औरत जो नदी है... / भाग 3 / जयश्री रॉय
तुम्हारा इंतजार... उसका भी वही - एक-सा जवाब। हम दोनों अपने अनजाने एक ही रेखा पर चल रहे थे शायद।
तो फिर देर किस बात की, चले आओ...
उसके निमंत्रण में न जाने कैसे प्रलोभन का आभास था, मेरे अंदर अनायास अनाम इच्छाएँ आँच देने लगी थीं।
हाँ, आता हूँ...
मैंने यह कहते हुए फोन रख दिया था। इसके सिवा मुझे कहना भी क्या था। उसने बुलाया था, मुझे जाना था - जाना ही था। मुझे अपना यह अधैर्य, एक किशोर की तरह की उमंग - सबकुछ आश्चर्य में डाल रहा था। मैं नहीं जानता था, मेरे अंदर जीवन की इतनी सारी इच्छाएँ भरी हुई हैं! कितना शांत, सयंत हुआ करता था मैं - अशेष त्यागी - एक बहुराष्ट्रीय कपंनी में उच्च पदस्थ अधिकारी, दो बच्चों का बाप, पैंतालीस वर्ष की परिपक्व उमर... एक नए-नए प्यार में पड़े किशोर की तरह बेसब्र और बेकरार... तैयार होते हुए मुझसे टाई की गिरह भी ठीक से दुरुस्त नहीं की जा रही थी। आईने में अपना उत्तेजना से लाल पड़ा हुआ चेहरा देखकर मुझे खुद पर ही हँसी आ गई। ये क्या हाल हो रहा है मेरा... क्या मुझे प्यार हो गया है? मैं किसी से पूछना चाहता हूँ। यकायक स्वयं को बहुत असहाय महसूस करता हूँ। किले की मजबूत दीवार पर सेंध पड़ गई है। नींवों में कंपन है, बहुत हल्का, मगर स्पष्ट, अब न जाने क्या कुछ धराशायी होकर रह जाएगा...
इसके बाद मेरी दुनिया बदलती चली गई थी। सबकुछ नया, अलग, अनोखा - सिरे से... मैं पहले की तरह ऑफिस जा रहा था, फोन पर उमा से बातें कर रहा था, घर-परिवार की खैर-खबर ले रहा था, मगर अंदर से मैं मैं नहीं रह गया था। कोई और बन गया था, शायद वह जो हमेशा से था, मगर कभी बन न सका था - जुर्रत ही नहीं हुई थी। मैं एक बेटा बन सकता था। पति और बाप बन सकता था, मगर बस अशेष नहीं बन सकता था - जो मैं वास्तव में था। न जाने कितने पर्तों के नीचे दब गया था, जी रहा था कहीं से, इसका पता भी खुद को नहीं था। आज जब स्वयं के सामने अपना वजूद खुलकर आया है, मैं जैसे स्वयं को ही पहचान नहीं पा रहा हूँ। कितनी इच्छाएँ हैं अंदर, कितने सपने और अभिलाषाएँ - आधी-अधूरी और बेकल... इनकी तड़प का, खामोश सरगोशियों का अहसास कैसे अबतक नहीं था मुझे...!
कलतक की भाग-दौड़, शोर-गुल और परेशानियों से भरी दुनिया एकाएक अच्छी हो गई है - बहुत-बहुत अच्छी। आकाश का गहरा नील मुझे मुग्ध करता है, ढलते हुए सूरज को मैं निष्पलक तकता रहता हूँ। इतनी सुंदरता और मैंने देखी नहीं...! अबतक क्या कर रहा था मैं, कहाँ था...?
दोपहर के निर्जन में कोयल कूकती है और मैं अनमन हो उठता हूँ। मीटिंग के बीच से उठकर कहीं निकल पड़ने को मन करता है - सबकुछ छोड़-छाड़ के। बहुत उदार भी हो गया हूँ। भिखारियों को पास बुलाकर खुद भीख देता हूँ। विंडो शॉपिंग करता फिरता हूँ। हर खूबसूरत कपड़े, गहने को देखकर सोच पड़ता हूँ, यह दामिनी पर कितना फबेगा। ढेर सारी खरीददारी करता हूँ, उन उपहारों को पाकर जब दामिनी का चेहरा खुशी से खिल पड़ता है, मैं मुग्ध होकर उसे देखता रह जाता हूँ - यही मेरा प्राप्य है, पुरस्कार है। मैं गहरे, अनाम सुख से भर उठता हूँ। रगो-रेश में सुख मचलता है अल्हड़ नदी की तरह।
इन दिनों दुनियादारी की बातें निरर्थक लगती हैं, सोच उठती है, ये लोग मुझे अकेला क्यों नहीं छोड़ देते - मेरा ही जीवन मेरे लिए - थोड़ी देर के लिए... इतना तो दिया है सबको, मेरा जीवन और ही जीते आए हैं हमेशा! एक कचोट बनी रहती है भीतर, ठग लिए जाने की, अपने मन की न कर पाने की, जीने की। वह समय जो बेआवाज गुजर गया, जवानी की सारी खूबसूरत नियामतों के साथ, उसे वापस लाना है - किसी भी कीमत पर। इन सब की कीमत क्या होगी, मैं समझ सकता हूँ। मगर अब ऊहापोह का समय बीत चुका है, जो होना है वह अवश्यमभावी है।
मैं जीना चाहता हूँ - सचमुच जीना चाहता हूँ। खुलकर - सही अर्थों में। इसलिए मुझे इसकी सारी शर्तें भी मंजूर हैं। मैंने स्वयं को पूरी तरह से हालात के हाथों में सौंप दिया है। जब मैं दामिनी के साथ होता हूँ, सिर्फ उसी के साथ होता हूँ। मेरे लिए उन क्षणों में और कहीं कोई नहीं रह जाता। दामिनी से मेरी दुनिया शुरू होती है और उसी पर खत्म हो जाती है। हम दोनों के बीच तीसरा कोई नहीं होता।
दामिनी कोई साधारण स्त्री नहीं थी मेरे लिए। वह जादू थी - खालिस जादू... उसके साथ मेरा होना सपनों में होना होता था। मैं सच और झूठ के बीच की किसी स्थिति में होता था। बेतरह उलझा हुआ, मगर छूटना नहीं चाहता था किसी तरह इस उलझन से, बना रहना चाहता था इस मायावी लोक में उसके साथ - हमेशा के लिए। ऐसा ही था उसके मोह का बंधन, पक्षी खुद को जाल में लपेटकर निश्चिंत हो जाया करती है। उस बहेलिया के छोटे-से पिंजरे में मुक्ति का एक पूरा आकाश है, यह सच वह पक्षी ही जानता है, तभी तो सलाखों के निर्मम घेरे के बीच रहकर भी उम्मीदों के गीत गा लेता है... कुछ सच पूरी दुनिया के लिए हमेशा झूठ ही बने रहते हैं। यह भी उनमें से एक था।
उसके धूप-छाँव भरे व्यक्तित्व का अनोखापन मुझे भूलभुलैया-सा रोमांचकारी प्रतीत हो रहा था। मैंने उसके पास आना चाहा तो उसने कितनी सहजता से यह होने दिया। कहीं कोई प्रतिरोध नहीं था, बाधा नहीं थी, इसलिए मैं उसमें निर्विरोध धँसता चला गया। आगे क्या बदा है मेरे भाग्य में मैं नहीं जानता - जानना चाहता भी नहीं। कभी-कभी तो यह होता है कि दाना चुगती चिड़िया जाल को निमंत्रण की खुली बाँहें समझकर उसमें निश्चिंत होकर सिमट आती है। मुश्किल तो तब होती है जब वह वापस उड़ना चाहती है। अक्समात उसे ज्ञात होता है कि उसका आकाश तो हमेशा के लिए उससे छिन चुका है! उसके अभागे पंखों के लिए अब कोई उड़ान शेष नहीं।
मगर मैं अपने इस रेशम डोर-से बंधन में खुश था। फिलहाल तो ये दिन तितली के परों की तरह खूबसूरत और रंगीन थे।
मार्च का महीना गोवा में तेज धूप और चटक रंग फूलों का है। समंदर के किनारे छोटी पहाड़ियों की ढलानें काजू के लाल, सुनहरे फलों से दहकती-सी जान पड़ती हैं। पलाश, सेमल के गहरे रक्तिम फूलों से चारों तरफ आग लगी हुई होती है। वन्य हरियाली के बीच यहाँ-वहाँ सौ-पचास घरों की भूरी-कत्थई टाइल्स की छतें रह-रहकर चमकती हैं - चटक रंगों के बोगनबेलिया से घिरे हुए। रास्ते के किनारे फूले कृष्ण चूड़ा के पीले फूल दोपहर की तीखी धूप में अलस झरते रहते हैं। बँगलों के बरामदे में बैठे हुए वयस्क, बुजुर्ग लोग ठंडे उर्राक की चुस्कियाँ लेते हुए गर्मी के आलस्य से ऊँघते हुए-से चुपचाप बैठे रहते हैं। रास्ते पर आने-जानेवालों का हालचाल पूछते हैं।
कई बार गाँवों की सँकरी पगडंडीनुमा सड़कों पर निरुदेश्य भटकते हुए हम इन लोगों का हाथ उठाकर अभिवादन किया करते थे। दामिनी उन्हें रश्क से देखकर कहती थी - कितने लकी हैं न ये लोग! कैसे निश्चिंत दिन-दिनभर बैठे रहते हैं... मैं उसकी मधु की रंगतवाली पुतलियों में धूप का फैलना-सिमटना देखता और खो जाता - भँवरे की गुँजार-सी चुप्पी हमारे बीच अनमन डोलती रहती-देर-देर तक। कभी मैं पूछता - और हम नहीं हैं लकी... मेरी उँगलियों में उलझी अपनी तराशी हुई उँगलियों को देखकर वह रंग जाती। कई बार उसके चेहरे पर उसके कपड़ों का रंग प्रतिबिंबित होता, मैं उसकी आँखों पर, माथे और गालों पर रंगभरी तितलियों का उड़ना देखता रहता। वह झेंपी-सी मुस्कराहट होंठों पर लिए जंगली फूल इकट्ठा करती चलती, कभी-कभी तिरछी नजर से मुझे देख लेती, तब, जब मैं कहीं और देखता होता हूँ।
दबी हँसी से उसके होंठों के कोने धीरे-धीरे काँपते रहते थे। उन्हें देखकर मैं न जाने किन अनाम इच्छाओं से घिर आता था। दामिनी मेरी आँखों को समझ लेती थी शायद, तभी अनायास यूँ गुलाबी पड़ जाती थी। मुझे ऐसे क्षणों में लगता था, रंगों को उसका सार्थक अर्थ यही चेहरा देता है। फूल न होते, इंद्रधनुष न होता तो रंगों के क्या और कितने माने रह जाते...
सुनसान दुपहरियों में यूँ भटकते रहना हम दोनों को ही अच्छा लगता था। एकबार जंगल में लगी शराब की एक भट्टी में हमने ताजी उतरी शराब की कई घूँट पी थी, वह भी मिट्टी के कुल्हड़ में। वहाँ कोई गिलास उपलब्ध नहीं था। लगा था, सीने से लेकर पेट तक जलकर राख हो गया है। तेजाब की तरह था उसका स्वाद। भट्टीवाले ने ही बिना पानी मिलाए नीट पीने की सलाह दी थी। दामिनी तो वही सीने पर हाथ रखकर बैठ गई थी। हम दोनों को ही झट् से नशा चढ़ गया था। दामिनी की आँखों में लाल डोरे उग आए थे। उलझे-बिखरे बालों के बीच उसका तमतमाया चेहरा और चढ़ी हुई आँखें कितनी उत्तेजक लग रही थी। अपने अंदर की सनसनाहट को दबाते हुए मैंने उसे सँभालकर उठाया था। मुझसे लगी-लगी वह डगमगाते हुए कदमों से चलती रही थी - अशेष, ये मौसम, ये निर्जन दुपहरी और एक अनजान वीराने में मेरा-तुम्हारा यूँ भटकना... कभी नहीं भूलेगा। सब सहेजकर रखूँगी - यहाँ! उसने अपने बाएँ सीने पर एक उँगली रखी थी। मैंने उसकी एक बाँह अपने गले में डाल ली थी - मुझे भी याद रहेगा...
क्या? उसकी आँखें मुझपर थीं - एक बच्ची की-सी कौतूहलता लिए।
तुम्हारा इस तरह बहकना और मुझसे लगकर चलना... अच्छा, अगर ये रास्ता, ये दोपहर कभी खत्म न हो तो...?
तो, तो बहुत अच्छा होगा, अशेष, कुछ करो न कि ऐसा ही हो... वह मचल गई थी - ठीक वैसे ही, एक बच्ची की तरह।
उस दिन मैं उसे उस सेमिट्री में भी ले गया था, जहाँ शैरोन डिसा की कब्र थी। मैंने दामिनी से कहा था, कुछ-कुछ नाटकीय ढंग से ही - चलो, आज तुम्हें किसी से मिलाता हूँ... दामिनी ने मुझे कौतूहल भरी आँखों से देखा था - तो यहाँ भी तुम्हारे परिचित होने लगे! कल तक तो कोई न था! कौन है?
है कोई... उन्नीस साल की लड़की, जो कभी पतंग बनकर सारे आकाश में उड़ते फिरना चाहती थी...
अच्छा! दामिनी की आँखों में असमंजस के भाव थे। जाहिर है, वह मेरी बातों का अर्थ समझ नहीं पा रही थी। मैं उसे शैरोन के कब्र के पास खींच ले गया था। वहाँ पहुँचकर दामिनी की आँखें तरल हो आई थीं। उसने झुककर सिरहाने पर लगे संगमरमर की पट्टी पर लिखा परिचय और संदेश पढ़ा था। उसकी आँखें कुछ और पिघल आई थीं - एक छोटा-सा जीवन - फूलों की उमर की तरह... एक गहरी साँस में डूबी आवाज थी उसकी। किसी निसंग टिटहरी की तरह भटकी-भटकी, उदास...
मैंने गौर किया था, आज उसपर कार्नेशन का लाल फूल नहीं था। न जाने क्यों मैंने अनायास दामिनी की ओर मुड़कर कहा था - मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगा, जीवन के बाद भी नहीं। सुनकर दामिनी हल्के से मुस्कराई थी, मगर उसकी आँखें गीली हो आईं थीं, बह पड़ने को तत्पर...
चारों तरफ तेज धूप में चंपा के हल्के पीले फूल जल-से रहे थे। कब्रिस्तान की दीवारों के साथ-साथ गुलमोहर की लंबी कतार थी। झरते हुए नारंगी फूलों से सफेद संगमरमर के कब्र अँटे पड़े थे। अजीब चुप्पी थी वहाँ - गहरी और शांति से भरी हुई। एक प्रच्छन्न उदासी का अनचीन्हा अहसास भी! सलीबों पर पड़ी फूलों की सूखी मालाओं में, लिपी-पुती दीवारों और झाड़ियों में खिले र्निगंध सफेद फूलों में... हर तरफ मृत्यु का शोक और गुजर गए जीवन का उच्छ्वास... यहाँ हवा उसाँसें लेती-सी गुजरती है, कब्रों के चारों तरफ उगे हुए जंगलातों से उलझ-उलझकर, अजीब सरसराहट भरी आवाज में।।
हम उसदिन वहाँ देरतक बैठे थे - एक जमीन तक झुके हुए गुलमोहर के नीचे। वह मेरी गोद में सर रखकर लेटी हुई थी। हवा के झोंकों से रह-रहकर झरते हुए फूलों से जैसे ढँक-सी गई थी। मैं उन्हें चुनकर हटाता रहा था और फिर उसने मेरा हाथ पकड़कर रोक लिया था - रहने दो, अच्छा लगता है... उसकी आँखों में उस समय दोपहर का गहरा नीला आकाश उतरा हुआ था, खोया हुआ-सा, अपना सारा सूनापन लिए... मुझे उन आँखों को देखकर न जाने ऐसा क्यों खयाल आया था कि दो उजली कश्तियों में पूरा समंदर सिमट आया है! अपनी गहराई और अछोर विस्तार के साथ... उसमें डूबता-उतराता मैं बैठा रहा था, बिना कुछ कहे। हमारे बीच पसरी हुई सुगंध और अनाम उदासी की उस खूबसूरत चुप्पी को मैं तोड़ना नहीं चाहता था। एक पारदर्शी दुपट्टे की तरह उस निर्जन दुपहरी का नीरव सुकून हमें देरतक घेरे रखा था।
उस रात उमा का फोन आया तो उसकी बातों, अनुभूतियों के साथ मैं स्वयं को जोड़ नहीं पा रहा था। कहीं से कुछ बहुत सूक्ष्म टूटकर दरक गया था। अनायास मैंने महसूस किया था हम दोनों के बीच - हमारे और उमा के बीच - दामिनी है! किसी अदृश्य डोर की तरह नहीं, बहुत स्पष्ट और मांसल - एक वास्तविकता जिसे किसी तरह नकारा नहीं जा सकता। मैं पूरे ध्यान से उमा की बातें सुनने की कोशिश कर रहा था। मगर बात करते हुए थोड़ी देर बाद अचानक रुककर उमा ने पूछा था, मन, आपका ध्यान किधर है?
मैं एकदम से सकपका गया। कितनी तीक्ष्ण होती हैं औरतों की नजर, कुछ भी नहीं छूटता इनसे - छोटी-से-छोटी बात भी। मुझे सावधान रहना पड़ेगा... मैंने खुद को चेताया था।
फोन रखते हुए मैंने उमा के इस समय के चेहरे की कल्पना करने की कोशिश की थी। उलझे बाल, थका और विरक्त चेहरा... दिनभर के कामों से ऊबी और चिड़चिड़ाई हुई! कभी स्वयं को घर-गृहस्थी की बातों से अलग नहीं कर पाती, अधिकांश हाउस वाइफ की तरह। निजता के चरम क्षणों में भी वही घर बीच में खड़ा रहता है, धुआँए चूल्हे और दाल-चावल के हिसाब-किताब के साथ। उसकी देह से ही नहीं, उसकी बातों और सोचों से भी उसकी रसोई की गंध आती है। उसी में रस-बस गई है इस कदर कि अब उनके बिना उसके वजूद की कल्पना भी नहीं की जा सकती। बच्चे तो चुहल ही करते रहते हैं - माँ को देखते ही पालक पनीर, आलू-पुरी की याद आती है, भूख लगने लगती है। माँ के शरीर से आज मखनी दाल का फ्लेवर आ रहा है, जरूर मखनी दाल ही बनी होगी...
मैं ये सब इतनी सहजता से नहीं कह सकता। बात घुमा-फिराकर कहनी पड़ती है - तुमने वो नया परफ्युम ट्राई किया? अभी नहाओगी तो लगा लेना...
उमा चिढ़ जाती - अभी नहाऊँ! अरे सुबह-सुबह तो नहा लिया रसोई में घुसने से पहले। तुम्हारी स्वर्गवासी माँ ने ही तो यह अच्छी आदत लगाई है। बिना नहाए रसोई की चीजों को हाथ कहाँ लगाने देती थीं... इसके बाद मैं चुप हो जाने में ही अपनी गनीमत समझता था। मेरी माँ का प्रसंग आते ही उमा के जख्मों के टाँके उधड़ जाते थे। फिर तो वह शुरू ही हो जाती थी। कभी-कभी दिनों तक के लिए। माँ ने उसे शुरू-शुरू में बहुत सताया था, यह कहने में अब संकोच नहीं होता। उन दिनों मैं उमा की इस मामले में कोई मदद नहीं कर सका था। मूक दर्शक होकर सबकुछ देखते रहने के सिवा मेरे पास और कोई दूसरा चारा भी नहीं था। अच्छा बेटा जो था।
न जाने क्यों इन दिनों उमा की शिकायतें बढ़ती ही जा रही है - घर की जिम्मेदारियों की, बच्चों की - अनुशा पढ़ाई ठीक से नहीं करती, विनीता बिगड़ती जा रही है... फिर बीच-बीच में वही सनातन ताना - तुम्हें क्या, तुम तो वहाँ जाकर बैठ गए हो। यहाँ मैं अकेली गृहस्थी के चूल्हे में मर-खप रही हूँ। कई बार उसने मिसेज लोबो की बाबत भी पूछा था। उनकी पचपन साल की उमर सुनकर कुछ आश्वस्त हुई-सी प्रतीत हुई थी। मगर रह-रहकर संदेह का काँटा जरूर कहीं गड़ता रहता था। कभी गोवा की सोसायटी के विषय में पूछती तो कभी यहाँ की लड़कियों के विषय में - सुना है, वहाँ का जीवन बहुत उन्मुक्त है! पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव है... टीवी पर दिखा रहे थे उसदिन, अपनी शादी में दुल्हन घूँघट उठाकर नाच रही थी...
उसकी बातों पर कभी मुझे खीज होती थी तो कभी हँसी भी आ जाती थी। कई बार समझाने की कोशिश की थी - हर संस्कृति की अपनी विशिष्टता होती है। हमें उन्हें सराहना और उनका सम्मान करना चाहिए।
‘हाँ, मगर उनका अंधानुकरण नहीं...’
उमा जिद्दी बच्ची की तरह अपनी बात पर अड़ जाती। पता नहीं, इन बातों से वह क्या साबित करना चाहती थी। शायद यह उसके अंदर का असुरक्षा बोध था जो उसे अतिरिक्त आक्रामक और डिफेंसिव बना रहा था। एक अजनबी कल्चर के प्रति उसके पूर्वाग्रह उसे शक और संदेह की ओर धकेल रहे थे। शायद मेरी उदासीनता और अन्य मनस्कता को उसने सूँघ लिया था। इन दिनों मुझे लेकर वह शंकित और सतर्क थी। उसकी बातों और घुमा-फिराकर किए गए सवालों से यह बात समझ सकता था मैं।
मैं उसके प्रति संवेदनशील बना रहना चाहता था, मगर क्या करूँ कि अन्यमनस्क होता जा रहा था। हर क्षण ध्यान दामिनी की तरफ लगा रहता था। जीवन में सही मायनों में रोमांस अब आया था। दामिनी एक मुकम्मल औरत थी - हर अर्थ में! उसका हर रूप, हर अंदाज मुझे चकित करता था, सुखद ढंग से विस्मित भी। हर बड़ी से बड़ी तथा छोटी से छोटी बात में वह अपना सौ प्रतिशत देती थी। उसके किसी काम में मैंने कोई कमी या उपेक्षा नहीं देखी थी। उसका हर काम सुंदर और सुगढ़ हुआ करता है। वह जिस तल्लीनता से पेंटिंग्स् बनाया करती है, उसी तल्लीनता से चाय भी बनाती है। उसके घर के हर कोने से, हर बात से उसका व्यक्तित्व झलकता है। मैंने अपने आजतक के जीवन में किसी औरत को इतना सुरुचि संपन्न तथा सलीकेदार नहीं देखा था। उसके कॉटेज में पँहुचकर प्रतीत होता था मानो किसी हेल्थ स्पा में पहुँच गया हूँ। उसका चेहरा, उसकी बातें, उसका स्पर्श - सब में लज्जत और सुकून था, जैसे कोई ठंडा फाहा या बाम...
मैंने कभी स्वयं को किसी माने में विशिष्ट नहीं समझा था। एक अच्छी नौकरी, बीवी, बच्चे... कोई खास बात नहीं। स्वयं को बहुत बौद्धिक भी नहीं मानता। पढ़ना पड़ता था इसलिए पढ़ता, मेहनत करता था, अच्छे अंकों में उत्तीर्ण भी हो जाता था, मगर इसमें जीनियस होने जैसी कोई बात नहीं थी।
दामिनी ने मुझे पहली बार विशिष्ट होने का अहसास कराया था। मेरी हर बात में उसे कोई खासियत नजर आती थी। कभी-कभी मैं सोचने लगता था, प्रेम वास्तव में अंधा होता है। मैं आईने के सामने खड़ा होकर स्वयं को देखता - साधारण कद-काठी और सूरत। कोई अनोखी या असाधारण बात नहीं। पता नहीं, दामिनी जैसी खूबसूरत और सुरुचि संपन्न औरत ने मुझमें क्या देखा। हमारी उम्र में भी काफी अंतर था। मैं चालीस पार कर रहा था, वह पच्चीस की थी। जिस खुशी और सुख की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था वह सब अचानक मेरी झोली में आ गिरा था।
मुझे दामिनी का जीवन अनोखा प्रतीत हुआ था। उस जैसी एक युवा और खूबसूरत स्त्री का एकदम अकेली रहकर जीवन यापन करना... सहज-स्वाभाविक बात नहीं लगती थी। हालाँकि गोवा का सामाजिक जीवन देश के अन्य हिस्सों की तुलना में स्त्रियों के लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जा सकता है, फिर भी...
दामिनी की बातों से एक बात मैं समझ सका था कि उसे अनावश्यक, अतिरिक्त कौतूहल पसंद नहीं। वह मेरे जीवन के व्यवहारिक पक्ष से एक तरह से उदासीन ही रहती थी। न अपने विषय में ज्यादा कुछ बोलना ही पसंद करती थी। कहती थी, ये सब सेकेंडरी बातें हैं, बाद में होती रहेंगी, पहले तो तुम्हें - अशेष को - एक मनुष्य, एक व्यक्ति के रूप में जान लूँ। अगर तुम ही न सही हुए तो फिर तुम्हारी डिग्री, ओहदे का क्या करूँगी... अचार डालूँगी? कहते हुए वह अपनी हँसी के शरीर, इंद्रधनुषी बुलबुलों में फूट पड़ती - प्यार इनसान से किया जाता है अशेष बाबू, शादी खानदान और नौकरी से... जो मैं आपसे कभी करनेवाली नहीं।
अपने विषय में पूछे गए प्रश्नों को भी वह बड़ी चतुराई से टाल जाती थी। एकबार कहा था, अचानक थमककर - अपने घावों को कुरेदने का हौसला हर समय नहीं होता। थोड़ा समय दो...
मैंने इंतजार करना ही उचित समझा था। दामिनी जैसी व्यक्तित्वमयी स्त्री के साथ कुछ भी जबर्दस्ती नहीं किया जा सकता, इतना तो अबतक मैं समझ ही सकता था। कोई गलत हरकत करके उसे खो दूँ, ऐसा मैं कभी नहीं चाहता था, बहुत कीमती थी वह मेरे लिए...
एकदिन उसने मुझसे पूछा था, अच्छा अशेष, एक बात कहो तो, दुनिया की आधी आबादी को नकारकर तुम पुरुष इसे मुकम्मल किस तरह बनाना चाहते हो? जबतक औरत को इसका हिस्सा नहीं बनाओगे, ये दुनिया खूबसूरत कैसे होगी... उसकी बातों से मुझे लगा था, उस बर्फ के गोरे जंगल में कहीं आग की एक गहरी, सुर्ख नदी है। मैने एक कमजोर-सी बहस की थी, ऐसा क्योंकर सोचती हो, इस देश में स्त्रियाँ पूजी जाती हैं - सीता, द्रोपदी...
इनका नाम न लो! इन देवियों से हमें बस आँसुओं की विरासत मिली है। तुम मैत्रेयी, घोषा, जाबाला, गार्गी जैसी स्त्रियों की बात क्यों नहीं करते, जो फूल, पत्थर और अंगार से बनी थीं। मैं चुप हो गया था। वह हँसी थी - औरतें नरक की द्वार होती हैं, मगर इसी नरक के द्वार से सारे संत, पैगंबर और अवतार का आर्विभाव इस दुनिया में होता है। वह शैतान की बेटी है, मगर पैगंबर की माँ भी है, यह बताना लोग क्यों भूल जाते हैं? सच अशेष, जिन औरतों की तुमलोग बातें करते हो, वे पैदा नहीं होतीं, बना दी जाती हैं - मेड इन वर्ल्ड... उन लोगों की मानसिकता सोचो जो कहते हैं स्वतंत्र सिर्फ वेश्याएँ हो सकती हैं। इनसान की सबसे बड़ी रूहानी जरूरत को कैसा गलीज इल्जाम दे दिया...
मैं अपनी नीरवता की एकमात्र पूँजी सहेजे उसके चेहरे पर घुले केसर को देखता रहा था। अपने आवेश के क्षणों में वह अद्भुत दिखती थी। उसे देख, महसूसकर ही खयाल आया था, औरत खालिस जादू होती है। स्वयं को बूँदभर खर्च किए बगैर पुरुष को पूरी तरह आत्मसात कर लेना अपने आप में एक विलक्षण प्रक्रिया है, जो वह हमेशा करती है।
उसने मेरी सोच को एक नई राह दिखाई थी। अबतक मैं हर चीज को उसी रूप में लेने का अभ्यस्त था जिस रूप में वह मेरे सामने आती थी। मैंने सवाल करना नहीं सीखा था, बस जवाब रट लेता था - वह जो मुझे सिखाया जाता था। क्यों, किसलिए जैसे शब्द मेरे शब्दकोश में नहीं थे। मगर दामिनी तो स्वयं एक जीता-जागता प्रश्न थी। जिस बात पर यकीन नहीं करती थी, उसे कभी करती भी नहीं थी। करना है, ये बात अहम नहीं होती उसके लिए, क्यों करना है, इस बात को समझना पहले जरूरी है।
उसकी बातें मुझे अक्सर स्तंभित कर जाती थी। उसे समझने का - रुक-रुककर सही, एक सिलसिला जरूर चल पड़ा था। मैं उसे जितना जान-समझ रहा था, उतना ही अभिभूत होता जा रहा था।
‘पहली रात बिस्तर पर गिरे बूँदभर रक्त के धब्बे को देखकर पुरुष अपना विजय परचम लहराता फिरता है, वही स्त्री चुपचाप उसकी खून की रेखा वंशवृक्ष को सींचने में लगा देती है। युगों की धमनियों में यह खून अनंत काल तक दौड़ता रहेगा... ‘नश्वर स्त्री पुरुष को अमर कर देने में भी सक्षम है,’ अपनी कजलाई आँखों में कौंध भरकर उसने एकदिन कहा था। सुनकर उसकी मसृन त्वचा पर मेरी अबाध्य अँगुलियाँ ठगी-सी रह गईं थीं। क्या कहूँ कि उसकी बातें मुझे अक्सर निर्वाक कर जाती थीं।
अधिकतर संभोगरत होने के बाद जहाँ मैं पूरी तरह चुक जाने की मनःस्थिति में हो आता था, वह ज्वार उतरी नदी की तरह शांत, धीर पड़ी रहती थी। उसकी देह की जमीन लश्कर गुजरी फसल की तरह रौंदी हुई दिखती थी, मगर वह प्रकृति की तरह शांत, संयत रहती थी - बार-बार सँभल जाने की अनंत संभावनाओं के साथ। झंझा क्षण के लिए होती है, परंतु सृष्टि सनातन, यही प्रतीति उसके सानिध्य में होती रहती थी।
एकबार मेरी बाँहों में किसी नदी की तरह सरसराते हुए उसने कहा था - औरत नदी की तरह होती है अशेष, कहीं ठहरती नहीं, मगर अपने किनारों में जीवन को ठहराव देती जाती है। सारी महान सभ्यताओं का इतिहास देख लो, किसी न किसी नदी की देन है। दरअसल नदी जहाँ भी जाती है, जिंदगी वहीं चली आती है।
उस समय मैं उसे अपनी बाँहों में न बाँध पाने की विवशता में विक्षुब्ध हो रहा था। उसे पूरी तरह पाने की, जीने की दुर्दांत इच्छा में मैं प्रायः उसे बिस्तर पर बुरी तरह रौंद डालता था, उसमें गहरे तक उतरकर उसकी सीमा थाह लेना चाहता था। मैं कभी कितना नादान हुआ करता था, क्षितिज की धूमिल रेखा को आकाश की सीमा मान बैठा था!
मैं चाहता था, वह एक विग्रह की तरह मुझे अपने अंदर स्थापित कर ले, मुझे साँस-साँस जीए, अपने रगो-रेश से सींचे और और जन्म दे। एक टिपिकल पुरुष की तरह अधिक से अधिक अपने बीज फैलाने की अपनी आदिम प्रवृत्ति में मैं उसे भी अपने औरस से फलीभूत देखना चाहता था शायद। यही मेरे सनातन दंभ की तुष्टि थी - चरम तुष्टि... उसमें स्खलित होकर मैं उसके अंदर इतना फैलना चाहता था कि फिर वह ‘वह’ न रहे, ‘मैं’ बन जाय।
ओह! मेरा वह विवेकहीन अहंकार... औरत को उसके स्त्रीत्व से बेदखल कर देने की पुरुष की ये सनातन साजिश... मैं कहाँ सफल हो पाया, बल्कि कोई भी कब सफल हो पाया! इस आदिम षड्यंत्र की असफलता प्रकृति की सबसे बड़ी सफलता है, जानता कब से था, मानने का नैतिक बल अब कहीं जाकर जुटा पाया हूँ।
दामिनी के संसर्ग में सोचने लगा हूँ, ये असहाय-सी औरतें दरअसल कितनी सक्षम होती हैं। मर्दों को आकंठ लेती हैं, स्वयं में उतरने देती हैं, फिर विधाता की गढ़ी हुई रचना को अपने साँचे में ढाल उसे दुबारा पैदा कर देती है - उसकी कमियों में अपनी पूर्णता का मिश्रण करके! मर्द उसकी देह की कई इंचें नापकर विजय उत्सव मना लेता है, मगर औरत उसे सोखकर, अणु-अणु जीकर फिर वापस उगल देती है। समंदर की तरह का उसका यह व्यवहार, किसी से कुछ न स्वीकारना, लहरों के हाथों सबकुछ किनारे पर लौटा जाना... उसकी गरिमा है या दंभ, स्वयं विधाता को भी मालूम है क्या...
परिचय के न जाने कितने दिनों बाद उसने मेरे सामने अपने निविड़तम मन की गाँठें खोलनी शुरू की थी - बहुत आहिस्ता-आहिस्ता... जैसे कोई तृषित पशु सतर्क होकर पानी की ओर बढ़ता है - एकबार उसने कहा था, शायद न चाहते हुए भी, किसी संवेदनशील क्षण में -
एक समय था जब मुझे लगने लगा था, मेरे अंदर कोई हँसी या खुशी नहीं बची है। कोई पराग अब मुझे फूल नहीं बना सकता। एकदम ऊसर, बंजर बन गई हूँ... मरु की तरह... जानते हो अशेष, मेरी माँ को मेरी पापा की चुप्पी ने मार डाला था। वे उनसे बोलते नहीं थे। यह दुनिया की क्रूरतम सजा है... आखिर तक वे दीवारों से बोलते-बोलते पागल करार दे दी गई थीं!
मैं महसूस कर सकता था, अपने कहे हुए शब्दों के तासीर से वह अंदर तक लरज रही थी, किसी सूखे, पीले पत्ते की तरह - वे सबसे हँसते-बोलते थे - घर की नौकरानी से, ऑफिस के चपरासी से, पड़ोसियों से, यहाँ तक कि घर के कुत्ते, बिल्ली से भी... मगर माँ को देखते ही उनके चेहरे पर मौन पसर जाता था। वे एकदम से चुप हो जाते थे। ये उनका तरीका था - माँ को सजा देने का! मगर किस बात की, माँ आखिर तक जान नहीं पाई।
इस इमोशनल अत्याचार का कोई हल नहीं था उनके पास। वह शिकायत करती भी तो क्या और किससे।
ऐसे अत्याचार के निशान जिस्म पर नहीं पड़ते। न खून बहता है, न जख्म होता है। इनसान समाप्त हो जाता है बिना किसी प्रत्यक्ष आघात के... आदमी जिंदा रहता है, मगर मर जाता है... मनोविज्ञान में इसे नॉन भरवल एग्रेशन कहा जाता है... वह ठहरकर बोली थी - बहुत बाद में यह बात समझ पाई थी, कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ते हुए...
जानते हो, आदिवासियों के एक समुदाय विशेष में कैसा चलन है? जिस पेड़ को वे गिराना चाहते हैं, उसपर कुल्हाड़ी नहीं चलाते, बल्कि उसे चारों तरफ से घेरकर रोज गाली-गलौज करते हैं, अपशब्द बोलते हैं। कहा जाता है, देखते ही देखते वह हरा-भरा पेड़ सूखकर जमीन पर गिर जाता है... ऐसा ही कुछ हुआ था मेरी माँ के साथ, उन्हें बिना छुए सिर्फ अपनी अवज्ञा और चुप्पी से पापा ने उन्हें मार दिया था।
माँ पहले-पहल समझ नहीं पाती थी। आखिर उनके समर्पण और एकनिष्ठ प्रेम का ये तो जवाब हो नहीं सकता था। पापा का मौन माँ को पागल बना देता था। जैसा कि मैंने कहा, अंत तक वे दीवारों से बात करने लगी थीं। एकबार उन्हें पापा की आवाज में बोलते हुए सुनकर मैं बहुत डर गई थी अशेष। लगा था, माँ सचमुच पागल हो गई है। वह अपना ही नाम लेकर बार-बार पुकार रही थी। मेरे उनके झिंझोड़ने पर वे हँसते हुए बोली थी, तेरे पापा मुझे प्यार से इसी नाम से पुकारा करते थे, शादी से पहले... ऐसा कहते हुए उनकी तरल आँखों की चावनी में अजीब उन्माद था। उस रात मैं सो नहीं पाई थी किसी तरह।
उसदिन दामिनी शुरू से उदास थी। कहा था, आज मेरी माँ का जन्मदिन है। उसके घर पर दो-चार लोग आए हुए थे। उसकी कॉलेज के दिनों की सहेली और उसका पति, पति के दो मित्र। मुझसे मिलवाया था सबको। सिंगापुर में रहनेवाले, अलग मिजाज और कल्चर के। बड़ी आसानी से अपने बीच मुझे स्वीकार लिया था। कोई अवांछित प्रश्न नहीं, कौतूहल नहीं... आधुनिक शब्दावली में ‘कूल गाएज’...
सारा दिन सब समंदर के किनारे ऊधम मचाकर आए थे। अब पार्टी थी - एकदम अनौपचारिक और निजी। पीछे लॉन में चारकोल की खुली आग में मुर्गे और टायगर प्रॉन्स भूने जा रहे थे, नीबू के रस और तंदूरी मसाले के मिश्रण के साथ। हवा में उसी की सुगंध है। नरेन भूनते हुए मूर्ग की सुनहरी देह पर बार-बार पिघले हुए मक्खन का ब्रश फेर रहा है। कोयले की आँच में उसका चेहरा लाल भभूका हो रहा है। शायद नीबू के रस के साथ उसने अबतक बकार्डी के तीन-चार गिलसिया चढ़ा लिए हैं। दोपहर को भी उसने फेनी में लिमका मिलाकर पिया था।
दामिनी की सहेली मीता ने पीना कोलाडा बनाया है, नारियल का दूध, पानी, अनन्नास रस, व्हाइट रम, क्रीम मिलाकर। बकौल उसके पति के, वह दुनिया का सबसे अच्छा कॉकटेल बनाती है। मैंने भी पिया था। वाकई स्वादिष्ट था। काँच के लंबे गिलास में अनन्नास के कटे हुए टुकड़े और चेरी से बाकायदा सजाकर वह पेय सर्व कर रही थी - किसी कुशल विमान परिचारिका की-सी पटुता और और ग्रेस के साथ। पूछने पर दामिनी ने बताया था, वह वास्तव में सिंगापुर एयर लाइंस में बतौर एयर होस्टेस काम कर चुकी है। कुछ दिन पहले ही उसने नौकरी छोड़ी थी। उसे बच्चा होनेवाला था। सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ था। छोटी-सी हॉट पैंट और ब्रा में वह कहीं से भी गर्भवती नहीं दिख रही थी - वह भी पाँच महीने से!
मीता थोड़ी देर के लिए मेरे बगल में आ बैठी थी, शायद दामिनी के ही कहने पर। इधर-उधर की बातें होती रही थीं। उसी ने बताया था, उसकी माँ सिंगापुर की है। बाप भारतीय है, मगर सालों पहले उसके माता-पिता का तलाक हो गया है।
एक समय के बाद मुझे लगा था, वह बहक रही है। अपनी हथेलियों के बीच ड्रिंक के गिलास को गोल-गोल घुमाते हुए तंद्रालस आवाज में बोली थी, जैसे गुनगुना रही हो - मैंने गौर किया है कि यहाँ की औरतें समंदर में साड़ी पहनकर नहाने उतरती है। दैट्स वेरी फनी... आप हिंदुस्तानी लोग देह के संदर्भ में इतने कुंठित क्यों होते हो? इसे कोढ़ या पाप की तरह छिपाते हो...
मुझे उसकी बात नागवार लगी थी। मैंने आवेश में भरकर जबाव दिया था - ये शायद आप न समझ सको, हमारी स्त्रियाँ अपनी देह का सम्मान करती हैं, उन्हें नुमाइश का सामान नहीं समझतीं कि जिस-तिस के सामने उघाड़ती फिरें...