और कई / गरिमा संजय दुबे
भोली भली चंपा, नई–नई शादी होकर अपने पति के साथ शहर आ रही थी। गाँव का अपना खुले-खुले दालान वाला, थोड़ी-सी गुजारे लायक ज़मीन वाला घर छोड़ कर, इंदौर जैसे शहर में। ख़ूब किस्से सुन रखे थे, इंदौर ऐसा है, इंदौर वैसा है, बहुत उत्साहित थी, शहर में रहेगी घुमेंगी फिरेगी फिर गाँव वालो के सामने शहर वाली होने का रौब झाड़ेगी। सोच–सोच कर मन बल्लियों उछलने लगा। इंदौर की शुरुआत हो चुकी थी, खिड़की से झांक–झांक कर फटी–फटी-सी आँखों से शहर की चमक दमक, ऊँची-ऊँची इमारते देखने लगी। बीच–बीच में बदन उघाडू कपड़े पहने सरपट गाड़ियाँ दौड़ाती लड़कियों और महिलाओं को देखते ही उसका मुँह खुला का खुला ही रह गया, साड़ी का पल्लू मुँह में ठूस कर धीरे से उसके पति रमेश के कान में फुसफुसाई, —"देखो तों यो कई, या शहर की लुगाई होंन इस तरा का कपड़ा पेरे"। उसका पति रमेश हँसते हुए बोला:—"यो शहर हे शहर अभी आगा-आगा देख थारे कई-कई नजारा देखने मिले"। गाड़ी नवलखा बस अड्डे पहुँच गई, पोटलियों और पेटियाँ गिनकर सामान उतरा और वे लोग सिटी बस का इन्तजार करने लगे। चम्पा ने कनखियों से अपने पति को देखा उसके मन में अपने नए घर का सपना तैरने लगा सोचने लगी—"कैसो होयगो घर, आँगन कैसो होयगो। हूँ कुवारा आदमी को कईं घर? एसोज बिखरो पडियो होयगो, जय के सब सम्भाल्नु पड़ेगो"। फिर नए घर को सजाने के सपने देखने लगी—"पेला तो लिपि पोती के साफ़ करूँगा, ने पछे गमला लगइ के तुलसी को गमलों बीच माय मेली दूँगा, ने पाछे देवघर भी तो सजानो पड़ेगो म्हारा देव होंन के भी तो जगे लगे, रसोई के भी सजानो पड़ेगो, एसीज पड़ी होयगी, अब में अई गई हूँ ने सब करी लूँगा, ये देख्ताज रइ जायेगा, कैगा कि खाली सुरतिज नि सीरत भी चोखी है मारी"। अचानक गाड़ी के हार्न ने उसके विचारों में खलल डाला, दोनों सिटी बस में सवार हो अपने घर की और रवाना हुए। चार-पांच किलोमीटर की यात्रा के बाद घर जाने के लिए एक ठेले पर सामान जमा वे दोनों उसके साथ-साथ पैदल ही चलने लगे। ज्यों–ज्यों घर पास आ रहा था, चंपा के दिल की धड़कने तेज होती जा रही थी। ऊँची-ऊँची नई निर्माणाधीन इमारतों से सजी एक टाउनशिप की चौड़ी-चौड़ी सड़कों को पार कर, एक अधूरे बने मकान के पास जा कर जब रमेश ने कहा—"लो थारो घर आई गयो" घर देखते ही चंपा उछल पड़ी निर्माणाधीन मकान को अपना घर समझ कर ख़ुशी से झूम कर बोली:-"इत्तो सुंदर"। रमेश ने कहा:-"गेली हे कईं यो नि यो हे अपनो घर"। चौक कर पास में देखा तो काम में आने वाली ईटों को जमा कर, बारदान से ढँक कर चार दीवारें खड़ी कर दी गई थी। एक छोटा-सा खोलिनुमा कमरा उसका इंतज़ार कर रहा था। चंपा का उतरा हुआ चेहरा देखकर रमेश उदास होकर बोल "बेलदार की क़िस्मत में एसओज घर होय चंपा, अब जो हे वह योज हे, काम का तलाश में गाँव छोडियो तब से मकान तो घना बनाया पर घर पाछे छुटी गयो"। चंपा समझदार थी पति की उदासी भांप कर बोली "तो कईं हुयो यो भी तो घरज हे, चलो सामान मेली दो"। चंपा मन ही मन उदास तो थी, उसे अपना गाँव का घर याद आ रहा था, खुला खुला-सा दालान वाला घर और कहाँ ये छोटी-सी खोली, सबकुछ एक ही कोने में सिमटा हुआ, शौच आदि के लिए भी निर्माणाधीन मकानों का आसरा। वह भी तब तक जब तक कि मालिक न आ जाये, मकान बनने के बाद फिर नया पान नया चूना। शुरू-शुरू में तो समझ ही नहीं पाती थी कहाँ खाना बनाये, कहाँ सोये, पर धीरे-धीरे आदत हो गई। शुरुआत के दो चार महीने तो यूँ ही घूमने फिरने में निकल गए। रमेश बेलदार था आय अच्छी थी। एक मोटर साईकिल भी खरीद ली थी। रोज़ शाम चंपा को इंदौर की नई-नई जगहें दिखाने ले जाता और चंपा भी अपनी इस नई ज़िन्दगी में खुश थी। शहर की हवा ने उसके रहन सहन में भी बदलाव ला दिया था। साफ़ सफ़ाई पसंद तो वह थी ही, अब सुंदर भी दिखने लगी। उसने अपनी कल्पना के रंग देकर छोटी-सी खोली को भी सजा दिया। चार पाँच गमलों में पौधे और तुलसी भी लगा दी। दोनों के सुखी जीवन का एक और राज़ था कि रमेश को कोईं बुरी लत नहीं थी। अपने आस पास वाली भाभियों को अपने शराबी पतियों के हाथ पिटते देखता तो सोचता, —"मै तों अपनी चंपा को फूल की डाल से भी न मारूं"। रमेश कमाता अच्छा था, अब कमाई को सहेजने वाली भी आ गई। यूँ भी भारतीय महिलाओं को बचत करना घुटी में घोल कर ही पिला दिया जाता है। छोटा-सा लोंकल टी.वी., छोटा-सा कूलर, बिजली से चलने वाली सिगड़ी सब अस्थाई कनेक्शन की बदोलत चल रहा था। राजबाड़ा घुमाने ले जाता तो कई-कई फरमाईशे पूरी करता, खाने पीने की ईतनी चीजे जिनके नाम भी चंपा ने कभी सुने नहीं थे, खाता और खिलाता। चंपा को शहर रास आ गया था। रमेश का धंधा भी तेज चलने लगा। चंपा सुबह जल्दी-जल्दी काम निपटा कर अपने टी.वी. के सामने सिरियल देखने बैठ जाती। यहाँ तो चौबीसो घंटे बिजली रहती है। यह भी एक सुख है, शहर में रहने का। छः महीने बीत गए आस पास के मजदूरों और बेलदारों से रमेश का स्तर ऊँचा था। आस-पास के लोग जब चंपा को बेलदारिन कहते तो चंपा को यह जमिदारिन-सा सुकून देता, पर इन दिनों उसे अपना घर बहुत याद आने लगा था। रमेश जहाँ घर बना रहा होता वह टी.वी. देखना छोडकर वहीँ चली जाती और मकान बनते हए देखती रहती। घर की नीव का खुदना, दीवारों का बनना, छत का डलना सब उसे ऐसा लगता मानो अपना ही घर बनते देख रही हो। उसे याद आया कि कभी आशापुरी माता मंदिर से निकलते समय पत्थरों को एक के उपर एक रख पूरे पांच मंजीला घर बनाकर आई थी, पर अब यह एक खोली ही उसका जीवन थी।
एक एक ईंट का जुड़ना उसे मकान से जोड़ देता। दिन में कई–कई बार पूरे घर का चक्कर लगा आती, दीवारें बन गई थी, छत भी डाल दी गई थी, घर में घूमती तो सोचती, —"म्हारो घर होतो तो या सोने को कमरों, या देवघर, ने या बैठक होती, कभी-कभी हुमक कर रमेश से कहती—" या एक चौकी बनई दो भगवान रखवा का काम आयेगी"रमेश हंसकर कहता—" ये साब लोग को घर हे, वि लोग ईंटीरीयर करवावे, थारा म्हारा जैसा नि कि जा मन हो कईं भी बनाई लियो सब पलानिग से होए हे"।
चंपा फीकी हंसी हंस देती। जैसे–जैसे मकान पूरा हो रहा था चंपा का मन ऐसे खुश हो रहा था, मानो उसका अपना घर बन रहा हो। इधर बारिश का मौसम भी आने वाला था, चंपा और रमेश अपना सामान लेकर घर के पिछले हिस्से में आ गए। घर में आने के पहले चंपा ने सब की नज़र से बचकर आरती की थाली सजाकर, गणपति बिठाकर, रोली से स्वास्तिक बनाकर पूजा कि और विधिवत गृहप्रवेश किया। रमेश ने देखा तो खीझ कर बोला—' ये कईं करे हे यो हमारो घर थोड़ी हे जो इस्तर पूजा-पाठ करिके अई रि हे, थोडा दन बाद पाछे खोली मेज आनो हे"।
भोली चंपा हंस कर बोली—"तो कई हो थोडा दन का लिएज सईं घर तो घर हे नि, म्हारी बाई केवे कि नई जगा पर पूजा पाठ करिकेज जानो चहिये, भगवान को नाम ली के काम करवा से वू काम बरकत दे"। सोचती हूँ कि अगर भगवान के नाम का आसरा न होता तो करोड़ों भारतियों का सम्बल कौन बनता?
रमेश उसकी सादगी और मासूमियत पर खुश भी हुआ और दुखी भी। चंपा पूरे घर में सेठानी-सी डोलती, दूसरे मजदूरों और उनकी पत्नियों को कभी-कभी चाय पिलाकर अपने ख़ास होने का जश्न मनाती। घर की आत्मा को महसूस करने के लिए हर कमरे का उपयोग करती। रसोई, भगवान घर, बैठक शयनकक्ष सब अलग-अलग उपयोग में लाती। रमेश उसकी भावना समझता पर एक बेलदार के लिए शहर में अपना घर! असंभव। फिर उसका काम भी तो ऐसा है कि आज यहाँ तो कल कहाँ, ऐसे में स्थाई ठिकाना कैसे हो? फिर वह सोचता थोड़े-थोड़े दिन के लिए ही सही चंपा इन घरों में रहकर खुश हो ले तो क्या बुरा है। तीन महीने गुजर गए मकान पूरा बन गया था। मकान मालिक आ कर चंपा और रमेश को भी अपना सामान वापस अपनी खोली में ले जाने का कह कर और साफ़ सफ़ाई का आदेश दे कर चला गया। ।चंपा ने बुझे मन से अपना सामान बाँध, उसकी आँखों में आँसू आ गए मानो किसी ने अपने ही घर से निकाल दिया हो। रमेश उसकी हालत समझ रहा था, उसकी आँखों में भी नमी थी। उसे लगा उसने पहले भी कईं मकान बनाये हैं, पर ऐसा जुड़ाव उसे किसी मकान से नहीं हुआ। चंपा के साथ ने मकान को घर बना दिया था और अब वापस वही खोली। अगले दिन मकान का गृहप्रवेश धूम धाम से हुआ। गाना बजाना, खाना पीना सब हुआ पर चंपा उदास थी। रात को अपने पलंग पर उदास-सी वह एकटक उस मकान को देख रही थी, जो अब उसका नहीं था। रमेश भी आकर उसके पास लेट गया और धीरे से बोला-"चंपा थारा आने का पेला म्हारे किसी मकान में घर जेसो नि लग्यो, में थारे एक बात बताऊ कि में तो सिर्फ़ मकान बनाऊ घर नि म्हारो घर तो थारा से हे। ईट गारा के जोड़ी के कोईं मकान तो बनई सके पर घर तो उमे रेवा वाला लोग बनावे, तू और मैं साथ हा तो यो खुलो आकाश भी घर बनी जायगो और गाँव में तो हमारो घर हेज सईं या तो हम काम की खातिर रइ रिया हे"।
चंपा बोली-"ने बुडापा में कईं करांगा"
रमेश बोला-"खेती करांगा, ने जेसा थारा ने म्हारा माँ-दादा अपना-अपना छोरा-छोरी के शहर भेजी के शांति से रे हे वैसा रवांगा और कईं"
रमेश के बोलने के नाटकीय तरीके पर चंपा खिलखिला उठी बोली-"तम तो वेसा बोली रिया जैसो वह टी.वी. में हीरो बोले" घुमाँगा फिरांगा ने ऐश करांगा और कईं"
"और कईं" रमेश अपनी आवाज़ को ओर नाटकीय बनाते हुए बोला: "ने एक बात और" ये साब लोग आखी उमर एकज मकान में गुजारी दे, ये तो थारा म्हारा जैसा राजा-रानीज होए जिनके हर साल नया मकान में रेनो नसीब होए, हे कि नि।
चंपा हंसी-"और कईं"
रमेश हंसा-"और कईं"
और दोनों की सम्मिलित खिलखिलाहट से वातावरण गूंज उठा।