औरत जो नदी है... / भाग 1 / जयश्री रॉय
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मार्च का महीना - हमेशा की तरह उदास और उलंग... धूल के अनवरत उठते बवंडर के बीच पलाश की निर्वसन डालों पर सुलगते रंगों की अनायास खुलती गाँठें और हवा में उड़ते सेमल के रेशमी फूलों के दिन - सपनों के अँखुआने और निःशब्द झर जाने का वही वेमुरव्वत मौसम... ये सिरे से उदास हो जाने के दिन थे और मैं इसी अहसास में हर साँस जज्ब था जब मैंने उस कौंधती आँखोंवाली औरत को पहली बार देखा था - पतझड़ के अकेले फूल की तरह - मलिन और आँसुओं के नमक में घुली हुई, साथ ही विवर्ण और बेतरह उदास भी... पलकों की गहरी साँवली पाँत के बीच नीली लपटों में धधकती उन आँखों की चावनी में मानों अपरिहार्य मृत्यु का खुला निमंत्रण और जीवन का अंतहीन शोक था।
उसे देखकर मुझे मेरे अंदर की खामोश मुरादों और हवस का खयाल आया था। उन बेशक्ल अहसासों का जैसे जिंदा चेहरा थी वह - सुहाग के गाढ़े रंगों में लिपटी एक उदास जोगन की तरह... मैं उन दिनों जीना चाहता था, इसलिए एकदम से मरने के लिए तैयार हो गया। कुछ जिंदगियाँ मौत की कीमत पर ही मिलती हैं, उस क्षण का एकमात्र सच शायद यही था।
कायदे से मुझे उस सांघातिक क्षण की हर बात शब्द-शब्द याद होनी चाहिए थी, मगर हवा में ओर-छोर पसरे जादू के उस मौसम में बस उसकी वे दो दिपती हुई आँखें थीं और था मेरा पारा-पारा होकर गलता-बहता सर्वस्व... बीच में से लगता था, समय भी गुजरने से रह गया है। समय के कुछ अंश ऐसे ही विलक्षण होते हैं - बीतते हैं, मगर कभी नहीं बीतते, रह जाते हैं हमारे अंदर की किसी महफूज जगह में हमेशा-हमेशा के लिए, हमारे गुजर जाने तक, या शायद उसके बाद भी... हुआ-अनहुआ और तारीखों की लंबी फेहरिस्त के साथ!
एकबार मैंने उससे किसी अतरंग क्षण में पूछा भी था कि क्या उसकी आँखें हमेशा से ऐसे ही कौंधती रही हैं जो उसका नाम दामिनी रखा गया था। वह अपनी हँसी की उजली धूप से भर उठी थी - अरे नहीं, ये आग तो मैंने बहुत बाद में इकट्ठी की है। पहले तो बस आँखों में यकीन और सुकून हुआ करता था। यकीन - हर अच्छी चीज के होने का और सुकून उस कभी न खत्म होनेवाले खूबसूरत अहसास का अटूट हिस्सा होने का!
उसकी बातें ऐसी ही हुआ करती थी - उल्टी-पल्टी चलती हवा की तरह, न जाने किस पल किस तरफ का रुख अख्तियार कर ले। उसे बाँधने की चाह वस्तुतः खुद को बिखरा देने का पागलपन ही था। और एकदिन मैंने समझ लिया था, दामिनी के जीवन में मरने-जीनेवालों को प्रश्न करना छोड़ देना चाहिए। एक-दो बार की गलतियों के बाद मैंने ये कोशिश फिर कभी नहीं की थी।
मैंने जिस क्षण उसे देखा, उसी क्षण मानो मन उसका हो लिया। मेरे लिए अबतक का जहाँ जो कुछ भी था, एकदम से बेमानी होकर रह गया था। उसके पास जाने की अनिवार्यता मैंने अपनी पूरी सत्ता से महसूस ली थी। एक छोटे-से क्षण के सत्य ने अबतक के पूरे जीवन को झूठ में तब्दील कर दिया था। आसपास रिश्ते और चेहरे ताश के पत्तों की तरह ढह रहे थे। जिंदगी के सारे सपने, हलचल और उम्मीदें उस एक चेहरे के आसपास जाकर इकट्ठी हो गई थीं। एक बहुत बड़े शून्य में डूब रहा था मैं। अंदर कुछ शेष था तो बस कल्पना में उसकी मादक देहगंध और मसृन त्वचा का नमकीन स्वाद - मांस के जवान पौधे पर गंधाते बौर का दुनिर्वार निमंत्रण! मैं अंदर तक भीगा था, अपनी ही हवस के निरंतर रिसाव से। एक तटबंध के बँधते ही चाहना की पागल नदी दूसरा किनारा तोड़ देती थी। कैसा जुनून था कि मैं खुद को अपने अबतक के तमाम हासिलों के साथ फूँकने पर आमादा हो गया था! जिसे प्यार कहती है दुनिया, उसकी वास्तविक विडंबनाओं को क्या कोई समझता भी है...
उस पहली मुलाकात के दिन वह समंदर के किनारे शाम की नर्म पड़ती धूप में चुपचाप बैठी हुई थी। मैं उसे देखकर चलते-चलते ठिठक गया था। साथ में सबकुछ। कितना अद्भुत था वह दृश्य - आकाश, समंदर और वह - एक-दूसरे में घुलती हुई, एकाकार होती हुई-सी... मैं मंत्रमुग्ध-सा उसे देखता रह गया था। एक नीला जादू उसकी आँखों, समंदर और आकाश में एक-सा फैला था। मैं उसी की जद में था - नसों के संजाल में उसके हल्के, मादक रिसाव को महसूसते हुए - एकदम डिफेंसलेस और वलनरेवल। मैं जानता था, मैं अब आगे बढ़ नहीं पाऊँगा। मुझे रुकना ही था, न जाने कबतक के लिए... मैं उससे कुछ दूर एक सूखी जगह तलाशकर बैठ गया था। सामने की स्लेटी रेत एकदम गीली थी, उतरते हुए ज्वार के पद-चिह्न! छोटे-छोटे गुलाबी केकड़ों के निरंतर भागकर धँसने से उसमें डिंपल-से पड़ते जा रहे थे।
पीछे, पानी से काफी दूर एक-दूसरे पर आड़े-तिरछे ढंग से टिके ताश के पत्तों की तरह छोटी-छोटी हरी-भरी पहाड़ियों की तलहटी पर नारियल की सघन कतारें तेज हवा में दुहरी हुई जा रही थीं। चारों तरफ हवा में महीन रेत के कण उड़ रहे थे। समंदर के ऊपर जलबिंदुओं का सफेद कुहरा... पारदर्शी बादल की तरह - यह ज्वार का समय था। पानी उफन रहा था धीरे-धीरे। लहरों के शोर में जलपक्षियों की उदास पुकार घुली हुई थी।
न जाने ऐसे क्षणों में क्या होता है। समंदर का हाहाकार अंदर कहीं पछाड़ें खाने लगता है। एक अनाम उदासी से मन घिरने लगता है। मैंने फिर उसे देखा था - हरसिंगार-सी उजली काया - साँझ की ललछौंह धूप में केसर होती हुई... कमर तक लहराते हुए खुले बाल आग की सुनहरी लपटों की तरह बेतरतीब लहरा रहे थे। उन्हें देखकर किसी जंगल में लगी आग की याद हो आती थी - वही कौंध, वही लहक...
हर तरफ से निर्लिप्त और असंपृक्त वह ढलते हुए सूरज की तरफ अपलक देख रही थी - एक न देखती-सी दृष्टि से, शायद दृश्यों के पार कहीं... जाहिर है, वह किसी और दुनिया में थी - अपने आसपास के माहौल से एकदम कटी हुई... किसी एकाकी द्वीप की तरह।
अबतक उसके पाँवों के पास तक लहरें चढ़ आई थीं, पछाड़ें खाते, सिर धुनते हुए। उसकी गहरी चुप्पी को देखकर न जाने क्यों एकपल के लिए मेरे मन में यह पागल-सी इच्छा उत्पन्न हुई थी कि हाथ बढ़ाकर समंदर की लहरों को किनारे पर टूटने से रोक दूँ। उसके चेहरे पर ठहरे हुए उदासी और नीरवता के उस खूबसूरत इंद्रधनुष को मैं इतनी जल्दी टूटने देना नहीं चाहता था। न जाने इसके पीछे कितनी गहरी बारिश होगी, आषाढ़ का मेघिल आकाश होगा, साँवले, मटमैले दिनों की अछोर कतार होगी... उसे देखता हुआ मैं खो-सा गया था। समय का ध्यान तक नहीं रहा था।
इसी बीच सूरज का सिंदूर समंदर के सीने में उतरकर न जाने कब एकदम से घुल गया था। क्षितिज के ठीक पास आकाश का रंग गहरा गेरुआ हो रहा था। घर लौटते हुए पक्षियों की सुनहरी पाँत दूर-दूरतक झिलमिला रही थीं। उनके उजले पंखों में शाम का गहरा काशनी रंग था। अपने कपड़े झाड़कर उठते हुए मैंने सामने की ओर देखा था - दूर समंदर के सीने पर लंगर डाले हुए जहाजों का प्रतिबिंब पानी पर टूटता-बिखरता हुआ लहरों पर काँप रहा था। उनमें जलती हुई बत्तियाँ फिरते हुए दीयों की तरह जल की सतह पर झिलमिला रही थीं।
वह औरत भी अबतक उठ खड़ी हुई थी। हल्के नीले अंधकार में उसका माथा और दो कंधे ही चमक रहे थे। जैसे कुछ उजले कबूतर अँधेरे के सीने में सिमटकर बैठे हों... देह का निचला हिस्सा हवा के लहराते हुए साँवले समंदर में खो-सा गया था। तरल अंधकार में तैरता हुआ वह जैसे कोई गहरा नीला फूल हो... मैं उसे देखता रहा था। वह चलने लगी थी। और फिर कई कदम चलकर यकायक मुड़ी थी और मेरी ओर देखा था। वह मुझे स्पष्ट दिख नहीं रही थी, मगर मुझे उसकी नजरों का अहसास था। कोई अदृश्य उँगली मुझे चुपके से छू गई थी, अनायास देह में सिहरन-सी दौड़ने लगी थी। कितना जीवंत था ये अनुभव - अँगुलियों के पोरों पर धड़कता हुआ-सा...! ...मांसल! मैं जान गया था, हम दोनों के बीच कोई अबोला संवाद घटा है - संवेदना के पारदर्शी स्तर पर। शब्दों और भाषा से परे हम किसी न किसी स्तर पर एक-दूसरे तक पहुँचे है, फिर चाहे हमारे पाँवों ने कोई जमीनी फासला तय किया हो या न हो।
सामने नए चाँद की हल्की रोशनी में समंदर की लहरें झिलमिला रही थीं। किनारे के दृश्य अब एक स्याह, सपाट दीवार में तब्दील हो चुके थे। उसी में डूबा मैं कुछ पलों के लिए खड़ा रह गया था। और फिर चलते हुए उस जगह आ रुका था जहाँ थोड़ी देर पहले वह औरत बैठी हुई थी। रेत पर बड़े-बड़े अक्षरों में एक फोन नंबर लिखा हुआ था!
किसी सम्मोहन के गहरे नीले रंग में डूबता-उतराता उस दिन मैं अपने कमरे में लौटा था - बहुत कुछ खोने के साथ सबकुछ पा जाने की एक परस्पर विरोधी मनोदशा में घिरा हुआ - किसी अनचीन्हे गंध में डूबकर पूरी रात जागने और ख्वाब देखने के लिए...
मुझे याद है, कितनी भारी थी वह रात मुझपर। जैसे जिंदगी यकायक किसी तेज तूफान की जद में आ गई हो। पलभर में सबकुछ अस्त-व्यस्त हो गया था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था, क्या कुछ समेटूँ और किस तरह। मेले में खो गए किसी बच्चे की तरह मेरी हालत थी - परेशान और डरा हुआ!
बिस्तर पर लेटकर मैंने बहुत चुपके से अपनी ख्वाहिशों और मुरादों से उस चेहरे का मिलान किया था जो समुद्र तट से उठकर मेरे साथ मेरे कमरे तक बेआवाज चली आई थी और अब खिड़की पर खड़ी होकर, बिस्तर पर बैठकर मुझे ही अपलक तके जा रही थी। वह हू ब हू वही थी, जिसे मैं जानता न जाने कब से था, बस सिर्फ पहचानता नहीं था। वही आँखों की नीली नदी, वही रंगत की सुनहरी धूप और देहमन के वही अनवरत खिलते सुरभिले अमलतास... उसदिन पहली बार अहसास हुआ था, बेशक्ल-सी ख्वाहिशें हमारे अंदर एक पूरी दुनिया रचती रहती हैं और हम उनसे अनजान ईंट-पत्थरों को जोड़ने-सजाने में अपनी उम्र जाया कर देते हैं। उस रात नींद न जाने कब आई थी।
कमरे के तरल अंधकार में उसका चेहरा एक खिले हुए सूरजमुखी की तरह मुस्कराता रहा था - उसी सुनहली कौंध, गंध और लहक के साथ। एक अजीब-सी कैफियत ने मेरे पूरे वजूद को अपनी जद में ले लिया था। एक हादसा जो अचानक घटा था और अब मेरी जड़ों तक पहुँचते हुए मुझे बेघर कर रहा था। स्वयं पर ढीली पड़ती पकड़ का अहसास लिए मैं अपने आसपास सलाखें खड़ी करता रहा था, लकीरें खींचता रहा था, कितना असुरक्षित महसूस करने लगा था अचानक स्वयं को। बहते हुए साहिल पर ठिकाना बाँधना चाह रहा था, बार-बार बिखर जाने की त्रासदी से तो मुझे गुजरना ही था।
एक आकस्मिक प्रतीति ने मुझे विसन्न कर दिया था - मुझे उसके पास जाना ही पड़ेगा! एक तरफ सारे निषेध थे, वर्जनाएँ और विवेक था और दूसरी तरफ अकेला मन - सब पर भारी पड़ता हुआ, सारी सीमाबद्ध मर्यादाओं से परे... वह क्षण विस्मय और ग्लानि का था, मगर इन सबके बावजूद था - अपन पूरे वजन और शिद्दत के साथ! प्रेम जिस अनुभूति या करिश्मा का नाम है उसकी वास्तविक विडंबनाओं को आज शायद पहली बार इस गहराई से समझ पाया था। इस अनुभूति के घटने के साथ ही टूटने और कमजोर पड़ने का सिलसिला भी शुरू हो जाता है। मुझे प्रेम हुआ था या नहीं, मैं नहीं जानता, मगर एक गहरे असुरक्षा बोध और अव्यक्त पीड़ा ने मुझे रातभर घेरे रखा था। मैं अनचीन्ही खुशियों के बीच बेतरह उदास था, आँसुओं से भरा था, मगर गुनगुनाना चाहता था... बहुत कुछ पाया था, किनारे-किनारे तक भर आया था, मगर साथ ही न जाने क्या कुछ बहुत बेशकीमती हमेशा के लिए खो गया था। मैं लुटकर अमीर हुआ था! अब अपनी तलाश में कहाँ निकलूँ, सोच नहीं पा रहा था। कस्तूरी मृग की-सी दशा थी मेरी।
मैंने बिस्तर के उस खाली हिस्से को टटोला था जो अबतक मेरी पत्नी उमा का हुआ करता था। मगर अब वहाँ कोई नहीं था। मैं रिश्तों की एक भरी-पूरी दुनिया में एकदम से अकेला हो गया था। एक छोटे-से क्षण ने मुझसे मेरा आप, मेरा घर चुरा लिया था। मैं किससे शिकायत करता? सारा गुनाह मेरा - मेरे मन का - था। इल्जाम भी मुझपर आना था। मैं इनकार कैसे करता... मैं जानता था, मुझे उसके पास जाना होगा, मगर कब, ये बस समय की बात थी। इसी समय के कुछ पलों को अपनी मुट्ठी में समेटकर मैं ऊहापोह के एक विशाल सिंधु में डूब-उतर रहा था। किनारा सामने था - बहुत स्पष्ट, मगर मैं हर साँस लहरों की ओर लौट रहा था - सायास, सचेष्ट - कितना विवश था मैं...
उस फोन नंबर को लेकर उसके बाद मैं कई दिनों तक बेतरह परेशान रहा था। दो मन था, दो तरफ का खिंचाव। उसके पास होना चाहता था, उससे मिलना चाहता था। किसी वर्ज्य का दुर्वार आकर्षण हरपल अपनी तरफ बुलाता था तो कहीं एक निषेध बढ़ते कदमों के सामने अडोल चट्टान की तरह खड़ा हो जाता था। घर से सैकड़ों मील दूर होना संयम पर भारी पड़ रहा था। कई बार अपने पर अंकुश लगाने की मंशा से घर पर फोन लगा चुका था, मगर उमा की आवाज सुनते ही फोन रख देता था। उसका - उसकी आवाज का - सामना कर सकूँ, इतना भी ताव नहीं रह गया था अंदर। उमा की आवाज में अपनापन होता है। अपनापन से भी ज्यादा विश्वास... वह मुझपर भारी पड़ जाता है। उसे उठाने में मेरे कंधे असमर्थ हो गए-से लगते थे।
मन की दुविधा उस अनजान परिवेश में और भी भीषण हो उठी थी। इस शहर में आए मुझे मुश्किल से एक महीना ही हुआ था। बच्चों की पढ़ाई की वजह से परिवार को साथ नहीं ला पाया था। नौकरी ज्वाइन करने के बाद दो हफ्ते तक होटल में ही रहना पड़ा था। बाद में मिसेज लोबो के यहाँ पेइंग गेस्ट की जगह मिल गई थी।
एक कमरा और एक बॉल्कनी। बाथरूम, टॉयलेट कमरे के साथ ही संलग्र। दोनों शाम का खाना होटल में ही खाना पड़ता था। सिर्फ सुबह का नाश्ता मिसेज लोबो के यहाँ मिल जाता था। यह किराये में शामिल था।
शुरू-शुरू के दिन काफी उलझन भरे थे। व्यवस्थित होने में थोड़ा समय लगा था। अजनबी माहौल, भाषा और खान-पान को समझने-अपनाने में स्वाभाविक रूप से दिक्कत हो रही थी। ऑफिस में भी सबसे परिचय गहरा नहीं हुआ था।
अधिकतर शामों को ऑफिस के बाद अपने कमरे में लौटकर मैं उदास हो जाया करता था। एक कप चाय पीकर या तो लेट जाता था या बॉल्कनी में बैठकर सामने की सड़क पर लोगों और वाहनों की भागती-दौड़ती आवाजाही देखता रहता था। धीरे-धीरे शाम गहराती जाती और उसी के साथ मेरी उदासी भी। रात को सोने से पहले मैं बच्चों से और उमा से बात जरूर करता था। मैं जानता था, मेरा परिवार भी मुझे मिस कर रहा होगा। खासकर मेरी पत्नी उमा। मेरे पीछे घर, परिवार के उत्तरदायित्व को अकेले सँभालना उसके लिए जरूर काफी मुश्किल हो रहा होगा। वह फोन पर हर बात के लिए मुझसे पूछती रहती थी, मशविरा लेती रहती थी। बच्चों के सोने के बाद मुझे अपने अकेलेपन की बातें बताती थी। सुनकर मैं और भी उदास हो जाता था।
दामिनी को देखने के बाद तो मेरी उदासी की परतें और भी मोटी हो गई थीं। दफ्तर और नींद के बीच बचा रह गया ढेर सारा समय किसी सूरत काटना कठिन हो गया था। अपने परिवार को याद करने के साथ-साथ अब दामिनी को भुलाने की दुश्वार कोशिश भी करनी पड़ रही थी। स्वयं से दूर जाने के लिए, अपना ध्यान भटकाने के लिए जाने मैं क्या-क्या मशक्कतें करता रहता था, कैसी-कैसी वाहियात हरकतें अपनाता रहता था। कोई भी उपाय, कुछ भी उसके खयालों को मन से दूर करने में सफल हो पाया था या नहीं, यह एक अलग बात थी।
इसके बाद मैं शामों को अक्सर समुद्र तट पर जाने लगा था। वहाँ मेरा समय बीत जाता था। गहरे स्लेटी रंग की गीली रेत पर नंगे पाँव चलना और घंटों बैठकर सूर्यास्त देखते रहना। वह एक अलग ही दुनिया थी! पानी का रंग आकाश और समय के साथ बदलता रहता था - कई-कई शेड्स में - हल्के से गहरा, और गहरा... जिंदगी में मैंने पहली बार आकाश और पानी के इतने सारे रंग देखे थे, हर पल बदलते और गहराते हुए - हल्का नीला, फिरोजी, मयूरकंठी... सूरज की सफेदी में पहले हल्के, पीले रेश पड़ते, फिर बासंती रंग में केसर घुलता और अंत में गहरा सिंदूरी, रक्तिम आँच में सूरज का गोला दहक उठता। फिर धीरे-धीरे कुमकुम की बिंदी-सा लाल सूरज ठंडा होकर पानी में बूँद-बूँद पिघलकर पूरी तरह घुल जाता। लहरों का इस्पाती नीला, ताँबई और सुनहरा आँचल चमकते हुए शनैः-शनैः एक शीतल आग में तब्दील हो जाता और फिर म्लान होते-होते आखिर में बुझ जाता - अपने पीछे गहरा गेरुआ, काशनी, प्याजी और न जाने कितने अनाम, अजाने रंग आकाश में छोड़ते हुए।
ऐसे समय में न जाने क्यों मन एक रूमानियत भरी उदासी में डूब जाता है। अपनी निसंगता का बोध और उग्र होकर सालने लगता है। क्षितिज में अपने-अपने नीड़ों की तरफ लौटती हुई पक्षियों की धुँधली कतार को देखकर अपने घर की याद हो आती है। आत्मीयता और निकटता के लिए एक कलप-सी उठती है, कहीं अंदर कुछ टीसने लगता है रह-रहकर।
कितने लोग होते हैं समुद्र तटपर - देशी-विदेशी शैलानी, जिनमें अधिकतर विदेशी ही होते हैं। उन्हें देखकर लगता है, प्रकृति की सुंदरता का उपभोग करना सही अर्थों में उन्हें ही आता है... समंदर का आनंद उठाने के उनके अंदाज अनोखे होते हैं। धूप, हवा, पानी के साथ मिलकर जैसे एक हो जाते हैं। घंटों धूप में सन क्रीम लगाकर अपना रंग साँवला करने के लिए पड़े रहना, लहरों के ऊपर झूले डालकर उसमें लेटकर किताबें पढ़ना... नमकीन पानी में डूब-डूबकर बादामी हो जाते हैं और दिन-दुनिया से बेखबर होकर सबके सामने निःसंकोच आकाश के खुले चँदोवे के नीचे अपने साथी से टूटकर प्रेम करते हैं। यह सबकुछ नया है मेरे लिए। उत्सुकता होती है, देखता रहता हूँ। और इसी तरह कभी-कभी बहुत कुछ भूल जाता हूँ।
एक समय के बाद, देर शाम गए मैं चुपचाप उठकर वहाँ से चला आता हूँ - अपने कमरे के अकेलेपन में! एक और उदास रात बीताने के लिए... उस अनजान औरत की एक झलक ने मुझे कितना अकेला कर दिया था - रिश्तों की एक भरी-पूरी दुनिया में - अपने घर और जीवन में! क्यों किसी का होना या न होना इनसान को इस तरह से निसंग बना देता है? मैं चलता हूँ और हर मोड़पर मुड़कर देखता हूँ, दिन में कई-कई बार अपना मेल चेक करता हूँ, घड़ी की तरफ देखता हूँ, मोबाइल के मैसेज पढ़ता हूँ, कैलेंडर में तारीखों के नीचे निशान लगाता हूँ। न जाने किसकी चिट्ठी, किसका फोन आना है। कौन न जाने कब दरवाजा खटखटानेवाला है... कौन था जो आनेवाला था, मगर नहीं आया! अंदर निराशा के काले बादल घुमड़ते हैं, अँधेरा छा जाता है। अवसाद की एक प्रच्छन्न अनुभूति रातदिन अंदर बनी रहती है, मन मेघिल आकाश-सा अवसन्न, धूसर प्रतीत होता है। इनसे छूट जाना चाहता हूँ, मगर स्वयं से नहीं छूट पाता। हाँ, कुछ ऐसा ही हुआ है। वह मेरे वजूद का हिस्सा हो गई है। ऐसा हिस्सा जिसका मैं नाम तक नहीं जानता।
एकदिन देर शाम गए शहर की गलियों में भटकते हुए मैं एक काउंसलर का बोर्ड देखकर अंदर घुस गया था। काउंसलर ने बहुत देर तक बातें करके मेरे अंदर ढेर सारी बीमारियों के लक्षण ढूँढ़ निकाले थे। मैं भी समझ रहा था, मुझमें प्राब्लम्स हैं, मगर इतने सारे... ढेर सारी दवाइयाँ, एक्सरसाइज और लाइफ स्टाइल चेंज के नुस्खे तथा एक अदद बीमारी का नाम लेकर उसदिन वहाँ से दो घंटे बाद मैं निकला था - ऑबसेशन एंड एक्यूट डिप्रेसन... एक भारी-भरकम बिल भी चुकाया था। उस डॉक्टर की क्लीनिक से निकलकर थोड़ी दूर पर एक अँधेरा कोना देखकर मैंने सारी दवाइयाँ फेंक दी थीं। साथ में दवाई की पर्ची भी। खाक डॉक्टर है, इश्क का इलाज करने चला है...!
उस अनजानी, अपरिचित जगह के एकांगी जीवन ने मुझे पहले ही उबा रखा था। सोच रहा था, विनीता की छुट्टियाँ शुरू होते ही उमा को यहाँ बुलवा लूँगा। रहने के लिए अभी तक कोई ढंग का मकान नहीं मिल पाया था, यही सबसे बड़ी दिक्कत थी। अपने घर को मिस कर रहा था। बच्चों का साथ और उमा के सान्निध्य को भी। होटल का खाना खाकर भी ऊब चुका था। एकरस जीवन की बोरियत से छूटने के लिए अंदर-ही-अंदर छटपटाने लगा था।
घूम-फिरकर कहीं बाहर से लौटता हूँ तो उदासी की परछाइयाँ फिर से घनीभूत होकर घेर लेती है। समय काटना एक बड़ी समस्या बन जाता है। सुबह होती है तो रात का इंतजार करने लगता हूँ और रात होते ही सुबह की। इसलिए नहीं कि रात या सुबह में मेरे लिए कुछ खास है। ये तो सुबह की आपाधापी से पीछा छुड़ाने के लिए रात की और रात के एकाकीपन से मुक्ति के लिए सुबह की प्रतीक्षा होती है। कहीं ठहराव नहीं, बस भागना। न जाने किस चीज के लिए, कबतक के लिए...
इन दिनों मैं बहुत सोचने लगा था। फुर्सत में था और अकेला भी। बहुत सारी चीजें, बातें, जिनपर कभी शायद ही गौर कर पाया था कभी, इन दिनों अनायास ध्यान में आने लगी थी। एकदिन एक गाँव के छोटे-से चर्च के पिछवाड़े बने कब्रिस्तान को देखते हुए खयाल आया था, न जाने कितना अर्सा हो गया उमा को ‘आइ लव यू’ कहे हुए। अजीब बात थी। कौन सी बात कहाँ याद आई! सामने मृत्यु का नीरव संसार था और मन जीवन की खुशियाँ अजपाजप की तरह अपनी अदृश्य उँगलियों पर फेर रहा था। शायद ऐसा ही होता है - मौत का सामना होते ही अंदर की जिजीविषा जीवन की ओर मुँह फेर लेना चाहती है, सच की अँगुलियाँ छुड़ाकर भुलावे की झिलमिल दुनिया में खो जाना चाहती है।
कब्रिस्तान में गहरी चुप्पी थी। मैं कब्रों पर जड़े संगमरमर के फलक पर मृत लोगों के नाम, संदेश पढ़ता जा रहा था। एक पर नजर ठिठकी थी - शैरोन डि’सा - 1990-2009। पढ़ते हुए मन में एक तस्वीर बनी थी शैरोन डि’सा की - उन्नीस वर्ष की शैरोन - रूप, रंग और जीवन के उमंग से भरी हुई... न जाने उसने अपने भावी जीवन को लेकर कैसे-कैसे सपने देखे होंगे! सोचते हुए मेरी नजर कब्र पर रखे हुए एक लाल कार्नेशन के फूल पर पड़ी थी। नहीं, तुम एकदम से खत्म नहीं हो गई हो शैरोन, किसी की याद में आज भी जिंदा हो - इस ताजे फूल की तरह... उस सेमिट्री के शांत, उदास माहौल में शायद मैं कुछ ज्यादा ही फलसफाना मूड में होता जा रहा था। समय के बीत गए गलियारे में कहीं बहुत पीछे छूट गई उस युवा लड़की को एकबार देखने की अद्भुत इच्छा मन में अनायास जागती है, जिसके लिए कोई आज भी उसकी कब्र पर कार्नेशन के लाल फूल लेकर आता है, उसकी आत्मा की शांति के लिए जरूर प्रार्थना भी करता होगा। क्या तुम्हें अंततः शांति मिल पाई शैरोन...?
प्रत्युत्तर में तेज धूप में जलते हुए बोगनबेलिया के लाल, चटक फूल मुस्कराते रहते हैं, चंपा की फूली हुई पाँत उसाँसें लेती-सी मौन खड़ी रहती है। मैं मुड़कर देखता हूँ, कब्रिस्तान के एक कोने में कुछ लोग हाथों में फूल लिए खड़े थे। साथ का पादरी गाने के स्वर में शायद कोई मंत्र उच्चार रहा था। उसके चुप होते ही सबने मिलकर एकसाथ ‘आमीन’ कहा था - भँवरे के गुँजार की तरह! पादरी के सफेद चोंगे के ऊपर लाल सैटिन का पट्टा तेज धूप में चमक रहा था। एक सुबकती हुई औरत के कंधे पर उसने कुछ कहते हुए हाथ रखा था। भीड़ धीरे-धीरे तितर-बितर होने लगी थी। कैसा लगता है किसी बहुत अपने को इस तरह से हमेशा के लिए पीछे छोड़ जाना... सोचते हुए अंदर एक शून्य-सा पैदा हो गया था। बहुत उदास होकर वहाँ से लौटा था उस दिन। पूरी शाम उसी अनाम अहसास की मटमैली परछाइयाँ अंदर घिरी रही थीं।
दूसरे दिन सुबह-सुबह टहलने के लिए निकला था। लग रहा था, मुझे व्यस्त होना है, कहीं, किसी तरह खो जाना है, किसी भीड़ में - नामालूम... अपना आप ही एक समस्या हो गया था जैसे। मेरे लिए यह जरूरी हो गया था कि मैं कुछ समय के लिए स्वयं से दूर रहूँ। रविवार का दिन था। लोग सज-धजकर चर्च जा रहे थे सुबह की प्रार्थना के लिए। चर्च का घंटा रह-रहकर बज रहा था। सुबह के शांत माहौल में उसकी ध्वनि-प्रतिध्वनि दूर-दूरतक सुनाई पड़ रही थी। घंटे के बजते ही न जाने क्यों मुहल्ले के सारे कुत्ते एक स्वर में रोने लगते थे। मैं एक बरसाती नाले के ऊपर बनी छोटी-सी पुलिया पर बैठकर आते-जाते लोगों को देखने लगा था। उनके कपड़े, बोलचाल के ढंग - मुझे सभी कुछ अनोखा और इसलिए शायद अच्छा भी लग रहा था। कुछ लोग जाते हुए रुककर मेरा अभिवादन कर रहे थे - अपनी टोपी सर से उतारकर उसे लहराते हुए। मुझे लग रहा था, मैं अपने देश में नहीं, किसी परदेश की धरती में हूँ।
अद्भुत है ये देश। कितनी संस्कृतियाँ, कितनी नस्लें, धर्म यहाँ आकर इस देश की उदार, उदात्त मिट्टी से मिलकर एकाकार हो गए हैं, पूरी तरह अभिन्न, अभिभाज्य हो गए हैं। तभी तो ऐसी समृद्ध, वैविध्यपूर्ण है यहाँ की सभ्यता। कई बार इच्छा हुई थी, चर्च के अंदर जाकर देखूँ कि वहाँ क्या कुछ होता है, मगर संकोचवश नहीं जा पाया था।
एक दिन चर्च का पादरी सुबह-सुबह गाँव के वेकरी में मिल गया था - ताजी, गर्म पावरोटियाँ खरीदते हुए। रंगीन लिबास में था इसलिए अचानक पहचान नहीं पाया था। देरतक मुझसे बातें करता रहा था। पूछा था, मैं किस धर्म का अनुयायी हूँ। उसके कुछ दिनों बाद मेरे लिए मिसेज लोबो के हाथों एक बाइबल भिजवाया था - हिंदी में।
मिसेज लोबो का बर्ताव उसके बाद मेरे प्रति काफी सहृदय हो गया था। न जाने क्यों। शायद चर्च के पादरी के साथ मेरे परिचय के कारण ही। ईसाई समुदाय के लोगों में अपने धर्म के साथ-साथ धर्म गुरुओं के प्रति भी गहरी श्रद्धा-भक्ति के भाव होते हैं। गाँव के लोग अपने चर्च के पादरी के सलाह-मशविरे से ही अधिकतर काम करते हैं। यहाँ के सामाजिक जीवन में उनका गहरा प्रभाव होता है। शादी-ब्याह - सब उन्हीं की स्वीकृति से तय होता है। मुझे यह सब काफी रोचक लग रहा था। धर्म का ऐसा अनुशासन हमारे हिंदू समाज में नहीं होता। शायद तभी इतना बिखराव और उच्छृंखलता है।
कई दिनों तक इधर-उधर भटककर मैंने अपना ध्यान बहुतेरा उस फोन नंबर पर से हटाने का प्रयास किया था। मगर सब व्यर्थ। सारा दिन वह मेरे अवचेतन पर छाया रहता। और रात होते-होते उसके अंक फैलकर जैसे मेरे पूरे अस्तित्व को ही ढँक लेते। सपने में भी वे दिखते - तरह-तरह के रंग और आकार में। कभी पतंग बनकर आकाश में लहराते, मेरे छज्जे के मुँडेर तक उतर आते। उन्हें लूटने के लिए मैं बेतहासा दौड़ता और दौड़ते हुए नीचे गिर पड़ता...! मेरी नींद टूट जाती और मैं जागकर देरतक बैठा रहता। कभी-कभी उठकर बाहर बॉल्कनी में भी आ जाता। रात का शहर सन्नाटे की गहरी नींद में डूबा कितना अलग लगता है। जिन सड़कों पर सारा दिन इतना शोर-गुल, भीड़-भाड़ रहती है, रात के समय वही कैसी वीरानी पसर जाती है। उसपर टहलते हुए या कभी बैठकर अजीब लगता है। ये सड़कें कितने लोगों को कितनी जगह पहुँचाती हैं, मगर खुद कहीं नहीं जातीं। सबको मंजिल तक पहुँचानेवाले की अपनी कोई मंजिल नहीं होती। किसी-किसी की नियति भी कुछ ऐसी ही होती है।
मैं अनझिप आँखों से आकाश की तरफ देखता रहता हूँ। गहरा स्लेटी आकाश दूर मांडवी नदी के पास पीली उजास से भरा रहता है। पणजीम शहर की रोशनी आकाश में ऊपर तक फैलती है। पानी पर ठहरे जहाज, कैसिनो, सैलानी बोट्स की बत्तियाँ - रंगीन लट्टू, नियॉन लाइट्स जलते-बुझते रहते हैं। उनकी नीली, हरी - तरह-तरह के रंगों की रोशनियाँ पानी की गहरी नीली सतह पर काँपती है, दूर तक फिसलती जाती है। एक अद्भुत स्वप्नवत दृश्य उपस्थित होता है, जैसे रंगों की झिलमिलाती परियों का नृत्य लगा हो... कई बार देर रात तक मैं मांडवी के किनारे-किनारे भटका हूँ। चौड़ी, खाली, सुनसान सड़कें, किनारे पर फूलों और क्रोटोन्स की रंग-बिरंगी सघन झाड़ियाँ और पानी पर पूरे चाँद का टूटता-बिखरता प्रतिबिंब... ऐसी आवारगी का एक अपना नशा होता है, घर लौटकर जाने का मन नहीं होता। उस घर में तो हर्गिज नहीं जहाँ मैं इन दिनों रह रहा था।
कई बार पुलिस की गश्ती गाड़ियों ने रोककर मुझसे पूछताछ भी की थी। मेरा परिचय पत्र देखकर तथा मैं शराब के नशे में नहीं हूँ, इस बात की तसल्ली करके मुझे जाने दिया था - कई एक हिदायतों के साथ।
घर लौटते हुए उस दिन जेब से कागज का वह पुर्जा निकल आया था - उस अनजान औरत का मोबाइल नंबर। उसे देखते हुए न जाने क्या हुआ था। अंदर एक तेज घुमेर-सी उठी थी - सिरा दूँ अपनी सारी यंत्रणा, छटपटाहट इस मांडवी में, इसके शीतल जल में शांत हो मेरे अंतस की सारी दाह, संताप! मुक्त हो जाऊँ इस रातदिन की दुविधा से...
एकदम से उस कागज का गोला बनाकर नदी में उछाल दिया था। गोला तेज पानी में डूबता-उतराता बह चला था। दूर से भी वह गहरे बैंजनी पानी में स्पष्ट होकर दिख रहा था। मैं अपनी जगह खड़ा उसे बहता हुआ देखता रहा था कुछ देरतक - बिल्कुल निर्लिप्त और उदासीन भाव से। और फिर हड़बड़ाकर दौड़ पड़ा था, पानी में उतर गया था दूरतक। मुझे वह कागज का टुकड़ा चाहिए - कैसे भी, किसी भी कीमत पर...
अरे रे मैन, क्या करता है?
पास ही पानी में मछली के लिए काँटा डालकर बैठा हुआ एक आदमी चिल्लाया था - सुसाइड करने को माँगता है क्या! तो कहीं और जाओ न बाबा...
किस्मत से कागज का वह गोला एक बँधी हुई नाव से टकराकर वहीं कोने में अटककर रह गया था। उसे मुट्ठी में लेकर मैं पानी से बाहर निकल आया था, पूरी तरह भीगा हुआ। पीछे वह आदमी अब भी बड़बड़ा रहा था -
न जाने ये घाटी लोग किधर-किधर से यहाँ मरने के वास्ते आ जाता है, बेयोरा मारकर एकदम टुन्न हो जाता है...
उसकी बातों पर ध्यान न देकर मैंने स्ट्रीट लाइट के नीचे जाकर उस भीगी हुई पुड़िया को खोलकर देखा था। भीतर का हिस्सा सौभाग्य से पूरी तरह अभी भीगा नहीं था। दो अंक बहरहाल धुँधला गए थे, मगर शुरू के दो अंक, जिन्हें समझना आसान था। एक अनाम खुशी से मैं भर उठा था। घर की तरफ लौटते हुए मैंने मुड़कर उस बड़बड़ाते हुए व्यक्ति की तरफ हवा में एक चुंबन उछाल दिया था - गुडनाइट साहेबा...
‘चल-चल, वचुन घरा नींद (जाओ, अपने घर में जाकर सो जाओ)!
वह व्यक्ति फिर बड़बड़ाया था, मगर इस बार हल्के ढंग से। मैं मुस्कराते हुए अपने कमरे में लौट आया था। न जाने मुझे क्या इतना कीमती दुबारा मिल गया था।
अपने कमरे में लौटकर मैंने उस कागज पर धुँधले पड़ गए अंकों को स्केच पेन से बार-बार गहरा किया था। और एहतियातन तीन-चार जगहों में और भी लिखकर रख लिया था। आज की तरह फिर कभी पागलपन का दौरा पड़ा तो! मैं अब किसी तरह इस नंबर को खोना नहीं चाहता था। इसी में शायद कहीं मेरा पता भी मिलना था। उस रात मुझे अच्छी नींद आई थी। अपने ही अनजाने शायद मैं किसी निर्णय पर पहुँच गया था। कई दिनों से ये दस काले अंक मेरा पीछा कर रहे थे - हर जगह, हर समय! एक अंदरूनी बेचैनी मुझे अपने जद में लिए हुए था। मेरे पाँव रुके हुए थे, मगर मैं एक निरंतर यात्रा में था – यात्रा - अपनी ही तरफ, एकदम अंदरूनी... शायद तभी इतना कठिन भी। ये भीतर के सफर ही होते हैं जो इतना थका देते हैं। मैं स्वयं से भाग रहा था - मगर कैसे भाग सकता था। अब जो यह बचकानी कोशिश छोड़ दी तो जैसे राहत मिल गई। साथ में नींद भी - लंबी, बिना सपनों की - बँधे हुए पत्थरों की तरह - स्याह और गहरी, एकदम तलहीन, अछोर...
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