औरत / मुकेश मानस

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह मेरी ही गली में रहती थी। मैंने गलियों में आवारागर्दी करते फिरते कई लड़कों से उसके बारे में सुना था। वे रस ले लेकर उस औरत के बारे में बातें करते थे और मैं उनकी बातें सुन सुनकर दुखी होता था। आज तक मैंने उस औरत के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा है। पर आज मैं उसके बारे में आपको कुछ बताना चाहता हूँ। नहीं जानता कि क्यों? नहीं, यह किस्सागोई की कोई नई शैली नहीं है। वह मेरे लिए वह कोई कहानी तो हो ही नहीं सकती। नहीं, कतई नहीं। क्योंकि जो जीवन उसने जीआ है, उसे कहानी में अंटाने की काबलियत मुझमें नहीं है। फिर भी, अगर आप इसे केवल एक कहानी समझें तो भी मुझे कोई गम न होगा।

कई दिनों फाकों में गुजारने के बाद उसके आदमी को ट्रक पर खलासी की नौकरी मिल गई। उसका आदमी अगले दिन अल्ल-सुबह ही काम पर चला गया। उसने यह कहकर कि उसके आदमी को काम मिल गया है, अड़ौस-पड़ौस से कुछ उधर माँग लिया। वह एक वक्त खाती रही और बाकी वक्त फाके में बिताती रही।

तेरह-चौदह दिन बाद उसका आदमी घर लौटा। उसने पूरा मन लगाकर चूल्हा जलाया। पूरे स्वाभिमान से रोटी पकाई थी उसने उस दिन। उधर भी चुकता हो गए। उसका आदमी गली भर के लोगों के साथ उठता-बैठता रहा। वह शराब पीता रहा और उसे भोगता रहा। इन दिनों वह बहुत खुश रही। उसके चेहरे पर असीम संतुष्टि एक अच्छी तरह से पकी रोटी की तरह चमकती रही।

तीन दिन बाद उसका आदमी काम पर लौट गया। ये तीन दिन बहुत जल्दी-जल्दी बीत गये। आदमी के जाने पर घर फिर खाली हो गया और धीरे-धीरे चूल्हा भी ठंडा होने लगा। आदमी उसे कुछ रुपये दे गया था। कुछ ही दिनों में लाख भींचकर रखने पर भी वे उसके हाथों से एक-एक करके सरक गये। आदमी ने आठ-दस दिन बाद आने को कहा था।

एक दिन हारकर ट्रक अड्डे पर अपने आदमी के बारे में मालूमात करने पहुँची।

“शाम तक लौट आयेगा” - वहाँ खड़े कुछ लोगों ने उसे बताया।

रात के आठ-नौ बजे वह फिर अड्डे पर पहुँची। लोगों ने उसे सांत्वना दी। एक ने उसे कुछ रुपये दिए जिन्हें लेने से वह इंकार नहीं कर सकी। रुपये लेकर वह घर लौटी मगर उसका आदमी नहीं लौटा। तीन-चार दिन बाद लौटा। एक दिन ठहरा। दिन भर शराब पीता रहा। रात-भर उसे भोगता रहा। सुबह जब वह कुछ रुपये उसकी हथेली पर रखकर जाने लगा तो उसने उसका हाथ पकड़कर उसे रोका।

“क्या है?” आदमी ने पूछा। “वो... वो विमला बता रही थी कि वो मुझे एक कोठी में झाड़™-पौंछे का काम दिलवा सकती है।” “कोई जरूरत नहीं कोठियों में झाड़-पौंछे का काम करने की। बाहर के आदमी ठीक नहीं होते हैं।” वह अपने आदमी को बस ताकती रह गई।

इस बार भी उसका आदमी कई दिनों तक नहीं लौटा। वह उसकी खोज-खबर के वास्ते ट्रक-अड्डे पर गई। किसी ने बताया कि रात को लौटेगा। उसने सात-आठ बजे तक आदमी का इंतजार किया। वह दुबारा ट्रक अड्डे पर पहुँची। जिस आदमी ने पहले उसे रुपये दिये थे वही उसे मिल गया। उसने इस बार उसे एक सौ का नोट दिया। जब वह घर पहुँची तो उसकी धोती अस्त-व्यस्त थी और उसकी छातियों में दर्द हो रहा था। अगले दिन उसका पति लौट आया। उसने खूब मन से उसकी सेवा की। रात को जब वह उसकी छातियाँ भंभोड़ रहा था, तब उसने उसके कान में फुस-फुसाकर कहा - “सुनो मुझे डर लगता है” “डरने की क्या बात है” “तुम यहीं कुछ काम कर लो” “यहाँ काम नहीं मिलता”

अगले दिन आदमी उसे कुछ रूपये देकर काम पर चला गया। दस-बारह दिन बाद वह फिर अड्डे पर पहुँची मगर उसका आदमी नहीं लौटा था। अब की बार किसी और ड्राईवर ने उसकी धोती अस्त-व्यस्त की। वह कुछ रुपये लेकर घर लौट आई। फिर यह सिलसिला चल पड़ा।

नौ महीने बाद उसे एक लड़का पैदा हुआ। आदमी ने खूब खुशी मनाई। तीन दिन तक अपने यारों-दोस्तों को घर लाता रहा। पीता-पिलाता रहा। अब उसके यार-दोस्त उसकी ग़ैर हाज़िरी में उसके घर आने लगे। वे अब आदमी के बेटे के हाथ में रुपये थमाकर जाने लगे। आदमी की ग़ैर हाज़िरी में अब उसके पास दो खाली पेट थे। उसको अपने बेटे का पेट अपने पेट से ज्यादा बड़ा लगता था। ऐसे ही उसको दूसरा बच्चा पैदा हुआ,। यह एक लड़की थी।

अब उसकी धोती की अस्त-व्यस्तता के बारे में मुहल्ले वालों को भी पता चलने लगा था। मुहल्ले के बाहर भी बिना अखबार में आये उसकी खबर तेजी से फैल रही थी। लड़कों ने भी उसके उस पर फब्तियाँ कसना और सीटी बजाना शुरू कर दिया था। एक दिन गली की एक औरत ने उसे बाहर किसी और आदमी के साथ देख लिया। फिर तो गली की औरतों ने उसे घूरना शुरू कर दिया। घूरते-घूरते गली की औरतों की आंखें बंद होने लगी मगर उसका किस्सा बंद नहीं हुआ। अब औरतों ने उसे सुनना और देखना बंद कर दिया था। उसका आदमी पन्द्रह-बीस दिन में एक बार आकर, शराब पीकर, उसे भोगकर जाता रहा।

एक दिन उसके आदमी ने उसे खूब मारा। मुहल्ले की कोई औरत उसे बचाने नहीं आई। हर औरत को अपने आपको बचाये रखने की पड़ी थी। जो भी उस गली में आता वह उत्सुकता से उसके घर के भीतर झांकता था। अब उसका पति आता, शराब पीता, उसे भोगता, उसे पीटता और चला जाता। उसके एक और लड़का पैदा हुआ। लड़के की खबर सुनकर उसका आदमी आया मगर चार कंधों पर लदकर। इस बार उसने शराब नहीं पी, न उसे भोगा, न उसे पीटा। आदमी के एक दोस्त ने उसे बताया कि वह भी कहीं और, किसी और औरत की धोती अस्त-व्यस्त करता था।

मुहल्ले में उसके प्रति घृणा बढ़ रही थी और उसके घर में बच्चों की संख्या। बच्चों से गजब प्यार था उसको। कोई जरा भी उसके किसी बच्चे को छेड़ता तो चंडी बनकर आँख से अंगारे बरसाने लगती थी। वह मेहनतानों के रुपयों से अपना और अपने बच्चों का पेट भरती रही।

इसी तरह कई साल गुजर गए। मैं उसे देखता था जैसे और लोग देखते थे। जो देखा वही आपको सुना दिया। कल ही वो मर गई। उसके बच्चे अभी भी उसकी लाश पर रो रहे हैं।

आप कहेंगे ये तो कोई कहानी नहीं है। यह एक सीधी-साधी घटना है। यह मेरी मजबूरी है, मैं क्या करूँ। पूरी दुनिया में किसी भी झुग्गी बस्ती में रहने वाली किसी भी दु:खी और लाचार औरत की क्या कोई कहानी हो सकती है। अगर कोई कहानी हो भी, तो क्या उसे किसी कहानी की तरह सुनाया जा सकता। उस औरत के बारे में कोई कहानी, कहानी में अँट ही नहीं सकती।

रचनाकाल : 1996