औरत जो नदी है... / भाग 7 / जयश्री रॉय
कभी-कभी उन्हें छेड़े बगैर मैं चुपचाप उनकी दुनिया का हिस्सा बन जाती थी - उनके आकाश और समंदर को ओर-छोर बिछाकर उनसे एक होती हुई-सी... मैं जानना चाहती थी, क्या है उस आकाश के एक टुकड़ा शून्य में या सागर के हरहराते हुए विस्तार में, जहाँ वे इस तरह से रातदिन डूब जाया करती थीं। बाद में, बहुत बाद में समझ पाई थी, निसंग मन कहाँ-कहाँ आसरा ढूँढ़ लेता है, कैसे-कैसे साथ चुन लेता है। दामिनी मुट्ठी में रेत भर-भरकर हवा में उड़ाती रही थी। ऐसा करते हुए उसकी आँखों में वही अतीत था जिसमें वह अपना वर्तमान जीती आ रही थी। मेरी तरफ न देखती-सी नजर से देखते हुए उसने कहा था, समंदर मुझे मेरा बहुत अपना-सा कोई लगता है अशेष। जानते हो, बचपन में मैं जिस कमरे में सोती थी, समंदर उसके शायद सौ कदमों के फासले पर ही था। वही हमारा सबसे करीबी पड़ोसी हुआ करता था।
पूरी रात ही जैसे किनारे पर पछाड़ खाती लहरों पर डोलती रहती थी। बरसात की रातों में उद्दाम हवा छत पर किसी क्रुद्ध नागिन की तरह अपना फन पटकती हुई गुजरती थी तो मुझे बहुत डर लगता था। खासकर बरसात की तूफानी रातों में, जब लगता था उमड़ता हुआ समंदर हमारे छोटे-से काँटेज को अपनी ऑक्टोपस जैसी लहरों में दबोचकर पूरा का पूरा निगल जायगा। हवा, समंदर और बारिश से जैसे रचा हुआ था हमारा घर। उसकी बूढ़ी, नमक खाई पुरानी दीवारें समुद्र के गर्जन से रातदिन थरथराती रहती थीं।
अपनी बात को बढ़ाते हुए वह मेरे करीब सरक आई थी, किसी डरी हुई छोटी बच्ची की तरह - जानते हो अशेष, कभी-कभी मुझे लगता था कि जैसे समंदर का ये अनंत शोर मेरे अंदर समा गया है। नसों में बहता रहता है आठों प्रहर - ठीक जैसे शंख के अंदर से आती है समंदर की आवाज... मत्स्यगंधा बनी हवा से भीगी रहती थीं खिड़कियाँ, दरवाजे, उमस से हम चिपचिपाए रहते थे। कभी-कभी लगता था, हम नमक से बने हैं।
पहली बार अपनी ही बात पर वह हँसी थी। शाम की धूसर रोशनी में सितारे घुल आए थे। उसकी हँसी की हल्की ठुनक में डूबता-उतराता मैं उसे देखता रहा था। कुछ कहकर मैं उसके प्रवाह में गतिरोध उत्पन्न नहीं करना चाहता था। वह अबाध बह रही थी, अपनी रौ में, नदी की तरह...
उसे उसके निहायत अंतरंग क्षणों में देखना-महसूसना भी अपने आप में एक घटना होती है। किसी पारे की उजली नदी की तरह वह अलस, मंथर गति से बहती है, अपने आसपास सपनों और इच्छाओं के हल्के गुलाबी फूल खिलाते हुए, सुगंध की तरल वेणियाँ लहराकर हवा में गश घोलते हुए... मेरी सोच से बेखबर वह अब भी अपनी रौ में बहे जा रही थी -
इन तमाम शोरगुल के बीच माँ के व्यक्तित्व में खिंचा गहरा सन्नाटा मुझे दो चरम के बीच जीने पर विवश कर देता था। यह स्थिति निहायत तकलीफदेह थी। समंदर और माँ दो बिल्कुल विपरित धुरियों पर थे, मगर फिर भी कहीं किसी बिंदु पर एक थे, यह बात समझते हुए मुझे एक उम्र लग गई थी।
कभी जब मैं उनसे पूछती थी, उन्हें क्या मिल जाता है इस अनवरत हाहाकार और अछोर चुप्पी से, वे हँसकर कहती थी, तू अभी इस बात को नहीं समझेगी! जब तू नहीं थी, ये थे और... आगे भी रहेंगे...
कई वर्ष बाद जब मैं पापा के साथ बोर्डिंग स्कूल के लिए घर से निकल रही थी, माँ को समंदर के गहरे नीले कैनवास पर हवा और शोर के बीच किसी गीली पेटिंग की तरह एकदम निसंग और उदास खड़ी देखकर उसदिन उनकी कही हुई उस बात का सही अर्थ समझ पाई थी।
मैंने मुड़कर उसदिन समंदर को एक दूसरी ही - नई नजर से देखा था। अब मुझे भी माँ के यकीन पर यकीन हो चला था। कितनी अजीब बात है, उसदिन अपने घर को उन उच्छृंखल लहरों के हवाले करके मैं एक तरह से निश्चिंत हो गई थी।
उसे सुनते हुए उसकी बातों से मैंने समंदर के चेहरे का मिलान किया था। वह बिल्कुल वैसा ही था जैसा दामिनी की स्मृतियों में बसा हुआ था। कितना पुराना है ये समंदर... सबके हिस्से की कहानियों में बँटा हुआ, मगर एकदम पूरा-पूरा... मैं उठ खड़ा हुआ था। साथ में दामिनी भी। अपने कपड़ों से रेत झाड़ते हुए उसने किनारे पर चढ़ती हुई लहरों से खुद को बचाया था, ज्वार का समय था, पानी ऊपर चढ़ रहा था, लहरों में खासी बेचैनी थी। बेचैन दामिनी भी थी। किसी खोई हुई टिटहरी की-सी आवाज में कह रही थी - एकदम निसंग, उदास, गहरे कहीं छूते हुए -
इसके बाद जब भी माँ से फोन पर बात होती थी, मैं उनसे मजाक में पूछ लेती थी, क्यों माँ, तुम्हारा समंदर कैसा है? हालाँकि मुझे फोन पर भी समंदर की आवाज सुनाई पड़ती रहती थी। कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता था कि मैं माँ को फोन करती ही हूँ समंदर की आवाज सुनने के लिए... वह समंदर जो दूर होकर भी हर पल मेरे आसपास बना रहता था - अपने तमाम हलचल और बेचैनी के साथ... मेरी नसों में एक दरिया है और उसका सारा नमक भी। खूब समझ पाती हूँ, जब निःशब्द रातों में मेरे अंदर बसी लहरें छटपटाती हैं, तटों पर पछाड़ खा-खाकर सर धुनती है...
उसकी बातें सुनकर मुझे न जाने किस शे'र की दो पक्तियाँ याद हो आईं थीं - मैंने बहते हुए साहिल से ठिकाना माँगा था, मुझे बिखर जाने का कैसा जुनून था... मैं भी बसने के भ्रम में दामिनी के साथ बहे जा रहा था शायद। पता नहीं, वह मेरा किनारा थी या मँझधार...
मेरी अस्त-व्यस्त सोचों से परे वह अपनी छोटी-सी दुनिया में हमेशा की तरह गुम थी। आगे चलते हुए कहती जा रही थी - जानते हो अशेष, एक अर्सा हुआ मैं कभी एक पूरी, मुकम्मल नींद सो नहीं पाई। रातों को जागना या जागते रहने के अहसास में तंद्रिल-सी किसी अवस्था में पड़े रहना, फिर सारा-सारा दिन ऊँघ और आलस्य से घिरे रहना... यही मेरे लिए एक रुटीन होकर रह गया है।
वह मुझे मुड़कर अचानक देखती है और मैं उसकी उनींदी आँखों से घिर आता हूँ - एक सपना जो अपनी नींद की तलाश में जाग रहा है, न जाने कब से, न जाने कबतक के लिए! मैं झुककर एक कंकड़ उठाता हूँ और मन-ही-मन उसके लिए एक लंबी, सुखद नींद की विश करते हुए उसमें फूँककर उस कंकड़ को समंदर की लहरों की तरफ उछाल देता हूँ। वह एक क्षण के लिए मुझे कौतुक से देखती है फिर चल पड़ती है -
और जब कभी नींद आती है तो तंद्रा के झीने पर्दे के पीछे ऐसी प्रतीति होती है कि जैसे मेरे सिरहाने बैठकर कोई रातभर रो रहा हो - एक दबी-दबी, हिचकियों में टूटती आवाज... इतने धीमे कि कानों का भ्रम लगे! मगर आती है - सारी रात! मैं करवट दर करवट अपने दोनों कान तकिए से दबाकर पड़ी रहती हूँ। उस आवाज से छूटने के लिए मैं क्या नहीं करती। मगर उफ्! वह बंद नहीं होती, किसी तरह बंद नहीं होती...!
मैंने आगे बढ़कर बिना किसी भूमिका के अचानक पूछा था - मे आई होल्ड योर हैंड? मेरे इस आकस्मिक प्रश्न पर ठिठककर रुक गई थी और फिर चकराई-सी पूछी थी - कौन वाला हाथ? उसके इस भोले सवाल पर मुझे अनायास हँसी आ गई थी, हँसते हुए ही कहा था - बोथ हैंड्स... आँखों में न समझने के-से भाव लिए उसने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए थे, चेहरे पर अभी भी गंभीरता ओढ़े। मेरा मन करुणा से भर उठा था। अपनी उलझन की दुनिया में एक टिटहरी की तरह हमेशा खोई रहती है, उसे आसपास की सुध तक नहीं रहती। एक उस जैसी खूबसूरत औरत का यूँ उदासी की मटमैली धुंध में रातदिन खोए रहना, धीरे-धीरे हर खुशी, हर उमंग से विरत होना, होते चले जाना... मुझे उसके लिए तकलीफ होती थी। जिंदगी - ऐसी जिंदगी - इस तरह जाया नहीं होनी चाहिए!
वह मेरी आँखों में न जाने क्या देखती है कि अचानक से चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लेती है। एक क्षण के लिए हम दोनों के बीच एक गहरा मौन पसर गया था - बहुत भरा-भरा और बोलता हुआ-सा... एक साँस की नाजुक टकोर से भी चटकता हुआ-सा... मैं उसे देखता हूँ, वह न जाने किसे - एक दृष्टिहीन नजर से, अन्यमनस्क - अपने में संपृक्त! उसका मेरे साथ होना और न होना - इसी तरह - मुझे साथ में भी अक्सर निसंग कर जाता है। मुझे ये खलता है, मगर उसे दोष नहीं दे पाता। ये सब उसके जानने में नहीं होता, अब अच्छी तरह समझने लगा हूँ। उसका मन का एक कोना - बहुत छोटा-सा - मेरी पकड़ में आया है, वह भी पूरी तरह नहीं। एकदिन उसे पा लूँगा, मैंने आकाश पर चमकते हुए मौसम के एक टुकड़े - नए चाँद की तरफ देखते हुए सोचा था। मुझे लगा था, चाँद की हँसी बाँध टूटकर एकदम से बह आई है। क्या मेरी ये इच्छा इतनी पागल थी!
दामिनी मेरी तरफ देखती हुई अबतक चुपचाप खड़ी थी। स्वयं को समेटते हुए मैंने उसका दायाँ हाथ पकड़ लिया था और फिर चलते हुए पूछा था - कोई सारी रात तुम्हारे सिरहाने बैठकर रोता है... तुम्हें ऐसा लगता है? स्ट्रेंज!
'हाँ, सच, ऐसा ही लगता है, एकबार नहीं, अक्सर...' वह फिर अपने में हो ली थी - मुझे याद है, प्रायः रोज रात को मुझे सुलाने के बाद जब माँ को पूरा यकीन हो जाता था, मैं सो चुकी हूँ, वे धीरे-धीरे रोने लगती थीं। मैं माँ का ये राज जानती थी, इसलिए जब वे चाहती थीं, मैं उनके लिए सो जाने का बहाना करती थी - इतना तो मैं उनके लिए कर ही सकती थी! मेरे नन्हें शरीर को अपनी बाँहों में समेटे वे निःशब्द रोती रहती थीं, शायद सारी रात ही... लाख जागना चाहकर भी मेरी कच्ची आँखें आखिर मुँद ही जाती थीं। सोने से पहले मैं महसूस करती थी, मेरा माथा उनके बहते हुए आँसुओं से भीग गया है। उनके वे विवश आँसू मेरी रूह में जज्ब होकर रह गए हैं अशेष! अब तो वर्षों से जो भी सपने आते हैं, उनमें भीगकर आते हैं। उनसे मेरी मुक्ति नहीं - इस जन्म में तो नहीं!
उसकी बातें सुनते हुए मैं समझ गया था, कौन उसके सिरहाने आज भी सारी-सारी रात रोता है। कुछ तस्वीरें धुँधली पड़ जाती हैं, मगर मिटती नहीं - शायद कभी भी। कच्ची दीवारों पर लिखे गए हर्फ रह जाते हैं उनके साथ - उनकी उम्र का हिस्सा बनकर... इस गीली मिट्टी पर न जाने कितने दाग हैं, किस-किस के दिए हुए... हरी, मखमली कालीन के नीचे जर्द, स्याह मौसम की एक लंबी, बदसूरत फेहरिस्त है - ओर-छोरतक पसरा हुआ। इन्हें अनहुआ नहीं किया जा सकेगा कभी... इस इंद्रधनुष पर उदासी के साँवले फफूँद पड़े रहेंगे - इसी तरह, हमेशा...
मेरे अंदर अनायास एक अनाम-सी अनुभूति घिर आई थी - गहरे, मटमैले रंग जैसी, बारिश में लगातार भीगती हुई किसी बदरंग दीवार की तरह...। काई की कोई गहरी परत है जो अंदर ही अंदर कहीं चढ़ रही है, बहुत बेआवाज, मगर तेजी से। उतरती रात के मेहँदिया रंग में मैं उसकी झिलमिलाती देह को देखता हूँ - हवा में अबरक-से झर रहे हैं, अँधेरा गोरा पड़ रहा है।
एक तिलिस्म रच रही है वह हर कदम पर - मेरे लिए... किसी मरीचिका की तरह उसका दुर्वार आकर्षण मुझे खींचकर न जाने सन्नाटे के किस देश में लिए जा रहा था! मैं हर कदम पर रुकना चाहता था, मगर नहीं चाहता था। ये मेरी सबसे बड़ी त्रासदी थी। त्रसित तो दामिनी भी थी। जहाँ दुख के सिवा कुछ नहीं मिलता था, उसे फिर-फिर वहीं लौटकर जाना पड़ता था। विवश थी वह - स्वयं से ही। हम दोनों अपने आप से विवश थे। इसलिए - शायद इसीलिए इतने विवश थे।
दामिनी के कॉटेज में पहुँचते हुए उसदिन काफी देर हो गई थी। न जाने क्यों, उषा ने बाहर की बत्तियाँ नहीं जलाई थीं। चारों तरफ अंधकार पसरा पड़ा था। दूर स्ट्रीट लाइट की रोशनी बरामदे में यहाँ-वहाँ फैल रही थी। उसी हल्की रोशनी में चहारदीवारी के साथ -साथ लगे बोगनबेलिया की सघन लतरें हवा में झूमते हुए फर्श पर रंगोली-सी रच रही थी - रोशनी और छाँव की लुकाछिपी - शरीर, चंचल... हम दोनों उसी फीके अंधकार में बरामदे में बिछी कुर्सियों पर बैठ गए थे। आवाज सुनकर उषा बाहर आ गई थी, मगर दामिनी ने उसे बत्ती जलाने से मना कर दिया था - ऐसे ही ठीक लग रहा है। उसने चाय बनाने से भी उसे मना कर दिया था। मैं अंदर जाकर वॉश बेसिन पर मुँह धो आया था। समंदर की नमकीन हवा में त्वचा चिपचिपाने लगी थी। रूमाल से चेहरा पोंछते हुए मैं जब बाहर बरामदे में आकर बैठा, उषा मेज पर बीयर की बोतल और दो काँच के लंबे गिलास लगा रही थी। मैंने हाथ लगाकर देखा था, बोतल बहुत ठंडी थी। इस समय मुझे बिल्कुल यही चाहिए था - चिल्ड बीयर!
थोड़ी देर बाद जब दामिनी बाहर निकलकर आई थी, उसके शरीर से किसी सुगंधित साबुन और क्रीम की गंध आ रही थी। शायद वह भी बाथरूम से फ्रेश होकर आई थी। बैठते हुए उसने पूछा था, तुम खाकर जाओगे न? मैंने उषा से पनीर बनाने के लिए कहा है। रोटियाँ भी बना लेगी... मैं चुपचाप बीयर की चुस्कियाँ लेता रहा था। शाम की इस गहरी, खूबसूरत खामोशी में मुझे अनायास अपने घर का खयाल आ गया था - अक्सर इस समय का माहौल... मैं ऑफिस से लौटकर बेतरह थका-हारा, थोड़ा सुकून और आराम की जरूरत में... उधर बच्चों की तकरार, आपस के झगड़े, होम वर्क का टेंशन! उमा रसोई में लगातार बड़बड़ा रही है, बीच-बीच में आकर शिकायत कर रही है, उलाहने दे रही है - तुम्हारा क्या, ऑफिस की नौ से पाँच की बँधी-बँधायी ड्यूटी, फिर घर आकर आराम! और एक मैं हूँ, सुबह से शाम तक कभी कोई छुट्टी नहीं, आराम नहीं... औरत का जन्म...!
अचानक मेरे मुँह में बीयर की घूँट बहुत कड़वी जान पड़ी। शादी... एक अनोखी संस्था है, जहाँ दो इनसान एक-दूसरे से बँधे उम्रभर एक-दूसरे को योजनाबद्ध तरीके से तोड़ते, खत्म करते रहते हैं। किस्तो में - तिल-तिलकर... अद्भुत हिंसा है ये - रिश्ते के नाम पर - एक कैद, कारावास - आजीवन कारावास...
शादी से पहले उमा कितनी खूबसूरत थी - सूरत और सीरत से! हँसती ही रहती थी - बात-बातपर... किसी पहाड़ी जलप्रात की तरह - अविरल, अबाध... घंटों उसके साथ कैसे बीत जाता था, समय का पता ही नहीं चलता था। और अब... मुझे उसका चेहरा याद आता है - कठोर और रुक्ष - लावण्य रहित! हमेशा तनी हुई भौंहें और तमतमाते गाल। क्या मैंने उसे इस हालत में पहुँचा दिया? या हालात ने... अपने अंदर मैं टटोलता रहता हूँ - बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्न हैं, इकट्टे हो गए हैं बीतते हुए समय के साथ, पहाड़ बनते जा रहे हैं दिन-प्रतिदिन... और मैं दबा हुआ हूँ उसके नीचे हर समय।
फिर मैं... मेरा क्या हुआ! क्या मैं भी हमेशा से ऐसा था - उदासीन, हर तरफ से असंपृक्त... कितना कुछ चाहता था मैं भी इस जिंदगी से, अपने और उमा के रिश्ते से! उम्मीदें थीं, चाव थे, इच्छाएँ - ढेर-ढेर-सी! और अब?... एक गहरा अवसाद और विरक्ति- हर चीज से, शायद जीवन से ही।
एक भारी अभाव से उपजी है ये भूख, ये लालसा... बहुत कुछ खो जाने के अहसास से घबराकर अब हर क्षति की पूर्ति चाहता हूँ - बीत गए समय की, आधी-अधूरी वासनाओं की... हुआ को अनहुआ करने की कोशिश, और क्या...! छूट जाना चाहता हूँ, हर उस बंधन से जो आलिंगन नहीं बन पाया! मुक्त हो जाना चाहता हूँ। रिश्तों की दुनिया में बँधुआ मजदूर बनकर रहना नहीं चाहता, संबंधों को ढोना नहीं, जीना चाहता हूँ... क्या ये चाहना बहुत ज्यादा, बहुत गलत है? सवालों के नागफनी चारों तरफ उगे रहते हैं और मैं इस बियावान में भटकता रहता हूँ। एक तरफ समाज है, इसके नियम-कानून, मोटी-मोटी पोथी और इसकी बूढ़ी, जर्जर रूढ़ियाँ, दूसरी तरफ एक अकेला मन, जो बस जीना चाहता है, जबतक जीवित है, जीना चाहता है...
मुख्तसर-सी बात है - जीवन को भोगना चाहता हूँ अब - स्वच्छंद होकर। संबंध के नाम पर एक और कारावास नहीं चाहता, रिश्तों की गुलामी नहीं चाहता। हर कोई आलिंगन बनने के बजाय हथकड़ी क्यों बन जाता है! प्यार के नाम पर एक नागपाश - वजूद को जकड़कर, पेंच कसकर साँस-साँस के लिए मोहताज करता हुआ...
अपनी सोच में शायद मैं बहुत दूर निकल आया था। दामिनी ने बाँह पर हल्के से छुआ तो खयाल आया। वह शायद मुस्करा रही थी - मेरी बीमारी तुम्हें भी लग रही है, जागकर सपने देखने लगते हो। अच्छा अशेष, इतना क्या सोचते हो? उसकी हल्के नशे की खुमार में डूबी आवाज जल तरंग की तरह हवा में बिखरकर खो गई थी। मैं देरतक उसकी मृदुल ठुनक अपने भीतर महसूस करता बैठा रह गया था। कभी-कभी किसी बहुत भरे हुए-से क्षण में कुछ कहने की इच्छा नहीं होती। लगता है, जो अनुभव के स्तर पर जी रहे हैं, उसे शब्दों से दरकाकर नष्ट न कर दें। कुछ ऐसी ही मनःस्थिति में था इस समय। हवा में फूलते रात रानी के साथ दामिनी की हल्की, मीठी देह गंध थी - मिली-जुली, मगर मैं उनके पार्थक्य को समझ सकता था, अनुभूति के किसी अनाम स्तर पर। सुगंध का भी एक चेहरा होता है, बहुत पारदर्शी, मगर होता है...
दामिनी ने अचानक पूछा था, तुमने ताजमहल देखा है न अशेष? मेरे हाँ में सर हिलाने पर उसने न जाने कैसी इच्छा भरी आवाज में कहा था - एकबार मैंने भी देखा था, चाँदनी रात में! स्कूल टूर पर गई थी। कैसा लगा था? मेरे प्रश्न पर उसके स्वर में जैसे सपने घिर आए थे - अद्भुत - एक नीली नदी के पहलू में सिमटी हुई प्यार की अनोखी कहानी - प्रतीत होता है, ख्वाब और मुहब्बत को संगमरमर में गूँथकर समय के सीने पर एक तस्वीर की तरह जड़ दिया गया है - हमेशा-हमेशा के लिए, एक पूरे काल खंड और उसकी जीवंत अनुभूति के साथ...
प्यार वहाँ का एक ठहरा हुआ रोज का मौसम है। वहाँ कोई हो और प्रेम में न हो, ये संभव नहीं लगता। कहते हुए दामिनी की आँखों में जैसे सपनों की मृदुल क्यारियाँ खिल आई थीं, नर्म, चटकीले फूलों से भरी हुईं... मधु की बूँद की तरह उसके शब्द मेरी कानों में टपकते रहे थे, वह स्वप्न बुन रही थी - मीठी, रंगीन सलाइयों से -
ताज प्रेम के होने के साक्ष्य में खड़ा है, उसका होना एक तरह से प्रेम के होने -निरंतर बने रहने का एक शाश्वत प्रतिश्रृति-सा है... उसे देखकर आश्वासन मिलता है - दुनिया के खूबसूरत होने का, उसके बने रहने का - बहुत आगे तक... जरा सोचो तो, कहते हुए दामिनी की आँखें विस्फारित हो चली थीं - कभी ये ढह गया तो... उफ्! ताजमहल का खंडहर प्रेम का सबसे बड़ा दुःस्वप्न है...
मैं अब भी आँखें मूँदे उसे चुपचाप सुनता रहा था। उसे सुनना या देखना एक तरह से कविता को जीना था - उसकी पूरी नजाकत और रवानगी के साथ... कुछ क्षणों के लिए उसके चुप हो जाने के बाद भी जैसे हवा में उसकी आवाज के मुलायम रेश बचे रह गए थे - पारदर्शी फूलों की तरह तैरते हुए...
न जाने कितनी देर बाद उसने फिर बोलना शुरू किया था, कहीं बहुत दूर से - शायद वह फिर वहीं लौट गई थी - अपने बचपन में, अपनी माँ के पास! मैं अपनी मुट्ठी में उसका हाथ समेटे उसकी हल्की हरारत को महसूसता रहा था, जैसे किसी डरी हुई चिड़िया की लरज... वह कह रही थी - मैं सुन रहा था, यही उसके साथ होना था - सही अर्थों में! ऐसे क्षणों में वह मुझसे इससे ज्यादा की कोई अपेक्षा भी नहीं रखती है, जानता हूँ। कोई हो जो संवेदना के स्तर पर साथ हो, संग-संग बहे दूरतक, मगर खामोशी से...
वह कह रही थी, उस दिन चाँदनी रात में ताजमहल को देखते हुए मैं पहली बार समझ पाई थी - हमारा घर भी एक ताजमहल की तरह है, जहाँ मेरी माँ के प्यार को चेहरा नहीं मिला था, वरन् उनका यकीन दफ्न हुआ था - उनके जीते जी ही! न जाने किस देश की थी माँ, कहाँ से आई थी। मैंने बहुत बार पूछा था उनसे, मगर न जाने क्यों वह इस विषय में कुछ भी कहना नहीं चाहती थीं। हर बार चुप रह जाती थी। मगर एकबार एक कहानी सुनाते हुए वे अचानक रो पड़ी थीं। आज समझ पाई हूँ, इतने सालों के बाद कि वह कहानी उनकी ही थी। उस कहानी की राजकुमारी मेरी माँ ही थीं। अपने माँ-बाप की इकलौती संतान जो बहुत प्यार और नाजों से पली-बढ़ी थी, एकदिन अपने माँ-बाप और प्रियजनों को छोड़कर अपने प्रेमी का हाथ पकड़कर उसके साथ सुदूर देश में चली आई थी।
पीछे छूट गए थे उसके सारे सपने और प्यार, दुलार की एक भरी-पुरी दुनिया। अपने महल से चलते समय उसके पास उसके प्रियतम का प्यार, विश्वास और वादों का ही एकमात्र संबल था। उन्हीं पर निर्भर होकर वह उतनी दूर चली आई थी। मगर अपने देश पहुँचते ही उसका प्रेमी उसे एक कारावास में डालकर कहीं चला गया था।
अब राजकुमारी उस कारावास में रातदिन अकेली रहती और अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाती। वह उस देश की बोली नहीं जानती थी, उसे वहाँ का खाना भी नहीं रुचता था। उसका रंग दूध में घुले केसर की तरह था और वह गाती कोयल की तरह थी। मगर उस देश के लोग गहरे श्याम वर्ण के थे तथा हमेशा कौओं की तरह कटु बोलते थे। वे सभी उसके रूप, रंग और गुण को घृणा और संशय की दृष्टि से देखते थे। कोई उससे बोलता भी नहीं था। यह सब तो वह शायद सह भी जाती, मगर उसके दुख का चरम ये था कि उसका वह प्रेमी जिसके लिए उसने अपना लगभग सबकुछ छोड़ दिया था, भी उससे बोलता नहीं था। वह अछोर चुप्पी की एक काली कोठरी में कैद थी और इसी कैद में रातदिन घुट-घुटकर राजकुमारी एकदिन स्नेह और साहचर्य के अभाव में अंततः मर ही गई...
कहते हुए माँ जैसे राजकुमारी की उसी मौत से होकर गुजर रही थी। उसदिन उनके साथ मैं भी खूब रोई थी। शायद मुझे भी उनकी नियति का आभास हो गया था। मैंने माँ की ओर बेआवाज बढ़ती मौत के कदमों की आहट न जाने कैसे सुन ली थी। मैं अब देख सकती थी, गहरे आतंक और भय के साथ - माँ की ओर शनैः-शनैः बढ़ती आसन्न मृत्यु को... कितना सहम गई थी मैं उसदिन... माँ को छोड़ ही नहीं रही थी किसी तरह, कसकर लिपटी हुई थी उनसे। दामिनी की आवाज में अजीब कँपकँपी भरी हुई थी। वह जैसे बिल्कुल अपने कल में हो गई थी - उसकी पूरी भयावहता को शिद्दत से जीती हुई। मैंने उसकी अँगुलियाँ अपने बाएँ हाथ की मुट्ठी में समेट ली थीं। वे पसीने से नम थीं, हल्के-हल्के लरजती हुईं।
मेरी छुअन की आश्वस्ति धीरे-धीरे उसके स्वर में उतर आई थी। थोड़ी देर ठहरकर सहज आवाज में उसने कहा था - शायद उसी दिन माँ ने कहा था, इस तरह से कि मैं न सुन पाऊँ - कभी-कभी मृत्यु जीवन से बेहतर विकल्प होती है... मैं उनकी बात का तात्पर्य समझ नहीं पाई थी, मगर न जाने संवेदना के स्तर पर क्या महसूस किया था कि और-और उदास हो गई थी। हवा और समंदर के निरंतर शोर के बीच सन्नाटे के कफन में लिपटी माँ म़ुझे उस निसंग द्वीप की तरह प्रतीत हुई थीं जिसके चारों तरफ आकाश की अनंत चुप्पी और समंदर के अनवरत हाहाकार के सिवा कुछ भी नहीं होता। यह निर्जन द्वीप जितना बाहर होता है, उससे कहीं ज्यादा अंदर होता है। एक डूब - सतत डूब - बनी रहती है उसके अस्तित्व में, उसका सफर नीचे की ओर अधिक होता है ऊपर के बनिस्बत!
दामिनी की आवाज में दबी हुई सिसकियों का हल्का कंपन था, उसके आगे के शब्द पानी में घुल-से गए थे। वह शायद फिर रोने लगी थी। हमारे सामने बीयर की न जाने कितनी खाली बोतलें इकट्ठी हो गई थीं। उषा कई बार खाने के लिए इस बीच पूछ चुकी थी। जाने रात का क्या बजा था उस समय...
दामिनी ने अचानक अपनी बोझिल पलकें उठाई थीं - अशेष, न जाने शादी के कितने वर्षों बाद पापा ने एकदिन बिल्कुल निर्लिप्त और सहज भाव से माँ से कह दिया था कि वे उनसे प्रेम नहीं करते! ऐसा कहते हुए उनमें जरा भी हिचकिचाहट या ग्लानि नहीं थी। मगर सुनकर माँ शर्मिंदा हो गई थीं - इसी प्यार के लिए कभी अपने रिश्तों, खुशियों और सपनों की एक भरी-पूरी दुनिया छोड़ आई थी...
उसदिन माँ के लिए पापा ही नहीं - उनकी यकीन की पूरी दुनिया, उनके भगवान - सबकुछ झूठा पड़ गया था! कहीं कोई फर्क नहीं पड़ा था - सबकुछ पहले की तरह चलता रहा था, बस एक यकीन - बहुत मासूम यकीन, हमेशा के लिए खत्म हो गया था। पापा ने अपने वर्षों के रूखे व्यवहार, अवज्ञा को उसदिन एक स्पष्ट नाम दे दिया था। मेरे लेखे यह दुनिया का क्रूरतम अपराध था, मगर इसके लिए आजतक कोई सजा नहीं बनी। कितनी अजीब बात है... दामिनी सामने की मेज पर सर रखकर ढह गई थी - अशेष, भगवान होते हैं न...?
उस दिन के बाद मैंने दामिनी में सूक्ष्म बदलाव देखे थे। जाहिर तौर पर वह वही थी - पहले की तरह, मगर कहीं कुछ अलक्ष्य दरक गया था। मैं कह नहीं सकता था क्या और कहाँ, मगर महसूस सकता था। उसकी आँखों की पिघलती हुई पुतलियों में, तरल चावनी में कुछ अनमन, उदास और तटस्थ हो चला था। उसकी मुस्कराहट की उजली मसृन धूप में वह पहलीवाली ऊष्मा नहीं बची थी जो मुझे कभी नर्म हरारत से भर देती थी। मेरी बंद मुट्ठियों से कुछ बहुत खूबसूरत, अनमोल निःशब्द झर रहा था। मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा था इसके लिए, मुझे मालूम नहीं था, मैं क्या कर सकता हूँ। यकीन काँच की तरह नाजुक होता है, दरक जाता है हल्के टकोर से। शायद कुछ ऐसा ही हुआ था दामिनी के साथ। कहीं से चोट खा गई थी। एक समय के बाद निराश होने लगा था मैं, अंदर कुछ कसक रहा था रातदिन...
दामिनी के अबाध समर्पण की घड़ियों में न जाने मुझे ऐसा क्यों प्रतीत होता था कि सिर्फ द्वार ही खुले हैं, इन कपाटों के पीछे पूरा घर खाली है। वहाँ कोई नहीं रहता, अशरीरी उच्छ्वासों के सिवा। ठीक जैसे थाईलैंड के मंदिरों में होता है - एकबार देखा था मैंने जब वहाँ घूमने गया था - वहाँ सिर्फ मंदिर होते हैं, अंदर देव मूर्तियाँ नहीं!
सुरों के आरोह-अवरोह-सी नर्म देह की रेखाओं में प्राणों का संकेत नहीं, हृदय का स्पंदन नहीं। मैं उसके महकते बालों में अपना चेहरा छिपाता, वह अधीर आग्रह से मेरा चेहरा उठाती - देखो अशेष, मेरी आँखों में देखो, आज मैं अपनी पलकों के आँचल में तुम्हारे लिए ढेर-सा आकाश चुन लाई हूँ। मुझे उसकी आँखों के गुलाबी कोयों में निमंत्रण के मादक संकेत मिलते, इच्छाओं की रसमसाती झील दिखती। वह अधैर्य अपनी लंबी बरौनियाँ झपकाती - ठीक से देखो, यहाँ मैं हूँ, तुम हो, तुम्हारा सपना है। हमारा वह घर है जिसकी नींव को ईट-पत्थरों की जरूरत नहीं। मैं उसके गुदाज सीने में अपना चेहरा धँसा देता - इन हसीन वादियों में मेरा घर है - नर्म, मुलायम कबूतरों की-सी हरारत भरी... और ये तुम्हारी जाँघें- मेरे एकमात्र गंतव्य की ओर जानेवाली उजली, चिकनी सड़कें... वह गहरी साँस लेकर अपना चेहरा फेर लेती - तुम कब मुझ तक पहुँचोगे अशेष, मुझे तुम्हारा कितना इंतजार है, बहुत अकेली हूँ...
उसकी देह की गर्म झील में डूबता-उतराता मैं सोच नहीं पाता, अब मुझे और कहाँ पहुँचना है! मैं उसके कान की लवें सहलाता, गालों के नर्म गड्ढों में फिसलता... मैं क्या कुछ नहीं पा गया था! वह कहती, हमारे बीच से यह देह की मिट्टी हटा दो। दीवार बनी हमेशा खड़ी रहती है, एक-दूसरे तक पहुँचने नहीं देती।
पागल थी वह। अपने शरीर से परे होकर न जाने अब क्यों सोच और अहसास बनकर जीना चाहती थी। कहती थी, इस हाड़-मांस के मीना बाजार में बहुत अकेलापन है, जैसे राम का वनवास... वैदेही के हिस्से का जंगल उन्होंने अपने राजप्रसाद में जिया था... ये उनका सबसे बड़ा वनवास था। एक राज की बात बताऊँ? औरतें मन की अतल गहराई में किसी ऐसे ही राम को चाहती हैं जो कृष्ण की तरह महारास का साथी न होकर उसके जीवन के निसंग वनवासों का साथी हो, फिर चाहे ये वनवास उसी के हाथों क्यों न मिला हो... देह के स्वाद में डूबकर कोई मन के अंतर में भीगना ही नहीं चाहता...