औरत जो नदी है... / भाग 4 / जयश्री रॉय
आई सी... सुनकर वह अजब ढंग से मुस्कराई थी - तुम्हारे देश में औरतें अपनी मर्जी से कपड़े नहीं उतारतीं, मगर दूसरों की मर्जी से भरी सभा में उसके कपड़े उतारे जा सकते हैं... नहीं! ...पढ़ा था कहीं। मेरे चेहरे के कठिन होते भाव को देखकर वह कहते हुए ठिठक-सी गई थी। मगर उसकी बात सुनकर मैं भी गहरे असमंजस में पड़ गया था। क्या कहूँ यकायक सोच नहीं पा रहा था। मुझे चुप देखकर उसने झिझकते हुए अपनी बात आगे बढ़ाई थी -
लिबास आराम और सुंदरता के लिए पहना जाता है - अपने को कलात्मक ढंग से छिपाने के लिए और दिखाने के लिए भी। कपड़ा तब गलत हो जाता है जब वह इनसान के लिए कैद या कारावास बन जाता है। पर्दे या हिजाब की शक्ल में कपड़ा खालिस गुनाह हो जाता है। ऊपरवाले ने जिस औरत को बड़ी मेहनत से रचा-गढ़ा है, उसे सात पर्दो से ढाँककर हम उसे ग्लानि में बदल देते हैं। क्या हम अपने सर्जक के इस अनुपम सृजन से इतना शर्मिंदा हैं कि उसे एक पाप की तरह छिपाते फिरते हैं? हम मिट्टी-पत्थर की इस दुनिया को खुली नजर से देख सकते हैं, मगर कुदरत की सबसे हसीन तोहफा औरत को नहीं देख सकते। उसे उम्रभर इस दुनिया की चहल-पहल और मेले से फरार रहना पड़ेगा, उस जुर्म के लिए जो उसने खुद किया नहीं है - अपने होने का जुर्म!
आप सोचिए एकबार, यदि ऊपरवाला औरत को इस दुनिया से छिपाकर ही रखना चाहता तो फिर उसे जल्वागर करता ही क्यों? रख लेता उसे अपनी तरह सूक्ष्म, निराकार करके... जो मिट्टी के बुत मालिक ने खुद रचे हैं, उससे नफरत करनेवाले या उसे जमीन से लापता करनेवाले हम बंदे कौन होते हैं।
उसकी बातें अनोखी थीं, एक नया दृष्टिकोण लिए। मगर मैं अब भी हारने के लिए तैयार नहीं था, इसलिए अपने वक्तव्य के पक्ष में कुछ कहना जरूरी हो गया था, मगर क्या, अब भी सोच नहीं पा रहा था। मेरे चेहरे पर अंदरूनी द्वंद्व की छटपटाहट रिस आई थी शायद, जिसे देखकर उसने एक गहरी साँस ली थी - देवी, गृहलक्ष्मी जैसी उपाधियों से लादकर स्त्रियों के दमन और शोषण का इतिहास इस दुनिया में बहुत पुराना है। उस संस्कृति से औरत को क्या मिलने की उम्मीद की जा सकती है भला, जहाँ उसकी देह पर भी - जो उसका अपना प्रकृति प्रदत्त देश है - उसका अधिकार नहीं। अपनी इच्छा से वह अपने मन के पुरुष का वरण तो नहीं कर सकती, मगर दूसरों की आज्ञा से पाँच-पाँच पतियों को झेलने पर विवश जरूर हो जाती है। एक बात कहूँ, यहाँ धर्म की परिभाषा क्या है? एक असहाय स्त्री को जुए के दाँव पर लगा देना? एक औरत का दूसरी औरत को पाँच पुरुषों में बाँट देना? नमक का कर्ज चुकाने के लिए या बचन निभाने के लिए भीष्म जैसे किसी महावीर पुरुष का चुपचाप बैठकर एक अबला का चरम अपमान देखना...
आई फील लॉस्ट वेन आई थिंक...
अचानक मुझे लगा था, उसने हमारे पूरे अतीत को कठघरे में खड़ा कर दिया है। इस अतीत की विरासत लिए मैं वर्तमान में खड़ा-खड़ा स्वयं को किसी पुराने गुनाह का जिम्मेदार महसूस करने लगा था। इस अप्रिय प्रसंग को बदलने की गरज से मैंने पूछा था - आप यहाँ के विषय में लगता है, बहुत कुछ जानती हैं!
जी, मगर बहुत नहीं, थोड़ा बहुत। पहले पाँच वर्ष भारत में बिता चुकी हूँ। पहले हृषिकेश में दो साल थी, फिर बनारस, वृंदावन और अब आपके गोवा में।
अच्छा...! मुझे सुनकर सचमुच आश्चर्य हुआ था - आप इतने दिनों तक क्या करती रही है यहाँ?
पूरब को समझना चाहती थी, पश्चिम से मोहभंग हो गया था... अपने गिलास में बचे बीयर को उसने एक लंबे घूँट में समाप्त कर दिया था। मैंने फिर गौर किया था, अब उसकी पुतलियों का रंग बीयर की तरह हल्का भूरा हो आया था। कैसे मौसम और मिजाज के साथ क्षण-क्षण रंग बदलती थी उसकी आँखें... और त्वचा भी - उसकी मधु होती रंगत को देखकर मुझे खयाल आया था।
तेज हवा में अपने रूखे, चमकीले बालों को सहेजते हुए अचानक उसने पूछा था - आपकी शादी हो गई है? यहाँ तो शादी यूनिवर्सल यानी अनिवार्य होती है।
हाँ, मगर अब टूट भी रही है - थैंक्स टु योर वेस्टर्न कल्चर! मैं बीयर के हल्के सुरूर में अब कुछ ज्यादा ही तल्ख होने लगा था शायद। पता नहीं, यह आरोप किसपर थोप रहा था और क्यों।
उसकी आँखों में न जाने क्यों यह सुनते ही गहरी चमक भर आई थी। होंठों ही होंठों में मुस्कराते हुए कहा था - हाँ, आपके समाज में बढ़ते हुए तलाक की घटनाओं का ठीकरा पश्चिम के सर पर जरूर फोड़ा जा सकता है, मगर ये किसी फैशन की अंधी नकल नहीं, बल्कि वहाँ से आई चेतना की नई लहर का परिणाम है। यहाँ रिश्ता हमेशा से एक तरफा होता था - स्त्री की तरफ से। इसलिए निभ जाता था। जीवन और परिवार से मिली हर तकलीफ को औरत अपनी नियति मानकर सह लेती थी। मगर अब औरत समझ रही है, उसका भी जीवन और उसकी तमाम खुशियों पर उतना ही हक है जितना किसी और का। रिश्ते के नाम पर आजीवन एक बंधुआ मजदूर बनकर जीना अब उसे मंजूर नहीं। वह जीवन से अपना हिस्सा माँग रही है। उथल-पुथल तो मचेगी ही। इसलिए आपलोगों के समाज का यह सुदृढ़ किले जैसा ढाँचा चरमराने लगा है। अपनी गलतियों की जिम्मेदारी लेना आपलोग अब सीख लीजिए...
अचानक उसकी बातों से मेरे तन-बदन में जैसे आग लग गई थी। अंदर का कोई घाव दगदगा आया था। चोट पहुँचाने की एक हिंस्र इच्छा से भरकर मैंने कहा था - आप बहुत गलत ढंग से चीजों को देख-समझ रही हैं। पश्चिम की रंगीन ऐनक से आप पूरब की सात्विक संस्कृति को समझ नहीं पाएँगी। मेरे लहजे की धार से उसने यकायक मुझे देखा था - आप मेरी बातों का बुरा न मानें। आप के सामने अपने विचार रख रही हूँ। आप पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं... जी बिल्कुल! मैंने स्वयं को संयमित किया था। ‘देखिए आप की सभ्यता में स्त्री को बहुत बड़ी-बड़ी उपाधियों से विभूषित किया गया है, मगर जब यथार्थ को देखती हूँ तो मन में सवाल उठते हैं।।
‘आपके कनफ्यूजन को समझ सकता हूँ, मगर आप को समझना पड़ेगा, यहाँ की औरतें अलग ही मिट्टी की बनी होती हैं। उनकी सोच, प्रकृति और चरित्र बिल्कुल अलग होती है। हमारी औरतें त्याग, प्रेम तथा सहनशीलता की प्रतिमूति होती हैं। एक तरह से उन्हीं के बल पर हमारे देश और समाज का पूरा ढाँचा बँधा और खड़ा हुआ है। इसलिए तो वे यहाँ पूजनीय हैं। ऐसे ही नहीं कहा गया है कि ‘नारी, तुम सिर्फ श्रद्धा हो।’
कहते हुए मैं शायद कुछ ज्यादा ही भावुक हो उठा था। मगर मेरी बात सुनकर उसके चेहरे पर व्यंग्य की तीखी रेखाएँ खिंच गई थीं। मुझे एकबार फिर गुस्सा आने लगा था। मेरी हर बात पर वह तंज से मुस्कराती है! मुझे गंभीर होते देख अब वह भी गंभीर हो गई थी - आपलोगों की संस्कृति में आप लोगों ने स्त्रियों के लिए तरह-तरह के मिथों का निर्माण करके उन्हें उस इमेज के अनुसार जीने के लिए बाध्य कर दिया है। जो औरत उस इमेज की लक्ष्मण रेखा के अंदर जीए वह देवी, वर्ना छिनाल! अपनी आस्था, प्रकृति और मर्जी के अनुरूप जीनेवालों को कैसा सुंदर और सार्थक नाम दिया है आपलोगों ने। अन्याय सहकर चुप रहनेवाली और आँसू बहानेवाली सीता और द्रौपदी जैसी नारियों को आपलोगों ने अपनी औरतों का आदर्श बना दिया, मैत्रेयी, पुष्पा, घोषा, जाबाला जैसी औरतों को नहीं, जो मोम थीं तो पत्थर भी, बोलते हुए उसकी स्लेटी आँखों में कौंध भर आई थी। मुझे लगा, यह दामिनी के ही शब्द हैं - आज की औरत - बहुत जागरूक और आत्मविश्वास से लबरेज!
न चाहते हुए भी उसकी बातों ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया था। क्या उसकी बातें अनर्गल थीं। वह अब भी आवेश में भरकर बोले जा रही थी - देखिए आपके धर्म और समाज ने औरतों को बहुत ऊँचा स्थान दिया है, मगर सिर्फ बातों में, व्यवहार में नहीं। जो स्त्रियाँ वेदों की ऋचाओं तक का निर्माण कर सकती है उसे कभी नरक का द्वार तो कभी ‘ताड़न की अधिकारी समझा गया? औरत को सिर्फ योनि मान लेना अपनी माँ को गाली देना है... सच, बहुत विसंगति है यहाँ की संस्कृति में। जो देवी है, वही बाँदी है...
मैं निर्वाक था। क्या कह सकता था। उसकी बातें नंगी और तीखी थी, मगर एकदम सच भी। यह एक विदेशी स्त्री का हमारी संस्कृति के प्रति व्यंग्य या कटाक्ष नहीं था, मैं समझ सकता था, बल्कि एक औरत होने की हैसियत से अपने ही दुख और प्रतिरोध वह पूरी संजीदगी से दर्ज करा रही थी।
उसकी बातें अभी खत्म नहीं हुई थीं, कह रही थी - जानते हैं, आज एक और कटु अनुभव हुआ। समुद्र तट पर एक व्यक्ति से परिचय हुआ तो थोड़ी देर में वह बदतमीजी पर उतर आया। मैं उस समय अकेली थी। साथ के लोग दूर पानी में नहा रहे थे। सोचा होगा कि स्वच्छंद विचारों की, देहवादी संस्कृति की उपज है,। आसानी से मान जाएगी...
- प्लीज नो... मैंने सख्ती से कहा था, मगर वह उद्दंड हुआ जा रहा था - वाई नॉट?
नो मींस नो... अचानक मेरी आवाज में इस्पात-सा कुछ कठिन घुल आया था। वह अचकचाकर रुक गया था। मैं उठकर खड़ी हो गई थी - आपलोग किसी स्त्री के खुले व्यवहार को इतना गलत तरीके से क्यों लेते हैं? इसे उसकी चरित्रहीनता का द्योतक मान लेते हैं। अपनी कमजोरियों का आरोपण आप दूसरों पर कैसे कर सकते हैं! हर संबंध का अंत इसी बिंदु पर हो यह जरूरी तो नहीं? सेक्स को लेकर इतनी ग्रंथि, इतनी कुंठा क्यों होती है आपलोगों में!
मगर आपलोग फ्री सेक्स को गलत तो नहीं समझते। अब वह डिंफेसिव होने लगा था - ये सब तो आप के कल्चर में खूब होता है, फिर इनकार क्यों?
हम जो करते हैं अपनी मर्जी से करते हैं, किसी दबाव या मजबूरी में नहीं। उन्मुक्त होने का अर्थ पशु होना नहीं है। हमारी भी पसंद-नापसंद और रुचि होती है... उसका नशा धीरे-धीरे काफूर होता जा रहा था। अब वह काफी सजग दिख रही थी। ‘आप पूरब के लोग खूब चरित्र की बातें करते हैं, मगर सिर्फ स्त्रियों के लिए... ये बहुत बड़ा दोगलापन है। आँकड़े बताते हैं, विश्व में सबसे ज्यादा भारतीय पुरुष ही वेश्यागमन करते हैं, वह भी शादी-शुदा पुरुष...’ तेज-तेज कदमों से चलती हुई मैं होटल की ओर लौटने लगी थी।
- आप ये सब क्यों कह रही हैं, आप पश्चिम की औरतें तो हम पुरुषों से भी ज्यादा आजाद हैं, मैंने भी सुना है, योरोप में हर तीसरा बच्चा नाजायज होता है... न जाने अब वह यह सब कहकर क्या साबित करना चाहता था। उसकी झल्लाहट को समझकर मैं चलते हुए व्यंग्य से मुस्कराई थी - आप को इस बात का ऐतराज नहीं है कि पश्चिम की औरतें इतना स्वच्छंद जीवन बिताती है। आपको इस बात का रश्क है कि पश्चिम में औरतों की देह उसके अपने अधिकार में है और वह सिर्फ अपनी मर्जी से अपना शरीर किसी को सौंपती है और उसका सुख लेती है। आपलोगों का सामंतवादी अहंकार इतना विकट है कि आपलोग स्त्री को भोगना भी अपनी इच्छा से चाहते हैं, उसकी मर्जी या रजामंदी से नहीं। हर जगह आपको अपना वर्चस्व चाहिए - बिस्तर में भी! प्रेम - तथाकथित प्रेम - में भी आधिपत्य की लड़ाई... अहम की अति है ये...
सुनकर मैं शर्मिंदा हो गया था। क्या कहता? एक समय के बाद दामिनी ने ही मुझे बचाया था। मुझे वहाँ से बुला ले गई थी। पीछे मीता जमीन पर लेटकर गाने लगी थी - ओसन ऑफ फैंटसी...
अपना-अपना गिलास लेकर हम कमरे में चले आए थे। दामिनी हल्का चिल करके व्हाइट वाइन पी रही थी। शायद यह उस व्हाइट वाइन का ही असर था कि दामिनी अपनी माँ की बातें करते हुए अनायास इस तरह से भावुक हो उठी थी उसदिन...
अँधेरे में देखे बगैर मैं जानता था, वह रो रही थी, उतना ही धीरे जितना संभव हो सकता था। मेरे उठने का उपक्राम करते ही हाथ बढ़ाकर उसने रोक लिया था - रोशनी मत करना अशेष, यही ठीक है। सोफे पर पड़ा-पड़ा मैं अँधेरे में ही उसे देखने की एक असफल-सी कोशिश करता रहा था। खिड़की पर उड़ते साँझ के रंग न जाने कब पुँछ गए थे। अब वहाँ अंधकार के तरल घोंसले पड़ चुके थे। पिछवाड़े के फूलते चंपा पर कोई रात का पक्षी रह-रहकर बोल रहा था। हवा में माधवी के फूलों की कड़वी-मीठी गंध थी। मैं डूबने-सा लगा था। अंदर उदासी की कोई गहरी नीली नदी बह निकली थी। मैं शायद दामिनी की मनःस्थिति में हो आया था।
अक्सर ऐसा हो जाता था - मैं दामिनी के साथ देह के ही नहीं, भाव के स्तर पर भी एकमेव, एकसार हो जाया करता था। कभी-कभी प्रतीत होता था, मैं उसकी देह की ढूँढ़ में उससे भी आगे चला जा रहा हूँ। ये खयाल मुझे सहमाता था। मैं असुरक्षा की भावना से घिर जाता था। अपनी इस मनःस्थिति को मैंने कभी गंभीरता से लेने का प्रयास भी नहीं किया था। मगर ये अंदर ही अंदर हरदम बना जरूर रहता था।
दामिनी की परछाई धीरे-धीरे हिल रही थी, खिड़की के उड़ते पर्दे की तरह -
पापा माँ की बातों का जबाव देना तो दूर, उन्हें सुनने का मर्यादाबोध तक नहीं देते थे। उनकी गहरी उपेक्षा ने माँ के आत्मविश्वास को खत्म कर दिया। वह एकदम असहाय, निर्बल हो गईं। हीन भावना से ग्रस्त। ठुकराई हुई, परित्यक्त... दामिनी उठ खड़ी हुई थी, अँधेरा हिला-डुला था, उसमें भँवर-से पड़े थे। मैं मौन ही रहा था। यही, इसी तरह इस समय उसके साथ होना था।
वह बोलती रही थी - और आखिर एकदिन वही हुआ जो होना था - पापा की चुप्पी ने धीमे जहर की तरह माँ की जान ले ली! वे अपनी निसंगता के कारावास में रातदिन घुटती हुई पापा के मुँह से अपनेपन के दो अदद बोल सुनने के लिए तरस-तरसकर मर गईं...
अपनी बात के अंतिम सिरे तक पहुँचते हुए दामिनी की आवाज पानी होने लगी थी। वह पिघल रही थी, आवाज से देह तक... मैं उसके बहाव में शामिल था, बिल्कुल चुपचाप। अंधकार में पिघले मोम की तरह उसके स्वर की तरलता फैल रही थी - ऊष्ण, आँच देती हुई, रुक-रुककर, मगर निरंतर... मैं जज्ब हो रहा था - सारा का सारा -
'उस दिन शायद पहली बार माँ के न बोलने ने पापा को चौंकाया था। उन्होंने बढ़कर उनका ठंडा पड़ा हाथ छुआ था। पुकारा था - रूप! ...कई बार, बिना रुके - रूपऽ... रूपऽऽ। माँ की पथराई हुई आँखों में अनकहे शब्दों का नीरव जमघट था, मगर स्वर नहीं। वह अपनी सारी कही-अनकही समेटकर चुप्पी के मूक संसार में खो गई थी - इस बार हमेशा के लिए... वह निर्वाक प्रश्न बनी पापा को देखती-सी पड़ी थीं।
उसदिन अचानक माँ के हिस्से का सन्नाटा पापा को मिल गया था। वे बुरी तरह घिर गए थे। और दहल भी। किसी गूँगे के अंदर का मूक हाहाकार उनमें फट पड़ा था। वे खूब रोए थे। अब कोई नहीं था, जिसे पीड़ा पहुँचाकर उन्हें सुख मिलता - अपना परवर्टेड सुख!'
दामिनी की आवाज में अजीब धार आ गई थी, जैसे वह शब्दों के टुकड़े कर रही हो, एक ठंडी घृणा और वितृष्णा से -
'पापा का साम्राज्य छिन गया था, सत्ता चली गई थी। माँ ने हारकर उन्हें सिरे से हरा दिया था। ये हार उनसे बर्दाश्त नहीं हो पा रही थी। यही तो एक जगह थी जहाँ आकर उनके अहम को तुष्टि मिलती थी। सारी दुनिया का गरल यहीं तो उलीचा जा सकता था। अपने जीवन में वे एक असफल व्यक्ति रह चुके थे - हर अर्थ में, हर संदर्भ में। अब जो माँ नहीं थीं, पापा का कुछ नहीं था, कहीं भी, कोई भी। वे एकदम से कंगाल हो गए थे।
अचानक दामिनी की आवाज सहज हो आई थी। वह स्वयं को समेटने का प्रयत्न कर रही थी। कुछ देर बाद उसने ठहरे लहजे में कहा था - जहाँ से माँ के सन्नाटे का दौर समाप्त हुआ था, पापा का वहीं से शुरू हुआ था। वे दुनिया को क्या, स्वयं को भी भूल गए थे। उनकी आवाज खो गई थी, बोल भी नहीं पाते थे। माँ की तरह दीवारों से बोलने का सुख भी उन्हें नहीं मिला था। उनको अंततः अल्जाइमर हो गया था - भूलने की बीमारी...
कमरे का माहौल बोझिल हो आया था। अनायास, जैसे प्रसंग बदलने के लिए दामिनी उठकर फ्रिज तक गई थी। फ्रिज के अंदर से आती हुई रोशनी की पृष्ठभूमि में उसका पूरा आकार स्पष्ट होकर उभर आया था। मैंने शायद पहली बार गौर किया था, उसकी बाँहें दुबली और कंधे चौड़े हैं। नीचे - पतली कमर से नीचे - उसके कूल्हे भारी और सुडौल थे। यकायक मेरे अंदर आँच की एक सुनहरी नदी-सी फूट आई थी। अपना बीयर का गिलास मेज पर रखकर मैं उठकर पीछे की तरफ से उससे लिपट गया था। मेरे इस तरह अचानक लिपटने से वह चौंक गई थी। उसके हाथ से चेरी का दोना जो उसने अभी-अभी फ्रिज से निकाला था, छूटकर नीचे गिर गया था। वह उन्हें सहेजने के लिए नीचे झुकना चाह रही थी, मगर मैं उसे बिस्तर पर खींच लाया था।
वह हल्के से कसमसाई थी- अशेष...! दूसरे कमरे में गार्गी ने अचानक किसी बात पर जोरदार ठहाका लगाया था। साथ में लायलन रिची का स्वर गूँजा था - सांद्र और हल्की - साँझ की हल्की गर्म हवा में उदास चाहना और कशिश से थरथराती हुई - हलो! इज इट मी यू आर लुकिंग फॉर...।
दामिनी एकबार फिर कसमसाई थी - अशेष, अभी नहीं, घर में इतने सारे लोग हैं...
- कोई नहीं आएगा, सब अपने में खोए हैं... सच, इस तरह से यह ज्यादा एक्साइटिंग होगा... मैंने बेसब्र होकर उसका आँचल खींच लिया था। तरल अंधकार में उसका शरीर किसी कांस्य प्रतिमा की तरह चमक उठा था। मुझमें अब ज्यादा धैर्य नहीं रह गया था। बंधन से मुक्त होते ही उसकी देह की नर्म रेखाएँ सिहरकर कठिन हो आई थीं। अँधेरे में वे हल्के आब से चमकते दो सुडौल मोती की तरह दिख रहे थे। उत्तेजना से थरथराता हुआ मैं उसकी देह की गर्म नदी में उतर गया था... वह भी अब स्वयं को अधिक रोक नहीं पाई थी। हम दोनों के जिस्म की कैफियत उस क्षण एक-सी ही थी... आसपास लोग चल-फिर रहे थे, हँस-बोल रहे थे। कटलरी की ठुनक, काँटे, चम्मच की अनवरत आवाज, संगीत... एकबार मीता कमरे में आकर दरवाजे के पास पड़ी कुर्सी से टटोलकर अपना पर्स भी उठा ले गई थी। मैंने अपनी हथेली से दामिनी के होंठों से बेतरह निकलती सिसकियों को बेरहमी से दबाया था। मगर मेरी साँसें उससे भी तेज होकर सुनाई पड़ रहीं थीं। लेश के उड़ते हुए पर्दे से दूसरे कमरे की रोशनी आकर सीधे दामिनी के अनावृत शरीर पर पड़ रही थी। सुनहरे आलोक में नर्म उठानों की गुलाबी नोंक बँधी कलियों-सी झिलमिला रही थी। ये उभरती आवाजें, कोलाहल... आसपास इतने सारे लोगों का होना और उन सब के बीच बिना दरवाजा बंद किए एक तरह से खुलेआम हम दोनों का एकसार होना मुझे खासा रोमांचकरी लग रहा था। थोड़ी देर के प्रतिरोध के बाद दामिनी ने स्वयं को ढीला छोड़ दिया था।
फीके-से जामुनी अंधकार में उसके होंठों को चूमते हुए मैंने उनपर फैले आँसुओं के गीलेपन और नमक को महसूस किया था। वह निःशब्द रो रही थी। न जाने क्यों उसके आँसुओं से भीगे नमकीन होंठों के स्वाद ने मुझे और भी उत्तेजित कर दिया था। मैं ज्यादा आक्रामक हो उठा था। मेरे प्रहार तेज हो गए थे। साथ में दामिनी की सिसकियाँ भी...
आगे चलकर एकदिन दामिनी ने ही बताया था, उसके पापा की एक अजीब आदत थी। वे माँ से नहीं के बराबर बोलते थे। माँ जब कभी इस बात की शिकायत करते हुए रो पड़ती थीं, वे यकायक उत्तेजित हो उठते थे और माँ को बिस्तर पर उठा ले जाते थे। उन्हें माँ के आँसू एक्साइट कर देते थे। वे अक्सर कहते थे, मधु, रोते हुए तुम्हारी आँखें इतनी खूबसूरत लगती हैं... कई बार तो इसीलिए मैं जानबुझकर तुम्हें रुला देता हूँ। माँ ने अपनी डायरी में लिखा था - न जाने क्यों उन्हें पापा की ये बात सुनकर अच्छा लगा था।
सुनकर मैंने उसके बाल आहिस्ता से खींच लिए थे - चलो, फिर अब मैं तुम्हें रुलाता हूँ... वह सचमुच रोने लगी थी और मैं उत्तेजित हो उठा था! उसदिन हमने दोपहर का खाना भी नहीं खाया था। न जाने कब दिन रात में ढल गया था। दामिनी इस दौरान निरंतर रोती रही थी। मैंने उसे चुप होने नहीं दिया था। इसके बाद कई दिनों तक वह खुश रही थी और हल्की भी - किसी बरसे हुए बादल की तरह... ऐसे में मुझे उसे देखकर खयाल आया था, क्या वास्तव में 'वुमन लाइक ब्रूटस्'...?
एकबार दफ्तर में पार्टी के दौरान हमारा सहकर्मी हेमंत कुलकर्णी औरतों के विषय में अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए बोल रहा था - बालों से पकड़कर औरतों को घसीटो, वे बाध्य रहेगीं...
कौन-सी बात सही थी! दामिनी कहती थी - माँ की कोमलता से रची गई हूँ, इतनी मजबूत तो हूँ ही कि अपने आँसुओं का तटबंध बन सकूँ... मुझे याद है, न जाने किन स्मृतियों में भटककर उसदिन वह रोई थी और फिर अपनी दुर्बलता पर शर्मिंदा हो उठी थी। हँसते हुए अपनी आँखों की नमी को टाला था। ऊपर की तरफ देखते हुए पलकें झपकाती रही थी।
उसकी दुर्बलता के इन क्षणों को मैं अदेखा कर जाता था। जानता था, उसे अपना इस तरह पकड़े जाना पसंद नहीं। हम दोनों शाम की चाय पी रहे थे। उसदिन मैं दफ्तर से सीधे उसके कॉटेज पर पहुँचा था। उसी ने बुलाया था। कह रही थी, अच्छा नहीं लग रहा, बस तुम चले आओ...
चाय का कप मेज पर रखकर वह बॉल्कनी में उठ गई थी। खिड़की पर झुका मौलसिरी का पेड़ फूलों की हल्की, रंगीन मुस्कराहट से भरा हुआ था। हवा पर रह-रहकर झूलती हुई उसकी डाले काँच पर दस्तक-सी देती हुई दुहरी हो रही थीं। आज आकाश का रंग फीका नीला था। वह उसी की तरफ देखती देर तक खड़ी रही थी। और फिर मेरी तरफ मुड़ी थी, अपनी आँखों में वही बचपन और कौतूहल लेकर - अच्छा अशेष, आज हवा में ये कैसी गंध है?... देह का रगो-रेश भीगा जा रहा है। जैसे अंतर में डूब रही हूँ...
मैं मुस्कराकर रह गया था। क्या कहता कि ये तुम हो - इस गंध का उत्स... बिचारी कस्तूरी मृग - अपने ही ऐश्वर्य के तिलिस्म से छली हुई। एक साकार पहेली बनकर वह मेरे सामने खड़ी थी और इतने पास होकर मैं उसकी दुरूह गिरहें सुलझा नहीं पा रहा था। कौन-सी बात इस औरत को छूती है, क्या है जो इसे उदास कर देती है या बहुत-बहुत खुश...
कहते हैं, यदि जानना है कि 'व्हाट टिक्स ए वुमन', उसे बिस्तर पर ले जाओ। बहुत गलत है। एक औरत बिस्तर पर कभी पूरी होती ही कहाँ है! वह तो आधी अपनी रूह में, आधी अपनी मुहब्बत में होती है। बिस्तर पर उसके वजूद का बचा-खुचा हिस्सा ही मिल पाता है, खासकर उनके लिए जो देह की मिट्टी कुरेदने में लगे रहते हैं - उसकी अंदरूनी जरूरत और खूबसूरती से बेखबर... बकौल दामिनी के - ब्लडी स्केभंजर... 'जूठे पत्तल चाटकर पुरुष महाभोज के गफलत में तृप्ति की डकारें लेता रहता है।'
- कभी दामिनी ने ही किस गहरी वितृष्णा से भरकर ये बात कही थी। सुनकर मेरे अंदर का कोई गोपन हिस्सा शून्य हो आया था।
कभी-कभी मुझे शक होता था, दामिनी को पुरुषों से घृणा है। इसके पीछे उसके मन की कोई अनसुलझी ग्रंथि होगी, जिसकी जड़ें शायद उसके बचपन की नर्म जमीन पर गहरे उतरी हुई हैं। अब दामिनी ने स्वयं को मेरे सामने आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, खोलना शुरू कर दिया है। उसकी बातों से प्रतीत होता है, उसके अंदर कोई पुराना घाव है जो समय के साथ पुर नहीं पाया है, बल्कि नासूर बन गया है। वह बड़े यत्न से उसे छिपाने की कोशिश करती है, मगर गाहे-बगाहे वह दिख ही जाता हैं। तब महसूस होता है, ये खूबसूरत इमारत वास्तव में एक मकबरा ही है - ताज महल की तरह! ...अपने अंदर मौत की अनंत चुप्पी और नींद समेटे हुए चाँदनी रातों में जागने के लिए युगों से अभिशप्त...
ऐसे मौकों पर कितनी खूबसूरत लगती है सगंमरमर में गुँथी हुई प्रेम की ये उजली कहानी... मगर इस बेपनाह हुस्न के होने की रूहानी विडंबनाओं को कोई समझता भी है! दामिनी की स्थिति भी कुछ-कुछ ऐसी ही थी - एक खूबसूरत जिस्म, एक उदास रूह... अब उसके लिए मेरे लगाव में हमदर्दी भी आ जुड़ी थी। एक अनाथ बच्चे की तरह उसे अपनेपन और प्यार की जरूरत थी। इसी की तलाश में वह मेरे पास आई थी। मुझे पनाह देना ही था। अपने अनजाने ही न जाने कब मैं उसका आश्रय बन गया था। ये एक जिम्मेदारी थी जिसे मैं पूरी ईमानदारी से निभाना चाहता था। एक तरह से यह एक भरपाई थी मेरे लिए, जो मुझे करनी ही थी, बचपन का कोई उधार, अबतक जो रह गया था।
...वर्षों पहले बरसात की एक रात एक बुरी तरह से भीगा हुआ घायल कबूतर हमारे आँगन में आ गिरा था। तब मैं शायद आठ-दस साल का रहा हूँगा। पिताजी ने उसके पैर में दवाई लगाकर पट्टी बाँध दी थी। मैंने एक टोकरी के नीचे उसे ढँककर बरामदे में रख दिया था। सुबह माँ की आवाज सुनकर शायद मेरी आँख खुल गई थी। बाहर आकर देखा था, फर्श पर चारों तरफ उस कबूतर के नुचे हुए पंख पड़े थे। खून के धब्बों पर बिल्ली के पंजों के छोटे-छोटे निशान - नीचे सीढ़ियों की तरफ जाते हुए... रात बारिश के साथ बहती तेज हवा में कमरे की कोई खिड़की खुल गई होगी...
मैं खड़ा रह गया था - एकदम सन्न! एक असहाय, घायल पक्षी हमारी शरण में आया था, मगर हम उसकी रक्षा नहीं कर पाए थे! इस घटना के बाद न जाने कितनी रातों तक मैं सो नहीं पाया था। अपराधबोध के गहरे दंश ने मेरी नींद उड़ा दिया था। बारिश की तूफानी रातों में मुझे पंखों की बेकल छटपटाहट सुनाई पड़ती थी, नींद में रक्त के धब्बे-से बनते-बिगड़ते रहते थे। ओह! कैसा आतंक होता था उन क्षणों का - सनसनाते हुए नीले बवंडर में घिरे हुए...
इस बार मैं इस पक्षी को मरने नहीं दूँगा... मैंने सोच लिया! इन दिनों मैं प्यार में था, इसलिर जाहिर है, बहुत अच्छा बन गया था, बचपन की तरह... ये जज्बा इनसान के अंदर की अच्छाइयों को ढूँढ़कर जीवित कर देता है, एकबार फिर से, यदि खो गया होता है तो!
दामिनी के शरीर की तरह उसका मन भी सुंदर था। शायद इसलिए कि वह प्यार में थी, बकौल उसके - हमेशा से। कहती थी, स्वयं को मेरे समक्ष ईमानदारी से रखते हुए, किसी गहरे आत्मीय क्षण में - अशेष! मैं प्यार में हूँ और सदा से हूँ, तभी शायद इतनी संवेदनशील और पारदर्शी हूँ कि सारे मौसम मुझसे होकर निर्द्वंद्व गुजर जाते हैं - अपने तमाम मिजाज और तेवर के साथ। मैं आँख मूँदकर फूलों का खिलना और तारों का टूटकर गिरना महसूस कर लेती हूँ, किसी का दुख मेरे लिए पराया दुख नहीं है, न किसी के सुख से ही मैं अनजान, अछूती हूँ। तभी शायद हर खुशी में उदास रहती हूँ और हर उदासी में कोई न कोई खुशी ढूँढ़ लेती हूँ...
दामिनी अपने खयालों की तरह ही खूबसूरत और अनोखी थी - हर अर्थ में! उसकी कौंधती हुई आँखों के नीचे उसकी देह का हर अवयव सुंदर था- किसी चंचल, उत्ताल बहती नदी की तरह! अपने तमाम उतार-चढ़ाव के साथ... उसकी हरी-भरी रगों में जीवन पक्षी की तरह चहचहाता था। नाभि की मादक गहराई कमल पत्ते की तरह जल की ढेर सारी बूँदें अपनेआप में सँभाले रख सकती थी। प्यार का लावण्य उसके चेहरे पर मोतिया आब की तरह टलमलाता था। न जाने क्या था उसके चेहरे में, मगर मेरे लिए सबकुछ- सबकुछ था! कभी उसे तकते हुए मेरी पलकें जम जाती थीं और इसी तरह जैसे सदियाँ बीत जाया करती थीं। मेरा जीना-मरना - जो भी - उन्हीं क्षणों में घटता था।
वह अक्सर कहती थी, तुम्हारे संग बिताया हुआ हर क्षण मैंने अपने अंदर सँजों के रखे हैं। अंतस की दुनिया इन्हीं छोटे-छोटे तिलिस्म से बनी होती हैं। इस दुनिया को कभी मौत नहीं आएगी अशेष! हमारे - हमसब के मर जाने के बाद भी नहीं। कयामत के बाद की जिस मुकम्मल दुनिया की कल्पना की गई है न, ये वही दुनिया है - प्यार के मुकद्दस अहसासों की अमल दुनिया! उसकी बातों को सुनते हुए मै उसे देखता रहता था। वह उन विलक्षण क्षणों में कोई साधारण स्त्री नहीं रह जाती थी - देह के संदर्भ में! खुशबू की पारदर्शी नदी बन जाती थी - अपने जिस्म से परे - भावनाओं के आकुल आवेग में अपने सारे तटबंध तोड़ती हुई, किसी समंदर के आजन्म तलाश में... अहसासों की दुनिया...
दामिनी के सुंदर मन की झलकियाँ मुझे उसके व्यवहार में सहज ही मिल जाया करती थी। जैसे उस दिन आवेग से भरे एक निहायत निजी क्षण में उसने मुझसे अचानक पूछा था - उमा कैसी है अशेष? मैं उसमें डूबा हुआ था। उसी मनःस्थिति में कुछ ताच्छ्लिय से कह गया था - ठीक ही होगी! उसने झट आपत्ति की थी - नहीं, ये ठीक नहीं अशेष - तुम्हारा रवैया... प्यार पर अपना वश नहीं होता, मगर जिम्मेदारी... वह निभानी होती है - हर हाल में! उमा, बच्चे तुम्हारी जिम्मेदारी हैं। मेरे लिए यदि तुम उनकी अवहेलना करने लगे तो मैं स्वयं को दोषी मानने लगूँगी... मैंने अँधेरे में उसका चेहरा देखने का प्रयत्न किया था, उसमें संजीदगी थी - उसके शब्दों की तरह ही...
दामिनी के मेरे जीवन में आने के बाद मुझे गोवा का ये नया जीवन, इसका अनोखा माहौल रास आ गया था। पहले समय रेंगता था, अब उन्हें पंख मिल गए थे - कैसे और कब गुजर जाता था, पता ही नहीं चलता था। मैंने अबतक कोई नया मकान ढूँढ़ने का प्रयत्न भी नहीं किया था। दफ्तर से मुझे कई मकानों की उपलब्धता की सूचना भी दी गई थी, मगर मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो गईं थीं और उमा कुछ दिनों के लिए यहाँ आना चाहती थी। रोज कोई न कोई बहाना करके मैं उसे टाल रहा था। उसकी आवाज में घुली निराशा को महसूस कर मैं दुखी हो जाता था, मगर क्या कर सकता था, मैं भी निहायत मजबूर हो गया था। इस समय अपने परिवार को यहाँ लाकर मैं दामिनी का साथ खोना नहीं चाहता था। उससे एक पल की दूरी भी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती थी। जीवन में पहली बार मैंने जाना था, जीना किसे कहते हैं, कैसे जिया जाता है। मैं जीना चाहता था - हर हाल में - सिर्फ दामिनी के साथ...
भीतर हर समय एक द्वंद्व-सा लगा रहता है - सही-गलत का, पाप-पुण्य का, मगर चलती मन की ही है। हर तर्क, बुद्धि, विवेक को ताक पर रखकर मैं इन दिनों जी रहा था, सिर्फ अपनी इच्छाओं के वश में होकर। इच्छा - दामिनी के साथ होने की, उसी में रस-बसकर खो जाने की, एकदम से निःशेष हो जाने की - हमेशा के लिए... अब मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य बस दामिनी थी, और कुछ नहीं। कई बार मैं उसे दीवानावार कह चुका हूँ - तुम, बस तुम! और कोई नहीं... मेरे उन क्षणों का सच था ये जब उसकी देह के सुख में मैं उभ-चुभ रहा होता था। उसके पार मुझे कुछ और नहीं सूझता था, सारे नाम, रिश्ते, चेहरे एक गहरी धुंध की चादर में खो गए थे, स्मृति के पार चले गए थे। बच गए थे हम - दामिनी और मैं - और कुछ नहीं...
दामिनी ने मुझे जीवन के न जाने कितने अनजाने, अनछुए पहलुओं से रूबरू करवाया था। न जाने कितने रूप ते उसके, कितने चेहरे... हर बार मैं स्तंभित, अभिभूत रह जाता था। सारे रिश्तों का इकट्ठा रूप थी वह - अकेली ही तमाम रिश्तों की एक मुकम्मल दुनिया। कभी माँ की-सी ममत्व से भरी, कभी बहन की तरह शरीर, चंचल और कभी प्रेमिका की तरह रोमानी, हसीन...