और आदमी रोया / धीरेन्द्र अस्थाना
अगर किसी संवेदनशील आदमी ने यह दृश्य देख लिया होता तो निश्चित रूप से उसका मन दुनिया के समूचे कार्य-व्यवहार से उचट जाता। बाहर बारिश हो रही थी। कमरे के भीतर पंखा घूम रहा था। नाइट बल्ब की अशक्त रोशनी में घड़ी के रेडियम मढ़े अक्षर साफ चमक रहे थे। छोटी सुई बारह और एक के बीच तथा बड़ी सुई पांच पर ठहरी हुई थी। छत पर बारिश की आवाज थी। भीतर घड़ी की टिक-टिक और पंखे की सर-सराहट। मेज पर शाम का अखबार था और बिस्तर पर उस आदमी की पत्नी, जो मेज के सामने पड़ी कुर्सी पर बैठा बेआवाज रो रहा था।
रात के साढ़े बारह बजे, जब लोग अपनी-अपनी नींद में हों, अपने सपनों और हादसों के साथ, तब केवल एक आदमी को इस तरह रोते देखना क्या बेचैन कर देनेवाला अनुभव नहीं है?
कमरे में और भी बहुत कुछ था, किताबों की अलमारी, बेंत का सोफा, मोनालिसा की मुस्कान, वीनस का बुत और एक दो बाई डेढ़ फुट का ऐसा चित्र, जिसमें आदमी अपनी पत्नी और इकलौते बच्चे के साथ खड़ा इस तरह मुस्करा रहा था मानो उसने जीवन का सच पा लिया हो।
और इसी आदमी की दोनों आंखों से आंसुओं की धार पिछले पांच मिनट से अनवरत बह रही थी।
इस समूचे दृश्य को पेंटिंग में बांधकर किसी कलादीर्घा में रख दिया जाता तो कई लोगों की नींद गायब हो जाती और कई लोग अपने एकांत में इस दृश्य की स्मृति से सिहर-सिहर उठते, लेकिन फिलहाल इस दृष्य को देखनेवाला कोई नहीं था।
बिस्तर पर लेटी आदमी की पत्नी और उसके बगल में लेटा आदमी का बेटा इस सबसे निरपेक्ष अपनी-अपनी नींद में थे। नींद में भी उस आदमी की पत्नी के चेहरे पर वही दर्प ठहरा हुआ था, जिससे टकरा-टकराकर आदमी की छाती खोखली हो गयी थी। उन दोनों के बीच पसर गये तनाव की छायाएं बच्चे के चेहरे पर किसी बदनुमा दाग की तरह उभर आयी थीं। बच्चा पिछले दो बरस से अपने मां-बाप की जिस मुठभेड़ के बीच फंसा हुआ था, उसने उसके चेहरे की चपलता, कोमलता और मासूमियत को जैसे जड़ में पहुंचकर सोख लिया था। उसके छः वर्षीय चेहरे पर जैसे कोई सार बरस का प्रेत भिड़ा हुआ था। रह-रहकर उसके होंठ टेढे हो जा रहे थे और वह बार-बार करवट बदल रहा था।
अलमारी पर रखा हुआ चित्र चार बरस पहले का था और उस पर जमी धूल को शायद कई दिनों से पोंछा नहीं गया था, इसीलिए वह कुछ धुंधलाया हुआ-सा था-एक ऐसी स्मृति की तरह, जो तेजी से घटती घटनाओं के कोलाहल में डूबी हुई हो।
झगड़ा उन दोनों में पहले भी होता था, पहले यानी उस समय भी, जब का चित्र अलमारी पर रखा था, लेकिन तब झगड़े में आदमी टूटता नहीं था। उसे लगता था कि उन दोनों के बीच जो कुछ भी गलत है, उसकी उम्र बहुत कम है और उसके मन में अपनी पत्नी को लेकर जो निर्मल और शांत-सी प्रेम की नदी बहती है, उसकी आहट एक दिन पत्नी सुन ही लेगी, तब शायद सब कुछ ठीक हो जाये, पर ऐसा हो नहीं सका। पत्नी की आंखों, मन और मस्तिश्क में जो सर्पिणी के दर्प-सा अहं समाया हुआ था, वह मषः नष्ट होने की बजाय विराट होता रहा और आदमी के मन में बहती नदी उसी अनुपात में सूखती रही, उसके भीतर का खालीपन विस्तृत होता रहा और फिर आदमी को लगा कि वह टूटने लगा है और अकेला छूट गया है। उसने पाया कि पत्नी के लिए उसकी उपयोगिता समाप्त हो गयी है, और उसका छोटा-सा घर दो कमरों वाले मकान में तब्दील हो गया है।
इस मकान को उसने बड़े चाव से बनाया था और अपनी सारी ऊर्जा इसमें झोंक दी थी। जब उसके परिचितों, दोस्तों और रिश्तेदारों तक यह खबर पहुंची थी कि उसने दिल्ली जैसे शहर में अपना खुद का मकान बनवा लिया है तो उन्हें यकीन नहीं हुआ था। यकीन खुद उसे भी नहीं हुआ था, लेकिन मकान बना हुआ सामने था और उसके बाहर, दरवाजे के चौकोर खंभे पर सफेद पत्थर पर लिखा हुआ था- निशा।
निशा आदमी की पत्नी का नाम था। मकान का नाम ही नहीं, उसका मालिकाना हक भी आदमी ने अपनी पत्नी के ही नाम किया था, सिर्फ इसलिए ताकि वह जान सके कि उसका पति उसे कितनी शिद्दत के साथ चाहता है। विवाह की पहली रात आदमी ने अपनी पत्नी से अकबर के से अंदाज में पूछा था, ‘बोल, तुझे क्या चाहिए?‘ तब वे दक्षिण दिल्ली की एक सर्वेंट कॉलोनी में मुर्गे के दड़बे जैसे किराये के एक कमरे में रहते थे। पत्नी ने कहा, ‘एक अपना घर‘, और आदमी जंग के लिए निकल पड़ा। उसने अठारह-अठारह घंटे काम किया, पूरे आठ बरस। आठ बरस बाद जब उसने यमुनापार की एक गरीब बस्ती में पचास गज के टुकड़े पर दो कमरों का एक छोटा-सा घर बनाया और उस पर “निशा” का नाम खुदवाया तो उसे पता चला कि निशा कहीं नहीं है। रात-दिन काम में खटते रहने के कारण वह यह ध्यान नहीं रख पाया कि निशा भी उसके साथ-साथ आ रही है या नहीं।
इसका पता तत्काल नहीं लगा। जैसे प्याज के छिलके उतरते हैं, उसी तरह वह इस यथार्थ के सामने पहुंचा कि निशा साथ नहीं दे पायी और जिसे उसने घर समझकर बनाया, वह ईंट और सीमेंट का दो कमरों वाला एक मकान ही बन सका, ऐसा मकान जिसकी छत के नीचे एक आदमी और एक औरत विपरीत दिशाओं से आकर एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े हो गये हैं। मकान में रहते एक वर्ष भी पूरा नहीं गुजरा था कि विसंगतियां और शिकवे उभरने लगे। वह समझ ही नहीं पाया कि आठ वर्षों तक दिल्ली के विभिन्न कमरों में उन दोनों ने जो यातना, पीड़ा और अभाव झेला, जो धूप, जाड़ा और बरसात सही, नौकरी और पार्टटाइम को अठारह-अठारह घंटे देने के कारण प्रेम-रहित जीवन गुजारा, एक-दूसरे को वक्त न दे पाने का कष्ट जिया, वह सबका सब अपने घर में पहुंचकर सुख में बदलने की बजाय एक अपार दुःख और दुर्निवार यातना में कैसे बदल गया, बीते हुए आठ बरस अपने साथ उन दोनों के बीच का अनुराग और संवेदना क्यों साथ ले गये? दुखों का एक मुसलसल सिलसिला जिस सुख के लिए अपनाया था, वह सुख एक अजेय प्रतिद्वंद्वी में क्योंकर बदल गया?
और फिर, अपने घर में आने से पहले ही जो हल्का-हल्का झगड़ा, मतभेद, विवाद, गुस्सा और चिड़चिड़ापन शुरू हुआ था, वह घर में आने के बाद दोनों के जीवन पर किसी अपारदर्शी कोहरे की तरह फैल गया। घर बनने तक उसने निशा को नौकरी की सख्त यातना से बचाये रखा, लेकिन घर बनते ही निशा ने जिद में आकर खुद भी नौकरी कर ली। वह कुछ भी कहता और निशा आहत सर्पिणी की तरह अपना फन उठाकर फुफकारने लगती। आखिर उसने खुद को हालात के हवाले कर दिया और घर आने से बचने लगा। घर में घर जैसा कुछ रह भी नहीं गया था।
और एक दिन डिप्रेशन के एक गहरे क्षण में उसने तय किया कि वह नौकरी छोड़ देगा। क्यों करे नौकरी? किसके लिए इतना दुःख, अपमान और कष्ट उठाये? कोई भी तो यह महसूस करनेवाला नहीं था कि उसने कितना कुछ सहा और खोया। तो फिर, किसके लिए ठहरा हुआ है वह? उसने सोचा और नौकरी छोड़ दी।
यह छः महीने पहले की बात है।
नौकरी छोड़ने के दो महीने के भीतर ही उसे पता चल गया कि उसने कितनी बड़ी गलती कर डाली। अब वह और ज्यादा अकेला हो गया था। दतर में एक पूरा दिन चुपचाप गुजर जाता था, लेकिन अब यह दिन उसके सिर पर सवार हो गया था। दूसरे यह कि पिछले वर्षों में उसने जो अठारह-अठारह घंटे काम किया था, उसने उसके जिस्म को तोड़ डाला था। नौकरी करने के दौरान यह पता नहीं चला, लेकिन जब उसने नौकरी छोड़ दी तो पिछले कई बरस की थकान उसके जिस्म पर इस तरह चढ़ बैठी, जैसे घायल हाथियों का हुजूम अपनी ही सेना को रौंदता गुजरने लगे। उसने पाया कि वह थक गया है और एक थकी उम्र में जब उसे साथ और सहारे की सबसे अधिक जरूरत थी, वह अकेला छोड़ दिया गया है।
घर से वह सुबह ही निकल आता, बिलकुल उसी तरह जैसे बेरोजगार जवान लड़के निकल जाते हैं और अपना वक्त इधर-उधर गुजारते हैं। प्रोविडेंट फंड से उसे दस हजार रुपये मिले थे, जिन्हें उसने बैंक में जमा कर दिया था और संयम से खर्च कर रहा था। वह सिगरेट के बजाय बीड़ी पीने लगा, दो वक्त के बजाय एक वक्त खाना खाने लगा, वह भी किसी सस्ते ढाबे में। उसने दोस्तों से मिलना बंद कर दिया।
कई बार ऐसा भी होता कि ठेके पर उसकी स्मृति में अपने बेटे की याद चली आती और वह पीना छोड़कर अपने घर चल पड़ता। घर में घुसते ही वह बेटे को प्यार करना चाहता तो निशा तमककर उसके सामने खड़ी हो जाती। वह एक चांटा लगाता और निशा पर जैसे दौरा पड़ जाता। उस दौरे में वह उसके ऊपर गिलास, प्लेट और तकिये उठाकर मारने लगती। एक बार तो निशा ने पेपरवेट ही उठाकर फेंक मारा, जिससे उसका माथा थोड़ा-सा फट गया। रोया वह तब भी नहीं।
और आज तो झगड़ा भी नहीं हुआ था, डिप्रेशन का दौरा भी नहीं पड़ा था और उसने शराब भी नहीं पी हुई थी। तो फिर ऐसा क्या था कि राते के साढ़े बारह बजे वह रो रहा था?
वजह थी शाम का अखबार, जो उसने सेंट्रल पार्क में खरीदा था, लेकिन पढ़ा अभी तक नहीं था। वह रात को हमेशा की तरह, खाना खाकर लास्ट बस से करीब ग्यारह बजे घर लौटा था। जब वह आया, निशा सो रही थी। दरवाजा खोलकर वह फिर सो गयी। तभी बारिश होने लगी। कुछ देर वह खिड़की से लगकर खड़ा बारिश का बरसना देखता रहा, फिर खिड़की बंद कर कुर्सी पर आ बैठा। थोड़ी देर वह कुर्सी पर यूं ही बैठा रहा। फिर उसने अखबार उठा लिया और नाइट बल्ब की कमजोर रोशनी में खबरें पढ़ने की कोशिश करता रहा। अखबार के आखिरी पेज पर, कैबरे के विज्ञापनों के ढेर में दबी हुई एक छोटी-सी खबर पर उसकी नजर पड़ी, जिसका शीर्षक था-‘अकेली थी, मर गयी।‘ उत्सुकतावश वह खबर पढ़ने लगा। लिखा था - मिरांडा हाउस में पढ़ने वाली एक 24 साल की लड़की ने कल नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या कर ली। लड़की के पास से एक कागज बरामद हुआ है, जिस पर लिखा है -‘मैं अकेलेपन से लड़ते-लड़ते थक गयी हूं और अपनी मर्जी से मर रही हूं।‘
खबर पढ़कर उसने अखबार वापस मेज पर रख दिया और अपना माथा सहलाने लगा। उसे लगा, जैसे भीतर ही भीतर वह कमजोर पड़ रहा है। कितना साहस किया होगा लड़की ने, उसने सोचा। अचानक उसके मन में आया कि अगर वह लड़की को जानता होता तो उसे मरने से बचा सकता था। एक बेहद अकेली लड़की अगर एक बेहद अकेले आदमी से परिचित होती तो शायद... तो शायद, उसने सोचा और सहसा उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।
बाहर बारिश अभी भी हो रही थी, रात के साढ़े बारह बजने ही वाले थे और बत्तीस बरस का एक आदमी चौबीस साल की एक अनजान लड़की को याद कर के रो रहा था।