औरत जो नदी है... / भाग 2 / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
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सुबह उठा तो सबसे पहले घर पर फोन किया। जैसे किसी युद्ध पर जाने की तैयारी में हूँ। उमा की आवाज सुननी थी और उसकी शुभकामनाएँ भी लेनी थी। फोन पर आते ही उमा चहकी थी - किसी ताजे, मीठे पानी के घने होकर बहते सोते की तरह थी उसकी आवाज - राहत और सुकून से भरी हुई। उसने कल रात मुझे सपने में देखा था। हम दोनों एक-दूसरे से प्यार कर रहे थे, बहुत डूबकर, देरतक। मैंने पूछा था - कहो तो पहली फ्लाइट पकड़कर अभी आ जाऊँ... वह शरमाकर हँसती रही थी।

फोन रखकर न जाने क्यों मैं बहुत देर तक वही बैठा रह गया था। आँखों के कोने जल उठे थे। उमा की हँसी के साथ उसका चेहरा भी तैर रहा था मेरे सामने - गुलाबी पतंग की तरह - तेज हवा में चंचल, उन्मुक्त... मगर क्या करता, मेरा मन भी अब कहाँ मेरे अधिकार में था, कटी पतंग की तरह उड़ कर आँखों से ओझल हो गया था, शायद लूट ही लिया गया था! मगर मेरा अवचेतन जानता था उसका पता। मैंने अपनी जेब टटोलकर वह तुड़ा-मुड़ा कागज का टुकड़ा निकाला था - दस अंक - स्याह, लिसरे-से - साँवले फूल की तरह मुस्करा रहे थे। मैंने मोबाइल उठाकर नंबर मिलाया था। दूसरी तरफ फोन की घंटी बजते-बजते मेरा पूरा शरीर पसीने से भीग उठा था। जैसे ही किसी ने फोन उठाकर हलो कहा था, मैंने फोन मेज पर रख दिया था और फिर दूसरे ही क्षण उठा भी लिया था।

दूसरे दिन उसके घर के लिए निकलते हुए मैं जानता था, मैं आसरे की तलाश में अपने घर से आगे जा रहा हूँ। अनुभव कर सकता था, मेरे पीछे मेरा अबतक का सारा पाया-सहेजा छूटता जा रहा है - शायद हमेशा के लिए। कितने आँसुओं से भीगे चेहरे थे, कितनी जुड़ी हथेलियाँ और अनुनय में बँधे हाथ... मगर कुछ भी - कोई भी तो मुझे उसदिन रोक नहीं पाया था। घर फूँककर निकल पड़ना शायद ऐसे ही किसी जुनून को कहते हैं! जिस समय मैं स्वयं के ही वहाँ होने पर हैरान और एक हदतक शर्मिंदा उसके दरवाजे पर खड़ा हुआ था, वह इस तरह से सहज मुस्कराते हुए दरवाजा खोली थी, जैसे उसे हमेशा से पता हो, मुझे उसदिन उसके पास आना ही है। यहाँ औरत की छठी इंद्रिय काम कर रही थी शायद। वह मेरी हार का पहला दिन था। उसके साथ पराजित होने और निरंतर होते चले जाने की प्रतीति हर पल होती रही है। ये मेरी अपनी चारित्रिक दुर्बलता थी या उसके विलक्षण व्यक्तित्व का सहज परिणाम, मैं अंत तक जान नहीं पाया था।

उसने अपने घर के दरवाजे इस तरह खोले थे जैसे आकाश को विस्तार दे रही हो। जो आकाश उसकी आँखों में था, वही उसके घर में भी ओर-छोर पसरा था। ऐसा प्रतीत होता था जैसे उसका घर सब्ज, हवा और धूप से बना हुआ हो। उस घर की दीवारें ठोस नहीं, बल्कि पारदर्शी थी - हर मौसम को स्वयं से निर्द्वंद्व गुजारती हुई, उसके तमाम तेवर और मिजाज के साथ! - दीवार से दीवार तक जुड़ी हुई काँच की खिड़कियाँ, पेपर के जींस की बनी जापानी दीवारें, खुली बॉल्कनी और बरामदे... हर कोने पर रंग-बिरंगे क्रोटोंस, दीवारों को ढँके मनी प्लांट्स, और नाटी-बौनी बोंसाई की लंबी पाँत... घर के अंदर दाखिल होकर लगा था, खुले में आ गया हूँ।

मुझे उसके घर के गोबर लीपे आँगन और उसके बीचोंबीच खड़े तुलसी चौरे ने सबसे अधिक प्रभावित किया था। एक शहर के शोर-गुल से भरे माहौल में एक छोटे गाँव का-सा शांत वातावरण था वहाँ। दरवाजे पर बँधे चाइम्स की मीठी ठुनक रह-रहकर घर के अंदर पसरे मौन को अपनी मीठी गूँज से तोड़ रही थी। उसने मुझे न जाने किस नजर से देखा था - तुम्हारा इंतजार हमसब को जाने कब से था। पूरे घर को मानो अपनी बाँहों में लेते हुए उसने कहा था, गहरी उछाह से भरी हुई। मैं बिल्कुल अभिभूत था, क्या कहता - अपनी खोई हुई जबान से...

पहले-पहल उसने कुछ भी नहीं पूछा था मेरे विषय में। न अपने विषय में ही कुछ कहा था। मुस्कराकर बस इतना ही कहा था - ये तुम हो जिसके विषय में जानना चाहती हूँ - तुम्हारी सोच, तुम्हारे खयाल, पसंद-नापसंद... न कि तुम्हारी जात, धर्म, गोत्र, समाज के विषय में! वाट्स इन ए नाम... राम हो या श्याम - क्या फर्क पड़ता है!

मैं उसकी कजलाई आँखों की मीठी चावनी में डूबता बैठा रह गया था। अपने बिखरे बालों को एक ढीले जूड़े में गूँथते हुए वह सामने बैठ गई थी, चेहरे पर अस्त-व्यस्त लापरवाह-सी मुस्कराहट लिए - क्षणों को जियो अशेष, इन्ही से जिंदगी बनती है। जो बीत चुका या आनेवाला है, वह महज फसाना या ख्वाब है। हम हमेशा जिंदगी को जीना छोड़कर जीने की तैयारी में क्यों लगे रहते हैं?

मैंने अपने आने की एक लंबी-चौड़ी भूमिका बाँधनी चाही थी, मगर उसने रोक दिया था - आज यह सब नहीं। जीवन को थोड़ी देर के लिए बिना शर्त, बिना पाबंदियों के जी लेने दो। देखो न कैसा लगता है... उसकी आँखों में चमक आए मोतिया आब को देखकर प्रतीत हुआ था जैसे कोई नटखट-सी बच्ची शरारत के मनसूबे बाँध रही हो।

मुझे खुले बरामदे में बैठाते हुए उसने यकीन से कहा था - तुम अपने घर आ गए हो अशेष! इस घर में सबकुछ था, बस तुम ही नहीं थे। आज आ गए हो तो यह घर घर बन गया है। मुझे आश्चर्य हो रहा था, उसके यकीन पर।

इतना यकीन कैसे कर लेती हो? मुझे उससे एक तरह से ईर्ष्या होने लगी थी।

अविश्वास में जीने से तो अच्छा है, विश्वास के हाथों मारा जाना, नहीं? वह एक बार फिर हँसी थी - अपने पूरे वजूद से। यह उसकी एक और विशेषता थी, हँसती या उदास होती थी अपनी पूरी काया से। बस उसकी आँखें थीं जो मुस्कराकर भी नहीं मुस्कराती थी। वहाँ खूबसूरत वर्क में लिपटा हआ विषाद होता था - बहुत गहरा और अछोर... किसी पत्थर की तरह मजबूत बँधा हुआ। उन्हें देखकर किसी निसंग संध्या तारा की याद हो आती थी - अकेले-अकेले - झिलमिलाहट में लिपटे हुए, मगर बेतरह उदास और अनमन...

मेज पर चिल्ड बीयर के साथ कोल्ड कट्स सजाकर वह तुलसी चौरे पर पानी चढ़ा आई थी। अपनी आँखें बंद किए आकाश के उद्देश्य में उसे एकमन से हाथ जोड़े हुए देखना भी अपने आप में एक अनुभव था। बिना किसी मेकअप का साफ, धुला चेहरा, शरीर पर सिल्क का सफेद गाउन और गले में रूद्राक्ष की माला। गीले बालों का जूड़ा खुलकर पीठ पर फैल गया था। धूप में सूरजमुखी की तरह दपदपाते हुए उसके उजले रूप को मैं अपनी आँखों से समेटकर अंदर सहेज रहा था। कुछ छूटे न, कुछ बचे न। मुझे प्रतीत हो रहा था, मैं किसी दूसरी ही दुनिया में आ गया हूँ, जहाँ सबकुछ खालिस जादू है।

आँगन के ऊपर मड़ैया बँधी थी जिसपर चमेली की लतरें चढ़ाई गईं थीं। हरे पत्तों के बीच से दोपहर का नीला आकाश आईने की तरह कौंध रहा था। हवा में हरसिंगार की बासी, उनींदी गंध थी। शायद आसपास कहीं भोर रात से झड़ता रहा था।

कभी किसी दुर्लभ क्षण में हम समय के गिरफ्त से छूट जाते हैं, अनंत, असीम हो जाते हैं, जीवन, जगत के पार चले जाते हैं... कुछ ऐसा ही घटा था उस रोज - समय की बहती हुई धारा से जैसे हम बिल्कुल अलग हो गए थे। दामिनी का रूप, उसकी हँसी, उसकी बातें... ऐश्वर्य की एक पूरी दुनिया मेरे सामने पसरी थी। दोपहर अपनी अलस, मंथर गति से चुपचाप कटती रही थी। सुख की एक हथेली भर जमीन पर हम समंदर की तरह फैले हुए थे, टूट, बिखर रहे थे - बिल्कुल बेपरवाह।

उसने मुझसे कहा था, वह मुझसे प्यार करती है। मैं चौंक पड़ा था। इतनी जल्दी वह इस निर्णय पर कैसे पहुँच सकती है! बीयर के गिलास के पीछे उसकी फीरोजा नील आँखें पिघले सितारे की तरह फैली हुई थी, बूँद-बूँद टपकती हुई-सी...

- कुछ सोचना या पूछना तो अनिश्चय की स्थिति में होता है अशेष। तुमसे प्यार करती हूँ या नहीं, यह एकबार भी स्वयं से पूछना नहीं पड़ा। जिस क्षण तुम्हें देखा उसी क्षण से जानती हूँ कि मुझे तुमसे प्यार है।

ऐसा कैसे... मैंने पूछना चाहा था, मगर उसने मेरी बात बीच में ही काट दी थी - प्यार तो ऐसे ही होता है अशेष, या फिर होता ही नहीं। उसकी आवाज का यकीन अडोल था। मैं क्या कहता, बस उसे खामोशी से देखता रह गया था। बाहर तेज धूप में दिन का दूसरा पहर जल रहा था। गेट से लेकर घर के पोर्टिको तक गुलमोहर के झरते हुए पीले फूलों से अँटा पड़ा था। गर्म हवा में खिड़की के पर्दे उड़ रहे थे।

मेरा मोबाइल लगातार बज रहा था। मैं जानता था, उमा का फोन होगा। सुबह से वह मेरा नंबर ट्राइ कर रही थी। मगर मेरी हिम्मत नहीं हुई थी कि मैं उसका फोन उठाता। दामिनी ने कुछ देर तक मेरी आँखों में झाँका था और फिर मुझसे बिना पूछे ही मोबाइल बंद कर दिया था - आज का दिन बस हमारा-तुम्हारा है। बीच से यह दुनिया हटा दो और सारी वर्जनाएँ भी... मैं कुछ कह नहीं पाया था। इस क्षण मैं उसके रूप के गहरे सम्मोहन में था - एकदम असक्त, असहाय - जल की तेज धार में बहते हुए तिनके की तरह...

उसदिन मैंने बीयर की कई बोतलें खाली कर दी थीं। दामिनी लिमका में मिलाकर फेनी पीती रही थी। कहा था, गर्मी में अच्छा लगता है...

एक समय के बाद वह मुझे अपने बेडरूम में ले गई थी। वहाँ लगा था कि जैसे समंदर की छत पर हम बैठे हुए हैं- खिड़की से झाँकता हुआ आकाश और समंदर - उसकी ऊँची, झागदार लहरें और अबाध बहती हवा... पूरा कमरा धूप की आसमानी चटक से भरा हुआ था। मुझे कुर्सी पर बिठाकर वह खुद बिस्तर पर लेट गई थी। उसकी आँखों में उस समय नींद और खुमार था। लंबी, सघन बरौनियाँ आँखों पर झँप आईं थीं।

एक खूबसूरत निमंत्रण की तरह वह बिस्तर पर लेटी हुई थी, मेरी तरफ अद्भुत नजर से देखती हुई। मैं जानता था, इस क्षण उसे छुआ तो वह पारे की चमकीली नदी बनकर पिघल जाएगी, बहती रहेगी निरंतर, बहकर निःशेष हो जाएगी मेरी बाँहों में - अपनी आखिरी बूँद तक। हल्के टकोर की प्रतीक्षा में सितार के कसे तार की तरह उसके शरीर के अवयव तने हुए थे - अधीर, साग्रह... या किसी नदी की प्यासी देह की तरह रसमसाती हुई, जिसे धूप और ताप के अंतहीन ऋतु में सावन के एक टुकड़े बादल का इंतजार होता है - फिर से पुरने के लिए, अपने कूल, किनारों तक...

एक लंबे, गहरे मौन के बाद उसने कहा था - मेरी पहली शादी बहुत कम उम्र में ही हो गई थी। ये शादी मैंने खुद ही की थी। लव मैरिज नहीं था, मगर चुनाव मेरा ही था। अपनी माँ की मृत्यु के बाद अपने पापा के साथ एक छत के नीचे मेरा रहना मुश्किल हो गया था। निकल जाना चाहती थी वहाँ के विषाक्त माहौल से - किसी तरह, किसी भी कीमत पर। मगर शादी के तीन महीने बाद ही मैंने अपने पति का भी घर छोड़ दिया था। मुझे जल्दी ही समझ में आ गया था कि एक नरक से छूटने के लिए मैं दूसरे नरक में आ गई हूँ।

एक साँस में इतना कहते हुए ही वह जैसे हाँफ आई थी।

एक छोटे-से विराम के बाद मैंने पूछना चाहा था - तुम्हारी माँ...

ये कहानी फिर कभी... दामिनी ने अपना हाथ उठाकर मुझे टोक दिया था। उसके बाद हमारे बीच फिर से एक लंबा मौन पसर गया था। बहुत देर बाद अपनी आँखें खोलकर उसने अब धीरे से पूछा था, थरथराती हुई आवाज में, जैसे पूछते हुए उसे डर लग रहा हो - घर में कौन-कौन हैं अशेष?

मैं समझ गया था, वह क्षण आ गया है। यह निर्णय की घड़ी है। वह स्वयं को यथार्थ का सामना करने के लिए तैयार कर रही है। अब हमारे संबंध को भी एक नाम, एक चेहरा देने की जरूरत है। हम दुनिया में लौट आए थे। आकाश में कितना भी उड़ लें, रहना तो आखिर इस जमीन पर ही है।

मैंने अपने अंदर की सारी शक्ति को संचित किया था। सच मैं नहीं बोल सकता था - इस क्षण तो बिल्कुल भी नहीं। और झूठ बोलने के लिए जिस अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है, उसे ही शमित करने का प्रयत्न कर रहा था, अपनी पूरी सामर्थ्य से। इस समय मैं जो कहूँगा वही हमारे आगे के संबंध का स्वरूप तय करेगा। मैं नहीं चाहता था, सच कहकर सपनों की इस खूबसूरत और पारदर्शी दुनिया को तोड़ दूँ। यथार्थ की बदसूरत, कठोर और नीरस दुनिया में अब मैं किसी भी तरह लौट जाने को तैयार नहीं था। मैंने वर्जित फल का स्वाद चख लिया था। अब मेरी रिहाई नहीं थी - इस जन्म में तो कतई नहीं। मैंने किसी पराई आवाज में रुक-रुककर कहा था - परिवार है, मगर न होने के बराबर।

अनायास कह तो गया था, मगर अब अपने ही बोझ से दम घुट रहा था। सच कहना चाहता था, मगर हिम्मत नहीं हुई - उसे खो देने की हिम्मत। इस पल मैं अपनी हवस की जद में था। नसों के संजाल में चिनगारी की सुनहरी आँधी उठी हुई थी, लहू आग बनकर दौड़ रही थी। उसकी देह-रस, गंध और स्वाद से गुँथी देह - मेरी आँखों के आगे थी, और कुछ नहीं। वह लेटी हुई थी उस क्षण, एक पारे की उजली नदी की तरह - हल्के-हल्के सरसराती हुई, अपने मायावी आकार की मादक संपूर्णता में - तिलिस्म रचती हुई-सी, मुझमें पूरी तरह उतर आने के लिए, बह आने के लिए उद्धत, आमादा - अपनी आखिरी बूँद तक...! मैं जानता था, वह मेरा होना चाह रही थी, मगर रस्म निभा रही थी - दुनियादारी की रस्म। यह जरूरी हो जाता है, खासकर ऐसे क्षणों में जब हम किसी वर्जित क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हों, अपनी ग्लानि को कम करना जरूरी हो जाता है। दिमाग जिसे नहीं स्वीकारता, मन उसे अस्वीकार नहीं कर पाता। संस्कार... ये हमारे लहू में बहता है, बहुत चुपचाप, मगर हर क्षण। सही समय आने पर मौन तोड़ देता है। हमें उसे सुनना पड़ता है, वर्ना वही विवेक का तीक्ष्ण दंश और अपराधबोध!

अपने जिस्म में डूबने से पहले वह अपने मन को हर तरह से समझा लेना चाहती है, साफ कर लेना चाहती है। औरत जो है, उसके लिए यह जरूरी हो जाता है। खालिस जिस्म बनकर जीना कभी उसके लिए संभव नहीं हुआ है। उसके नाजुक कंधों पर बहुत बोझ है। समाज का, संसार का, और सबसे ज्यादा खुद का। धरती की तरह है उसका जीवन, उसकी नियति... मयार्दा तोड़ नहीं पाती, स्वयं टूटती रहती है। संरक्षण उसका स्वभाव भी है और जिम्मेदारी भी। सर्जक होने की यही त्रासदी है शायद, कुछ तोड़ देना, नष्ट कर देना सहज नहीं रह जाता। गढ़ने, सजाने, सँवारने की आदत जो पड़ जाती है। मेरी तरफ बढ़ने से पहले वह भी जान लेना चाहती है, उसके पाँवों के नीचे आकर कुछ कुचल तो नहीं रहा है। मुझे उसे यह विश्वास दिलाना ही पड़ेगा कि ऐसा करते हुए वह किसी के दुख का कारण नहीं बन रही है, वर्ना वह कदम नहीं बढ़ाएगी। लौट जाएगी, मन से न सही, देह से जरूर - शायद हमेशा के लिए...

इस खयाल ने मुझे बेतरह डरा दिया था। एक सच की कीमत मेरी जान होगी! हाँ, मेरी जान! उसकी देह की तिलिस्म में आकंठ डूबा उस पल मेरा एकमात्र सत्य यही था कि मैं उसे पाना चाहता था - किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर... मेरे पोर-पोर में उसकी पागल चाह पूरी शिद्दत से समा गई थी। अब चाहकर भी मैं इससे छूट नहीं सकता था। मेरे वश में मेरा आप नहीं रह गया था। अंत में मैंने एक और झू्ठ गढ़ा था - अपनी पत्नी के साथ एक लंबे समय से मेरा कोई शारीरिक संबंध नहीं है! वह शायद यही सुनना और मानना चाहती थी - सो मान गई!

एक असमंजस भरे मौन के बाद उसने कहा था - मैं तुम्हारी दुनिया को बाँटना नहीं चाहती, बस, तुम मुझे इसका एक हिस्सा बना लो, बहुत छोटा, मगर मुकम्मल...

उसदिन सुबह कब दोपहर में ढली और दोपहर शाम में, मैं नहीं जानता। समय थम गया था या हम ही, ये भी कह नहीं सकूँगा। वह थी, मैं था और बस, यही था - और कुछ नहीं... हम क्या कह-सुन रहे थे, इसका कोई माने नहीं था। वह कह रही थी और मैं सुन रहा था, यही बात दीगर थी। बोलते हुए दो आँखों का कौतुक, आश्चर्य और शरारत से पिघलकर कभी समुद्र हो जाना या एक बासंती देह का पारे की उजली नदी में तब्दील हो जाना... सबकुछ विलक्षण, अद्भुत था। वह कभी रोई थी, कभी हँसी थी और कभी नाराज हो गई थी। उसके चेहरे पर क्षण-क्षण बदलते ये भाव धूप-छाँव के अल्हड़ खेल की तरह रोचक थे।

वह एक जादू की तरह आहिस्ता-आहिस्ता खुली थी मेरे सामने - पाँखुरी-पाँखुरी... मेरी समस्त चेतना जैसे खुशबू की एक गहरी, पारदशी झील में डूबकर रह गई थी। बाहर रात का रंग गहरा रहा था, सुरमई से जामुनी, फिर स्लेटी। मौसम का नया चाँद अपनी चमक समेटकर न जाने कब दबे पाँव समंदर की ओर उतर गया था। गर्म हवा चंपा की तेज सुगंध में नहाई हुई निःस्तब्ध पड़ी थी। कोई रात का पक्षी रुक-रुककर बोल रहा था। यह नींद, स्वप्न और इच्छा की महक में डूबी आदिम रात मेरे अंदर गहरे तक उतरकर मुझे वन्य बना रही थी, अबाध्य और उच्छृंखल भी। मैं चाह रहा था, कपड़ों और मुखौटों की सभ्यता से परे आज की रात एकबार - कम से कम एकबार - अपने खालिस मन और देह को जिऊँ, उसकी तमाम हवस और मुरादों के साथ! किसी भी वर्जना और ग्लानि से परे होकर, एकदम उन्मुक्त, स्वच्छंद...

एक कहानी गढ़ते हुए धीरे-धीरे मेरी आँखों के सामने से उमा का चेहरा खो गया था - जल के तल में हिलते हुए सेवार की तरह। दामिनी की देहगंध में डूबा मैं उसे बताता रहा था अपने उस दुख-दर्द की बातें जो शायद ही मेरे जीवन में कहीं थीं। वही पत्नी के रूखे, शुष्क स्वभाव का होना, केयरिंग न होना, मेरा अकेलापन, उदासी, किसी के साथ, स्नेह-परस की चाह... सुनते हुए कितनी आसानी से दामिनी माँ बन गई थी, मुझे अपनी गोद में समेट लिया था। जिस्म में उतार लिया था। औरत कितनी भी बुद्धिमान हो, न जाने क्यों, यह वार कभी खाली नहीं जाता। पुरुष हमेशा स्त्री का मालिक बनना चाहता है, मगर औरत अंततः उसकी माँ ही बनना चाहती है। पिघल जाती है उसके दुख में, उसे अपने आँचल की छाँह में समेट लेना चाहती है। प्रेम देने में भले कंजूसी कर जाय, स्नेह से कभी इनकार नहीं कर पाती। इसी स्नेह की डोर पकड़कर मैं उसके शरीर तक पहुँचा था। उस रात उसने मुझे अपनी गोद में पनाह दिया था, ये बात और है कि मैं उसकी कोख तक पहुँच गया था, अपनी हवस से भर दिया था उसे - आखिरी बूँद तक!

उस रात दामिनी की देह के गर्म सुख में डूबकर मैंने जाना था, इच्छा का चरम और तृप्ति की सीमा क्या हो सकती है... हो ही नहीं सकती...! अब तक जिस शरीर को जी रहा था, वह जीवित ही नहीं था, बस एक खुशफहमी थी - जीने की, भोगने की... अब जब भ्रम टूटा, ठगे जाने की अनुभूति ने आ घेरा - वह भी किस भयावहता से! सुख - देह सुख - की एक नई परिभाषा, एक नया अर्थ मेरे सामने उस रात खुला था, मगर उसे शब्दों में मैं किसी भी तरह बाँधने में अक्षम था - भाषा अभी इतनी समर्थ भी कहाँ हो पाई है जो मन के भाव - ऐसे गहन भाव - को व्यक्त कर सके... जिस सुख को मैं अपने रगो-रेश से जी रहा था उसे शब्दों में व्यक्त करके उसे, उसकी विलक्षणता और अलौकिकता को जाया नहीं करना चाहता था। इसे जीना, जीना और जीना... यही इसकी उपलब्धि और सार्थकता हो सकती थी, और कुछ नहीं...!

बिस्तर में वह कोई और थी - इच्छाओं की एक रसमसाती हुई झील, जिसका कोई तल, थाह नहीं, कूल-किनारा नहीं...एक आसेव की तरह कुछ उतरा था उसमें - सर से पाँव तक आग की एक नदी बन गई थी वह! दपदपाती हुई अग्निशिखा! ईप्सा के चरम में धुआँती, लपटें मारती हुई - अदम्य, आकुल वन्या... मैं जानता था, उस कौंध भरे आलिंगन में सिर्फ मृत्यु है मेरे लिए, मगर क्या करे कि उस रात मेरा वही एकमात्र काम्य था। जीवन का इससे खूबसूरत विकल्प और कुछ नहीं हो सकता था मेरे लिए... मैं उतरा था उसमें - अपने पूरे होशो-हवास में - हमेशा के लिए डूब जाने के लिए - डूबकर उतर जाने के लिए... कैसा आत्महंता कदम था वह! वासना किसी को इतना ही साहसी बना देता है, प्रयोगधर्मी भी!

अपने तटबंधों को गिराते हुए मुझमे किसी बाढ़ चढ़ी नदी की तरह उफन आई थी वह। प्रेम के क्षणों में जितनी कोमल थी वह कभी-कभी उतनी ही आक्रामक भी - एक सीमा तक हिंसक! अपनी देह पर खिले अनवरत टीसते हुए नीले फूलों को देखकर पीड़ा का स्वाद ऐसा मधुमय भी हो सकता है, यह उसी रात महसूस कर पाया था मैं।

उस सारी रात मेरी बाँहों में पिघलते हुए मोम की तरह ऊष्ण और सघन रही थी वह - उसमें उतरना अपने स्व को खोना था, एक पूरे जन्म के लिए ही। मगर इसका कोई मलाल नहीं हो सकता था, जिस मूल्य पर यह घटा था, उस मूल्य पर तो कतई नहीं। बर्फ के गोरे जंगल में आग की एक सुर्ख नदी की तरह थी वह, तुषार कणों में आँच की दहकती हुई अनगिन बूँद समाए, शांत और टलमल... उस रात मैंने जाना था, एक औरत की देह में कितने समंदर, पहाड़ और नदियाँ समाई होती हैं। उनमें डूबते-उतराते, पार करते मैं निःशेष प्रायः हो गया था, चुक गया था, मगर न उसकी थाह पा सका था, न उसकी सीमा... वह रात गहरी तुष्टि और गहरे अभाव की थी, मगर थी अद्भुत, एक तरह से सांघातिक! बीतकर भी न बीतनेवाली, रह जानेवाली - हमेशा के लिए। उसने कहा था, मैं उसके जीवन का पहला पुरुष नहीं था, मगर - था! क्योंकि उसने मेरा वरण अपने मन से किया था। सही अर्थों में वही पुरुष किसी स्त्री के जीवन का पहला पुरुष होता है जिसका वरण स्त्री अपने हृदय से करती है।

दूसरे दिन उसके घर से मैं जब निकला था, कोई और ही बन गया था - एकदम नया, दूसरा ही। साथ में मेरी पूरी दुनिया भी बदल गई थी - सिरे से।

वह सारा दिन मेरा न जाने कैसे व्यतीत हुआ था। मैं हवा के परों पर था, तैरता हुआ - बिल्कुल हल्का-फुल्का... ये हमेशा की पुरानी दुनिया एकदम नई-कोरी हो आई थी यकायक। बहुत दिनों बाद बहुत सुकून और आराम से नहाया था मैं - देर तक - अपनी त्वचा पर दामिनी के रेशम जैसे स्पर्श का अनुभव करते हुए। उसकी देह गंध मेरे नासारंध्र में भरी थी, रात का बासीपन लिए - किसी सूखते हुए फूल की तरह... बाथरूम से बाहर निकलकर अपनी देह पर कोलोन छिडकते हुए मैंने निर्णय लिया था, आज ऑफिस नहीं जाना है। इस निर्णय के साथ ही मैं बेहद रिलैक्सड हो आया था। मन आज किसी बंधन को मानना नहीं चाहता था। उन्मुक्त होकर उड़ते फिरना चाहता था, खुले आकाश में - किसी पक्षी की तरह...

अबतक का जीवन क्या था - एक बंधन ही तो! हर चीज का बंधन - समाज, परिवार, रिश्ते का बंधन... अनुशासन की जंजीरों में जकड़ा हुआ, मर्यादा, सीमाओं के दायरे में संकुचित, आबद्ध... कब मन का किया, अपनी तरह से जिया... बचपन से अच्छा होने का अभिशाप लिए जिए जा रहा था - अशेष अच्छा बेटा है, बड़ों की सुनता है। अशेष हमेशा अपने क्लास में पहला आता है, कभी विद्यालय से अनुपस्थित नहीं रहता। जो दो, खा लेगा। जैसा दो, पहन लेगा। वह झगड़ा नहीं करता, गाली नहीं देता, गुस्सा नहीं करता... कितना अच्छा बेटा है। ‘मेरा राजा बेटा’ माँ बलैयाँ लेते नहीं थकतीं। पापा का सीना उसे लेकर गर्व से फूला रहता है। अपने रिश्तेदारों के बीच वह एक उज्जवल उदाहरण है।

कॉलेज में भी टॉप करने के चक्कर में मैं दिन दुनिया भुलाकर अपनी पढ़ाई में मश्गूल रहा। मेरे दोस्त पिक्चर जाते, लड़कियों के साथ इश्क लड़ाते, मगर मैं - अपने दोस्तों के बीच मिस्टर क्लीन के नाम से मशहूर - अपनी किताबों में पूरे साल सर डाले पड़ा रहता था। धीरे-धीरे मैं किताबी कीड़ा, भोंदू, महाबोर... न जाने किस-किस नाम से मशहूर हो गया। मगर क्या करता, मेरी आँखों के सामने रातदिन मेरे माँ-बाप का चेहरा तैरता रहता। कितनी उम्मीदें थीं उनकी मुझसे। मैं उनका इकलौता बेटा था। अपने सारे सपने उन्होंने मेरे आसपास ही बुने थे। उनकी आशाओं को तोड़ना मेरे वश की बात कदापि नहीं थी।

एकबार अपने दोस्तों के साथ उनकी जिद्द पर शराब पी ली थी और होस्टल के वार्डन के हाथों पकड़ा भी गया था। प्रिंसिपल महोदय ने पापा, मम्मी को ऑफिस बुलाकर ये शिकायत की तो सुनकर माँ वहीं अचेत हो गई। इसके बाद उन्होंने अन्न, जल त्याग दिया और जबतक मैंने उनके सर पर हाथ रखकर फिर कभी शराब न पीने की कसम खाई तबतक मुँह में एक दाना तक नहीं डाला। उस कम उम्र में मन में हजार तरह की इच्छाएँ उठती तो थीं, मगर उन्हें बरबस दबा लेना पड़ता था। हमेशा आँखों के सामने मम्मी-पापा का चेहरा तैर जाता था। बेचारगी से भरे हुए, दयनीय, मिन्नतें करते हुए... उनकी प्रत्याशाओं का बोझ इतना भारी था मेरे कंधों पर कि उनके नीचे दबकर न जाने मेरे अपने सपने कब दम तोड़ चुके थे।

कॉलेज में मेरे क्लास में एक लड़की पढ़ती थी - छंदा! गहरी साँवली मगर सुंदर। किसी तथाकथित नीची जाति की थी। बहुत चुपचाप और गंभीर। न जाने क्यों, मैं उसकी तरफ आकर्षित हो गया था। अधिकतर आँखों ही आँखों में हमारी बातें होती थीं - मौन संवाद... धीरे-धीरे हमारी दोस्ती गहरी हो गई थी। उस उम्र में अपने विपरीत सेक्स के साथ किसी भी तरह के लगाव या आकर्षण का अर्थ हमारे लिए प्रेम ही होता था। इसलिए मेरे और छंदा के बीच जो भी पनपा, जाहिर है, वह प्यार ही था मेरे लिए। अपनी पढ़ाई पूरी कर घर लौटते हुए छंदा के आँसू देखे तो भावुकतावश उसे शादी का वचन दे दिया।

मगर घर लौटकर उसे एक पत्र भी न लिख सका। लिखता भी तो क्या! अच्छी नौकरी मिलते ही मेरी शादी के लिए एक से बढ़कर एक रिश्ते आने लगे थे। उनमें से मम्मी ने सबसे ज्यादा दहेज लानेवाली लड़की के साथ मेरी शादी पक्की कर दी थी। मुझसे पूछा तक नहीं था। कहा था, मैं जो कर रही हूँ, तेरी ही भलाई के लिए कर रही हूँ। मुझे उनपर यकीन था। उनके फैसले के विरुद्ध जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। अच्छा बेटा जो था - माँ-बाप का आज्ञाकारी, बकौल सबके, श्रवणकुमार... माँ-बाप का भारी-भरकम काँवर उठाए फिरने के लिए विवश।

दुल्हन लेकर घर लौटते हुए अपने किसी मित्र से सुना था, छंदा ने मेरी शादी की खबर पाकर जहर खा लिया है। अस्पताल में पड़ी हुई है, बचने की कोई उम्मीद नहीं... सुनकर अपनी सुहागरात में दुल्हन को बिस्तर पर छोड़कर टायलेट में कमोड पर बैठकर खूब रोया था - मुँह में रूमाल ठूँसकर। उस रात सचमुच स्वयं से घृणा हुई थी, अपने दब्बूपन पर मन हिकारत से भर उठा था। कैसा मर्द हूँ मैं! अपने मन की कुछ भी नहीं कर पाता...

फिर जैसे ही मम्मी ने दरवाजे पर आकर आवाज लगाई थी, चुपचाप अपने आँसू पोंछकर कमरे में आ गया था और किसी अच्छे बच्चे की तरह दूध पीकर उमा के बगल में लेट गया था।

दूसरे दिन सुबह-सुबह छंदा के मर जाने की खबर मिली थी, मगर तब तक मैं काफी सँभल चुका था। सुहागरात के दौरान मुझे उमा से प्रेम भी हो चुका था। उन दिनों प्रेम का यही हाल था मेरे जीवन में।

अपने खयालों में उभता-चुभता मैंने नाश्ता किया था - पाव-भाजी - यहाँ का मशहूर नाश्ता। मिसेज लोबो ने मेरा अच्छा मूड, धुले हुए कपड़े और देह से उठती कोलोन की तेज खुशबू को पकड़ लिया था, हँसकर पूछा था, क्या मैन, भोत हैपी दिखता है, कोई स्पेशल बात है क्या? मैं क्या कहता, मुस्कराकर रह गया था।

अपने कमरे में आकर बॉल्कनी में बैठा-बैठा सड़क पर आते-जाते हुए लोगों को देरतक तकता रहा था, मगर देखा शायद ही कुछ था। दिमाग में दामिनी का खयाल था, और कुछ नहीं। अपनी देह में दामिनी की देह को महसूस कर पा रहा था। ऐसा होते ही पूरे शरीर में एक झुरझुरी-सी दौड़ जाती थी।

ये जीवन ने यकायक कैसा मोड़ ले लिया था...! सोचकर भी आश्चर्य हो रहा था। शादी के बाद जिंदगी एक बँधी-बधाई लीक पर चल रही थी। जिम्मेदारियों और दुनियादारी के बीच अपने ख्वाहिशों का खयाल ही नहीं रह गया था। शादी के बाद दूसरे ही दिन उमा ने मेरे सामने गरमा-गरम आलू के पराँठे परोसे, मेरी अलमारी दुरुस्त की, अपने दहेज में लाई हुई चीजें यहाँ-वहाँ सलीके से सजाईं तो मेरा मन एकदम प्रसन्न हो गया। मुझे पति होने के फायदे और सुख का स्वाद मिलने लगा था। एक आत्मगौरव, अहम को तुष्टि कि मैं पति हूँ, किसी का मालिक... कोई मेरे लिए करवा चौथ रखती है, मुझपर निर्भर है, मेरी इच्छा और आदेश पर चलती है। शरीर का सुख भी था। दिनभर की सेवा, अच्छा भोजन और रात में बिस्तर पर देह का सुख, वह भी अपनी इच्छानुसार, अपने मन मुताबिक। उम्र की पहली उठान से एक ही इच्छा मन में पैदा होती रही थी, कोई औरत हो बिस्तर पर जो बिना न-नुकुर किए मेरी हर बात मानती चली जाय, मैं जो कहूँ, वही करे, मुझे करने दे।

उमा वैसी ही स्त्री थी। पति की इच्छा उसके लिए सर्वोपरि हुआ करती है। वह बिना किसी तरह का सवाल उठाए आजतक मैं जो कहता हूँ, वह करती आई है। बिस्तर में भी। एक सुंदर स्त्री की जो आम धारणा हमारे देश में बनती है, उमा वैसी ही थी - गोरी, स्वस्थ और भरी-पूरी। मुझे इससे ज्यादा और क्या चाहिए था। मैं स्वयं को खुश मानता था। उमा भी अपना घर-परिवार, बच्चे लेकर संतुष्ट थी। एक आम औरत को जो कुछ भी चाहिए होता है, वह सब उसके पास था। मेरे जैसे एक मध्यमवर्गीय मानसिकता वाले पुरुष के लिए उमा एकदम सही औरत थी।

मैंने इससे पहले कभी कुछ भी, जो वर्जित समझा जाता है, नहीं किया था। मन में इच्छाएँ उठती थीं, मगर उन्हें दबाने की आदत बचपन से पड़ गई थी। संरक्षणशील परिवार से होने के कारण हर सामाजिक नियम-कानून, रीति-नीति मानने की आदत घुट्टी में पिलाकर डाल दी गई थी। हमेशा से जानता था, वासनाएँ मन के एकांत दुनिया के लिए होती हैं। उनसे समाज को कुछ लेना-देना नहीं। वह नियम पहचानता है, इच्छाएँ नहीं। उन्हें लेकर एक-आध सपने देख लेना और ठंडा पानी पीकर स्वयं को शांत कर लेना - यही होता आया है। इसमें कभी कुछ गलत भी नहीं दिखा। जिस तरह बचपन से हमें और बातों का संस्कार मिलता है और हम उन्हें बिना कोई प्रश्न उठाए स्वीकार करते चले आते हैं, उसी तरह से यह बातें भी थीं। इनसे तकलीफ होती थी, मगर कभी कुछ गलत शायद ही लगा।

जिन लड़कियों को लेकर रातभर सपने देखता था, दिन के उजाले में उन्हें बहन कहकर संबोधित करने में कोई संकोच नहीं होता था। इस तरह से हमारी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार हमारा अनुकूलन करते हैं, अनुशासित करते हैं। एक तरफ मन होता है, उसकी ख्वाहिशें होती हैं। दूसरी तरफ समाज और उसके नियम। दोनों के बीच सामंजस्य बनाकर चलते रहना पड़ता है। देह सामाजिक बनी रहती है, मन की अराजकता सपनों, कल्पनाओं की दुनिया में छिपी, सिमटी, सुरक्षित रहती है। कुछ चालाक, तेज-तर्रार लोगों की तरह दूसरों की आँखों से काजल चुराने की तरह छिपकर, चुपचाप अपने मन की कर लेने की सद्बुद्धि कभी थी नहीं। पढ़ने-लिखने में तेज होना और जीवन की इन बातों में तेज होना दो अलग-अलग बातें होती हैं। आज इतने वर्षों बाद समझ पाया हूँ, मैं स्मार्ट होकर भी कितना बुद्धू हुआ करता था। न जाने किन बातों और आदर्शों के पीछे अपनी आधी से अधिक जवानी बिता दी।

आज जब वर्ज्य का अतिक्रमण कर इस अजनबी देश में पहुँच गया हूँ, तब खयाल आने लगा है, अबतक क्या-क्या खोया है। कैसे-कैसे सोने-चाँदी के दिन, निशिगंधा-सी महकती रातें...

पूरी तरह से अपनी इच्छाओं के वश में होकर मैंने जैसे स्वयं से ही एक वादा किया था, अबतक जीवन के जिन खूबसूरत अनुभवों को खोया है, उन्हें जरूर जीना है - किसी भी कीमत पर... उस समय आँखों के सामने सिर्फ और सिर्फ दामिनी का चेहरा था - इच्छाओं के बहाव में केसर होता हुआ, साँझ के रंग में रँगी किसी अलस, मंथर नदी की तरह... यकायक मेरी सारी वर्जनाएँ टूट गई थीं। एक तटबंध टूटी तेज धार की तरह मेरा बहना अब अपरिहार्य है, किसी के रोके से न रुक सकूँगा, मैं जानता हूँ, शायद तभी इतना अशांत हूँ। अपने आप का अपने वश में न होना एक भयभीत कर देने वाला अनुभव होता है। प्रेम एक अनिर्वचनीय खुशी के साथ कितनी पीड़ा और संत्रास भी ले आता है जीवन में, टीसता हुआ सुख - हर प्रहर, क्षण-क्षण...

बैठे-बैठे आज मैंने पहली बार दिन के समय एकसाथ बीयर की न जाने कितनी बोतलें पी ली थी। मिसेज लोबो का फ्रिज खाली हो गया था। शाम को मुझे इसकी भरपाई करनी पड़ेगी - बीयर का एक पूरा क्रेट लाकर। हम दोनों के बीच इसी तरह की अंडर स्टैंडिंग थी। वैसे आज मैंने पहली बार अपनी सीमाएँ तोड़ी थी - इतनी पीकर!

नींद खुली तो समझ पाया मैं सो गया था - न जाने कब! बॉल्कनी में बैठ-बैठे, ईजी चेयर पर। शाम की धूप में नीम का पेड़ सुनहरा होकर झिलमिला रहा था। डालों पर पक्षियों की अनवरत कीचिर-मिचिर... आँखें मलते हुए समझ पाया था, मोबाइल की लगातार बजती हुई घंटी ने मेरी नींद तोड़ी थी। फोन पर दामिनी का स्वर था - क्या कर रहे हो?

तुम्हारा खयाल... एक निहायत आम-सा रोमांटिक जवाब - और तुम?