औरत जो नदी है... / भाग 5 / जयश्री रॉय
उसके साथ मैंने जीवन में पहले कभी न किए गए अनुभव किए थे - कभी वह मुझे तरह-तरह के मसाज देती - हॉट ऑयल मसाज, चिकनी मुलतानी मिट्टी का मसाज, और न जाने क्या-क्या। कभी दफ्तर के काम के बाद बिल्कुल चूर होकर उसकी कॉटेज पहुँचता तो वह मुझे सीधे अपने बाथरूम में खींच ले जाती। वहाँ बाथ टब पहले से तैयार होता - गर्म पानी में समुद्री नमक डला हुआ- हल्की, अनाम सुगंध से वाष्पित। साथ में छोटे-बड़े स्टैंडों में जलती हुई रंगीन, सुगंधित मोम बत्तियाँ, बर्फ में ठंडी होती शैंपेन की बोतल। विभिन्न आकार और रंग के तह किए हुए नर्म, मुलायम टॉवल, फूलों के ताजे गुलदस्ते...
मुझसे कहती थी, अपनी सारी इच्छाएँ बतलाओ, वाइल्ड फैंटेसी भी, मैं उन्हें पूरा करूँगी। मैं जानता था, वह - बल्कि वही - उन्हें पूरा कर सकती थी, कर रही थी... मुझे उसकी काबिलियत पर कोई शक नहीं रह गया था। एकदिन मेरे जिस्म पर बर्फ के टुकड़े फिराते हुए उसने कहा था, अपनी उसी सांद्र आवाज में - हमेशा की तरह उत्तेजक और गहरी - देह की सारी इच्छाएँ पूरी कर लो, वर्ना इसके तिलिस्म से कभी मुक्त नहीं हो पाओगे, भटकते रहोगे जन्म-जन्मांतर तक... इस देह से होकर ही मन का रास्ता जाता है। मन तक पहुँचने के लिए इस से होकर गुजरना ही पड़ेगा।
गुजरना क्यों? मैं तो यहाँ हमेशा के लिए ठहरने को तैयार हूँ... मैंने बर्फ का पिघलता टुकड़ा उसके हाथ से लेकर उसकी खुली बाँह से छुआई थी, मुस्कराते हुए।
यही तो तुम मर्दों की आदत है... रास्ते को अपनी मंजिल मान लेते हो। भूल जाते हो वास्तविक लक्ष्य। उसने आपत्ति की थी, बनावटी गुस्से के साथ।
देह का लक्ष्य देह ही है, और क्या! बर्फ का टुकड़ा उसकी ऊष्ण त्वचा पर अबतक पूरी तरह से पिघल चुका था। मेरी बात पर उसने सिहरते हुए अपना चेहरा दूसरी तरफ फेर लिया था - नहीं, ये लक्ष्य नहीं, सिर्फ साधन है - अपने साध्य तक पहुँचने के लिए...
मेरे लिए ये सब तुम ही हो, तुम चाहे इन्हें जिस नाम से पुकार लो। मैंने उसदिन उसके पाँव गेरू से रंग दिए थे, अपनी गोद में रखकर - ये है मेरी वाइल्ड फैंटेसी! हमेशा से चाहता था, प्रेम करने से पहले अपनी स्त्री के खूबसूरत, उजले पाँव रंग दूँ - इसी तरह... सबसे बड़ा उद्दीपन है ये मेरे लिए! न जाने क्या इंगित पाया था उसने मेरे कहे हुए शब्दों में, सुनकर उसका चेहरा आरक्त हो उठा था।
उत्तेजना के चरम पर पहुँचकर हम एकाएक रिक्त-से हो आए थे। ज्वार उतरी नदी की तरह शांत, शिथिल पड़े रहे थे देर तक। शिराओं में गुँजारते संगीत की हल्की, मद्धिम धुन सुनते हुए... मधु की अलस धार में आकंठ डूबे हुए... सर्जना का क्षण था ये। हमारे अंदर इच्छाओं की रेशम गाँठे सुलझाते हुए, चमकीला, सुंदर आँचल बुनते हुए... एक खूबसूरत पहेली को जिस्म से सुलझाकर हम उसी की मसृन डोर में अब न जाने कब से उलझे पड़े थे।
बहुत देर बाद दामिनी ने कहा था - उसी सांद्र, थकी हुई आवाज में, जैसे किसी स्वप्न में डूबी हो - पाने के किसी बहुत गहरे क्षण में ही सबकुछ खो जाने का अहसास क्यों होता है। संभोग के चरम सुख के ठीक बाद के गहरे अवसाद को तुमने महसूसा ही होगा... सबकुछ स्वादहीन और फीका लगता है - एकदम गलत, अबूझ ग्लानि से भर जाता है मन। लगता है, फिर कभी इस देह की ओर मन प्रवृत्त नहीं होगा। एक वैराग्य की-सी दशा... ऐसा क्यों होता है कि जब खुशियों के अतर से रूह सराबोर हो उठता है, पलकों में नमक का समंदर उतर आता है। एक मन मुस्कराहट के नन्हें, शरीर बुलबुलों से लबरेज हो इंद्रधनुष के हजार रंगों में फूट पड़ना चाहता है तो दूसरा मन दर्द के कगार पर टूटने-टूटने को हो आता है।
दामिनी का चेहरा गहरी सोच और अनुभूति के इस क्षण में कितना अलग-सा दिख रहा है। ठीक जैसे वह उम्र के कई वर्ष एक ही साथ लाँघ गई हो। चेहरे की रेखाएँ भी गहरी हो रही थीं, आँखों के रंग की तरह। अचानक वह मेरी तरफ मुड़ी थी और फिर एक गहरी साँस लेकर सामने की कुर्सी पर बैठ गई थी - शायद तुम भी जानते हो, सुख और परितृप्ति का क्षण ही वास्तव में गहरी पीड़ा और शोक का क्षण होता है... जीवन की कई विडंबनाओं में से यह भी एक है। जब बहुत खुशी मिलती है, रोने को मन करता है। एक बिंदु पर जाकर सुख-दुख का भेद खत्म हो जाता है। दोनों एक-से लगने लगते हैं, एक-सी प्रतीति कराते हैं...
उसका अंदाज फलसफाना हो गया था। वह अपने में खोई-सी बोली थी - कभी सोचती हूँ कि अपने लिए खुशियों का पीछा करना दरअसल दुखों का पीछा करना ही है - सोने के हिरण की तरह...। हम न जाने किस वहम में क्या जीते चले जाते हैं। बहुत दूर निकलकर पता चलता है, कहीं पहुँचे ही नहीं।।
- कभी-कभी कहीं पहुँचना नहीं, सिर्फ चलना अहम होता है... न जाने मैं उसे क्या समझाने की कोशिश कर रहा था - खासकर तब जब साथ में कोई तुम्हारी तरह हसीन शख्सियत हो... मैंने अब उसका हाथ पकड़ लिया था - तुम हमेशा साथ चलो, मैं मंजिल की ख्वाहिश कभी नहीं करूँगा, सच...
वह यकायक शरमा गई थी। मेरे शब्दों का सुख उसे कहीं से छू गया था शायद। न जाने कैसी इच्छा और स्वप्न भरी आँखों से मुझे देखती रही थी - देरतक। इन लम्हों में वक्त ठहर जाता है, अपनी गति और हलचल के साथ। रह जाते हैं हम और हमारी अनुभूतियाँ... एक-दूसरे के लिए आत्यंतिक - गहरी और निविड़!
न जाने क्यों मैं अनायास पूछता हूँ - प्यार करती हो मुझसे? वह रँग जाती है ओर-छोर - अब ये मत पूछो...
क्यों? मैं पीछा नहीं छोड़ना चाहता।
- कितनी बार तो पूछ चुके हो, और मैं बता भी चुकी हूँ।
- बता भी चुकी हो तो फिर से कहो। बार-बार कहो, तुम्हारे मुँह से सुनना अच्छा लगता है...
- मैं तुमसे प्यार करती हूँ!
- नहीं! कहो, मैं तुमसे प्यार करती हूँ अशेष!
- हाँ, मैं तुमसे प्यार करती हूँ असेष...
- एकबार फिर...
- मैं तुमसे प्यार करती हूँ अशेष!
- फिर से...
- चलो हटो... बिस्तर से तकिया उठाकर उसने मुझपर दे मारा था। प्रत्युत्तर में मैंने उसे दबोचकर चूम लिया था। वह भी छूटने के लिए छटपटाने का स्वाँग भरते हुए मुझसे और अधिक लिपट गई थी। थोड़ी देर बाद जब मैंने कहा था, छोडो, साँस घुट रही है, वह शरमाकर मुझसे अलग हो गई थी।
अपनी शर्ट का ऊपरी बटन खोलते हुए मैं ईजी चेयर पर अधलेटा-सा बैठ गया था, सिगरेट की गहरा कश खींचकर हवा में धुएँ के छल्ले बनाते हुए। वह अपने बाल जूड़े में समेटकर मेरे करीब चली आई थी। मैं जानता था, वह सिगरेट छीनने की कोशिश करेगी, इसलिए परे हट गया था। उससे दूर। वह बुरा मानकर बाथरूम में घुस गई थी और देरतक वहीं घुसी रही थी। मुझे सजा देने का यह भी उसका एक तरीका था। मुझे उसकी इस बचकानी-सी हरकत पर हँसी आती रही थी। इतनी मैच्योर है, दुनिया-जहान की बड़ी-बड़ी गंभीर बातें करती रहती है और कभी इतनी बच्ची बन जाती है। सच, कितने और कैसे-कैसे रूप हैं इसके...
बहुत देर बाद वह बाथरूम से निकली थी, बिल्कुल हल्के-फुल्के मूड में, जैसे कुछ हुआ ही न हो। जाहिर है, वह हमेशा की तरह थोड़ी देर पहले की बातें भूल चुकी थी। आते ही अपने भीगे बालों को मुझपर झटकते हुए मेरे करीब बैठ गई थी -
अशेष। मैं यह कभी नहीं भूलूँगी कि तुमने मुझे फिर से ख्वाब देखना सिखाया है। जानते हो, इनसान सही अर्थों में तभी गरीब होता है जब उसके जीवन में प्रेम नहीं होता। मैं यह प्रार्थना करती हूँ कि हमेशा प्रेम में रह सकूँ, प्रेम देने और लेने में सदैव सक्षम रहूँ। आज की दुनिया की यही सबसे बड़ी जरूरत है...
कहते हुए उसकी आँखें दो गहरी काली झील में तब्दील हो चुकी थीं। मैं उसे देखता रह गया था। कितनी अजीब बात थी, अपने इन्हीं छोटे-छोटे मासूम सपनों से वह मेरे अंदर प्रेम के पौधे रोप देती है, पत्थरों पर फूल उगा देती है। उसकी अँगुलियों में ही नहीं, शब्दों में भी जादू है। गहरे परितोष के किसी क्षण में यह सोचना बहुत अजीब लगता है कि कभी हम तृषित भी थे। एक पल की परितृप्ति युगों की प्यास भुला देती है। ये करिश्मा प्यार का ही हो सकता है।
मैंने उसके भीगे बालों में अँगुलियाँ फिराई थीं - अच्छा दामिनी, तुमने इतने सालों का ये अकेला, उदास सफर कैसे तय कर लिया?
- कर लिया...
वह खामखयाली में मुस्कराई थी, जैसे आँखों में कोई बहुत पुराना बिंब हो - कठिन था, मगर तय कर लिया। उस सफर में मेरे पास कुछ नहीं था, मगर एक सपना था... यही बहुत था - होने के लिए...
मैंने उसकी आँखें चूम ली थीं - काँच के फूल जैसी लगती हैं तुम्हारी आँखें... आज इनसे एक सपना चुराना चाहता हूँ... चुरा लूँ? ...तुम्हारी इजाजत से...
- क्या करोगे उस सपने का?
- उन स्याह रातों के लिए बचाकर रखूँगा, जब चाँद का कंगन बदली में खो जाता है, और धूप का आईना भी चटक जाता है...
- ये तुम्हें क्या हो गया! कविता कर रहे हो, वह भी इस समय... उसने शरारत से मुस्कराकर मेरा माथा छुआ था - वैसे बुखार तो नहीं है...
- देख लो, तुमने मेरा क्या हाल किया है... मैंने उसे अपनी बाँहों में लेना चाहा था, मगर वह दूर सरक गई थी - ये नहीं, कुछ बातें करो - अच्छी-अच्छी, जैसे अभी कर रहे थे...
- तुम पास होगी तब न होगी अच्छी-अच्छी बातें... वह मुस्कराकर कमरे में फैली चीजें समेटती रही थी - तो तुम्हें तरक्की मिल रही है... इतने थोड़े से दिनों में इतनी सफलता... तुम्हारे काम की तारीफ हो रही है, सबकी जुबान पर हो, कैसा लग रहा है?
- बहुत अच्छा... खासकर इसलिए कि तुम मेरे लिए प्रार्थना करती हो। सबकी जुबान पर होना और प्रार्थना में होना एक बात नहीं है। मैं क्या चाहता हूँ, जानती हो दामिनी... कि मैं हर खुली आँख की पुतली में न होकर किसी की बंद आँखों के सपनों में रहूँ - उतना ही चुपचाप जितना कि एक ख्वाब या खयाल हो सकता है... सुनते हुए दामिनी की पलकें मुँद-सी आई थीं। मैंने उनपर धीरे से अँगुलियाँ फिराई थी - कुछ इस तरह... उसने अपनी आँखें नहीं खोली थी, सोती-सी आवाज में बोली थी - अब कभी आँखें खोलने के लिए मुझसे मत कहना।,
- क्यों? मैंने कौतुक में पूछा था।
- इनमें तुम हो। अब वह मुस्करा नहीं रही थी, गंभीर हो चुकी थी।
बाहर साँझ का सूरज निस्तेज होते हुए न जाने कब बुझ गया था। इसी बीच राख होते क्षितिज पर एक अकेला तारा उग आया था - उज्जवल और उदास। कमरे के अंदर सबकुछ शनैः-शनैः साये में तब्दील हो रहा था - रात अपना घोंसला हर कोने में डालने की तैयारी कर चुकी थी।
मैंने दामिनी की ओर देखा था। वह एकदम चुप थी, न जाने क्या सोच रही थी। तरल अंधकार में उसकी उजली त्वचा पारे की तरह चमक रही थी। मैंने उसे अनायास बढ़कर छूने की कोशिश की थी, मगर वह फिसल गई थी, एक शरीर मुस्कराहट के साथ- रेशम के मसृन धागों की तरह... मैंने गहरी साँसों में उसकी गंध बटोरी थी - बहुत हल्की- भीनी-भीनी-सी... सीडी पर देवकी पंडित की उदास आवाज तैर रही थी - नहीं रहना यहाँ, ये देश वीराना लगता है...
मैंने दामिनी की ओर देखा था - वह अलस मुस्कराई थी - ये दुनिया कागज की पुड़िया, बूँद पड़े गल जाना है... न जाने उन शब्दों में क्या था, या दामिनी की पिघले सितारे-सी उन आँखों में, मेरे अंदर का कोई कोना एकदम से भीग आया था... प्रेम में होना दुख में होना है... किसी से सुना था कभी, आज उसकी वास्तविकता में जी रहा हूँ...
दामिनी ने अनायास मेरी तरफ करवट बदली थी - तुमने कभी ये अनुभव किया है अशेष, जब कोई अनचाहा व्यक्ति हमारे करीब आता है, हमें छूता है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे शरीर से कोई छिपकली चिपक गई है! कैसा वितृष्ण कर देनेवाला अनुभव होता है... उसने उबकाई लेने के-से अंदाज में कहा था - उसके इस आकस्मिक प्रसंग परिवर्तन ने मुझे चौंकाया था। न जाने एक क्षण में कहाँ से कहाँ पहुँच जाती थी - एकदम खानाबदोश थी खयालों से... वह कह रही थी बेखबर -
एक दौर था जब मुझे सेक्स से घिन आती थी। कोई छू भी लेता था तो बर्दाश्त नहीं होता था। बात के अंत में आते-आते उसने एक झुरझुरी-सी ली थी।
- कहती हो तुम्हें सेक्स से घृणा हुआ करती थी! उसकी खुली पीठ पर कोई अदृश्य कविता लिखते हुए मेरे स्वर में आश्चर्य का संसार था। इसी स्त्री ने अपनी आंतरिक इच्छाओं की ऊर्जा से मेरे पोर-पोर में एक उम्र के बाद भीषण अलाव सुलगा दिए हैं! कैसे यकीन कर लूँ मैं... वह मेरी तरफ किंचित मुड़ी थी, बस इतना कि मैं शाम की बची हुई आखिरी उजाले में उसकी हल्के-हल्के चमकती हुई कनपटी देख सकूँ - पूरी नहीं, उसका छोटा-सा हिस्सा... गहरे प्रेम में थी वह - वितृष्णा के उस बोझिल क्षण में भी - ये उसकी आँखें कह रही थी। मैं जानता था, शरीर के तंद्रिल सुख और आलस्य से वह अभी तक उबर नहीं पाई थी पूरी तरह।
- तुम्हें आश्चर्य होता है? उसके प्रश्न में कोई जिज्ञासा नहीं थी, वह अब इतना तो जानती थी मुझे।
- सेक्स से घृणा थी क्योंकि किसी से सही अर्थों में प्रेम नहीं था। प्रेम के अभाव में सेक्स पशु के स्तर पर उतर जाता है। उस हद तक जाने की संवेदनहीनता कभी जुटा नहीं पाई। पशु होकर जन्म जरूर लिया है, मगर उसी स्तर तक रह जाना नहीं चाहती थी। मनुष्य के पास विकल्प है, बस इच्छा शक्ति का समन होना चाहिए...
- दैहिकता बहुत आवश्यक है रूह की पराकाष्ठा तक पहुँचने के लिए, मैंने उसके गाल थपथपाए थे - ये हमारी देह ही है जो हमें रूह तक पहुँचाती है... मांसल से सूक्ष्म तक... इसका एकमात्र रास्ता है ये... हवा में तैरती अशरीरी सुगंध का पता जमीन पर खिला हुआ फूल ही देता है। अपने शरीर और उसकी कैफियतों को मिट्टी-पत्थर नहीं, मंदिर की तरह पवित्र मानो - इसमें ही हमारी आत्मा - परमात्मा का अंश - निवास करती है।
मेरी बात सुनते हुए वह मेरे सीने में निविड़ होकर सिमट आई थी -
ठीक! आज समझ सकती हूँ, प्रेम में न होना ही मेरी हर समस्या के उत्स में था। अब प्रेम में हूँ तो सब सही हो गया है... अनायास कितनी उजली हो आई थीं उसके चेहरे की रेखाएँ, जैसे ढेर-से हरसिंगार फूल आए हों... चहक भरी आवाज में कहती रही थी -
सेक्स में हम अपने को बाँटते हैं, शेयर करते हैं स्वयं को पूरी तरह, ईमानदारी से उसके साथ जिसे हम प्रेम करते हैं... उसके साथ एक हो जाना चाहते हैं - हर स्तर पर! यह एक शारीरिक ही नहीं, आत्मिक प्रकिया भी है - योग में लिप्त होने और अर्द्ध नारीश्वर की स्थिति में पहुँचने की...।
एक छोटी-सी चुप्पी के बाद उसने अपना चेहरा उठाकर मुझे देखा था - मैं हमेशा जानती थी, सेक्स एक खूबसूरत अनुभव है - जब यह घटता है, खासकर दो ऐसे व्यक्तियों के बीच जिनमें प्रेम हो तो देह में स्वर्ग रच देता है, समाधि और मोक्ष जैसी किसी विलक्षण स्थिति में मनुष्य को पहुँचा देता है। जानते हो, प्रेम और सेक्स के दुर्लभ जोड़ से जुड़ा हुआ दो शरीर वास्तव में धरती और स्वर्ग के बीच का एकमात्र सेतु है। इसके जरिए हम हमारे अंतिम लक्ष्य - मुक्ति - अपने निर्वाण को प्राप्त हो सकते हैं...
मैं तो मुक्त हो चुका, तुम अपनी कहो... उसके बालों में चेहरा छिपाकर मैं गहरी साँसें ले रहा था - तुम्हारी देह से ये कैसी गंध आती है मृगया... मुझे गश आने लगता है, बैठे-बैठे सो जाता हूँ... वह हँसकर उठ गई थी - कबतक भटकोगे इस मृग-मरीचिका के पीछे प्राणी...
- क्यों, मृग मरीचिका क्यों, अभी तो तुम कह रही थी, देह मुक्ति का पहला सोपान है... मैं तो अपनी मोक्ष की तलाश में निकलता हूँ तुम्हारे इस देह के वन-उपवन में। 'तुम्हारी देहलता के ये बड़े-बड़े गुलाब...' मैंने उसकी बाँहें सहलाई थीं - पसीने से भीगी हुई, मांसल और सुडौल...
- बहुत हुआ... सिहरकर अपनी खुली पीठ पर उसने ताँत की साड़ी का पीला आँचल खींच लिया था।
- ये अच्छा है...
- क्या?
- बिना ब्लाउज की साड़ी... पता है, मैंने देखा है, बंगाल के कई गाँवों में स्त्रियाँ साड़ी के साथ ब्लाउज नहीं पहनतीं, एकदम युवा स्त्री भी! बहुत आकर्षक लगता है - उनका हिलते-डुलते हुए चलना... कई बार खेतों से धान का गट्ठर सर पर उठाकर चलते हुए औरतों के पीछे-पीछे मैं मीलों चलता जाता था उनकी दुलकी चाल के साथ कदम मिलाने की कोशिश करते हुए...
- बचपन से बुरे हो...
- कौन कहता है बचपन से, मैं तो पैदायशी बुरा हूँ...
- जानती हूँ, और अपनी तारीफ करने की जरूरत नहीं। उसने मेरी पीठ पर धौल जमाई थी -
याद रखो, हम अपनी सकारात्मक ऊर्जा को जितना प्रेम में परिवर्तित कर पाएँगे उतना ही सेक्स की आवश्यकता कम होती जाएगी।
किसी साध्वी की तरह अब वह बोल रही थी, मगर मैं अपनी स्मृति में मगन था - क्या कुछ नहीं करता था मैं उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए।
- क्यों, तुम क्यों? तुम तो पुरुष हो... वह बाहर जाते-जाते थम गई थी।
- इसलिए तो, पुरुष को ही अपनी स्त्री का प्रेम प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के स्वाँग भरने पड़ते हैं। अपने चारों तरफ देख लो - वसंत ऋतु में कोयल की कूक अपनी मादा को प्रणय का निंमत्रण देने के लिए ही होती है, मोर भी सावन में अपने पंख फैलाकर मोरनी को रिझाने के लिए ही नाचता है। अपनी मादा को लुभाने के लिए नर को सुंदर भी होना पड़ता है, पशुओं में देख लो, मादा की अपेक्षा नर ही ज्यादा सुंदर होते हैं...
- अच्छा, और स्त्री को क्या करना पड़ता है?
- कुछ नहीं, उनका स्त्री होना ही काफी होता है।
- अच्छा...!
- और एक बात...
- क्या?
- हीरा भी अपनी चमक के लिए रोशनी का मोहताज होता है।
- अर्थात...?
- अर्थात तुम्हें - एक स्त्री को - खूबसूरत और मुकम्मल होने के लिए हमारे प्रेम और परस की दरकार है।
- देह की सुंदरता का क्या है - आज मोतिया आब तो कल झड़ता हुआ अबरक... ये अंदर की खूबसूरती होती है जो बाहर तक झलकती है।
दामिनी का चेहरा अपनी सादगी में किसी जोगन का-सा दिखने लगा था।
- हाँ, मगर ये दिखता देह पर ही, किसी शून्य पर नहीं... देह की जमीन पर ही प्यार का ताजमहल खड़ा होता है...
- तुम फिर कविता करने लगे, तुम्हारी बातें किसी कविता का भावानुवाद लगती हैं... दामिनी की आँखों की शरारत उसके होंठों पर मचल आई थी।
- 'जो अनुवाद में खो गया वह कविता ही तो थी...'
- आज आपसे बहुत कुछ सीख रही हूँ मास्टरजी!
- हाँ? कुछ और सीखना चाहोगी?
- क्या? उसने मुझे भौंहें टेढी करके देखा था।
- शक मत करो, जबतक विश्वास नहीं करोगी, ज्ञान अर्जित नहीं कर पाओगी...
- मालूम है... वह कमरे से बाहर निकल गई थी।
मैं हँसते हुए अपनी शर्ट पहनने लगा था। दामिनी को गुस्सा दिलाने में मुझे मजा आता था। गुस्सा होने से उसकी छोटी-सी नाक कैसे लाल पड़ जाती थी!
इस घटना के दूसरे ही दिन मुझे अपने घर जाना पड़ा था। बड़ी बेटी विनीता बीमार पड़ गई थी। डॉक्टर ने टायफायड बतलाया था। जाना पड़ेगा सुनकर दामिनी उदास तो हुई थी, मगर रोका नहीं था। कहा था, एकदम उदास होकर, पहुँचते ही उसे खबर करूँ।
अपने घर पहुँचकर महसूस हुआ था, कहीं और चला आया हूँ, एक अतिथि की तरह। बिल्कुल मन नहीं लग रहा था शुरू-शुरू में। सबसे उखड़ा-उखड़ा फिर रहा था। हालाँकि मैं पूरी कोशिश कर रहा था। दमिनी के फोन बार-बार आ जाते थे। उससे बातें करने के लिए मुझे उठकर बाहर जाना पड़ता। ये सब उमा ने नोटिस किया होगा - मेरा धीमे स्वर में बोलना आदि। कई बार उसने सहज होकर पूछा भी था, किसके फोन बार-बार आते हैं। मैंने टाल दिया था, मगर जानता था, उसे संदेह हो गया है।
सप्ताह भर बाद बेटी की तबीयत सँभल गई तो मैं गोवा लौट आया। उमा ने रोकना चाहा, मगर मैं रुक नहीं सकता था। इधर दामिनी भी परेशान हो रही थी। रोज पूछती थी, मैं कब लौट रहा हूँ। लौटकर स्टेशन से सीधे उसके कॉटेज पहुँचा था। उस समय वह कॉटेज के पीछे नारियल के पत्तों से बने मड़ैया की छाँव में एक ईजी चेयर पर अधलेटी-सी सोई पड़ी थी। सीने पर एक किताब खुली रखी थी। शायद पढ़ते हुए ही आँख लग गई होगी। मैंने उसे जगाया नहीं था। वही बगल में बैठा उसे निहारता रहा था। न जाने कबतक। मड़ैया से छनकर आती हुई धूप की नन्हीं, चंचल तितलियाँ उसके माथे, कंधे पर चमक रही थी। नाक की हल्की लाल नोंक पर पसीने की बूँदें जम आईं थीं।
आँख खुलने पर उसकी नजर मुझपर पड़ी तो वह एकदम से चौंक गई। एक बच्ची की तरह खुश हो गई थी वह। हँसी होंठों, आँखों से बह रही थी जैसे। अपनी कुर्सी से उठकर मेरी गोद में बैठ गई थी, गले में बाँहें लिपटाते हुए - तुम आ गए... अभी तुम्हारा ही सपना देख रही थी।
अच्छा, क्या देख रही थी? मैंने उसे सीने में समेट लिया था, खूब भींचकर... कितनी नर्म थी वो, कपास के फूल की तरह!
देख रही थी कि तुम नहीं आ रहे हो, बहुत रोना आ रहा था मुझे... कहते हुए वास्तव में उसकी आवाज छलछला आई थी। मैंने उसे उठाकर खड़ी कर दिया था - चलो, अंदर चलते हैं...
उसदिन उसका कमरा बुरी तरह बिखरा हुआ था। कई बक्से इधर-उधर खुले पड़े थे, उनके अंदर का सामान फर्श पर... न जाने क्या-क्या - रंगीन फीते, टूटी हुई चूड़ियों के टुकड़े, हाथ-पैर मुड़े हुए गुड्डे-गुड़िए, पुराने, बदरंग कार्ड्स... मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा था यह सब देखकर। वह सफाई देती हुई-सी बोली थी - तुम नहीं थे, जी बहुत घबरा रहा था अकेले में, इसलिए... अब मैंने गौर किया था, उसकी आँखों में टँकी गीली उदासी और खोयापन, जैसे रोती रही हो दिनों तक, सोई न हो ठीक से... मेरे पीछे क्या हुआ, क्या कुछ करती रही वह! मैंने हालात के सूत्र पकड़ने चाहे थे, इसी कोशिश में टटोला था उसे -
क्यों, क्या तुम झोंपड़पट्टी के बच्चों को भी पढ़ाने नहीं गई इन दिनों? तुम्हारा समय वहाँ अच्छा बीत जाता है, तुम्हीं कहती हो... नारी निकेतन के काम का भी क्या हुआ? और ये सब हैं क्या! एक फटी हुई चुनरी उठाकर मैंने दोनों हाथों से पकड़कर खींचा था, जीर्ण कपड़े का टुकड़ा झट् से फट गया था।
ये क्या कर दिया तुमने... ये मेरी मीता की एकमात्र निशानी थी। अब वह इस दुनिया में नहीं... दामिनी अचानक फूट-फूटकर रो पड़ी थी - तुमने मुझसे मेरा बचपन ही छीन लिया अशेष...
आई एम एक्सट्रीमली सॉरी दामिनी... मैं उसके इस अप्रत्याशित व्यवहार से सकपका उठा था। समझ नहीं पा रहा था क्या करूँ या कहूँ। वह अपना मुँह ढाँपे रोती रही थी, देरतक। मुझे पहली बार उसकी यह बचकानी हरकत नागवार लगी थी। आखिर हर बात की एक सीमा होती है! थोड़ी देर बाद मैंने हाथ बढ़ाकर उसे छूना चाहा तो वह एकदम से बिदक गई - आज तुम चले जाओ अशेष, मुझे अकेली छोड़ दो... मैं वहाँ से चला आया था, बहुत खिन्न होकर। कितनी उम्मीद थी उससे मिलने की। रास्ते भर उसी के विषय में सोचते हुए आया था। मेरा मूड सच में बहुत बिगड़ गया था।
कमरे में पहुँचा तो मिसेज लोबो अपने यहाँ बुलाकर ले गई। उसकी बहन की बेटी मुंबई से आई हुई थी। उसी से मिलाने। रेचल नाम था उसका। हॉट पैंट में बैठी बीयर की चुस्कियाँ ले रही थी। मुझसे परिचय हुआ तो उठकर बड़ी गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया। देखने में आकर्षक, सुंदर नहीं। तीस-पैतीस की उम्र - लंबी, छरहरी, साँवली, गठी हुई टाँगें - आकर्षक पिंडलियाँ... उसने मुझे उसकी खुली हुई टाँगों की तरफ घूरते हुए देख लिया था। हल्के से मुस्कराई थी, प्रश्रय के अंदाज में - चलो अच्छा हुआ, कंपनी मिल गई। अकेली बैठी-बैठी बोर हो रही थी। बीयर...? मेरे हाँ या न कहने से पहले ही उसने गिलास भर दिया था। थोड़ा झिझकते हुए मैंने गिलास पकड़ लिया था - दरअसल इस समय मुझे चाय पीने की आदत है...
कोई बात नहीं, आज बीयर ही सही - फॉर ए चेंज... वह अंग्रेजी में ही बातें कर रही थी, अपने विशिष्ठ गोवानीज अंदाज में - कितनी गर्मी पड़ रही है... थोड़ी ही देर में वह ऐेसे घुलमिल गई थी जैसे हमारा वर्षों का परिचय हो। बाद में पता चला था, वह मुंबई के किसी कॉल सेंटर में काम करती है। एक दस साल की बेटी थी जो पंचगनी में होस्टल में रहकर पढ़ रही थी। उसका डिर्वोस हो चुका था। हर साल गर्मी के मौसम में वह गोवा अपने रिश्तेदारों के यहाँ घूमने जरूर आती थी। उसदिन हम देर रात गए तक बॉल्कनी में बैठे बातें करते रहे थे। फिर साथ मिलकर रात का खाना खाया था। मिसेज लोबो ने चिकन कार्नीयल बनाया था - साथ में पाव और साना-चावल की मीठी, नमकीन रोटियाँ, सिरके से फुगाई हुईं।