और कहानी मरती है / पंकज सुबीर
कहानी के पात्र आज फिर बग़ावत पर उतारू हैं, ऐसा पिछले एक सप्ताह से हो रहा है। अपनी इस कहानी को जब भी आगे बढ़ाने का प्रयास करता, इसके पात्र फ़ौरन कथा से बाहर आकर अपना विरोध प्रदर्शन करने लगते। इन पात्रों को समझाने के प्रयास में ही पूरा समय व्यतीत हो जाता है और कहानी वहीं रुकी रहती है। आज भी ऐसा ही हुआ पेन उठाकर रुके हुए घटनाक्रम को प्रारंभ करने ही वाला था कि अचानक निशा सामने आ गई, कहानी की सहनायिका जिसे मैंने अधिक ख़ूबसूरत वर्णित नहीं किया है कथा में।
अधिक ख़ूबसूरत नहीं लग रही है पर शायद अभी-अभी नहाकर निकली है। बाल भीगे हुए हैं, उनमें से पानी की बूंदें टपक रहीं हैं, मुझे कहानी को पुनः प्रारंभ करता देख शायद जल्दबाजी में भागकर आई है। उसका सद्यःस्नात रूप देख मुझे लगा कि इसे कुछ और ख़ूबसूरत दिखाया जाना था कथा में, पर जाने क्यों मैं चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर पाया। अगर कथा में इसे कुछ और सुंदर वर्णित किया जाता तो आज सद्यः स्नात रूप में यह और ज़्यादा सुंदर लगती।
निशा रीडिंग टेबल के सामने रखी बेंत की कुर्सी पर बैठ गई। मैंने उसकी तरफ़ से कुछ लापरवाही दिखाते हुए कहानी को आगे बढ़ाने का प्रयास किया कि अचानक वह बोली 'रुको।'
मैंने कहा 'देखो निशा मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ कि तुम सहनायिका हो और तुम्हारा चरित्र चित्रण इसी प्रकार किया जाना है।'
शांत स्वर में वह बोली 'मैंने इस बात पर कब विरोध किया कि आपने मुझसे ज़्यादा सुंदर मालती को दर्शाया है। मेरा विरोध तो केवल इस बात को लेकर है कि आपने मेरा चरित्र बिगाड़कर क्यों प्रस्तुत किया? आपने मूल कथा में मेरी अतिरिक्त कथा जोड़ी ही क्यों? अपने मुख्य नायक माही और नायिका मालती की कथा को लेकर ही क्यों नहीं चले?'
मैंने फिर उसे समझाने का प्रयास किया 'देखो निशा मैं यह सब अपने लिये नहीं लिखता, अपने पाठकों के लिये लिखता हूँ, अगर उन्हें ही संतुष्ट नहीं कर पाया तो कल से कौन पढ़ेगा मुझे? केवल मूल कथा से काम नहीं चलता, पाठक एक ही कहानी में सब कुछ चाहता है। इसीलिये मैंने तुम्हारा चरित्र गढ़ा है, वरना केवल माही और मालती की कहानी को पढ़ता कौन?'
निशा के चेहरे पर विरोध नज़र आने लगा, बोली, 'तो आपने केवल मसाले के रूप में मेरा और अनुज का चरित्र गढ़ा है, केवल अपने पाठकों को चटखारेदार सामग्री देने के लिए ही मेरा चरित्र गढ़ा है। शर्म आनी चाहिए आपको।' बिना विचलित होते हुए मैंने कहा, 'निशा अगर मैं ऐसा नहीं करूंगा तो मुझे चुका हुआ घोषित कर दिया जाएगा। इतने वषरें में जो मुक़ाम मैंने हासिल किया है, वह एक ही झटके में हाथ से चला जाएगा। मुझे धारा के साथ बहना ही पड़ेगा। आजकल शर्म और सिद्धांत का कुछ नहीं होता।'
'लेकिन आपने मेरे चरित्र को इतना विकृत क्यों प्रस्तुत किया है, अनुज के साथ बिना विवाह के मेरे सम्बंध दिखाए हैं और बिना विवाह के ही, उसके बच्चे की माँ बनते हुए बताया है और सबसे बड़ी बात यह कि अनुज के साथ मेरे सम्बंधों को इतना विस्तृत रूप से वर्णन किया है कि मुझे भी अपने आप से घिन आने लगी है। क्या आवश्यकता थी आपको उन अंतरंग प्रसंगों का इतने तफ़सील से वर्णन करने की?' निशा सवालिया अंदाज़ में बोली।
मैंने कहा, 'निशा आजकल का पाठक यही चाहता है। आजकल कहानी में अगर स्त्री पुरुष के अंतरंग सम्बंधों का ज़िक़्र नहीं आए, तो उस कहानी को मुक़म्मल नहीं माना जाता और मालती का चरित्र मैंने जिस प्रकार गढ़ा है, उसे लेकर मैं इस तरह का कुछ नहीं कर सकता था, इसीलिए तुम्हारे और अनुज के सम्बंधो का उपयोग करना पड़ा।'
'उपयोग ...?' उपहास भरे स्वर में बोली निशा, 'तो आपने मेरा और अनुज का केवल उपयोग किया है, साथ ही मुझे ज़्यादा सुंदर भी नहीं दर्शाया, ताकि कहीं ऐसा न हो कि मालती को छोड़कर माही का रुझान मेरी तरफ़ हो जाए और इन सबके बाद आपने मेरे साथ बड़ा अन्याय तो यह किया है कि अनुज के बच्चे की माँ बनने के बाद भी आपने मेरा विवाह अनुज के साथ नहीं करवाया, मुझे श्रापित-सा भटकने के लिए छोड़ दिया।'
समझाइश वाले अंदाज़ में मैंने कहा, 'निशा तुम्हारी और अनुज की शादी तो मैं कर ही नहीं सकता था, क्योंकि कहानी में आगे तुम्हारे ओर माही के बीच सम्बंध बनना है, हालांकि वह सब कुछ एक बार ही होना है, पर कहानी को मोड़ देने के लिए वह आवश्यक है। अगर अनुज की और तुम्हारी शादी कर दूंगा, तो वह सब कैसे होगा?'
भड़कते हुए बोली निशा, 'आपने क्या मुझे वेश्या समझ रखा है? जब चाहा जिसके साथ सम्बंध बनवा दिये, अपनी कहानी की मुख्यधारा को मज़बूत रखने के लिए मेरा चरित्र इतना विकृत क्यों करते जा रहे हो? और फिर यह क्यों भूल रहे हो कि अनुज और मेरे बीच प्रेम भी था, जिसके कारण वह सम्बंध बने थे और कहानी में अब भी अनुज की और मेरी शादी की संभावनाएँ जीवित हैं, ये माही के साथ नए सम्बंध बनाकर उन संभावनाओं को क्यों समाप्त कर रहे हो?'
मुझे ऐसा लगा मैं अपने ही बुने जाल में फंस रहा हूँ, बोला, 'निशा तुम मुझे ग़लत समझ रही हो तुम्हारा चरित्र मैं जान बूझकर नहीं बिगाड़ रहा हूँ, ये कहानी की मांग है। माही और तुम्हारे सम्बंधों के कारण ही कहानी में वह मोड़ आएगा जो उसे रोचकता प्रदान करेगा और फिर इस सम्बंध के कारण ही तो कहानी में तुम्हारी उपस्थिति एक बार पुनः दर्ज होगी।'
'मेरी नहीं मेरे शरीर की उपस्थिति' क्रुद्ध होते हुए बोली निशा, 'आप यह क्यों भूल रहे हो कि अनुज और मैं एक दूसरे से प्यार करते थे। यह आपने ही दर्शाया है, परंतु माही और मेरे बीच तो किसी तरह का कोई प्यार नहीं है, ऐसे में इस नए सम्बंध का सीधा मतलब यही होगा कि मैं चरित्रहीन हूँ। तभी तो एक ऐसे व्यक्ति के साथ सम्बंधों को स्वीकार कर लेती हूँ, जो न केवल मुझसे उम्र में छोटा है, बल्कि मेरी छोटी बहन मालती का होने वाला पति भी है।' कहकर शांत हो गई निशा और एकटक मेरी तरफ़ देखने लगी।
मेरे लिए भी परिस्थितियाँ असहज होने लगी हैं। इसलिए बात को सहज बनाने के उद्देश्य से कहा, 'निशा मैं नहीं जान पा रहा तुम्हें वास्तव में क्या बुरा लगा रहा है, मैंने तो तुम्हारे चरित्र को पूरी तरह से आधुनिक परिवेश के अनुरूप ही गढ़ा है। अनुज अगर तुम्हारे प्रति वफ़ादार होगा तो उस पर माही और तुम्हारे बीच बने इन एक रात के सम्बंधों का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। वह फिर भी तुम्हारे साथ विवाह करेगा और शायद ऐसा ही कुछ माही ओर मालती के बीच भी होना चाहिए, आख़िरकार वह दोनों भी तो एक दूसरे को प्यार करते हैं।'
निशा शांत ही रही, शायद कुछ सोच रही है। कुछ देर की चुप्पी के बाद बोली, 'अब तो आप अगर-मगर वाली भाषा बोल रहे हैं, अर्थात आप स्वयं भी कुछ निश्चिंत नहीं है, ख़ैर मुझे अपने अभी तक के चरित्र पर कोई एतराज़ नहीं है, मैं अनुज को प्रेम करती हूँ, उसे अपना सब कुछ सौंप चुकी हूँ, वह मुझसे विवाह करे या न करे, मैं अपना जीवन काट लूंगी। पर ये नया सम्बंध माही वाला मुझे स्वीकार नहीं है, आपसे केवल अनुरोध कर सकती हूँ इसे न जोड़ें।'
मैंने फिर समझाने का प्रयत्न किया, 'निशा अब यह बहुत मुश्किल है। मैं ऐसा नहीं कर सकता। माही और तुम्हारे बीच के एक रात के सम्बंध इस कहानी का बहुत अहम बिंदु हैं। मैं उन्हें तो बदल ही नहीं सकता।'
'मैं जानती हूँ ऐसा क्यों नहीं कर सकते।' निशा पुनः क्रुद्ध नज़र आ रही है, 'आप ऐसा इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि हर लेखक कहानी के केन्द्रीय पात्र में अपने आपको ही देखाता है और यही आपके साथ हुआ है। अनुज और मेरे बीच के सम्बंधों का विस्तार से विवरण देते देते, आपकी भी लालसा हो गई मेरे साथ सम्बंध बनाने की और आप अनुज को अमेरिका भेजकर माही को माध्यम बनाकर मेरे साथ शारीरिक सम्बंध बनाना चाहते हो। मैं जानती हूँ आप लेखकों के दोगलेपन को, इसीलिए कहती हूँ छोड़िए इस दोगलेपन को, माही को माध्यम मत बनाइये, जो कुछ करना चाहते हैं स्वयं करिये।' कहती हुई निशा मेरी ओर बढ़ी, मैंने कुर्सी से उठने का प्रयास किया, परंतु फंसकर रह गया। वह मेरे बिलकुल पास आ गई। मैंने कहा, 'नहीं निशा मैं ऐसा नहीं कर सकता।' वह मुझे कुछ देर हिकारत से देखती रही फिर तेज़ क़दमों से कमरे से बाहर चली गई। अपने माथे पर चू आए पसीने की बूंदों को पोंछकर मैं टेबल पर सर टिकाकर बैठ गया।
यह रोज़ ही हो रहा है। खिड़की के पास खड़ा मैं सोच में डूब गया क्या करूं इस कहानी का? बाहर हल्की-हल्की बारिश हो रही है, पूरी शाम भीग रही है। खिड़की के कांच पर जमती गिरती बूंदों को देख निशा का सुबह वाला सद्यःस्नात रूप याद आ गया। सिगरेट ख़त्म हो गई है, खिड़की के परदे को पूरा खोलकर रीडिंग टेबल पर आ गया। आज मौसम बहुत अच्छा है। आज कहानी को एक ही सिटिंग में पूरा किया जा सकता है।
पन्ने उठाकर कहानी को बढ़ाना शुरू किया। धीरे-धीरे कहानी बढ़ने लगी, माही के घर की पार्टी में निशा और मालती का शामिल होना, देर रात निशा और मालती का शेष रह जाना, माही द्वारा कार से दोनों को छोड़ने जाना, पहले मालती को छोड़ना और फिर अनुज के फ़्लैट तक निशा को छोड़ने जाना, जहाँ अनुज के अमेरिका चले जाने के कारण निशा अकेली रहती है। कहानी तेज़ी से सरक रही है, अभी तक कोई बाधा नहीं आई है। कार अनुज के फ़्लैट के नीचे खड़ी है, निशा कार से उतरी और माही से बोली, 'माही तुम पहली बार आए हो और पार्टी के कारण थके भी हो, ऊपर आओ एक कप गरमा गरम काफ़ी पीकर जाओ, पार्टी की थकान भी मिट जाएगी।'
कहानी बिल्कुल वहीं पहुँच गई है जहाँ मैं पहुँचाना चाहता हूँ। माही कार का दरवाज़ा खोलकर उतरने ही वाला है कि अचानक आवाज़ आई 'ठहरिए ...!' मैं चौंक गया, क़ाग़ज़ से नज़र उठाई तो देखा सामने अनुज खड़ा है। चेहरे पर कुछ परेशानी के भाव नज़र आ रहे हैं।
'अनुज तुम ...?' मैंने आश्चर्य चकित होते हुए कहा, 'तुम्हें तो मैं अमेरिका भेज चुका था।'
'हाँ भेज चुके थे और शायद इसीलिये भेजा था।' उसकी आंखों में कुछ उदासी नज़र आई, 'परंतु आप एक बात भूल गए मैं आपका पात्र हूँ, आप मुझे कहीं भी भेज दो में आपके आस पास ही रहूंगा। आप मुझसे भाग नहीं सकते।' मुझे ऐसा लगा जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो। सहज होते हुए कहा, 'नहीं मैं तुमसे कहा भाग रहा हूँ, वह तो कहानी के इस भाग में तुम्हारी आवश्यकता नहीं थी, इसलिए, तुम्हें ऐसा लग रहा होगा, पर वास्तव में मेरे लिए तो तुम चारों पात्र ही अहम हो, किसी एक को तो मैं छोड़ भी नहीं सकता।'
अनुज की आंखें अभी घोर उदासी में डूबी थीं, ऐसा लग रहा था अभी बरस जाएंगीं, बोला, 'आपने मुझे इसलिए ही अमेरिका भेजा था कि मेरे पीछे इतना बड़ा खेल कर सकें आप क्यों एक साथ चार-चार पात्रों के साथ खेल रहे हैं? मैंने पहले भी निशा के साथ सम्बंध बनाने की बात का विरोध किया था, तब आपने मुझसे कहा था कि आजकल कहानी में ऐसी ही मांग होती है। अब जब निशा मेरे बच्चे की माँ बन चुकी है, तब आप उसे माही के साथ जोड़ रहे हैं, यह जानते हुए भी कि माही उसकी बहन का होने वाला पति है।'
मुझे ऐसा लगा कि कहानी फिर उसी मोड़ पर रुक जाएगी। अनुज वही प्रश्नवाचक चिह्न लिये खड़ा था। मैंने कहा, 'अनुज तुम ग़लत समझ रहे हो, माही और निशा के बीच यह सब कुछ एक रात का ही होना है, तुम्हारे और निशा के बीच की संभावनाएँ इससे समाप्त नहीं होंगी। आख़िर को तुम दोनों की एक बेटी है।'
अनुज धीरे से फीकी हँसी हँसा बोला, 'संभावनाएँ कैसे समाप्त नहीं होंगी, आपकी पत्नी एक रात किसी के साथ गुज़ार कर आ जाए तो क्या आप उसे केवल यह सोच कर स्वीकार लेंगे कि वह आपके बच्चों की माँ है? बोलिए!'
अनुज के प्रश्न ने मुझे उलझन में डाल दिया। समझ में नहीं आया क्या जवाब दूं, टालने वाले अंदाज़ में कहा 'नहीं अनुज कभी स्वीकार नहीं करूंगा, इसलिए क्योंकि मैं जीता जागता इंसान हूँ, जबकि तुम एक पात्र हो, आदर्शवाद के सारे प्रयोग पात्रों पर ही आज़माए जा सकते हैं, इंसानों पर नहीं। मैं तुम में आदर्शवादिता का पुट डाल दूंगा, ताकि तुम माही के साथ रात गुज़ारने के बाद भी निशा को स्वीकार कर सको।'
बाहर बरसात की रफ़्तार कुछ तेज़ हो गई है, खिड़की पर धुंध-सी जम गई है। जवाब देने के बाद मैं खिड़की की तरफ़ देखने लगा कि शायद मुझे व्यस्त देखकर और मेरे जवाब से संतुष्ट होकर अनुज उठकर चला जाएगा।
पर वह उसी प्रकार बैठा रहा, मुझे खिड़की की तरफ़ देखता पाकर कुछ देर वह भी खिडकी की तरफ़ देखता रहा फिर बोला, 'आप बार-बार पाठकों की बातें कर रहे हैं, क्या आपका पाठक ऐसी आदर्शवादिता को स्वीकार कर पाएगा? आप भूल रहे हैं आधुनिकता आज भी केवल क़ाग़ज़ के पन्नों पर ही है और फिर अगर आपको माही और निशा के बीच यह सब कुछ करना ही था, तो मेरा चरित्र गढ़ा ही क्यों? आपका उद्देश्य तो मेरे बग़ैर भी पूरा हो जाता। आपको मुख्य पात्र माही और मालती की कहानी ही तो चलानी थी, तो वह मेरे बग़ैर भी चल जाती। मुझे गढ़कर आपने मेरे साथ तो अन्याय किया ही है, निशा के साथ भी अन्याय किया है। पूर्व में मेरे साथ के सम्बंधों को आपने तफ़सील से वर्णन किया और अब माही... पहली दृष्टि में तो पाठक उसे चरित्रहीन ही समझेगा।'
मेरी परेशानी बढ़ती जा रही है। अनुज टलने का नाम नहीं ले रहा है। मैंने कहा, 'अनुज इसका एक मध्यमार्ग तो हम ये निकाल सकते हैं कि तुम्हें अमेरिका से लौटने के बाद इस बात का पता ही नहीं चलेगा कि माही और निशा के बीच कुछ घट गया है। इससे तुम पर आदर्शवादिता थोपे बग़ैर भी काम चल जाएगा और जहाँ तक निशा के चरित्रहीन समझे जाने का प्रश्न है, तो वह एक पात्र है पात्रों की बदनामी नहीं होती, पात्र लोगों के ज़ेहन में भी तक रहता है, जब तक कहानी पढ़ी जा रही है, उसके बाद सब कुछ ख़त्म, ये कोई जीता जागता इंसान थोड़े ही है कि एक बार बदनाम हो गया तो उस बदनामी को उम्र भर पीठ पर ढोकर जीवन बिताना पड़े।'
अनुज की आंखों में पहली बार विद्रोह नज़र आया, बोला, 'आपका सोच ही ग़लत है, वास्तव में इंसान की चरित्रहीनता तो भुला दी जाती है, परन्तु पात्र की नहीं, क्योंकि पात्र तो कभी मरता ही नहीं, युगों-युगों तक जीवित रहता है, जब तक कहानी जीवित रहती है। एक बार कोई पात्र चरित्रहीन हुआ कि वह हमेशा के लिये हो जाता है। इंसान का तो जीवन ही क्या है, केवल कुछ वर्ष, लेकिन पात्र तो अमर होता है। आप भूल रहे हैं ब्रूटस को आज भी मित्रघाती के रूप में ही याद किया जाता है, क्या वक़्त उसकी इस छवि को बदल पाया? नहीं, क्योंकि उसे व्यक्ति से पात्र में बदल दिया गया। मेरी निशा को भी हमेशा चरित्रहीन स्त्री के रूप में ही जाना जाएगा।'
'तुम्हारी निशा ...?' मैंने माथे पर बल डालते हुए कहा 'निशा तुम्हारी कब से हो गई? वह मेरी पात्र है, उस पर मेरा अधिकार है। तुम उसे अपनी समझने की भूल मत करो, मेरी क़लम का एक इशारा उसे तुमसे हमेशा के लिये दूर कर सकता है।'
अनुज कुछ देर मुझे घूरता रहा, फिर बोला, 'वह मेरी क्यों नहीं है? मैंने उससे प्रेम किया है, मेरे बच्चे की माँ है वो। मैंने अपने जीवन के कुछ बेहद सुखद क्षणों को उसके साथ ज़िया है, भले ही वह जीवन एक पात्र के रूप में था लेकिन पात्र के रूप में भी तो मैंने उससे वह सब कुछ पाया है जो एक पुरुष एक स्त्री से पाता है। ज़ाहिर है ऐसे में उससे मेरा लगाव तो होगा ही। मैं मानता हूँ, आप चाहें तो एक क्षण में मुझे हमेशा के लिए उससे दूर कर सकते हो, पर ऐसा करके क्या आप खुश हो सकोगे? मैं निशा को भुला नहीं पाऊंगा, कोई भी नहीं भूल सकता, आप ही शादी करने के बाद भी क्या मानसी को भूल पाए ...?'
'मानसी... ?' मैं चौंक पड़ा, 'तुम मानसी के बारे में कैसे जानते हो?'
हल्के से हँसते हुए वह बोला, 'लेखक महोदय हम पात्र आपके अवचेतन में ही निवास करते हैं, जहाँ हमें आपके बारे में सारी जानकारियाँ मिल जाती हैं। हमें सब पता रहता है आपने अपने अतीत से जुड़े किस व्यक्ति को उठाकर अपनी कहानी का पात्र बना दिया है। मानसी मुझे कई बार आपके अवचेतन में भटकते हुए मिली है, उसी ने मुझे आपके और अपने बारे में सब कुछ बताया है।'
'सब कुछ ...?' मैं कुछ हैरत में पड़ गया।
'हाँ सब कुछ...!' अनुज शब्दों को चबाते हुए बोला 'पर मैं वह सब कुछ दोहराना नहीं चाहता, क्योंकि मैं जानता हूँ इंसानों को पीड़ा होती है, पर इंसान ये भूल जाते हैं कि पात्रों को भी पीड़ा होती है। आपने भी तो मानसी के साथ वैसा ही कुछ ज़िया है, जो मैंने निशा के साथ ज़िया है। आप अपनी पीड़ा मेरे चरित्र में क्यों डाल रहे हो? और फिर आपके और मानसी के सम्बंधों की परिणति वह बच्ची तो आज भी आपके साथ रहती है, जिसे आपने अपनी पत्नी को एक अनाथ बच्ची बताकर भ्रमित कर रखा है ...'
बरसात की ठंडक के बाद भी मेरे माथे पर पसीना चू गया, मेरे ही पात्र मेरे ही चरित्र की धज्जियाँ उड़ाने में लगे हैं, समझ नहीं आ रहा अनुज को क्या जवाब दूं? कुछ परेशान होते हुए पूछा, 'तुम बताओ तुम चाहते क्या हो? क्या मैं इस कहानी को बंद कर दूं?'
'मैंने ऐसा कब कहा?' अनुज बोला, 'मैं तो बस यह कह रहा हूँ कि निशा को इस नए सम्बंध का जामा मत पहनाओ, उसे केवल मेरी ही रहने दो, मैं जानता हूँ कि मैं केवल पात्र हूँ, तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, लेकिन तुम्हारे अवचेतन से बार-बार बाहर आकर तुम्हें परेशान तो कर सकता हूँ। ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दूंगा कि तुम्हारे अवचेतन में जो मानसी है वह तुमसे घृणा करने लगे कि तुमने उसे भी एक पात्र बना डाला, एक चरित्रहीन पात्र।' अंतिम शब्दों पर ज़ोर दिया था अनुज ने।
'नहीं नहीं' मैं घबरा गया, 'अभी ज़रा ठहरो, मुझे ज़रा सोचने का समय तो दो, मैं कुछ मध्यमार्ग निकालने का प्रयास करता हूँ, तुम्हारे और निशा के बीच की परिस्थितियाँ यथारूप ही बनी रहें, ऐसा कुछ करता हूँ। तुम मानसी से कुछ मत कहना।'
'क्यों...?' कुछ उपहास भरे स्वर में बोला अनुज, 'पात्रों की परिस्थितियाँ जब अपने पर आईं तो पसीने छूट गए! लेखक महोदय स्याही से क़ाग़ज़ पर शब्दों का मायाजाल रचना ठीक है, पर अपने ही पात्रों को अपने ही हाथों से अभिशप्त बना देना ग़लत है, क्योंकि अतीत तो हर चीज़ का होता है, केवल पात्रों का ही नहीं होता। अपने अतीत की कमज़ोरियों को पात्रों के चरित्र में ढाल देना कोई बहादुरी का काम नहीं है। ख़ैर मैं आपको समय देता हूँ, सोचिए और न्याय कीजिए, मेरे साथ भी, निशा के साथ भी। वरना कहीं ऐसा न हो, आगे से आप अपने अतीत से कोई भी पात्र उठाने की हिम्मत भी नहीं कर पाएँ।' अनुज चेतावनी भरे स्वर में बोला और टेबल पर ज़ोर से हाथ मारता हुआ उठकर चला गया। बाहर वर्षा उसी प्रकार गिर रही है, मैं टेबल लैंप बंद कर सिगरेट सुलगाकर खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया।
मानसी, जिसे मैं तब छोड़कर चला आया था जब वह मेरे बच्चे की माँ बनने वाली थी, शायद वह मेरी कायरता थी जो मैं इस बात से डर गया था कि जब मानसी के पेट के बच्चे का इल्ज़ाम मुझ पर लगेगा, तो क्या करूंगा...? मानसी जिसका मैंने जी भरकर उपभोग किया, उसे ही छोड़कर भाग आया था। हालांकि उससे तो यही कह कर आया था, नौकरी के लिए जाना पड़ रहा है, पर मैं जो आया तो फिर नहीं लौटा, लौटा तो चार वर्ष बाद जब मेरी शादी हो चुकी थी। पता चला मानसी तो कब की जा चुकी है, मेरी निशानी एक बेटी को छोड़कर। बेटी को लेकर लौटा, तो सविता ने पल्लवी को देखते ही प्रश्न चिह्न खड़े कर दिये थे, हालांकि मैंने अपनी तरफ़ से एक कहानी बताकर कि इसके माँ बाप दोनों मर गए थे, मैं अनाथालय एक कार्यक्रम में गया था मुझे यह पंसद आ गई तो गोद ले आया, सविता को संतुष्ट करने का प्रयास किया था। सविता ने ऊपर से मेरी कहानी पर विश्वास कर लिया था, पर मेरा ख़ुद का मानना है कि पुरुष स्त्री को जितना नासमझ समझता है, वस्तुतः वह उतनी होती नहीं है वह सब कुछ समझती है, पर प्रकटतः कुछ नहीं कहती।
आज अनुज ने फिर मुझे मानसी की याद दिला दी, वैसे तो पल्लवी ने मानसी को कभी विस्मृत होने ही नहीं दिया। हाँ पल्लवी को देखकर एक टीस अवश्य उभरती है कि यह मेरे प्रणय की नहीं बल्कि गुनाहों की निशानी है और मुझे हमेशा यही अपराध बोध बना रहता है कि पल्लवी के जन्म की कहानी कहीं खुल न जाए। आज अनुज के सामने जिस तरह मैं झुका उसकी भी तो शायद यही वज़ह थी। वह मेरी सबसे कमज़ोर नस को दबाने में सफल हो गया था और अब मुझे निर्णय लेना है कि इस कहानी का क्या किया जाए? इसे उस तरह से चलाया जाए जिस तरह से पात्र चाह रहे हैं या फिर उस तरह से जिस तरह से मैं स्वयं चाहता हूँ।
रात भर स्टडी में ही बैठा सिगरेट फूंकता रहा। सविता एक दो बार आकर झांक गई कुछ बोली नहीं। जानती है जब भी किसी विषय को लेकर उलझ जाता हूँ तो ऐसा ही होता है। स्टडी में कब सोफ़े पर नींद आ गई, पता ही नहीं चला। सुबह जब सविता चाय लेकर आई तब नींद खुली। बाथरूम में शावर पूरी स्पीड से चलाकर उसके नीचे खड़ा हो गया, शावर के नीचे खड़े-खड़े ही फ़ैसला लिया कि कहानी को अपने हिसाब से ही आगे बढ़ाऊंगा, पात्रों का दबाव अब सहन नहीं करूंगा।
नहाकर जब स्टडी में पहुँचा तो काफ़ी तनावमुक्त-सा लगा, कल कहानी को जहाँ माही के साथ कार में छोड़ा था, वहीं से शुरू किया। माही कार से उतरा और निशा के साथ उसके फ़्लैट में चला गया, काफ़ी पीने के बाद दोनों बैठकर बातें करने लगे। बातों का विषय मैंने जान बूझकर अनुज और निशा के बीच के सम्बंधों पर ही केन्द्रित रखा। मैं माही के माध्यम से अनुज और निशा के अंतरंग सम्बंधों के बारे में खोद-खोदकर प्रश्न पूछने लगा, शायद आने वाले दृष्य की भूमिका बाँध रहा था। पार्टी में पी गई शराब माही पर धीरे-धीरे असर दिखाने लगी, उसने धीरे से निशा का हाथ पकड़ लिया। निशा ने कोई विशेष विरोध नहीं किया। करती भी कैसे? वह तो मेरी पात्र है और मैं तो यही चाहता हूँ कि निशा को कोई विरोध नहीं करे। कहानी में मेरी मनपसंद विषयवस्तु प्रारंभ हो गई है। स्त्री पुरुष के सम्बंधों का जब भी कहानी में ज़िक़्र आता है मैं शब्दों को लेकर कोई कंजूसी नहीं बरतता। यहाँ भी मैंने ऐसा ही किया। माही और निशा के बीच बन रहे सम्बंधों को पूरी तफ़सील के साथ लिखा। छोटी-छोटी घटना को भी नहीं छोड़ा। मेरी क़लम के इशारे पर माही ओर निशा कठपुतलियों की तरह नाच रहे हैं, मेरी इच्छा पूरी हो रही है।
जब क़लम रुकी तो क़ाग़ज़ पर घटना घट चुकी थी, मैं अपने मन की करने में कामयाब हो गया। मैंने पाया कि मेरी धड़कनें तेज़ चल रही हैं, मेरे रोम-रोम से पसीना छूट रहा है, सांसें तेज़ हो गईं हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा ऐसा क्यों हो रहा है? क्या निशा सच कह रही थी कि मैं वास्तव में माही को माध्यम बनाकर अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहता हूँ। सांसों को नियंत्रित करके टेबल पर रखा पानी का ग्लास उठाया, अचानक हाथ कांप गया, गिलास छूटते-छूटते बचा। सामने माही खड़ा है, शरीर पर केवल एक टावेल लिपटा है, सांसें उखड़ रहीं हैं, रोम-रोम से पसीना चू रहा है। वैसा ही गठा-गठाया सजीला बदन, जैसा मैंने कहानी में उसे दिया है। शायद ठीक उसी स्थान से उठकर आया है, जहाँ मैंने कहानी को छोड़ा है। आंखों में गहरा दर्द नज़र आ रहा है। कुर्सी पर बैठकर दोनों हाथ टेबल पर रख सर को हाथों पर टिका दिया। शायद उखड़ी सांसों को वश में कर रहा है। कमरे में सन्नाटा माथा फोड़ने लगा। मैं फिर एक और बहस के लिए स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करने लगा।
कुछ देर बाद उसने हाथों पर से चेहरा उठाया, काफ़ी परेशान लग रहा है, आंखें हलकी-हल्की भीगी हुई हैं मेरी आंखों में आंखें डालता हुआ बोला, 'आपने ऐसा क्यों किया...?' मैं संभवतः इसी प्रश्न की उम्मीद में था, बोला, 'माही तुम इस घटना को कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से ले रहे हो, तुम पुरुष पात्र हो और पुरुषों के जीवन में इस तरह की घटनाएँ आम होती हैं।'
'आम घटना...?' माही कुछ हैरत से बोला 'आप इसे आम घटना कह रहे हैं, इस एक घटना से मेरा पूरा चरित्र ख़राब हो गया, मैं तो केवल मालती के प्रति ही वफ़ादार था, फिर निशा तो मालती की बड़ी बहन है।'
'वफ़ादार ...?' मैंने कुछ डांटने के अंदाज़ में कहा, ' माही तुम मेरी कहानी के केन्द्रीय पात्र हो कोई पालतू कुत्ते नहीं हो जो वफ़ादारी की बात रहे हो और ये बड़ी बहन छोटी बहन क्या होता है? शरीर तो शरीर होता है, जब वह वस्त्रों से बाहर आता है, तो सारे सम्बोधन ख़त्म हो जाते हैं, फिर वह केवल शरीर होता है। सम्बोधनों का गणित वस्त्रों के आवरण तक ही चलता है। तुमने वही तो किया है जो इस तरह के आवरणों के परे होता है।
'अच्छा' माही शब्द को चबाते हुए बोला, 'वस्त्रों के आवरण के परे सम्बोधन केवल शरीर बन जाते हैं? ये अपनी तथाकथित आधुनिक परिभाषाएँ मुझे मत सिखाइये। बताइये भला आप स्वयं अभी तक अपने कितने सम्बोधनों को शरीर बना चुके हैं?' माही मुझे घूरने लगा।
इस आकस्मिक प्रश्न के लिए मैं तैयार नहीं था मेरी सारी आक्रामकता एक ही प्रश्न में काफ़ूर हो गई, सोच रहा था अपने निर्णय को आक्रामकता के द्वारा सही साबित करने का प्रयास करूंगा, पर लग रहा है कि वापस सुरक्षात्मक पद्धति को अपनाना पड़ेगा। स्वर को नरम करता हुआ बोला, ' माही मैं पुराने युग का हूूं और तुम्हारा जो चित्रण मैंने किया है वह आधुनिक है, इसलिए तुम्हारी और मेरी कोई तुलना नहीं हो सकती और फिर तुम यह क्यों भूल रहे हो कि तुम एक पात्र हो, व्यक्ति भले ही घटनाओं में उलझ जाए, पात्र नहीं उलझ सकता, इससे कथ्य के प्रवाह में बाधा आती है।
'आप पुराने युग के हैं?' माही सवालिया अंदाज़ में बोला 'तभी शायद बिना शादी के बाप बनने का साहस कर लिया था आपने। हाँ यह सही कहा आपने कि आपकी और मेरी कोई तुलना नहीं हो सकती, मैं आपके समान नपुंसक नहीं हूँ कि किसी के शरीर का उपयोग करने के लिए क़लम का सहारा लूं। मैं तो पात्र होकर घटना में उलझ रहा हूँ पर आप तो व्यक्ति होकर भी नहीं उलझे।'
'मतलब...?' मैं फिर हैरत में पड़ गया 'क्या कहना चाह रहे हो तुम?'
'मतलब आप अच्छी तरह समझते हैं, क्यों मेरे से सुनना चाह रहे हैं' माही बोला।
मैंने कहा 'नहीं नहीं तुम कहो, तुम्हें जो कुछ भी कहना है। मैं भी तो जानूं आख़िर क्या समझाने वाले हो तुम?'
माही मेरी तरफ़ ग़ौर से देखने लगा। हलकी-सी हँसी थी उसके होंठों पर, बोला, 'आप सुनना ही चाहते हो तो सुनो, चौदह वर्ष की उम्र में पड़ोस की उस छोटी-सी बच्ची को घर में रोककर आपने जो कुछ किया था, उस पर कभी भी शर्मसार हुए आप? घटनाओं में उलझने की बात करते हैं, मैं तो पात्र होते हुए भी और आपके द्वारा वह कार्य करवाए जाने के बाद भी परेशान हूँ। आप तो उस घटना को लेकर कभी थोड़ा भी परेशान नहीं हुए।'
'कौन लड़की ...?' मैं अपनी घबराहट पर काबू पाते हुए बोला 'किस लड़की की बात कर रहे हो तुम? मैंने ऐसा कुछ नहीं किया तुम फ़िज़ूल की कहानी गढ़ रहे हो।'
'अच्छा' माही व्यंग्य भरी मुस्कराहट के साथ बोला 'आपने कुछ नहीं किया? लाऊँ अभी उस बच्ची को हाथ पकड़कर आपके सामने? बोल सकेंगे यही बात उसके सामने भी? बताइये लाऊँ? मैं आपकी तरह कहानीकार नहीं हूँ जो कहानी गढूंगा।'
'कहाँ से लाओगे उसे?' मैं परेशानी भरे स्वर में बोला।
'चलो आपने यह तो स्वीकार किया कि ऐसी कोई लड़की है।' माही उपहास भरे स्वर में बोला 'लेखक महोदय हम पात्र आप ही के अंदर रहते हैं, जहाँ हमारे साथ आपके अतीत के असली पात्र भी रहते हैं जो हमें बताते हैं आपकी कहानी। वह लड़की वहीं भटकती हुई मिली थी मुझे, फटे कपड़े और बिखरे बाल लिए। उसी ने सुनाई थी मुझे कहानी आपकी चरित्रहीनता की।'
मैं एक बार फिर संकट में घिर गया, इस कहानी के चक्कर में मेरा अतीत नए-नए रूप रखकर सामने आ रहा है और मैं उसे नकार भी नहीं पा रहा हूँ। सन्नाटा एक बार फिर हम दोनों के बीच पसर गया है।
'माही' हिम्मत जुटाकर बोला मैं, 'तुम उस घटना को अपनी और निशा के साथ वाली घटना के साथ क्यों जोड़ रहे हो? वह घटना तब की है जब मेरी उम्र ही ऐसी थी। उस घटना में और तुम्हारी वाली घटना में काफ़ी अंतर है, आख़िर तुम्हें एतराज़ क्या है इस बात से?'
'लेखक महोदय' माही बोला, 'उम्र का चरित्रहीनता से कोई सम्बंध नहीं होता। तुम अपने आपको यह कहकर नहीं बचा सकते कि तुमने जो कुछ किया वह कम उम्र की नादानी थी और मेरा एतराज़ तो इसी बात का है कि तुमने अपनी चरित्रहीनता मुझ मैं क्यों डाली? मुझे क्यों माध्यम बनाया अपनी इच्छाएँ पूरी करने का? और वह भी एक ऐसी स्त्री के साथ जो न केवल मुझसे उम्र में बड़ी है, बल्कि मेरी होने वाली पत्नी की बड़ी बहन भी है।'
'तुम ग़लत समझ रहे हो माही' मेरा स्वर कमज़ोर हो गया 'मैं अपनी चरित्रहीनता तुममें नहीं डाल रहा और यह चरित्रहीनता है कहाँ? एक छोटी-सी ग़लती ही तो है, मेरी कहानी के लिए यह आवश्यक है, इसीलिए मैंने इसे डाला और रही बात सम्बंध की कि निशा तुम्हारी मंगेतर की बहन है, तो मैं पहले भी कह चुका हूँ, सम्बंध और सम्बोधन वस्त्रों के आवरण तक ही होते हैं, वस्त्रों से मुक्त होने के बाद केवल शरीर होता है, केवल और केवल शरीर, उसे कोई सम्बोधन दिया ही नहीं जा सकता।'
'अच्छा' माही कुछ निर्णायक स्वर में बोला और कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया। अपने शरीर पर लिपटा एकमात्र टावेल भी उतारकर फ़ैंक दिया उसने। अब वह एकदम आदम-ज़ात अवस्था में मेरे सामने खड़ा था, अलफ़ नग्न। मैंने ग़ौर से उस शरीर को देखा जिसे मैंने ही ईज़ाद किया है। 'लो अब मैं भी सम्बोधनों और सम्बंधों से मुक्त होकर केवल शरीर बन गया।' दोनों हाथ ऊपर उठाते हुए बोला माही, 'अब मैं माही नहीं रहा, केवल शरीर हूँ और शरीर बनकर ही वापस लौट रहा हूँ तुम्हारे अवचेतन में, जहाँ तुम्हारी मानसी भी है, अब मैं भूल जाऊंगा कि वह तुम्हारी प्रेमिका है, क्योंकि सम्बंध और सम्बोधन तो मैं यहीं त्यागकर जा रहा हूँ। तुम्हारे अवचेतन में लौटकर मानसी के साथ वही करूंगा, जो एक शरीर के साथ किया जाता है।'
'नहीं मानसी के साथ तुम कुछ नहीं करोगे।' मैं चीखा, माही हँसने लगा। मैं उसे पकड़ने के लिए उस पर झपटा और बांहों में उसके नग्न शरीर को जकड़ लिया, वह हँसता जा रहा है और मेरे हाथों से फिसलता जा रहा है, अंततः वह फिसलकर उसी अवस्था में भाग गया। मेरे हाथों में रह गई उसके पसीने की सोंधी ख़ुशबू। मैं धम्म से फ़र्श पर बैठ गया फ़र्श पर पड़ा उसका टावेल भी धीरे-धीरे हवा में घुल गया। मैं उसी तरह फ़र्श पर बैठा रहा, बहुत देर तक, जब तक सविता कमरे में नहीं आ गई। मुझे इस तरह फ़र्श पर बैठे देखा तो चाय का कप टेबिल पर रखकर मेरी ओर लपकी 'क्या हुआ चक्कर आ गए थे' घबराकर बोली।
'हाँ' मुझे अचानक होश आया 'नहीं ...! नहीं कुछ नहीं पेन गिर गया था टेबिल के नीचे, उसे ढूँढ रहा था, मिल ही नहीं रहा, शायद अलमारी के नीचे चला गया है।'
'तो दूसरे से लिख लो।' सविता बोली 'कल झाडू लगेगी तो मिल जाएगा, एक पेन के लिए इतना परेशान हो रहे हो।'
'ये भी ठीक है' मैंने मुस्कराने का प्रयास करते हुए कहा और खड़ा हो गया 'चलो दूसरे से लिख लेंगे, पहले तुम्हारे हाथ की गरमागरम चाय का मज़ा तो ले लें।' मेरे अंदर का अपराध बोध मुझसे सविता कि ख़ुशामद करवा रहा है।
'ठीक है, चाय पीकर थोड़ा आराम कर लो, शरीर की तरह दिमाग़ को भी आराम की ज़ुरूरत होती है, बल्कि शरीर से ज़्यादा दिमाग़ को आराम की ज़ुरूरत होती है।' कहकर कमरे से बाहर चली गई।
अब मुझे मानसी की चिंता होने लगी है, कहीं माही उसके साथ सचमुच कुछ न कर बैठे। मानसी तो वैसे भी सचमुच काफ़ी भोली है, जब पहली बार मैंने सीमाओं का उल्लंघन किया था, तो उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया था। बाद में जब मैंने उससे पूछा था कि तुमने मुझ पर इतना विश्वास क्यों कर लिया, तो बड़े शांत स्वर में बोली थी 'तुम पर विश्वास न करने का भी तो कोई कारण नहीं था। जीवन में दो ही तरह के तो लोग होते हैं, एक वो, जिन पर आप विश्वास करते हैं और दूसरे वो, जिन पर आप विश्वास नहीं करते। जिन पर आप विश्वास नहीं करते, उनसे आप प्रेम भी नहीं कर सकते। एक साथ अविश्वास और प्रेम दोनों होने का दावा नहीं किया जा सकता, अगर कोई ऐसा करता है, तो वह झूठ बोल रहा होता है।' मैंने पूछा था, 'पर मानसी अगर मैं तुम्हारे विश्वास पर खरा नहीं उतरा तो?'
फ़िर उतनी ही शांति से जवाब दिया था मानसी ने 'वह तुम्हारा सरदर्द है, अगर तुम मेरे साथ विश्वासघात करोगे तो वह तुम्हारे लिए ही परेशानी का कारण बनेगा, मेरे लिए नहीं, क्योंकि विश्वास-अविश्वास के बारे में सोचने का क्षण तो मेरे लिए बीत चुका है।' इतने सब के बाद भी मैंने उसके विश्वास को तोड़ दिया था।
कहानी फिर वहीं रुकी हुई है, माही और निशा साथ सोए हुए हैं, यही तो वह मोड़ है जो मैं चाहता था, लेकिन इसके आने के बाद भी मैं संतुष्ट क्यों नहीं हूं्? क्या वास्तव में मैं कुछ ग़लत कर चुका हूँ। कहानी को आगे बढ़ाने की हिम्मत नहीं हो रही है। माही को लेकर कुछ भी लिखने का सोचता हूँ, तो मानसी का ख़याल आ जाता है। याद आ जाता है माही, जो मेरे ही सामने पात्र का चोला छोड़ कर शरीर बन गया था, मेरे शरीर से अभी उसके पसीने की सौंधी-सौंधी ख़ुश्बू आ रही है। कहीं यह ख़ुश्बू मेरे स्वयं के पसीने की तो नहीं? कहीं निशा सच तो नहीं कह रही थी कि माही के रूप में मैं ख़ुद ही । नहीं ऐसा कैसे हो सकता है, मैं कोई पात्र थोड़े ही हूँ मैं तो इंसान हूँ और कोई इंसान किसी पात्र के साथ कुछ कैसे कर सकता है। यह ख़ुश्बू माही के पसीने की ही है, अभी कुछ देर पहले ही तो उसका शरीर मेरे हाथों में था, इस ख़ुश्बू को जाने में कुछ तो समय लगेगा।
खिड़की के बाहर शाम फिर से गहराने लगी है। कहानी टेबल पर उसी प्रकार पड़ी पूर्णता कि प्रतीक्षा कर रही है। आज संभवतः कुछ नहीं हो पाएगा, स्टडी की लाइट बंद करके बाहर आ गया।
सुबह नींद जल्दी खुल गई, शायद कल जल्दी सो जाने के कारण। आज कुछ भी करके कहानी को पूरा करना है, इसी में उलझा रहा तो कुछ नया नहीं कर पाऊंगा। तैयार होकर स्टडी में पहुँचने तक काफ़ी दिन चढ़ गया। सबसे पहले स्टडी की सारी खिड़कियाँ खोल दीं, सारे पर्दे हटा दिये, उजाले और हवा से ही शायद आत्मविश्वास बढ़ जाए। टेबल पर पहुँच कर कहानी को खोला तो माही और निशा उसी प्रकार सो रहे हैं। कुछ नया घटनाक्रम हो उसे पहले कहानी को बढ़ा दिया जाए। कहानी की रात को सुबह में बदला पहले निशा उठी फिर बाद में माही, अलसाते हुए उसने चारों तरफ़ देखा और चौंक गया, फिर अपनी अवस्था देखी तो और ज़्यादा हैरान हो गया। पास की कुर्सी पर पड़े अपने कपड़े जल्दी-जल्दी पहने। रात का घटनाक्रम उसके दिमाग़ में घूमने लगा, शराब का इतना भी नशा नहीं था रात जो कि कुछ याद ही नहीं रहे। जूते के फीते बाँधने में ही निशा कमरे में आ गई, दोनों की नज़रें मिलीं, माही ने नज़र झुकाई और तेज़ क़दमों से बाहर चला गया। माही अब कार में है और कार मालती के घर की ओर जा रही है।
मैं बहुत चाह रहा हूँ कि कहानी कुछ तेज़ चले ताकि जल्दी से जल्दी ख़त्म हो सके पर कहानी तेज़ चल ही नहीं पा रही। यही सोचकर माही को पहले मालती के घर ले जा रहा हूँ ताकि समय की बचत हो सके और जो कुछ भी होना है यहीं हो गए। अब फ़िज़ूल में कहानी को खींचना नहीं चाहता। निशा और अनुज को अब अनुत्तरित प्रश्नों की तरह छोड़कर ही आगे बढना होगा और समापन करना होगा। अगर उन्हें मैं अंत में शामिल करने की सोचता हूँ तो इतनी जल्दी अंत नहीं आ पाएगा और वैसे भी कहानी के मुख्य पात्र तो माही और मालती ही हैं, तो फिर कहानी के अंत में इन दोनों की उपस्थिति ही बहुत है। पहली बार अपने आत्मविश्वास को अपने साथ पा रहा हूँ, जिससे निर्णय लेना आसान हो रहा है।
माही की कार मालती के घर के सामने जाकर रुक गई है। माही गाड़ी से उतरा, रात के अपराधबोध से ग्रस्त धीरे-धीरे दरवाज़े की ओर बढ़ रहा है।
'वहीं रुक जाओ' अरे यह मालती कहाँ से बोल पड़ी, नज़र उठा कर देखा तो सामने मालती खड़ी है। उसी सुनहरे बूटे वाली काली साड़ी में, जो मैं अक्सर उसे पहनाता हूँ। खुले हुए बाल हवा में लहरा रहे हैं।
'आप इसे मेरे घर लेकर क्यों आ रहे हैं?' दोनों हाथों को टेबल पर टिका उन पर अपना पूरा वज़न डालते हुए बोली।
'क्यों लेकर आ रहा हूँ?' मैंने कुछ आश्चर्य का पुट डालते हुए कहा, 'अरे भाई तुम्हारा मंगेतर है, तुम्हारे घर नहीं आएगा तो कहाँ जाएगा।'
'वह सब कुछ करने के बाद भी?' मालती ने फिर प्रश्न किया।
'तो क्या हुआ' लापरवाही के अंदाज़ में जवाब दिया मैंने, 'माही पुरुष है और पुरुष के जीवन में इस तरह की घटनाएँ कब घट जाएँ कुछ पता होता है? और वह तो इतने सब के बाद भी तुम्हारे घर आ रहा है, तुम्हें सब कुछ बताकर तुमसे माफ़ी मांगने।'
'मुझसे माफ़ी मांगने?' मालती का सवालिया अंदाज़ बरकारार है, 'मुझसे क्यों मांगने आ रहा है वह? मेरे साथ क्या किया है उसने?'
'क्यों? तुम्हारे विश्वास को ठेस नहीं पहुँचाई उसने?' मैंने जवाब दिया।
'जब आप पूर्व में ही कह चुके हैं कि आधुनिक पुरुष के जीवन में इस तरह की घटनाएँ होती रहती हैं, तो फिर विश्वास और अविश्वास जैसे फ़िज़ूल के मानदंड को बनाने का औचित्य ही क्या है?' मालती ने पूछा।
मैं जितना आसान समझ रहा था कहानी का अंत करना, संभवतः यह उतना आसान नहीं है। मालती के प्रश्नों का उत्तर देना ज़्यादा मुश्किल है। इसलिये भी क्योंकि वह मेरे ही दिये हुए उत्तर में से रक्तबीज की तरह पुनः एक नया प्रश्न उत्पन्न कर रही है। मैंने समझाइश भरे अंदाज़ में कहा, 'मालती वह तुम्हारे पास आ रहा है, तुमसे माफ़ी मांगने, तुम्हें उसे माफ़ करना होगा और उसे स्वीकार करना होगा, इसी में तुम चारों का हित है।'
'मैं क्यों स्वीकार करूं उसे?' मालती दृढ़ स्वर में बोली, 'अब उसे स्वीकार करने का कोई पश्न ही नहीं उठता।'
'क्यों नहीं करोगी उसे स्वीकार?' मैंने पूछा, 'वह तुम्हारा मंगेतर है, अगर तुम उसे स्वीकार नहीं करोगी तो कहाँ जाएगा वह?'
'चला जाए वहीं, निशा के पास' मालती के स्वर में उदासी है, 'वैसे भी एक सहारे की आवश्यकता मुझसे ज़्यादा निशा को है, अनुज के जाने के बाद बहुत अकेली हो गई है वो।'
'मालती ...?' मैंने आश्चर्य से कहा, 'तुम ऐसा कैसे कह सकती हो और फिर यह घटना तो वह तुम्हें स्वयं बताने आ रहा है, अगर नहीं बताता तो क्या तुम जान पातीं?'
'वही तो' मालती बोली, 'वही तो मैं भी कहना चाह रही हूँ। यह घटना चूंकि मेरी बहन के साथ घटी है इसलिए वह मुझे बताने आ रहा है और न जाने कहाँ कितनी बार वह ऐसा कर चुका होगा क्या पता, आख़िर को आपका ही तो रचा हुआ पात्र है, आपकी अपनी चरित्रहीनता तो उसमें आएगी ही।'
'तुम लोग बार-बार मुझे चरित्रहीन क्यों कह रहे हो' मैंने चिल्लाते हुए कहा, 'क्या चरित्रहीनता कि है मैंने?'
कुछ मुस्कराते हुए कहा मालती ने 'वो तो आप स्वयं भी जानते हैं। मेरा बस यह कहना है कि आप माही को लेकर मेरे पास नहीं आएँ, मुझे उसे स्वीकार करने पर बाध्य न करें। वह किसी और के साथ नहीं बल्कि मेरी बहन के साथ सम्बंध बनाकर आ रहा है, उसे स्वीकार करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।'
'तुम्हें स्वीकार करना होगा' मैंने दृढ़तापूर्वक कहा 'मत भूलो कि तुम मेरी पात्र हो, तुम अपने स्वयं के विवेक से कछ नहीं कर सकतीं, तुम्हें वही करना होगा जो मैं चाहूंगा।'
'मैं जानती हूँ मेरा स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं है' मालती का स्वर कुछ ठंडा हो गया, 'लेकिन कम से कम विरोध तो कर सकती हूँ। आप लेखक हैं, अंतिम निर्णय तो आपकी क़लम ही करेगी, पर में फिर कह रही हूँ, माही को अब मेरे पास नहीं लाएँ, मुझे बाध्य नहीं करें कि मैं माही को अब स्वीकार करूं। उसे वहीं रहने दें, निशा के पास, वह मेरी बहन है, उसे भी एक सहारा मिल जाएगा और मुझे भी उस माही के साथ जीवन गुज़ारने से मुक्ति मिलेगी जो अपराध बोध सर पर रखे मेरे साथ होगा।' कह कर मालती रुक गई, उसकी आंखों में आंसू झिलमिला रहे हैं।
'और फिर अनुज का क्या करूं?' किंचित उपहास के स्वर में मैंने कहा, 'क्या जिस तरह की एक घटना माही और निशा के बीच घटित हुई है वैसी ही तुम्हारे ओर अनुज के बीच भी दिखा दूं? इससे तुम चारों व्यवस्थित हो जाओगे।'
'तुम ...?' क्रोध में आप से तुम पर आ गई, गुस्से में बिफ़रते हुए बोली, 'तुम से और उम्मीद भी क्या कि जा सकती है, तुम्हारे जैसा चरित्रहीन व्यक्ति जब लेखक बनेगा तो उसके सारे पात्र भी स्वाभाविक है चरित्रहीन ही होंगे। तुम न केवल चरित्रहीन हो, बल्कि कायर भी हो, अपनी चरित्रहीनता और कायरता अपने पात्रों में भर रहे हो।'
'हाँ हाँ मैं चरित्रहीन हूँ' बुरी तरह चिल्ला कर टेबल पर हाथ मारते हुए कहा मैंने, 'छोड़ आया था मैं मानसी को कायरों की तरह उसके शरीर का उपयेाग करने के बाद। मैं कायर हूँ, चरित्रहीन हूँ।'
मालती ज़ोर से खिलखिलाकर हँस पड़ी, हँसते-हँसते उसने सिर टेबल पर टिका दिया। वह हँसे जा रही है, हँसना बंद करके उसने टेबल पर से सर उठाया, मैं चौंक पड़ा 'मानसी तुम...?' मानसी की आंखों में आंसू हैं।
'हाँ मैं, यही तो मैं तुमसे कहलवाना चाहती थी। यही तो मैं चाहती थी कि तुम स्वीकार करो अपनी चरित्रहीनता को भी और कायरता को भी। तुम... नीच, कमीने, तुमने मेरे साथ जो किया वह किया, पर मुझे भी चरित्रहीन बनाकर अपने पात्रों में भर दिया।' कहती हुई वह जाने लगी।
'नहीं मानसी, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया' मैंने दौड़कर उसके पैरों को पकड़ लिया, 'मानसी मैंने तुम्हें कभी पात्रों के रूप में उपयोग नहीं किया, मेरी बात सुन लो फिर चली जाना तुम्हें कुछ ग़लतफ़हमी हो रही है।' कहते-कहते मैं रो पड़ा। अचानक ऐसा लगा कोई छोटी लड़की हँस रही है। सर उठाकर देखा तो मानसी की जगह वही बच्ची खड़ी है, जिसके साथ वर्षों पहले मैंने बलात्कार किया था। कपड़े फटे हुए हैं, बाल अस्तव्यस्त हैं, शरीर पर जगह-जगह खरोंच के निशान हैं। ज़ोर-ज़ोर से हंस रही है, अचानक कमरे से और भी लोगों के हँसने की आवाज़ें आने लगीं, देखा तो मानसी, निशा, मालती, अनुज, माही भी कमरे में खड़े हैं और मेरी ओर देखकर हँस रहे हैं। मैंने दोनों हाथों को कानों पर रखा और पूरी ताक़त से चिल्लाया 'नहीं...!' और घुटनों में सर देकर रो पड़ा। स्टडी का दरवाज़ा तेज़ी से खुला, सविता घबराती हुई मेरे पास आई 'क्या हुआ, क्या हो गया?' उसने पूछा। मैं चौंका, घबराकर कमरे में चारों ओर देखा, सविता और पल्लवी के अलावा कोई नहीं है, सब जा चुके हैं।
सविता उसी प्रकार घबराई हुई है, मेरी पीठ को मलते हुए पूछा, 'डाक्टर को फ़ोन करूं?'
बुझी हुई आवाज़ में मैंने कहा 'नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मुझे कुछ नहीं हुआ, बस ज़रा सोऊंगा।'
'चलो' सविता ने मुझे सहारा देकर उठाया। मैं धीरे-धीरे स्टडी से बाहर आ गया।
शाम होने पर नींद खुली, सर कुछ भारी-भारी-सा लग रहा है। मुझे उठते देख सविता आ गई, बालों में हाथ फेरते हुए पूछा, 'अब ठीक लग रहा है? चाय बना लाऊँ?'
'हाँ बना लाओ' मैंने कहा। वह चाय बनाने रसोई में चली गई, मैं उठकर स्टडी में आया। कहानी के क़ाग़ज़ उसी प्रकर टेबल पर रखे हैं। क़ाग़ज़ों को उठाया, साथ में सिगरेट और माचिस भी उठाकर बगीचे में आ गया। क़ाग़ज़ों को ज़मीन पर पटका और आग लगी दी। सिगरेट सुलगा कर झूले पर आकर बैठ गया। क़ाग़ज़ों के गट्ठे ने आग पकड़ ली है, अचानक मैंने देखा धुएँ से एक आकृति बन रही है, एक स्त्री की आकृति जिसकी गोद में एक बच्चा है, शायद निशा है, उसके पीछे-पीछे एक पुरुष निकला, यह अनुज होगा धुएँ से बनी दोनों आकृतियाँ आकाश में जाकर घुल गईं। कुछ देर बाद धुएँ में एक और आकृति बनी, खुले बाल, लहराता आंचल, यह मालती है, उसके पीछे एक पुरुष की आकृति बनी, यह आकृति पूर्ण नग्न है, माही जिस अवस्था में मेरे पास से गया था, उसी अवस्था में है। आदम इसी अवस्था में आसमान से उतरा था और यह इसी अवस्था में आसमान में जा रहा है। ये दोनों आकृतियाँ भी आकाश में विलीन हो गईं। क़ाग़ज़ उसी-उसी प्रकार जल रहे हैं। ठँडी सांस भरकर मैं झूले से उठा, अब कोई नहीं निकलेगा इस धुएँ से, अब तो केवल क़ाग़ज़ ही जल रहे हैं, कहानी तो जल चुकी है। धीरे-धीरे क़दमों से मैं लौट आया।