औरत जो नदी है... / भाग 6 / जयश्री रॉय

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अपने कमरे में लौटकर देखा था, मोबाइल में दामिनी के तीस मिस्ड कॉल थे। न जाने मैंने कैसे सुना नहीं था। कमरे में सीडी प्लेयर लगा हुआ था, शायद इसीलिए सुन नहीं पाया था। रेचल के साथ समय का पता ही नहीं चला था। वह बेहद प्रांजल और खुले हुए स्वभाव की स्त्री थी... उस रात बिस्तर में लेटकर सोने का प्रयास करते हुए मुझे उसकी लंबी, खूबसूरत टाँगों का खयाल अनायास आ गया था। उसके बाद मैं देरतक सो नहीं पाया था। दामिनी के खूबसूरत चेहरे के साथ वे लंबी टाँगें रातभर मेरे आसपास चहलकदमी करती रही थीं।

सुबह उठा तो चेहरे पर तेज धूप चमक रही थी। रेचल खिड़की के पर्दे सरकाते हुए मुस्करा रही थी - वेकी-वेकी... सुबह हो गई है मिस्टर अशेष... मैं खुले बदन सो रहा था, उसे इस बेतकल्लुफी से अपने कमरे में खड़ी देखकर संकोच में पड़ गया था। मेरी हालत समझकर उसने शरारत से मुस्कराते हुए मेरी चादर खींच ली थी - अब लड़की लोग का माफिक शरमाने का नहीं मैन, बाथरूम जाकर फ्रेश हो जाओ, हमको ओल्ड गोवा जाने का है...

लेकिन... मैं कहते-कहते रुक गया था। आज शनिवार है, मुझे दामिनी के वहाँ जाना है। ऐसा ही नियम हो चला है। दामिनी लंच आज अपने हाथों से बनाएगी।

लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, तुमको चलनाइच माँगता है, बस... मेरे हाथ में तौलिया पकड़ाकर वह बल खाती हुई कमरे से निकल गई थी - ओनली टेन मिनट्स... एक ही दिन के परिचय में कितनी खुल गई थी वह! न चाहते हुए भी मुझे उसके साथ जाना पड़ा था।

उसदिन दक्षिण गोवा में कई चर्च देखे थे। शायद रेचल ने कोई मन्नत माँग रखी थी। आज उसे पूरा करने का दिन था। लाल ईंटों और सफेद रंग में लिपे-पुते चर्चों की विशाल इमारतें - अंदर के हॉल, मुख्य प्रार्थना गृह में कतारबद्ध बेंचें, सलीब में बिंधे हुए यीसू की प्रतिमा, नन्हे यीसू को गोद में लिए मरियम... पूरे वातावरण में एक अजीब किस्म की शांति और निःस्तब्धता थी।

रेचल के साथ बाहर बिकती लंबी मोमबत्तियाँ खरीदकर हमने अंदर जलाई थीं। एक बड़े-से काले स्टैंड पर जली हुई मोमबत्तियों की ढेर लगी थी। यहाँ आनेवाले अधिकतर सैलानी मोम बत्ती जलाते हैं। इसे शुभ माना जाता है। बेंच पर बैठकर मैं रेचल को देखता रहा था। आँखें मूँदें प्रार्थना करते हुए वह कोई और ही प्रतीत हो रही थी। सफेद कपड़ों में किसी ईसाई नन की तरह। चेहरे पर पवित्रता व्याप्त रही थी। न जाने कितनी देरतक वह एक मन से प्रार्थना करती रही थी। कुछ देर बाद मैंने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं। वहाँ के पूरे वातावरण में छाई शांति जैसे मेरे अंदर भी घनीभूत होकर छाने लगी थी। जब हम वहाँ से बाहर निकले तो मैं स्वयं को बहुत शांत महसूस कर रहा था।

बाहर आते ही रेचल अपने पुराने स्वरूप में लौट आई थी - शोख और चंचल। एक पुर्तगाली ढंग से सजे रेस्तराँ में हम दोपहर के खाने के लिए बैठे थे। आज गर्मी कुछ ज्यादा ही थी। रेस्तराँ के वातानुकूलित कमरे में बैठकर राहत मिली थी। डायनिंग रूम में अपेक्षाकृत अँधेरा था। रेचल ने चुनकर एक कोने की मेज ली थी। उसके सामीप्य को महसूस करते हुए मैं रेस्तराँ की सजावट को देखता रहा रहा था। किसी जहाज का-सा माहौल वहाँ रचा गया था। रिशेप्शन के चारों ओर टायर लटके हुए थे। वेटर भी किसी जहाज के कर्मचारी की तरह वर्दी पहने हुए थे। एक ने तो समुद्री डाकू की तरह बाकायदा अपनी एक आँख में पट्टी भी बाँध रखी थी मुझे यह सब बहुत रोचक लग रहा था।

मगर रेचल का ध्यान मुझपर ही लगा हुआ था। मुझसे बहुत सटकर बैठी थी वह। उसकी देह से किसी सेंट की बहुत तीखी गंध उठ रही थी। कई बार बस में सफर करते हुए मुझे ऐसे ही सेंट की गंध मिला करती थी। मुझे लगा था दुबई से लौटनेवाले बहुत से लोग इसी ब्रांड का सेंट इस्तेमाल किया करते हैं। पसीने के साथ मिलकर इसकी गंध अजीब हो उठती है। कई बार मुझे मतली-सी आने लगती थी।

क्या सोच रहे हो मैन? वेटर ने हमारे सामने दो गिलासों में बीयर उँड़ेली तो उसने उसे भुना हुआ काजू लाने के लिए कहा। बीयर का गिलास बाहर से पानी की नन्हीं बूँदों से भरा हुआ था। अंदर हल्के पीले द्रव्य में लगातार बुलबुले उठ रहे थे। दरवाजे से दिखती उस पार की रोशनी गिलास के पेय में से गुजरकर सुनहरी किरणों की तरह विच्छरित हो रही थी।

मुझे यह सबकुछ बहुत भला लग रहा था - पूरा वातावरण - खुला हुआ, सहज, इतनी आजादी... कोई कुंठा नहीं, किसी के देखने का डर नहीं! जीवन में पहली बार मैं स्वयं को इतना उन्मुक्त महसूस कर रहा था। मैंने एक गहरी साँस ली थी। अपना शहर, उसका संकुचित माहौल बरबस याद आया था। कैसा जीवन था वहाँ - हमेशा डरे हुए, सहमे हुए। अपनी पत्नी को साथ लेकर निकलते हुए भी संकोच होता था। हर तरफ घूरती निगाहें, फब्तियाँ और फुसफुसाहट... कितने सारे बंधन, वर्जनाएँ... अपना ही जीवन हमेशा दूसरों की मर्जी से जीने की विवशता! अब यहाँ बैठकर सोच रहा हूँ तो बहुत कोफ्त हो रही है। क्यों इनसान अपनी जिंदगी इतना कठिन, इतना दुरूह बना लेता है! स्वयं को हर तरह से मार देना ही मानो जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो। क्या मिल जाता है ऐसे घुट-घुटकर जीने में...

तुम फिर सोचने लगे ऐश! यह मेरा नया नाम रेचल ने रखा था।

इतना मत सोचो, सोचने से आदमी फिलासफर बन सकता है, मगर हैप्पी नहीं... वह धीरे-धीरे मेरी बाईं जाँघ को सहला रही थी। उसकी छुअन में न जाने क्या था, मेरा पूरा शरीर झनझनाने लगा था।

अपने डिवोर्स के बाद हमने रियलाइज किया ऐश, लाइफ बहुत शार्ट है - आइसक्रीम का माफिक, एनजॉय इट, बिफोर इट मेल्ट्स... अपना गहरा जीवन दर्शन मुझे बताकर अब वह काफी अच्छे मूड में प्रतीत हो रही थी। बीयर के दो बड़े गिलास खत्म करके उसकी आँखों में लाल डोरे उग आए थे। फ्राइड राइस के साथ चिकन चिली का दूसरा प्लेट समाप्त करते हुए तल्लीनता सेबोले जा रही थी -

दुखी होकर अकेले-अकेले जीने में कोई फन नहीं है मैन! यू शुड लिव लाइफ - ईच मोमेंट ऑफ इट... फिर अचानक खाना रोककर मेरी तरफ गंभीर होकर देखा था - आज आंटी अपने गाँव के फिस्ट में जा रही हैं, रात को घर पर नहीं होंगी... उसने अपनी बात बीच में ही अधूरी छोड़ दी थी। सुनकर बीयर की घूँट लेते हुए मुझे जोर की खाँसी आ गई थी। उसदिन वापस लौटते हुए टैक्सी में रेचल ने एकपल के लिए भी मेरा हाथ नहीं छोड़ा था। उन्हें अपने दोनों हाथों में लेकर धीरे-धीरे सहलाती रही थी। इस बीच कई बार दामिनी का फोन आया था, मगर मैं उठा नहीं पाया था। रेचल छेड़ती रही थी - गर्लफ्रेंड? वाइफ तो इतना फोन नहीं करती... अपने कमरे में पहुँचा तो दरवाजे के पास एक लिफाफा पड़ा था। अंदर एक छोटी-सी पंक्ति - 'आज एकबार जरूर आकर जाना... दामिनी।' बिना कपड़े बदले मैं बिस्तर पर ढह गया था। अजीब-सी मनःस्थिति हो रही थी मेरी। मैं यहाँ रुकना नहीं चाह रहा था, मगर दामिनी के पास जाना भी नहीं चाहता था। न जाने कितनी देर तक उसी हालत में पड़ा रह गया था मैं। देर शाम जब तैयार होकर दामिनी के कॉटेज की तरफ चला था, मेरे सर में दर्द हो रहा था। दिनभर की दौड़-धूप, गर्मी और अंदर का ऊहापोह...

जब मैं दामिनी के यहाँ पहुँचा था, दामिनी अपनी बॉल्कनी के पौधों को पानी दे रही थी। मुझे देखकर पानी का झाँझर नीचे रखकर मेरे पास कुर्सी पर आ बैठी थी, किसी अपरिचित की तरह। वैसा ही औपचारिक लहजा - कैसे हो? एक संक्षिप्त-से सवाल के बाद देरतक चुप रह गई थी, जैसे किसी अनिश्चय की स्थिति में हो, भाषा तलाश रही हो या विषय - वार्तालाप शुरू करने के लिए। मैंने उसे नजर बचाकर देखा था - मुसी हुई हल्की नीली ताँत की साड़ी, जूड़े में लापरवाही से लपेटे हुए रूखे बाल... कुल मिलाकर न नहाया, सँवरा चेहरा! ये वही दामिनी थी क्या - हमेशा सजी-सँवरी, सलीकेदार... अंदर तकलीफ-सी हुई थी। उसे यूँ उदास और मलिन देखना... बात मैंने ही शुरू की थी - अब गर्मी बहुत बढ़ती जा रही है। कितनी उमस होती है, पसीने में नहा जाता हूँ...

मेरी बातें वह अनमनी-सी सुनती रही थी, जैसे समझने का प्रयत्न कर रही हो, मैं क्या, किस संदर्भ में बात कर रहा हूँ, और फिर अचानक मुझे बीच में काटकर बोलने लगी थी, बिना किसी भूमिका के - अशेष, तुम्हें मेरा उस दिन का व्यवहार बुरा लगा, जानती हूँ, मगर यदि तुम मुझे, मेरी परिस्थितियों को समझते तो मुझे भी बेहतर समझ सकते... एक पल के लिए वह रुकी थी, जैसे अंदर ही अंदर बोलने के लिए शब्द ढूँढ़ रही हो, फिर बोली थी, कुछ संकोच से ही -

'मेरा अतीत, बचपन... कुछ सही नहीं था वहाँ... मेरी माँ, उनका जीवन - एकाकी, परित्यक्त... पिता का व्यवहार...' उसके अंतस की उथल-पुथल उसके चेहरे पर थी, असंबद्ध-से शब्द - पतंग की तरह उड़ते हुए... उन्हें पकड़ने, सहेजने और एक क्रम देने का उसका प्रयत्न... बिल्कुल खोई हुई, गुम गई-सी प्रतीत हो रही थी वह।

मैं चुप ही रहा था। विघ्न डालकर उसके विचारों के तारतम्य को तोड़ना नहीं चाहता था। पहले से ही वह परेशान थी, अपनी सोच को शब्द देने के प्रयत्न में।

'अशेष, जानते हो, शादी के दूसरे दिन से ही पापा का माँ के प्रति व्यवहार बदल गया था। वे एकदम से अजनबी बन गए थे। जैसे माँ को वे पहचानते तक न हो। इतनी - इतनी दूर चले गए थे वे माँ से - हर स्तर पर...

माँ बिल्कुल अवाक रह गई थी। पापा का व्यवहार उनकी समझ से परे था। कोई क्यों किसी का विश्वास इतनी मेहनत से जीतकर उसे इस तरह से तोड़ देता है! शायद उन्हें जीतना पापा के लिए कोई चुनौती रही होगी। मोतिया आब-से टलमल रंग और गहरी कत्थई आँखों वाली माँ अपनी खूबसूरती और खानदान - दोनों के लिए मशहूर थीं। कहकर वह एक पल के लिए रुकी थी, मैं चुपचाप सुनता रहा था। इस बीच उषा मेज पर चाय के दो कप रख गई थी। चाय की एक छोटी-सी चुस्की लेकर उसने आगे कहा था, जैसे स्वयं से संबोधित हो -

उन्हें जीतकर पापा कुछ दिनों तक उन्हें किसी ट्रॉफी या मेडल की तरह सबको दिखाते फिरे थे और फिर अपने घर में सजाकर भूल गए थे। उनकी दिलचस्पी माँ में बस इतनी ही रही होगी।

उनके लिए ये सब महज एक खेल था, मगर माँ की तो जिंदगी ठहरी। जिंदगी - एक लम्हा, एक क्षण नहीं - पूरी जिंदगी... जानते हो, कितनी लंबी होती हैं ये? उसपर माँ की जैसी जिंदगी... छोडो, हम भी क्या हिसाब ले बैठे, इससे आसान तो चाँद-तारे गिन लेना होता है... वह यकायक बहुत थक आई थी, मुझे लगा था अब सामने बिछी आराम कुर्सी पर ढह जाएगी, मगर उसके अंदर का सफर अभी खत्म नहीं हुआ था शायद, वह अनमन बोलती रही थी, जैसे चल रही हो धीरे-धीरे - अपने अतीत की ओर -

आश्चर्य, आघात और अंततः स्वप्न भंग का एक लंबा दौर... जिसके एक बहुत बड़े हिस्से की गवाह मैं भी रही हूँ। एकबार माँ से पूछा था, इतना क्यों सह गई, चली जाती... कितनी पढ़ी-लिखी थी वो, विशेष योग्यता प्रमाण पत्रों और किताबों से भरी हुई थीं उनकी अलमारियाँ। जवाब में उन्होंने बस इतना ही कहा था - तुझे खोना नहीं चाहती थी... सुनकर मुझे बहुत रोना आया था। उसदिन पहली बार खयाल आया था कि काश मैं पैदा ही नहीं हुई होती, माँ के पैरों की जंजीर हो गई... उनके अंतिम क्षणों में मैंने पूछा था- तुम्हारे साथ ऐसा क्यों हुआ माँ? उनका जबाव था - मैंने यकीन किया था, मेरा यही होना था...

बातें करते हुए वह यकायक चुप हो गई थी, अपनी थकावट में डूबी-सी खड़ी रही थी, कई पल बीते थे - रुकी हुई साँस की तरह असहज और घुटन भरा। मेरी तरफ पीठ फेरकर खिड़की के बाहर देखती रही थी, न जाने क्या सोचती हुई। पिछवाड़े का गुड़हल लाल, चटक फूलों से लद गया था। उसकी सघन डालियों से किसी चिड़िया की चिक्-चिक् अनवरत सुनाई पड़ रही थी। सहजन के नर्म पत्तों पर साँझ की अलस पड़ती धूप थी। हवा में उड़ते उसके बालों को देखते हुए मैं जानता था, वह फिर कहीं भटक गई है।

उसके साथ रहते हुए मुझे ये अकेलापन ज्यादा सालता था। मैं उसके साथ होता था, मगर वह नहीं। न जाने उसकी वह कौन-सी दुनिया थी जिसमें मेरा प्रवेश निषिद्ध था। मैं चाहता था, वह मुझे अपने साथ ले, अपना हिस्सा बनाए, फिर वह हिस्सा कैसा भी हो। उसके साथ मैंने उसकी देह के सुख बाँटे थे, मन के दुख सिर्फ उसके अपने थे। इस मामले में मैंने उसका कार्पण्य देखा था, कि ये मेरी अपनी निस्पृहता थी? कौन जाने...

मेरी सोच में दरार डालते हुए वह यकायक मुड़ी थी - अपनी आँखों का वही जाना-पहचाना सूनापन लिए - माँ के जीवन के अनजाने पहलुओं से मैं उनकी डायरी के जरिए ही परिचित हुई थी। तुम्हें कहा भी था शायद कभी... इसके बाद मैं एक लंबे अर्से तक माँ की डायरी पढ़ने की हिम्मत जुटा नहीं पाई थी। और फिर एक लंबा दौर चला था कशमकश और उलझन का। जब कभी हिम्मत जुटा पाई, माँ की डायरी लेकर बैठ जाती थी। यातना और आत्मीयता का वह एक अजीब सिलसिला था। उन पन्नों में माँ का सान्निध्य था तो उनकी अंतहीन पीड़ा भी। माँ की एक लंबी मौत का सिलसिलेवार ब्यौरा दर्ज था जैसे उन पन्नों में। वे कविता करतीं थीं। एक जगह लिखा था -

सपनों के झूले से उतरकर,

एक उजली खुशी,

उदासियों की साँवली भीड़ में

चुपचाप खो गई,

उसने यकीन किया था,

उसका यही होना था...

कई बार पढ़ते हुए अपने ही अनजाने मैंने अपने आँसुओं से उस डायरी के पन्ने भिगो दिए थे। वैसे वास्तव में देखा जाय तो वे आखिर थे भी क्या, उनकी यातना और उच्छ्वासों का शब्दों में अनुवाद ही... न जाने उनकी आँखों और सोचों की कितनी नमी समेटे वे पन्ने सालों पसीजते रहे थे उस एकाकी भरी दुनिया में।

दामिनी की आँखों में अब मेघिल आकाश था, मार्च की चंचल धूप न जाने कब उतर गई थी। फीके चेहरे में गुजरे हुए पतझड़ की अनगिन यादें समेटे वह रुक-रुककर कहती रही थी - उस डायरी को खोलते ही जैसे मैं माँ की आहों और आँसुओं की एक सिसकती हुई दुनिया में खो जाती थी। एक जिंदा कब्र थी वह डायरी। उसमें जैसे उसाँसें लेती हुई माँ कैद थीं। कहते हुए वह पलभर के लिए सिहरती हुई-सी ठिठक गई थी। उसके चेहरे पर एक सर्द आतंक था, जैसे वह अपने कहे शब्दों के यथार्थ को उसकी पूरी भयावहता के साथ जी रही हो। मैंने उसकी हथेलियों में अपने हाथों का आश्वासन रोपना चाहा था, ऊष्मा पिरोनी चाही थी - सहलाते हुए, मगर वह अन्यमनस्क-सी दूर छिटक गई थी - माँ जिस तकलीफ में मर गई थी, उसी तकलीफ में जीने के लिए मैं अभिशप्त थी... उत्तराधिकार में मुझे यही मिला था - एक लंबी, बीमार उम्र की एक-एक यातना और अवसाद का एकमुश्त पावना...

ऊसर जमीन पर बिना खाद, पानी का अखुँआया बीज थी - बहुत सख्त जान - जी गई... धूप और धूल से ऊर्जा समेटने की आदत जो पड़ गई थी। जिन पौधों को मालूम होता है, मौसम उनपर कभी मेहरबान नहीं होगा, वे भूखे-प्यासे बड़े हो जाते है। जिंदगी जीना सिखा ही देती है।

मैंने आगे बढ़कर उसे अपनी गोद में समेट लिया था। बिना कुछ कहे वह एक बीमार दरख्त की तरह ढह गई थी। मैं जानता था, इस समय उसे शब्दों की नहीं, संवेदना की आवश्यकता है। बिना कुछ कहे अपनी मूक उँगलियों से मैंने उसे छुआ था। एक पल के लिए वह सिहर गई थी, और फिर सघन होकर मुझसे लिपट गई थी।

न जाने कितनी देर बाद मैं वहाँ से चला था... उस समय वह सो रही थी शायद, बीच-बीच में सिसकी लेती हुई... कितना असहाय और मासूम लग रहा था उसका चेहरा उस समय! जैसे कोई अनाथ बच्ची - अकेली और डरी हुई... चलने से पहले उसे चादर ओढ़ाते हुए मैंने उसके लिए नींद, सुकून और सपनों की प्रार्थना की थी। उसे इन्हीं चीजों की जरूरत सबसे ज्यादा थी। एकबार उसने कहा भी था, अशेष, मुझे लगता है कि जैसे मैं नींद में भी जगी हुई हूँ। टूटते हुए तारे को देखकर कितनी बार विश की है कि मुझे एक पूरी रात की नींद मिल जाय... उसकी थकी हुई आँखों में मैंने अक्सर वर्षों की जगार देखी थी।

न जाने उसकी जिंदगी में ठहरी हुई यह दुःस्वप्न जैसी रात कब गुजरेगी। उसे उसके हिस्से की धूप और उजाला कब मिलेगा... वहाँ से चलते हुए मेरे अंदर कुछ अवसन्न-सा घिर आया था। अपनी दौड़-धूप भरी जिंदगी के तनावों से दो पल छूटने की उम्मीद में उसके पास आता हूँ, मगर कई बार और अधिक तनाव और बोझिलता लिए यहाँ से लौटता हूँ। कभी-कभी खीज होती है। उसका अतीत हमारे वर्तमान को छाए रहता है। कई बार इन सबसे छूट जाने की छटपटाहट अंदर पैदा होती है, जी चाहता है, सब काटकर अपने से अलग कर दूँ और चल पड़ूँ, मगर हो नहीं पाता। एक दुर्वार आकर्षण मुझे बाँधे रखता है, निशि की तरह हाथ के इशारे से पास बुलाता है। मैं उससे दूर जाने की कोशिश में उसके और-और पास चला आता हूँ। दामिनी की देह का चुंबक मुझे उससे अलग होने नहीं देता।

अपनी इच्छाओं के क्षणों में वह खालिस जादू होती है, सर से पाँव तक। मैं उसमें डूबता-उतराता अपने सारे मलाल भूल जाता हूँ। उन विलक्षण क्षणों का इकलौता सच दामिनी और सिर्फ दामिनी ही होती है। छोटी-मोटी हताशाओं और शिकायतों का सारा खामियाजा वह उन थोड़े-से पलों में ही शानदार तरीके से भर देती है। उसकी बिल्लौरी देह और मेरी हवस के सिवा उन पलों में मुझे और कुछ याद नहीं रह जाता है।

आज दामिनी बेहद थकी हुई है, मुझे अपने कमरे में लौट जाना होगा। सोचते हुए मैं उसके कॉटेज से बाहर निकला था। उस समय तक रात काफी गहरी होने लगी थी। रास्ता लगभग सुनसान पड़ा था। मैंने ऊपर आसमान की तरफ देखा था। न जाने किस उम्मीद में - गहरे स्लेटी आसमान पर हल्के-फुल्के बादलों के फाहे, आवारा डोलते हुए... शायद बारिश हो जाय...

काश आज दामिनी मुझे अपने पास रोक लेती... मेरी आँखों के कोने जल उठे थे। आगे के मोड़ से कोई ऑटो पकड़ लूँगा... सोचते हुए मेरा ध्यान मोबाइल के वीप पर गया था। रेचल का संदेश था - कितनी देर कर रहे हो, आई एम वेटिंग फॉर यू... पढ़ते हुए मेरी नसों में कुछ सुलग-सा उठा था। अपने अनजाने ही मैंने जल्दी से आगे बढ़कर एक पास से गुजरते हुए ऑटों को हाथ दिखाकर रोक लिया था। दामिनी के साथ ही मेरी सारी वर्जनाएँ टूट गई थीं। अब इस दिशाहीन, बंधनहीन नदी को बस बहना ही है, अपने आकूल वन्या में कूल-किनारा डूबोते हुए, सबकुछ निःशेष करते हुए... इसकी तेज धारा में किसका क्या बह गया, डूब गया इसकी परवाह किए बगैर... उस क्षण मैं स्वयं को बहुत बेबस महसूस कर रहा था - अपने ही हाथों, शायद यही सबसे बड़ी विडंबना थी!

दूसरे दिन सुबह उठा तो सर बहुत भारी लग रहा था। कमरे की सारी खिड़कियों पर पर्दे ओर-छोर खींचे हुए थे, इसलिए अंदर हल्का अँधेरा-सा छाया हुआ था। बगल की मेज पर रखी घड़ी में दस बज रहे थे। एकबारगी मैं हड़बड़ा गया था, फिर खयाल आया था, आज संडे है।

अपने बाथरूम स्लीपर्स में पैर डालते हुए मेरी नजर सिरहाने की तरफ गई थी। वहाँ रेचल का क्रास लगा चेन और हेअर क्लिप्स पड़े थे। एक क्षण के लिए मेरे अंदर कुछ अजीब-सा घटा था, एक सनाका-सा और फिर दूसरे ही क्षण मैं उठकर बाथरूम में चला गया था। पानी के हल्के गर्म फुहार के नीचे खड़े होकर देरतक नहाते हुए मुझे अपनी देह से वही गंध आती महसूस हुई थी जिससे मुझे मतली-सी आने लगती थी। मगर आज ऐसा नहीं हुआ था। उस गंध में आज रेचल की मांसल देह का नमकीन स्वाद भी आ मिला था। अपने नासपुट और होंठों पर उसे महसूसते हुए मैं न जाने कबतक नहाता रहा था। बाहर निकला तो रेचल को अपने बिस्तर में प्रतीक्षित पाया - नहाई और लगभग भीगी हुई - बालों से रिसता पानी तकिए पर एक बड़ा धब्बा बना रहा था, ओढ़ी हुई चादर के नीचे का गीला उतार-चढ़ाव देखा जा सकता था।

तुमने मेरा बिस्तर भिगो दिया... मैं नाराज दिखना चाह रहा था।

कोई बात नहीं, जल्दी सूख जायगा। तसल्ली देती हुई-सी वह मुस्कराई थी- आज संडे है...

तो...? मैं कपड़ों की अलमारी की तरफ बढ़ गया था।

तो... आज तुम्हें दफ्तर नहीं जाना है...

तो...?

तो आओ... उसने चादर से हाथ निकालकर मेरा एक हाथ पकड़ लिया था - आज दिनभर सोते हैं...

बिस्तर पर आते हुए मैंने अपना मोबाइल उठाना चाहा था, मगर रेचल ने उसे बंद करके सिरहाने के नीचे डाल दिया था - आज छुट्टी का दिन है, मोबाइल की भी छुट्टी... मैं कुछ कह नहीं पाया था।

उस दिन शाम के समय मुझसे मिलने दामिनी स्वयं चली आई थी। उस समय रेचल किचन में मछली के कटलेट्स तल रही थी और मैं बॉल्कनी में बैठा बीयर की चुस्कियाँ ले रहा था। दामिनी ने आते ही पूछा था, तुम्हारा फोन कहाँ है? उसे वहाँ यकायक देखकर मैं घबरा गया था। जबतक मैं उसकी बात का कोई जवाब देता, वह स्वयं अंदर कमरे से मेरा फोन उठा लाई थी - तुम्हारा फोन बंद पड़ा है! उसके स्वर में गहरा आश्चर्य था। मैं सकपकाया-सा उसे देख ही रहा था जब किचन से गर्म कटलेट्स का प्लेट उठाए रेचल बॉल्कनी में निकल आई थी। उसे देखते ही मेरी घबराहट कुछ और बढ़ गई थी। दामिनी और रेचल - दोनों एक-दूसरे को कुछ देर के लिए घूरकर देखते रहे थे। फिर दामिनी ने मुझसे शांत स्वर में पूछा था - ये कौन है?

ये मेरी कजिन... नहीं मिसेज लोबो की... मैं न जाने अपनी घबराहट में क्या कुछ कहे जा रहा था। मेरी बातें सुनकर जहाँ दामिनी के माथे पर बल पड़ गए थे, वहीं रेचल मुस्करा पड़ी थी - आई एम रेचल, मिसेज लोबो मेरी आंटी लगती हैं। आप...!

मैं... रेचल के सवाल पर अचानक दामिनी का चेहरा रंगहीन-सा हो आया था - मैं दामिनी - एक परिचित, इनकी...

ओह, आई सी... मुझे लगा, इनकी वाइफ आ गई हैं, जिस तरह से आप सवाल पूछ रही थी... मुस्कराते हुए रेचल टेबल सजाने लगी थी - आप बैठिए न मिस दामिनी...

नहीं, मुझे चलना होगा... कहते हुए ही दामिनी लगभग आधी सीढ़ियाँ उतर गई थी और फिर अचानक मुड़कर नीचे से मेरी ओर देखा था। मेरा दिल धक् से रह गया था। न जाने क्या था उन आँखों की दृष्टि में - नाराजगी, शिकायत... नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं, बस, अंदर की एक गहरी टूटन और बिखराव... जैसे कहीं कुछ एकदम से तहस-नहस हो गया हो।

उसका अबोला उपालंभ मुझे दूर तक दाग गया था। न जाने कैसी अजनबी आवाज में मैंने पीछे से पुकारकर कहा था - मैं आज आऊँगा... वह बिना कोई जवाब दिए चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गई थी।

उसके जाने के बाद वहाँ एक अजीब आश्वस्ति भरी खामोशी पसर गई थी। रेचल चुपचाप कटलेट्स कुतरती रही थी, फिर प्लेट उठाकर अंदर चली गई थी - अब तो शायद तुमसे खाया नहीं जाएगा, ठंडे भी हो गए... कहते हुए उसके स्वर में गहरा कटाक्ष था या अफसोस, मैं तय नहीं कर पाया था।

इसके थोड़ी देर बाद जब उमा का फोन आया था, मैं दामिनी के यहाँ जाने के लिए कमरे से निकल रहा था। रात को फोन करने की बात कहकर मैंने फोन काट दिया था। उस तरफ से उमा कुछ कहती रह गई थी। वह बहुत गुस्से में लग रही थी, न जाने क्यों। सीढ़ियों के नीचे जब मैं उतरा रेचल ने पीछे से पुकारकर कहा था - ऐश, आज रात की बस से मैं मुंबई लौट रही हूँ...

उसकी बात सुनकर मैं ठिठक गया था - अचानक से...?

अचानक नहीं, तुम भूल गए, मैंने तुमसे कहा था...

हाँ, शायद... न जाने क्यों उसकी बात सुनकर मैं एकदम से निसंग हो आया था - जैसे किसी चौराहे पर खड़ा हूँ और पता नहीं जाना कहाँ है। यकायक सारी तस्वीरें एकसाथ गडमड हो गई थीं। अब कुछ था तो आँखों के सामने मिटते-बिखरते हुए रंगों के ढेर सारे धब्बे और अंदर एक अछोर शून्य... मैं डूब रहा था - किसी गहरे कुएँ में! अचानक मैं बेतरह डर गया था। कहाँ हूँ मैं, कहाँ जा रहा हूँ...

उमा का फोन आ रहा था - मोबाइल लगातार बजे जा रहा था - किसी एंबुलेंस के सायरन की तरह, जिसे सुनकर अंदर दहशत का एक गहरा, नीला बवंडर-सा हमेशा उठता था... आँखों के सामने दामिनी का उदास चेहरा तैर रहा था और ऊपर बॉल्कनी में खड़ी रेचल विदा में हाथ हिला रही थी...!

दामिनी के यहाँ जब पहुँचा था, शाम प्रायः शेष हो आई थी, आकाश के गहरे कत्थई विस्तार में गेरुए रंग के छींटे धीरे-धीरे घुल रहे थे। नए चाँद के नीचे तिल की तरह जड़ा तारा बहुत उजला दिख रहा था, मुस्कराता हुआ-सा। हवा में ताजी छँटी मेहँदी की झाड़ियों की गंध थी। दामिनी पिछवाड़े के बगीचे में मिली - कोई नन्हा-सा पौधा रोपते हुए - एकदम पसीना-पसीना, माथे पर उलझी लटों के बीच पिघलती हुई छोटी बिंदी और दाएँ गाल पर मिट्टी का धब्बा... मुझे देखकर हाथ के दस्ताने उतारते हुए पास बिछी कुर्सी पर आ बैठी थी - देखो न, तब से लगी हूँ, मगर काम खत्म ही न हो पाया, कुछ पौधे रह गए, कलतक बर्बाद न हो जाएँ... वामन आया ही नहीं। अब देखो कल भी आता है या नहीं...

कैसे पौधे हैं? मैंने बाल्टी में रखे पौधों को देखा था - चीरे-चीरे पत्तों वाले - हल्के कच्चे हरे... कितना ताजा रंग था!

सावनी के हैं - अभी लगाया तो शायद बारिश तक फूलने लगे। ये बैंजनी रंग के हैं, मगर मुझे गुलाबी भी पसंद है... दमिनी कितने लगाव के साथ चारों तरफ झूमते हुए पौधों को देख रही थी।

तुम्हें फूल बहुत पसंद हैं न...? मेरे प्रश्न पर वह अनमन-सी मुसकराई थी - कांट हेल्प इट - वृषभ राशि की हूँ - अर्थ साइन - प्रकृति से प्रेम होना ही है... मैं अपने सबसे करीब प्रकृति को ही पाती हूँ - ये जमीन, आकाश, पेड़-पौधे - सभी मुझसे बोलते हैं... कभी मैंने लिखा था - मेरी गत-आगत पीड़ा के साक्षी चाँद...

अचानक वह उठ खड़ी हुई थी - चलो, समंदर के किनारे चलते हैं। उसे भी कई दिन हुए, नहीं देखा, लहरें कब से पास बुला रही हैं - इतना शोर मचाकर...

दामिनी के कॉटेज से समंदर मुश्किल से आधा किलोमीटर की दूरी पर था। 'जानते हो अशेष, मैंने अपने पापा की संपत्ति को हाथ भी नहीं लगाया था। हालाँकि उन्होंने अपनी सारी प्रापर्टी मेरे ही नाम लिख छोड़ा था - मैं उनकी इकलौती संतान थी -वैध संतान, आई मीन... मैंने उनके बाद सबकुछ एक अनाथ आश्रम को दान कर दिया था, कुछ भी नहीं लिया था, मुझे उनमें माँ के आँसू और मौत नजर आती थी। बाद में मुझे नानाजी ने बहुत कुछ दिया - माँ का हिस्सा... वे अपनी बेटी से बहुत प्यार करते थे!' कभी दामिनी ने ही मुझे बताया था। अपना पुराना घर छोड़कर उन्हीं पैसों से दामिनी ने यह कॉटेज बनवाया था - अपने मन मुताबिक।

साँझ के बाद की किशोरी रात - हल्के-हल्के गहराती हुई, साँवली पड़ती हुई... सफेद रेत में दूर-दूरतक अबरक का रुपहला झिलमिल था, पानी में आकाश का गहरा नील - इस्पात में तब्दील होता हुआ, लहर दर लहर... दामिनी का मिजाज बदल रहा था, मैं महसूस रहा था। उसकी आँखों में सुदूर निहारिका-जैसा कुछ था - पाँत के पाँत जलते हुए नन्हें दिए... उदास और बोझिल! उसने अबतक रेचल का प्रसंग नहीं उठाया था। मैं राहत महसूस करते हुए भी कहीं से डरा हुआ था।

रेत पर न जाने क्या कुछ लिखते हुए उसने मुझे देखा था - जानते हो अशेष, इस समंदर से मेरी पहचान बड़ी पुरानी है। मैं इसी की लहरों में एक तरह से पल-पुसकर बड़ी हुई हूँ... मेरा बचपन, मेरी माँ की निसंग जवानी, उनकी कही-अनकही... सबकुछ इसमें समाया हुआ है। दरअसल समंदर के पास होना मेरे लिए अपनी माँ, अपने बचपन के साथ होना है। जब भी सागर के विस्तार, इसके गहरे हाहाकार को देखती हूँ, अपना बचपन, अपना दुखता हुआ अतीत याद आने लगता है... ये एक ही साथ सुख और दुख की प्रतीति कराता है!

मैं जानता था, मेरे साथ सागर तट पर चलते हुए वह फिर अपने अतीत की ओर मुड़ गई है, मुझे अकेला छोड़कर। शायद मेरी नियति ही यही है - सबके बीच - एक भरी-पूरी दुनिया के बीच - अकेले-अकेले, एकदम निसंग होकर जीना... दामिनी बोल रही थी - लहरों के शोर में डूबी हुई-सी आवाज में, जिसे सुनने के लिए मुझे काफी ध्यान देना पड़ रहा था -

कैसे उदासी भरे दिन थे वे, क्या कहूँ... जैसे हर पल आँसुओं की बूँद-से टलमल-टलमल, एक ही टकोर पर बरस जाने के लिए अधीर... बहुत मुश्किल होता था उन गीले दिनों में आँखों को शुष्क बनाए रखना। माँ की आँखों का खयाल रखते-रखते मैं अपनी आँखें बिसरा बैठी थी, जिनके दुखों की एक अलग दुनिया थी। माँ मुझसे कभी कुछ भी नहीं कहती थी और यही बात मेरे लिए सबसे ज्यादा त्रासद हो जाया करती थी। उनकी चुप्पी ही उनकी पीड़ा को मुखर बना देती थी, काश वे इस बात को समझ पातीं।

बारिश के मटमैले आकाश-सा कुछ होता था उनकी तरल आँखों में, पलकों का कच्चा किनारा तोड़कर बह निकलने को आतुर। अपनी दुर्बल बाँहों में एक चढ़ते हुए समंदर को बाँधे कभी-कभी शायद वे बहुत थक जाती थीं। फुर्सत के क्षणों को खींचती हुई वह बहुत बार अकेली दिख जाती थी, खासकर छत के उस पूरबवाले कोने में जहाँ बहकर आनेवाली हवा का स्वाद बिल्कुल अलग होता था, नीम के फूलों की कड़वी-मीठी गंध की तरह।