई दिन और बीत गए थे, शायद महीना ही। इस बीच मैं एकबार और घर हो आया था। रेचल भी एक सप्ताहंत मेरे साथ बिताकर गई थी। उसदिन भी मिसेज लोबो घर पर नहीं थीं। किसी रिश्तेदार की शादी में गई हुई थी। मैंने ही रेचल को मिसेज लोबो के घर पर न होने की सूचना दी थी। वह चुपके से आ गई थी। शाम की बस से आकर दूसरे दिन फिर सुबह-सुबह मुंबई लौट गई थी। उसके आने की बात का पता मिसेज लोबो को भी चल नहीं पाया था।
मैंने उसरात बिस्तर पर उससे पूछा था - ये सब कब तक...
वह मेरे सीने में सिमट आई थी - ये मत पूछो, मुझे भी कुछ मालूम नहीं। बस यही क्षण... न आगे कुछ न पीछे कुछ... मुझे उसकी ये बात जँची थी। मैं उस पल की खूबसूरती में निश्चिंत डूब गया था...
इस साल गोवा में मई से ही बारिश शुरू हो गई। एकदिन दोपहर के बाद तेज हवा चली और देखते ही देखते मौसम बदल गया। न जाने कहाँ से यकायक उमड़-घुमड़कर मेघ आए और आकाश को घेरकर जम गए। दिनों तक लगातार बारिश होती रही। यह आकस्मिक बदलाव सुखद था। तेज गर्मी से निजात मिल गई थी। देखते ही देखते हर तरफ गहरी हरियाली छा गई थी।
गोवा में यह मेरी पहली बारिश थी। इतनी तेज और घनघोर बारिश शायद ही मैंने पहले कभी देखी थी। मोटे पर्दे की तरह घना होकर पानी बरस रहा था - दिनों तक बिना रुके-ठहरे - अविराम...
कभी-कभी पूरी शाम या दोपहर हम चुपचाप बारिश होते देखते हुए बिता देते थे। पहली ही बारिश में गुलमोहर के खूब सारे फूल झड़ गए थे, दामिनी का कॉटेज जैसे झड़े हुए फूलों में डूबकर रह गया था। साँझ के गहरे पीले आकाश के नीचे सुर्ख, नारंगी फूलों से अँटा उसका छोटा-सा कॉटेज कितना अद्भुत दिखता था - लंबे गलियारे में जड़ी खिड़कियों के रंग-बिरंगे काँच, उनपर प्रतिबिंबित पूरा आकाश - छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटा हुआ...
दामिनी को बारिश बहुत अच्छी लगती थी, अक्सर छज्जे पर उतरकर भीग जाती थी। दोनों हथेलियों में पानी की बूँदे इकट्ठी करना उसे अच्छा लगता था। उसका बारिश में भीगते हुए किसी बच्ची की तरह खुश होना मुझे मुग्ध करता था। भीगकर देह से लिपटी साड़ी से झाँकता हुआ उसका पेट - गोरा और मुलायम - किसी खरगोश के बच्चे की तरह, गहरी नाभि में जड़ा हुआ पानी का नगीना - अपनी छोटी-सी मुट्ठी में इंद्रधनुष के रंग समेटे... मैं निर्निमेष तकता रह जाता था।
कई बार हम एक छतरी में आधे-आधे भीगते हुए देरतक निरुद्देश्य चलते रहते थे, न जाने कहाँ-कहाँ भटकते हुए। ठंडी हवा से सिरहते बदन एक-दूसरे की आँच से हल्के-हल्के पिघलते रहते थे, एकदम निःशब्द। कई बार मैं दामिनी को उसकी नजर बचाकर देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाता था। विशेषकर गीले कपड़ों के अंदर से झाँकती हुई वे चाँदी की सुडौल कटोरियाँ - बेदाग सफेद... ठंड में सिहरे हुए...
रात को कभी-कभी मैं उसकी कॉटेज में ठहर जाता था। विशेषकर बारिश की रातों में दामिनी स्वयं मुझे रोक लेती थी। 'साथ-साथ जागकर सारी रात छज्जे पर गिरते हुए बूँदों का संगीत सुनेंगे...' ऐसा हम करते भी थे, देर राततक बिस्तर पर लेटे हुए बारिश की आवाज सुनते रहते थे। एक हल्की गुनगुनाहट से रात का निविड़ सन्नाटा भर जाता था, खुली हुई खिड़की पर जुगनुओं की सुनहरी पाँत चमकती रहतीं... इन दिनों समंदर उफन आया था, उसका गर्जना स्पष्ट होकर दूर-दूरतक सुनाई पड़ने लगी थी, जैसे दरवाजे पर ही लहरें टूटी पड़ रही हों। एक रोमांच, सुखद दहशत से पूरा माहौल थरथराता रहता था। हवा समुद्र की नमकीन गंध से भरी काँच की खिड़कियों पर दो हत्थड़ मारती हुई रातभर शोर मचाती रहती।
उसदिन जब मैं दामिनी की कॉटेज पर लगभग भीगकर पहुँचा था, बारिश तभी होकर थमी थी। बादल फीके होकर दिन एकदम उजला हो आया था। दामिनी उस समय अपने पोर्टिकों में बिछे गुलमोहर के कालीन में डूबी हुई-सी खड़ी थी। चेहरे पर चढ़ती साँझ का पीलापन था, कुछ उदास भी दिख रही थी। मगर मुझे देखते ही उसकी आँखें दिप उठी थीं। एक तरह से खींचकर ही मुझे टेरेस पर ले गई थी। वहाँ बिछी कुर्सियों पर हम बैठ गए थे। थोड़ी देर बाद उषा हमारे सामने चाय की प्यालियाँ रख गई थी। प्यालियों से उठती चाय की गंध और भाप माहौल को खुशनुमा बना रहे थे। नीचे लॉन में ताजी छँटी हुई मेंहदी की झाड़ियाँ महक रही थीं। सावनी के पौधे गुलाबी, बैंजनी फूलों से लद गए थे।
'जानते हो, आज मैंने गार्डन में बहुत काम किया... शुक्रबार के बाजार से उषा ढेर सारे फूलों के पौधे ले आई थी। दो दिन पहले नेलशन खाद भी पहुँचा गया था। उसे खाद की बहुत अच्छी जानकारी है। नर्सरी में सालों काम कर चुका है। आज क्यारियाँ तैयार करके बीज रोपे हैं, कुछ पौधे भी रोपे हैं - रेड कार्नेशन, गुलदाउदी, पनसुटिया, सदाबहार...' कहते हुए दामिनी का चेहरा उजला हो उठा था। आँखों में मनपसंद काम को अंजाम देने का गहरा संतोष था। मैं मुस्कराया था - तुम मुस्कराती हुई अच्छी लगती हो दामिनी... कभी उदास मत रहा करो, अभी जब आया था, तुम उदास लग रही थी।
- हाँ, आज अंदर बहुत कुछ सुबह से ही जमा हो गया है। मगर उन्हें किसी के साथ शेयर न कर पाने की विवशता से खिन्न हो गई थी। सोच रही थी, तुम आज आओगे कि नहीं... कहते हुए उसका चेहरा अंदर के किसी अनाम भाव से स्निग्ध हो आया था - बहुत कमनीय भी - 'मुझे तुम्हारी कितनी आदत पड़ गई है...'
- बुरी आदत... मैंने मुस्कराकर चुटकी ली थी।
- यही सही... उसकी आँखों में हँसी कौधी थी - तड़ित रेखा की तरह।
- बदल डालो... अब मैं गंभीर था।
- नहीं! कभी नहीं! अब वह भी गंभीर थी।
इसके बाद थोड़ी देरतक एक-दूसरे की आँखों में देखकर हम अनायास हँस पड़े थे। अबतक हमारी चाय ठंडी हो गई थी। दामिनी ने उषा को बुलाकर दुबारा चाय गर्म कर लाने के लिए कहा था। उषा दुबारा चाय लाने से पहले मेज पर प्याज के पकौड़े रख गई थी। दामिनी ने उसे मुस्कराकर देखा था।
- तुम्हारी ये उषा बड़ी समझदार है। इस भीगे मौसम में मुझे बस यही खाने की इच्छा हो रही थी। मैंने जल्दी से एक पकौड़ा उठा लिया था - इसका घरवाला बहुत किस्मतवाला है...
- हाँ, और उषा भी, कल रात ही इसके घरवाले ने शराब पीकर उसका सर फोड़ दिया है। पिछले साल हाथ तोड़ दिया था। इस मामले में हम औरतें अधिकतर भाग्यशाली होती हैं... दामिनी व्यंग्य से मुस्करा रही थी।
- झोंपड़पट्टियों में तो यह सब कॉमन ही है... मैंने हल्के ढंग से कहा था।
- सिर्फ झोंपड़पट्टियों में ही क्यों? हर जगह - आलीशान बँगलों में भी यही सब होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि उन घरों से रोने-चिल्लाने की आवाजें बाहर नहीं आतीं। पढ़ी-लिखी औरतें अपने मुँह में आँचल ठूँसकर रोती हैं। अपने जख्मों को 'पाँव फिसल गया' कहकर छिपाती हैं। आभिजात्य के भारी बोझ को ढोना भी इतना आसान नहीं होता। औरतें घुटकर मर जाती है वहाँ, मगर खुलकर रो भी नहीं पातीं। कहते हुए अचानक दामिनी तल्ख हो उठी थी।
उषा पकौड़े का दूसरा प्लेट लेकर आई तो मैंने देखा उसके सर पर जख्म के दाग हैं जिन्हें वह आँचल से ढँकने का प्रयास कर रही थी। मुझसे नजरें मिली तो उसने झट से अपनी आँखें झुका ली। मुझे उसके लिए अफसोस हुआ था, सचमुच वह बहुत भली थी, मेहनती और ईमानदार। धीरे से कहा था, इस तरह कि वह सुन न सके -
और यह सब खुलेआम होता है...! मेरी खिन्नता मेरे स्वर में स्पष्ट हो उठी थी- अधर्म और किसे कहते हैं!
मेरी बात सुनकर दामिनी की आँखों में एक हल्की नीली कौंध-सी उठी थी, उसके अंदर जैसे कुछ यकायक बिफरा था -
अधर्म का रोना कौन रोए, जब यहाँ धर्म के हाथों औरतें बिक जाती हों! क्या है न अशेष, धर्मराज जब स्वयं एक स्त्री को जुए के दाँव पर लगाते हैं, सारे अधर्म पर अपने आप धर्म की मुहर लग जाती है। ये खेल बहुत पहले शुरू हुआ है मनु... इन दिनों जब भी वह गुस्से या आक्रोश में होती थी, मुझे इसी तरह संबोधित करती थी - मनु कहकर या पुरुष कहकर! वह अब भी आग की तरह दहकती हुई कहे जा रही थी -
औरत के उसके जिस्म में उतरने से पहले ही उसे उसके स्त्रीत्व से बेदखल कर देने की साजिश रची गई थी और अपने ही अनजाने औरत भी उसमें शामिल हो गई थी। एक सामूहिक मन हमारे हाड़-मज्जे, रक्त-मांस में निःशब्द रातदिन बहता रहता है। दिमाग सब समझता है, मगर मन स्वीकार नहीं पाता - संस्कार! संस्कार! और क्या है ये? एक हजार वर्ष की बुढ़िया हमारे अंदर खाँस-खाँसकर कहती रहती है - मर्यादा! सीता, मर्यादा... हाथ-पाँव तराशे हुए, अपने पंखों और उड़ान से महरूम हम पक्षियाँ धरती पर रेंगती हुई आसमान को तकती रहती हैं...। आखिर कब तक और क्यों!
तुम जानते हो अशेष, मुझे लगता है, मनुष्य ने पक्षियों के लिए पिंजरा बनाकर दुनिया का सबसे बड़ा जुर्म किया है। वह धीरे से उठती है और आँगन में लटकते हुए एक खाली पिंजरे को दिखाकर हँसती है - इस पिंजरे को देखो अशेष, तुम्हें पता नहीं, इसमें कभी एक चिड़िया बंद हुआ करती थी - सुनहरे पंखों और नीली आँखोंवाली। गाने से ज्यादा रोती थी - उसे उसका आसमान जो बुलाता था! मैं उसकी भाषा समझ लेती थी - औरत हूँ, इसलिए! वह भी मेरी चुप्पी सुन लेती थी - पक्षी जो थी!
हम दोनों का पिंजरा एक ही था - चाहे शक्ल अलग रही हो। हर पिंजरे में सलाखें थोड़े ही न होती हैं। दीवारों से भी बनता है पिंजरा - औरतों का सनातन पिंजरा... जिसे औरतों का घर कहते है, उसकी वास्तविक विडंबनाओं को एक औरत से बेहतर कौन जानता-समझता होगा! इसी घर-परिवार के नाम पर वह आजन्म ब्लैकमेल होती है, शोषित और प्रताड़ित होती है, उसका दोहन किया जाता है... किसी और के नहीं, बल्कि अपने हृदय और प्रेम के हाथों वह सदा के लिए बंधक बनी रहती है... रिश्तों की दुनिया में बँधुआ मजदूर बनकर जीती हैं औरतें। यही उसका सबसे बड़ा दुख है, त्रासदी है... कहते हुए उसके शब्दों का शोक उसकी समूची काया में गहरा नील बनकर घुल आया था। हरसिंगार-सी उजली वह अब साँझ के धूसर में मिलकर मलिन दिखने लगी थी।
अपनी अधूरी बात के एक सिरे को उसने बहुत देर बाद फिर थामा था - इसी पिंजरे को मैंने एकदिन तोड़ दिया था - असीम को छोड़कर! यह फैसला मैंने लेने में देर नहीं की थी, शादी के तीन महीने में ही असीम को त्याग दिया था। अपनी माँ का उदाहरण मेरे सामने था, शायद इसीलिए अपनी स्थिति को समझकर एक सही निर्णय लेने में मुझे समय नहीं लगा था। प्रेम मुझे बंदी बना सकता है, प्रेम का छल नहीं...
वह मुझसे मुखातिब थी, मगर शायद अपने आप से ही कह रही थी। उसकी आँखों के सूने आकाश में किसी पंख की डोल या उड़ान नहीं, बस उसका अधूरा सपना था - धीरे-धीरे मरते हुए, टूटते हुए... रुक-रुककर कहा था उसने, छोटी, लरजती आवाज में - एक दिन अपना रोना भूलकर वह पक्षी मेरे लिए सारी रात गाई। वह रात बहुत भारी थी मुझपर। असीम को त्याग आई थी उसी सुबह। अपने दुःसह भार से जाँते दे रही थी जैसे वह रात, साँस लेना एक मशक्कत... मन पर पहाडों का बोझ - उस रात निरंतर गाकर उस छोटी-सी चिड़िया ने मेरा दुख बाँट लिया था, साझे के दर्द में वह निविड़, निझूम रात पिघलकर निःशब्द बह गई थी।
उस रात की सुबह पंखों की तरह हल्की और मुलायम थी। एक नई उम्मीद की खुशबू से लबरेज...। अपनी छोटी-सी खुशी के हासिल पर मैंने उस सुबह को एक उपहार दिया था, मेरे लेखे बहुत बड़ा - उसकी चंपई फिजाँ में उस छोटी-सी चिड़िया के रेशमी पंखों की उड़ान घोल दिया था... फिर जैसे जादू हुआ, कोई आसमानी करिश्मा - पारदर्शी चुप्पी काँच की तरह चटक गई, पूरब की हवा हल्के से गुनगुनाई, आकाश अपने संपूर्ण विस्तार में आ गया...!
अपने पर तोलने से पहले उस पक्षी ने जिस तरल दृष्टि से मुझे देखा था, वह मेरे अबतक के जीवन का सबसे बड़ा हासिल और असल है! उसदिन उसे आजाद करके मैं भी कहीं से आजाद हो गई थी। वह दिन है और आज का दिन है, मैंने अपने अंदर के आसमान में कभी उड़ना नहीं छोड़ा है। बाहर पहरे लगे रहते हैं, मैं अंदर उड़ती रहती हूँ - हजार ताले में उड़ती रहती हूँ! यही शायद मेरे पिंजरे की सबसे बड़ी हार है।
अचानक वह मेरी तरफ मुड़ी थी, आँखों में कौंध के अनगिन स्फुलिंग लिए - आजाद रूहों के लिए आजतक कोई पिंजरा बन भी पाया है! चाह हो तो पिंजरे को भी आसमान बन जाना पड़ता है... वह ढलती धूप की जद में सूरजमुखी बनी मुस्करा रही थी, अपने अंदर की किसी अनाम खुशी में डूबी हुई-सी, एकदम आप्लावित... वह जमीन पर खड़ी थी, मगर मुझे प्रतीत हो रहा था, हवा के परों पर तैर रही है - सुगंध के झोंके की तरह... एक पल के लिए मेरा मन किया था, उसके साथ हो लूँ, मगर तबतक न जाने वह किस आसमान पर पहुँच चुकी थी। उसकी आँखों में चाँद-तारों की सुदूर नीहारिका जाग गई थी। मैं जान गया था वह मेरी बाँहों की हद में है, मगर मेरी हद में नहीं। मुट्ठी में क्षरते हुए शून्य को बाँधे मैं एकबार फिर अकेला खड़ा रह गया था, वह क्षण निःसंगता का चरम अनुभव था, पारे की तरह पारदर्शी, मगर सांघातिक!
न जाने कितनी सदियों बाद वह मुड़ी थी, आँखों में सारा आकाश लिए और मुझे कई पलों तक न देखती-सी दृष्टि से देखती रही थी - अनमन, उदास... इस तरह कि मैं उसकी ठंडी ऊष्मा में पिघल आया था। और फिर मैंने अनायास पूछ लिया था, न जाने किस उछाह में - क्या चाहती हो दामिनी? वह तत्क्षण मेरे करीब सरक आई थी, आँखों में पिघलते हुए सितारे समेटकर - पक्षी हूँ, आकाश चाहती हूँ, सारा आकाश... बात के अंततक पहुँचते हुए उसकी सघन पलकें किसी पक्षी के पर तोलते पंख-सी कई बार तेजी से उठी -गिरी थीं, जैसे उसी क्षण हवा में घुलकर आकाश हो जाएँगी!
मैंने उसकी उँगलियों की चंपा-सी लंबी पाँत सहलाई थी - अब ये मरण इच्छा क्यों?
मरण इच्छा... उसने शब्दों को अनमन दुहराया था और फिर जैसे स्वयं से ही कहा था- मैंने अपने अंदर के आसमान में कभी उड़ना नहीं छोड़ा था अशेष! इच्छाएँ तो भुलाई जा सकती हैं, मगर अपनी जात का क्या करे कोई! हर इनसान - खासकर औरत - फितरत से पक्षी ही होते हैं, उनके पंख नहीं होते तो क्या।
उसकी पलकों में कैद आकाश के गहरे नीले विस्तार में डूबता-सा मैं उसकी बातें सुनता रहा था, सुनने से ज्यादा महसूस करता रहा था। दामिनी अक्सर अपनी देह से आगे बढ़कर एक सोच बन जाया करती थी, जिसे महज मुट्ठियों में बंद करके नहीं रखा जा सकता है। विचारों में उतारना पड़ता है, शुमार करना पड़ता है। वह कह रही थी, शब्दों में आग समेटकर, आँच देती हुई-सी -
उसके पंख तो सभ्यता की शुरुआत में ही बड़े कौशल और दूरदर्शिता से कतर डाले गए थे। बगावत के सारे हथियार कुंद करके रख दिया गया था। माँ ने अपनी डायरी में लिखा था, मेरी आँखों और सपनों के बीच हमेशा से यह दुनिया खड़ी रही है। अच्छा, इसके पाँव नहीं दुखते... समाज - एक पुरुष सत्तात्मक समाज - के सुचारु और निर्विघ्न ढंग से चलने के लिए इतना एहतियात जरूरी था। जमीन के साथ आसमान को हथिया लेने का यह षड्यंत्र भी बहुत पुराना है - इतिहास और तारीखों की लंबी फेहरिस्त से भी परे...
मेरे पास शब्द थे, मगर उत्तर नहीं। कहता तो भी क्या कहता! इस समय कुछ बोलना कठघरे में खड़े होकर बोलने जैसा लगता। और फिर झूठ बोलने के लिए जिस अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है, वह मेरे पास इस क्षण उपलब्ध नहीं थी। सदियों ने जो गलतियाँ की थीं, हर लम्हा उसकी सजा अब किस्तों में पाना ही था! वह अपने अंदर के किसी यातना भरे सफर में थी - उदिग्र, अस्थिर... टहलती हुई खिड़की के पास चली गई थी - जानते हो अशेष, मेरी माँ की तरह ही एक लंबी उम्रतक पिंजरे में रहकर भी मैंने अपने सीने में उड़ान को बचाकर रखा।
ऐसा कैसे कर लेती हो? क्या सच को अदेखा करके? उससे आँखें मूँदकर, एक पलायन - सच से, यथार्थ से... मैं उसे समझना चाह रहा था। जितनी वह मेरे करीब आ रही थी, अंतरंग हो रही थी, उतनी ही दुरूह, किसी पहेली की तरह कठिन होती जा रही थी। उसे समझने का कोई सिलसिला निकले, ऐसा कोई सूत्र मैं तलाश रहा था।
मेरे सवाल पर वह मेरी तरफ एक पलक मुड़कर देखी थी, न जाने किस नजर से - नहीं! मैंने पिंजरे को ही अपना आसमान बना लिया है, और उड़ान को सबसे खूबसूरत सपना... आजाद रूह की हद सलाखें कैसे बन सकती हैं...
वह एक पहेली की तरह मेरे सामने बिछ गई थी, मैं उलझ रहा था बेतरह। मगर उसकी आँखों में मुस्कराहट पारे की नन्हीं, थरथराती बूँदों की तरह सिमट आई थी - मगर अफसोस तो कोई इस आसमान के लिए करे! कहते हुए अपने दो हाथों की अँजुरी में जैसे उसने आकाश के सारे नील को भर लिया था - एक भी चिड़िया जबतक पिंजरे में कैद रहेगी, आसमान अपने वजूद पर शर्मिंदा होता रहेगा।
मैंने देखा था, ऐसा कहते हुए उसकी आँखों की तरल चावनी में करुणा का गीला विस्तार था, ठीक जैसे साँझ की बहती हुई गहरी नीली उदासी में किसी नदी की निःशब्द धार... कहीं गहरे तक डूबता-उतराता मैं तिलिस्म के उस छोटे-से क्षण को पकड़ने की कोशिश में था, मगर क्षण से पहले स्वयं के ही पूरी तरह बीत जाने की एक अद्भुत प्रतीति ने मुझे यकायक आपाद-मस्तक ढँक लिया था। उसे समझना शायद स्वयं को ही निःशेष करना था - कुछ इसी तरह...
न जाने मैं क्यों एकदम से उठ खड़ा हुआ था और दरवाजे की ओर बढ़ गया था - दामिनी से बिना कुछ कहे। उस समय उससे कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं था, वह वहाँ अब थी ही नहीं! कितनी आसानी से वह अपने जिस्म के पार चली जाती थी, कभी हवा तो कभी खुशबू बन जाती थी, और कभी-कभी तो, जैसा कि मैं अभी-अभी सोच रहा था, खालिस सोच... मुझे याद है, उसदिन मैं अपने घर उसके शरीर की ऊष्मा नहीं, रूह की गंध लिए लौटा था - अपने नासारंध्र में उसे महसूसते हुए रातभर एक बेचैन नींद में करवटें बदलने के लिए। और ऐसा ही हुआ भी...
दूसरे दिन ऑफिस में दामिनी का फोन आ गया था। बार-बार मुझे बुला रही थी, मगर बोर्ड मीटिंग की वजह से मैं जा नहीं पाया था।
शाम को जब मैं उसके यहाँ पहुँचा था, वह अपने कमरे में अँधेरा करके लेटी हुई थी। मैंने बत्ती जलानी चाही तो उसने मना कर दिया। बगल की मेज में वाइन की खाली बोतल और गिलास पड़े थे। शायद वह दिनभर पीती रही थी। मेरे पास बैठते ही उसने मेरी कमर से लिपटकर मेरी गोद में चेहरा छिपा लिया था। मैं बिना कुछ कहे उसके बालों में उँगलियाँ फिराता रहा था। मुझे लग रहा था, वह परेशान है। न जाने किस बात से...
एक लंबे समय के बाद उसने अपना चेहरा उठाकर मेरी तरफ देखा था। मैंने झुककर उसके सूखे होठ चूमे थे - चॉकलेट और वाइन से महकते हुए... साँझ के झुटपुटे में वह बिना कुछ कहे मुझे निंदियाई आँखों से देखती रही थी। उसकी मुसी हुई साड़ी का सुनहरा किनारा हल्के अँधेरे में चमक रहा था। उसके बाएँ हाथ की उँगलियों को अपनी मुट्ठी में समेटते हुए मैंने महसूस किया था, वे पसीने से भीगी हुई थीं। आज गर्मी तो थी, मगर इतनी भी नहीं। फिर, क्या दामिनी परेशान थी! मैंने एकबार फिर दामिनी की आँखों में झाँका था, वहाँ बहुत कुछ अनकहा, मगर पहचाना हुआ था। उसके मौन को भी सुनने लगा था मैं। साथ चलते हुए बहुत कुछ साँझ का हो जाता है। कभी-कभी सोचता हूँ, हम खुद को भी कितना समझ पाते हैं जो औरों को समझने का दम भरने लगते हैं।
मैं बहुत एहतियात से उसकी उँगलियों को थामे हुए था, ठीक जिस तरह से एक चिड़िया के बच्चे को पकड़ा जाता है। इन दिनों मैं प्यार में था, तभी शायद इतना अच्छा बन गया था। आश्वासन से भींचते हुए मैंने उनके पोर चूमे थे - ठंडे और शिथिल -
क्या हुआ दामिनी, इतनी अस्थिर क्यों हो रही हो, मैं हूँ न यहाँ, तुम्हारे पास...
न जाने मेरे पूछने में क्या था, यकायक वह मेरे कंधे से आ लगी थी - एक दबी हुई सिसकी के साथ -
अशेष, सपना - वही भयानक सपना... मैं एक काले समंदर में डूब रही हूँ और ऊपर सूरज चमक रहा है। उसकी तीखी चौंध और सागर की काली, ठंडी हरहराहट के बीच मैं बँटी हुई हूँ - जीने की कोशिश करते हुए, हर पल मरते हुए... न जाने कितनी देरतक मैं साँस के लिए छटपटाती हूँ और फिर जाग जाती हूँ। अशेष, ये सपना मैं बार-बार क्यों देखती हूँ? और भी कई डरावने सपने - कभी मैं किसी अनजान जगह में गुम जाती हूँ, कभी कोई मुझे किसी अँधेरी कोठरी में कैद कर देता है। कभी मैं देखती हूँ कि मैं जिस कमरे में हूँ, उसके फर्श पर साँप ही साँप बिछे हैं - मुझे साँप ने काट लिया है, मगर कोई मुझे डॉक्टर के पास नहीं ले जा रहा है। मैं रो रही हूँ, मिन्नतें कर रही हूँ... एक शेर बचपन से मेरे सपनों में आकर मेरा पीछा कर रहा है...
मैंने उसके ईर्द-गिर्द अपनी बाँहों का कसाव बढ़ा दिया था।
'तुम्हारे अंदर कहीं बहुत गहरा असुरक्षा बोध है। तुम्हारे बचपन के अनुभव ने तुम्हें भावनात्मक रूप से असुरक्षित कर दिया है, तुम में डर समा गया है...
वह मेरे सीने से लगकर पिघल आई थी - गर्म मोम की तरह -
शायद तुम ठीक कहते हो...
धीरे-धीरे उसकी साँसें सम पर आने लगी थीं, वह शांत हो रही थी। मेरे स्पर्श ने उसे आश्वस्त किया था शायद किसी स्तर पर। 'तुम्हारी उँगलियों में जादू है, मैं खिल उठती हूँ फूलों की तरह। बिन मौसम...' एकबार मेरी हथेलियों में समूचा पिघलती हुई उसने गाढ़े अनुराग भरे स्वर में कहा था। उसदिन हम जंगल में एक गुलमोहर के नीचे हल्की बारिश में देरतक भीगते रहे थे। अचानक ही मौसम बदलकर हल्की झींसी तेज बूँदा-बाँदी में बदल गई थी। साँझ घिरने तक हमें वही रुके रहना पड़ गया था। दामिनी की पतली ताँत की साड़ी भीगकर उसकी त्वचा से मिलकर एकसार हो आई थी, ठीक उसी के रंग की - कच्ची हल्दी की तरह... उसदिन एक अजाने उन्माद से भरकर मैं उसके सीने पर चमकती सोने की पतली जंजीर को देरतक चूमता रहा था... किसी कठगुलाब की तरह उसकी देह फुहार में भीगकर अनायास खिल आई थी, पंखुरी-पंखुरी! इस क्षण न जाने क्यों अनायास वह दृश्य याद आ गया था...
जब उसने थोड़ी देर बाद आँखें उठाकर मुझे देखा था, उसकी तरल पुतलियों में संघनित होती हुी भाप थी, हल्की, नीली आँच भी, धुआँती हुई। मैंने महसूस किया था, एक शुष्क, जीर्ण, सूखती हुई नदी में चाहना का ज्वार उतर आया है... बाहर साँझ गहराकर न जाने कब स्याह पड़ गई थी। मार्च की गर्म हवा में सेमल की हल्की, मादक गंध थी। र्पोटिको में गुलमोहर लगातार झड़ रहा था। उसे बहुत निविड़ ढंग से अपने सीने में समेटते हुए मैंने पूछा था - ये रंग-बिरंगी सुंगधित मोमबत्तियाँ तुम रोज क्यों जलाती हो? दीवाली रोज मनती है क्या?'
- अपने अंदर के अँधेरों से निकलने की ये एक कोशिश है, और कुछ नहीं!
- निकल पाती हो? मैंने उसके बालों में उँगलियाँ उलझाई थी।
- कभी-कभी स्वयं से ही झूठ बोलना पड़ता है अशेष, जीवन की सच्चाइयाँ ऐसी त्रासद होती हैं। जानते हो स्वयं को बहलाने के लिए कभी मैं कितनी कहानियाँ गढ़ा करती थी। जब मैं होस्टल में रहती थी, माँ के बगैर बहुत अकेली हो गई थी। माँ को पूरी तरह से निसंग और असहाय करने के लिए मुझे हॉस्टेल में डाल दिया था पापा ने। उन दिनों मैं खुद से ही वादे करती थी - ढेर-सी खुशियों के। अच्छा फील करने के लिए आईने के सामने खड़ी होकर खुद से पूछती थी - प्रिंसेस, वाट् इज योर विश? फिर खुद ही मचलकर कहती थी - मुझे बार्बी चाहिए और चॉकलेट्स - ढेर सारी... उस झूठ-मुठ के खेल में भी अपनी माँ को नहीं माँग पाती थी। जानती थी, ये मेरे वश में नहीं। हालाँकि मन से सिर्फ उन्हें ही विश करती थी।।
'तुम्हें हॉस्टल में बहुत अकेलापन सताता होगा...' मैंने उसकी जगह पर स्वयं को रखकर उसकी मनःस्थिति की कल्पना करने की कोशिश की थी।
हाँ, रातों को आँधी, तूफान के बीच अक्सर मेरी आँखें खुल जाती थीं। डॉरमेटरी की बड़ी-बड़ी काँच की खिड़कियों पर पानी की तेज बौछारें टकराती रहतीं, टाइल्स की छत पर हवा का शोर झपटता फिरता और मैं अपने में सिमटी-सिकुड़ी पड़ रहती। मिशनरी स्कूल का कठोर अनुशासन, रूखी, कठोर ननों का रुक्ष, यांत्रिक व्यवहार, और पादरियों के अंतहीन उपदेश और सजाएँ... कैसी उदासी के दिन थे वह! कहते हुए वह मेरी बाँहों में और भी निविड़ होकर सिमट आई थी - किसी चिड़िया के भयभीत बच्चे की तरह।
- डे ड्रीमिंग की वजह से अक्सर सजा मिलती।। कभी स्केल की मार से हथेलियाँ लाल हो जाती थीं तो कभी घंटों धूप में खड़ी रहना पड़ता था। क्लास में बैठी खिड़की से बाहर देखती रहती थी। मुझे आकाश बुलाता था... उसका अमित विस्तार...
एक क्षण वह ठिठकी थी, मानों यादों को उलट-पुलटकर देख रही हो, क्रम से लगा रही हो। फिर सहज होती हुई बोली थी -
रोज अपनी डाक चेक करती थी। न जाने क्यों, माँ के खत अब आते नहीं थे। वह एकदम से चुप हो गई थीं। प्रतीक्षा के उन अंतहीन पलों में लगता था, मैं पागल हो जाऊँगी। माँ मुझसे न बोले - अपनी गुड़िया से...!
सारा दिन हॉस्टल की सीढ़ियों पर बैठकर माँ की प्रतीक्षा करने के बाद जब आखिर में पापा को अकेले आते हुए देखती थी तब मैं उनसे बोले बगैर रोती हुई अंदर भाग जाती थी। इससे पापा बेहद नाराज हो जाते थे। अपने साथ लाए गिफ्ट्स के पैकेट्स पटककर कहते थे - अपनी माँ पर गई है...! डिप्रेशन की शिकार...
डिप्रेशन... हाँ, मैंने चुपके से सोचा था। यही तो है, इस उदास और खूबसूरत उदासी का नाम... कभी-कभी मुझे उसकी ये उदासी बिस्तर में भली लगती थी, रोमानी... एक हदतक उत्तेजक! लगता था, खूबसूरत क्लियोपेट्रा की ममी के साथ लेटा हूँ। स्लीपिंग ब्यूटी! उसकी सूनी आँखों में अपने लिए पहचान जगाना या सोई पड़ी देह को जगाना, उसमें इच्छाएँ उत्पन्न करना एक भारी चुनौती हो जाती थी ऐसे में। किसी पाषाण प्रतिमा को एक जीवंत स्त्री में बदल देना - ये लंबी, श्रम भरी प्रक्रिया एक तरह से रोमांचकारी होती थी। लगता था, किसी प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा कर रहा हूँ।
दामिनी के अंदर प्रेम था तो कहीं वितृष्णा, क्षोभ और उपालंभ की एक भारी-भरकम गठरी भी, जिसकी गाँठें खोलकर वह समय-असमय बैठ जाया करती थी। ऐसे क्षणों में वह बेहद तल्ख भी हो उठती थी। दो चरम बिंदुओं के बीच जी रही थी। यह उसके व्यक्तित्व का सबसे बड़ा विपर्यय था और त्रासदी भी। बहुत बार कह चुकी थी -कभी जी चाहता है, अपने अंतस की साड़ी पीड़ा, क्षोभ और ग्लानि किसी गंगा में सिरा आऊँ, पिंडदान कर दूँ अपनी मृत इच्छाओं का, ये आज भी सताते हैं मुझे, मुक्त नहीं हो पाए हैं पूरी तरह से...
- कौन तुम्हें सताता है दामिनी? मैं जानना चाहता।
एक ब्रह्म राक्षस - वही ब्रह्म राक्षस - अतृप्त, अभिशप्त... मेरे अंदर के तहखाने में एक अतल कुआँ है। उसी के काले, सर्द पानी में कैद पड़ा है। रह-रहकर छटपटाता है, चिग्घारता है... मैं दहल उठती हूँ...
एक तरफ उसका प्रेम था तो दूसरी तरफ उसकी घृणा। बीच में किसी शापग्रस्त यक्षिणी की तरह जी रही थी वह।
देह से स्वतंत्र होकर भी मन से मुक्त हो नहीं पाई थी। उसका यातना और कुंठा से भरा अतीत उसका आजीवन कारावास बन गया था। कहती भी थी - सर्जना के आदि से ही दो पंख हैं, एक आसमान है और इनके बीच खड़ी एक पिंजरे की सलाखें हैं और यही हर औरत के जीवन का इकलौता सच है।
मैं कहता था, सब पीछे छोड़ दो, एक नई यात्रा पर निकलो, बिल्कुल नई, कोरी होकर, किसी साफ स्लेट की तरह, जिसपर कोई उदास शब्द न लिखा हो। वह हथियार डाल देती - अब कौन-सा नया सफर। अपने अंदर के सफर में तो हरदम से हूँ और ये मंजिल से आगे की कोई बात है। जहाँ सब रास्ते खत्म हो जाते है, मेरा सफर तो वही से शुरू हुआ था। चलने का हौसला यह था कि मंजिल से भी आगे निकल आई। उसकी आँखों की ठहरी हुई उदासी में एक लौ-सी कौंधती थी। फिर वही राख और धुआँ...
शायद तुम जिंदगी से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा कर रही हो... मैं एक और कोशिश करता, मगर वह बंद दरवाजे की तरह अड़ी रहती - मैं अपनी मर्जी से रोना चाहती हूँ, क्या यह माँग भी ज्यादा है!
- रोना क्यों चाहती हो, हँसना छोड़कर...? मुझे उसकी इच्छा अजीब लगती थी।
हँसने की आजादी क्या माँगू, जब रोने पर भी पाबंदी लगी हो। उसकी आँखों में अमूर्त यातना की एक पारदर्शी दीवार-सी थी - हरपल तड़क जाने के डर से लरजती हुई।
ऐसा मत सोचो, औरत तो स्वयं जीवन का उत्सव है, उसे घेरकर ही तो दुनिया का ये शाश्वत मेला लगा है... मैं उसे बहला नहीं रहा था, ये मेरा अपना विश्वास था।
होगी औरत अमृत की बूँद, मगर धरती पर उतरते ही वह मैली हो जाती है, ठीक जैसे गंगा।
उसकी बातें मुझे अवसन्न करने लगतीं, निराश होकर पूछता - क्या कभी किसी को कोई स्त्री पूरी तरह से हासिल हुई है?
पुरुष ने स्त्री को कभी मुकम्मल चाहा ही कब था कि वह उसे मुकम्मल मिलती! देह से आगे कोई बढ़े तो यह सवाल करे!
जीवन में सबकुछ मनचाहा नहीं होता, कहीं हमें समझौते भी करने पड़ते हैं, सामंजस्य पैदा करना पड़ता है... जो आँखों में दुखते हैं, वे ख्वाब भुला दो... मैं चाहता था, वह खुद को समेटे बिखरती जा रही थी कब से। ये मुझसे सह नहीं रहा था।
सपने लाख कुचले जाएँ, मगर वे मरते कहाँ हैं? दामिनी गहरे अवसाद में थी, ये उसकी पुतलियों में ठहरा सन्नाटा कह रहा था। नीले झील के स्वच्छ पानी में पड़े फफूँद की तरह। बेरंग और उदास...
दामिनी की बातें, उमा के उलाहने - सब मिलकर मुझपर तारी होते जा रहे थे। मुझे प्रतीत होने लगा था, मैं खुशी की तलाश में उदासी बटोर रहा हूँ। एक हँसी की कीमत इतनी नहीं होनी चाहिए।
मेरे अंदर भी जैसे कुछ इकट्ठा होने लगा था, मवाद की तरह - टीसता और धड़कता हुआ... नसों में सड़ांध देने लगा था कोई घाव। कहीं बहता हुआ कुछ बहुत ताजा और प्रांजल एकदम से ठहर गया था जैसे। काई जम रही थी सतह पर, परत दर परत, टटकी हरियाली बदरंग होती जा रही थी। कहीं पढ़ा था, प्रेम चंद्रमा की तरह होता है। ये अगर बढ़ेगा नहीं तो फिर घटना शुरू हो जाएगा... मेरे अंदर इन दिनों क्या घट रहा था, प्रेम या वासना... देह कहीं से अघा आई थी, दूसरी तरफ मन था कि रीत रहा था, शून्य हो रहा था। अब न देह की सरगोशियाँ लुभा रही थी, न मन का सन्नाटा अच्छा लग रहा था। एक निसंग टिटहरी की तरह मैं अपने अंदर के निर्जन में भटक रहा था। बार-बार धक्के खा रहा था, आहत हो रहा था। मेरे चारों ओर अथाह समुद्र है और मैं उससे घिरा हुआ उसी की तरह प्यासा पड़ा हुआ हूँ। कितने मरूँ, कितने सागर और कितने पहाड़ इकट्ठे हो गए हैं मुझमें...! न जाने कब, न जाने किस तरह... मैं सोचता हूँ और सोचता हूँ...