और बसंत लौट आया है / गोवर्धन यादव
ऐसे लगा, जैसे अंदर कुछ सुलग रहा है और दमघोंटू धुआँ फैलने लगा है। आग अब भभक उठती है, लाल-लाल दहकती लहकती लपटें, अब ऊंची उठने लगती हैं। लपटें भी इतनी ऊंची थीं कि आसमाँ पिघलकर टपकने लगे। इन विकराल लपटों में मेरा अपना सर्वस्व, अपना निज, यहाँ तक कि हमारा खपरैल वाला मकान, आँगन में लगे पेड़-पौधे, फूल-पत्तियां, बया के घोंसले सब धू-धू करके जलने लगे हैं।
आग बढऩे लगती है। इसमें अजय का बंगला भी लपेट में आ जाता है। बंगले के दरवाजे-खिड़कियां, पर्दे-कालीन तथा नायाब पेंटिंग्स भी जलने लग जाती हैं। बड़ी ही तन्मयता के साथ मैंने अपना रंगमहल बनाया था तथा उसे करीने से सजाया-संवारा था। आग ने जब एक ऐसी पेंटिंग को छुआ जो कि मुझे सर्वाधिक पसंद थी, तो ऐसा लगा कि मैं खुद भी उसके साथ जली जा रही हूं। इस पेंटिंग को अजय को केन्द्रित करते हुए पेंट किया था। उन लम्हों को पकडऩे की भरपूर कोशिश की थी, जब अजय मेरी जिंदगी में गहरे तक उतर आया था। पेंटिंग में शाम का धुंधलका था। लगता कि आसमाँ ने अपनी बाँहें फैलाकर धरती को अपने सीने से लगा लिया हो। पास ही एक बड़ी-सी चट्टान भी थी जिस पर दो प्रेमी-प्रेमिका आलिंगनबद्ध थे। वे और कोई नहीं बल्कि अजय और मैं स्वयं थी। मैंने जब अजय को अपने सामने जलता हुआ देखा तो पलभर भी खड़ी न रह सकी। लगा कि दम घुट जायेगा। अब गिरी-कि तब। मैंने स्पष्ट रूप से महसूस किया था। फिर किसी तरह लडख़ड़ाते कदमों से अपनी गाड़ी की ओर बढ़ चली। अपनी सीट पर धंसते हुए ड्राइवर को घर लौट जाने का आदेश दिया।
ड्राइवर ने स्टेयरिंग सम्हाला। गाड़ी स्टार्ट की और मैं फुर्ती से भीड़ को चीरती हुई बंगले की ओर लौट पड़ी। आज उसने पहली बार मुझे इतना व्यथित, इतना विचलित देखा था। “ऐसे हादसे तो हम पुलिसवालों की जिंदगी में आए-दिन घटते ही रहते हैं। मामला मेरी जिंदगी से ताल्लुक रखता है शायद इस बात को ड्राइवर भी समझ चुका होगा। वक्त की नाजुकता को देखते हुए उसने मौन ही रहना श्रेयस्कर समझा होगा और तल्लीनता से वह गाड़ी चलाता रहा।
ड्राइवर ने गाड़ी कभी की पोर्च में लगा दिया था और उसे अब मेरे उतरने की प्रतीक्षा थी पर मैं थी कि अपने ही विचारों की तंद्रा में खोई हुई थी। जब उसने देखा कि मैं उतरने का नाम ही नहीं ले रही हूं तो उसने डरते-डरते कहा, “मैडम ... हम बंगले पर पहुंच चुके हैं।” कुछ अस्पष्ट से स्वर मेरे कानों से जा टकराए तब कहीं जाकर मेरी चेतना लौटी और ‘ओह’ कहते हुए मैं अपनी सीट से लगभग कूद ही पड़ी और सैंडिल खटखटाते हुए सीढिय़ा चढ़ गई।
कमरे में प्रवेश करते ही मैं आदमकद शीशे के सामने जाकर खड़ी हो गई और अपने आप को निहारने लगी। आँखें सूजी हुई व लाल हो आई थीं। फौलाद से भी पक्के इरादों वाली मैं... मुझ जया को अपने आप पर हंसी आ गई। पर मैं सिर्फ यह सोचकर मुस्कराकर रह गई कि दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता।
मैंने अपने कमरे में एक आदमकद आईना लगा रखा था। जब भी मैं पुलिस कप्तान की वर्दी में होती, आईने में निहारना कभी नहीं भूलती थी। जब मेरा अपना गर्वीला अक्स आईने में दिखलाई पड़ता तो बरबस ही मुझे अजय की याद हो जाती। काश मेरे जीवन में अजय न आया होता तो शायद ही मैं इस डे्रस को पहनने की हकदार बनती और न ही गर्व महसूस करती। अजय की याद आते ही मेरी कजरारी आँखों से आँसू छलछला कर टपक पड़े।
मैंने अपना हैट उतारा तथा आलमारी में करीने से रख दिया। फिर ड्रेस उतार कर खूंटी से टांगा और हलकी सी साड़ी लपेट ली और पलंग पर जाकर पसर गई। नजरें उठाकर देखा छत पर अजय का चेहरा दिखाई दिया। अब वह दीवारों पर भी दिखलाई देने लगा था। ऐसा भी लगा कि मखमली बिस्तर पर कांटे उग आए हैं। मैं चट से उठ बैठी और जूतियां खटखटाती हुई बाहर हो ली। ड्राइवर एक कोने में बैठा चुट्टा उड़ा रहा था। मुझे बाहर आता देख उसने बीड़ी बुझाकर जेब में डाल ली और धुआँ अंदर ही अंदर पचाने की कोशिश करने लगा। पास पहुंचते ही मैंने आदेश दिया कि वह गाड़ी बाहर निकाले। वह भलीभांति जानता था कि जब भी मैं सिविल ड्रेस में होती हूं अपनी ओवल में ही बैठकर बाहर जाती हूं। ‘यस मैम’ कहता हुआ वह गैराज की ओर बढ़ता है और गाड़ी निकालकर ठीक मेरे सामने आकर खड़ा हो जाता है और अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगता है।
“रामसिंग, हम किसी जरूरी काम से बाहर जा रहे हैं। कब तक लौटना होगा नहीं कह सकते। तुम चाहो तो घर जा सकते हो।” मैंने कहा। आदेश सुनते ही उसने गेट खोला और बाहर निकल आया। मैंने स्टेयरिंग सम्हाला और आगे बढ़ गई। रास्ते में चलते हुए मैंने अपने आपसे कहा कि मुझे जाना कहाँ है वह तो डिसाईड ही नहीं किया और घर से निकल पड़ी। दरअसल घंटा-आधा घंटा एकांत में बैठकर मैं एक अहम्ï निर्णय लेना चाहती थी। सहसा मुझे ध्यान आया कि समुद्र तट से बढक़र दूसरा अच्छा स्थान क्या हो सकता है सो समुद्र की ओर गाड़ी मोड़ ली। वहाँ पहुंचकर गाड़ी एक ओर पार्क की, लॉक लगाया और अंगुली में की-रिंग को घुमाती हुई समुद्र तट की ओर बढऩे लगी। मखमली रेत पर चलते हुए मेरे पैर अंदर तक धंस आते थे। अनमने मन से मैं आगे बढ़ती चली गई। समुद्र यहाँ से यही कोई एक फर्लांग की दूरी पर था। रेत पर चलते हुए मैंने देखा भुवन भास्कर अब अस्ताचल की ओर बढ़ रहे हैं। देखते ही देखते वे लगभग अदृश्य होने को आए। एक पतली-सी चमकदार रेख भर दिखलाई देती है, वह भी पल दो पल में आकाश पटल से ओझल हो जाती है। अब आकाश पर नीली-पीली बैंगनी छटा छा जाती है। एक सुरमई अंधेरा सा छाने लगा था। कुछ बच्चे अब भी वालीबाल खेलने में मस्त थे तो दूसरी ओर उनके अभिभावक घर लौट चलने की टेर लगा रहे थेट्ठे। ‘बचपन के दिन भी कितने सुहावने दिन होते हैं’ मैंने अपने आप से कहा।
अंधियारा अब गहराने लगा था और समुद्र तट एकदम वीरान सा नजर आने लगा था। खोंमचे वाले तो कभी के जा चुके थे। इक्का-दुक्का कुछ लोग नजर आ रहे थे। अब वे भी अंधेरे का एक हिस्सा बनकर रह गए थे। सूरज के ढलते ही हवा भी वाचाल हो उठती है और समुद्र में तेज लहरें उठने लगती हैं। भीषण गर्जना करते हुए वह आगे बढऩे लगता है, जैसे आगे बढक़र समूचे प्रदेश को अपनी लपेट में ले लेगा। समुद्र किस सीमा तक आगे बढ़ सकता है, मैंने सहज ही अनुमान लगाया और जूतियां उतारकर एक ओर रख दीं और रेत पर पैर फैलाकर धम्म से बैठ गई। मैंने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि महानगर का कोलाहल अब भी मेरा पीछा कर रहा है। सामने उफनता गरजता समुद्र भी कोलाहल मचा रहा है और मैं खुद, जो इन दोनों के बीच आ बैठी हूं, भी उतनी ही अशांत हूं जितना कि समुद्र और महानगर। फिर इस अशांत माहौल में शांति की खोज करना शायद असंभव-सा होगा। तभी मुझे किसी महात्मा के वे शब्द अक्षरश: याद आ गए जिसमें उन्होंने कहा था कि अशांति में ही शांति की खोज संभव है। तब जाकर मैंने अपने को आत्मसंयत करने की कोशिश की। शून्य में घूरते हुए मैंने देखा कि शाम हो आई है। नीलगगन के पट्ट पर मेरा अपना अतीत थिरक रहा है।
मेरा अपना एक छोटा सा गाँव है। गाँव इतना छोटा भी नहीं कि उसका अपना कोई महत्व ही नहीं है। गाँव की मुख्य सडक़ की नुक्कड़ पर मेरा अपना खपरैल वाला मकान है। आँगन में ढेर सारे पेड़ पौधे लगे हैं। निराली खुशबू बिखेरते पौधे। झाड़ों पर पक्षियों के घोंसले। घोंसलों में चहचहाते नवजात शिशु दूरदराज से पखेरू मुंह में दाना दबाए अपने नीड़ों को लौट चुके हैं और अपने शिशुओं को चुग्गा-दाना खिला रहे हैं। अपने माँ-बाप का सामीप्य पाकर बच्चे कितने खुश हो रहे हैं उन्हें देखकर मुझे अपने बापू की याद हो आई।
अंधेरे मुंह उठ बैठते बापू। नित्य क्रिया कर्म से फुरसत पाकर बैलों का चारा पानी करते। मैं भी उठ बैठती और चूल्हा चौके में रम जाती। खाना पकाकर बापू के लिए रोटी बाँध देती और उनके खेत पर चले जाने के बाद पढ़ाई लिखाई में मग्न हो जाती। माँ थी नहीं। अत: बापू ने मुझे माँ का भरपूर प्यार दिया, वहीं थोड़ी बहुत यदा कदा डांट-फटकार भी। जीवन की गाड़ी बड़े आराम से चल रही थी।
बचपना रेंगकर कब जवानी की दहलीज पर जा पहुंचा, मुझे पता ही नहीं चला। मैं तो बस अपनी पढ़ाई में ही खोई रहती और घर का कामकाज सम्हालती। मैट्रिक के इम्तहान सिर पर थे। पूरे लगन और ईमानदारी के साथ देर रात तक पढ़ती। अच्छी कुशाग्र बुद्धि के साथ-साथ ईश्वर ने मुझे गजब का रूप-लावण्य भी दिया था। रास्ता चलते लोगबाग मुझे घूरकर देखते, पर मैं सिर नीचा किए ही स्कूल जाती और वापिस लौटती।
मैट्रिक के एग्जाम निपट चुके थे। बस इंतजार परिणामों का था। वह दिन भी शीघ्र ही आ गया। जिला ही नहीं पूरे सम्भाग में मैंने प्रथम आकर अपने गाँव का नाम रौशन किया था। एक संवाददाता ने मेरा इन्टरव्यू लिया और तरह-तरह के प्रश्न पूछे। बड़ी ही दक्षता से मैंने उसके जवाब दिए थे। पर एक प्रश्न ने मुझे आखिर रुला ही दिया। संवाददाता ने जब यह प्रश्न किया कि आगे चलकर मैं क्या करना चाहूंगी। मैं भलीभांति जानती थी कि बापू ने मुझे कितनी मुसीबतें उठाकर पढ़ाया है और चाहकर भी आगे नहीं पढ़ पाऊंगी। कुछ बनना या कर दिखाना तो कोसों दूर है। प्रश्न सुनते ही मुझे रोना आ गया था और रोते-रोते अपने कमरे में समा गई थी। शायद संवाददाता को उसके प्रश्न का सटीक उत्तर मिल चुका था।
घर में लडक़ी यदि सयानी हो चुकी हो और उस पर उसकी माँ जिन्दा न हो तो बाप भला सुख की नींद कैसे सो सकता है। मैं जान चुकी थी, बापू अब प्राय: सुबह किसी न किसी गाँव के लिए निकल पड़ते थे। जाते तो वे उत्साह से थे पर जब लौटकर आते तो उनका मुंह लटका रहता। जाहिर है कि बात जम नहीं पा रही थी। एक दिन वे प्रसन्नता से लकदक घर लौटे। शायद बात बन गई रही होगी। पर ऐसी बात मुझसे कैसे कह सकेंगे, इसी उधेड़बुन में दो चार दिन बीत गए। एक रात खाना खाने के बाद बीड़ी पीते हुए उन्होंने यह बात मुझ पर प्रकट की कि वे एक वर ढूंढ़ आए हैं। पर दुर्भाग्य से वह दुजवर है, दो बच्चों को छोडक़र उसकी पत्नी गुजर गई है और अब केवल बच्चों के खातिर वह दूसरा विवाह रचा रहा है। बात सुनकर ऐसा लगा जैसे मुझे आसमान से उठाकर धरती पर पटक दिया गया हो। आँखों से आँसू बह निकले। ऐसा लगा जैसे चीख मार कर रो पड़ूंगी। पर बापू की हालत देखकर न तो कुछ कहने की हिम्मत हुई और न ही विरोध में अपना आक्रोश ही प्रकट कर पाई। नसीब से भला कौन लड़ सकता है, ऐसा सोचकर अपने आपको समझाने का प्रयास करने लगी।
शादी की बात लगभग तय हो चुकी थी। एक निश्चित तिथि पर बारात हमारे देहरी पर पहुंची। बापू से जितना भी बन पड़ा दान-दहेज का बंदोबस्त कर लिया था। मेहमानों की भीड़ भी जम चुकी थी। जब दो सुहागिनें मुझे अंदर लिवाने पहुंचीं तो जी में आया कि मना कर दूं। बापू का मुस्कराता हुआ चेहरा आँखों के सामने घूमने लग जाता। उनकी प्रसन्नता छीनने का मुझे कोई हक था भी नहीं। ये सोचकर मन को समझाती रही। घूंघट काढ़े मैंने मण्डप में प्रवेश किया। चारों ओर चखमख मची हुई थी। हर कोई किसी न किसी काम को अंजाम देने जुटे हुए थे। ब्राह्मण मंत्रोच्चारण कर रहा था। मुझे लाकर वेदी के पास बिठा दिया गया। कुछ देर पश्चात्ï भांवर पडऩी थी। इससे पूर्व ही दूल्हा कुछ अनुचित माँग कर बैठा। बापू की इतनी सामथ्र्य तो थी नहीं कि वे उसकी माँग पूरी करते, उन्होंने बहुत समझाईस देने की कोशिश की पर वह निष्ठुर अपनी माँग पर अड़ा रहा और बारात वापिस ले जाने की जिद करने लगा। बापू अब फफककर रोने लगे और उसके पैरों पर पडक़र अपनी इज्जत की भीख माँगने लगे। बापू का इस तरह गिड़गिड़ाना मुझे अच्छा नहीं लगा और तमक कर खड़ी हो गई और शादी के लिए स्पष्ट रूप से मना कर दिया। मेरे इंकार कर दिए जाने मात्र से बारातियों में अजीब सी हरकतें होने लग गई। पता नहीं लोग क्या-क्या बक रहे थे और बापू को तो जैसे लकवा मार गया था। बारात उल्टे पैर वापिस चली गई। घर में मचे कोहराम से हृदय-विदारक दृश्य उपस्थित हो चुका था। इसी बीच एक नवयुवक आगे बढ़ा और उसने बापू को सम्हालते हुए बड़ी अजीजी से मेरा हाथ माँगा।
मैंने घूंघट की ओट से उस युवक को घूरकर देखा। वह और कोई नहीं इसी गाँव का बड़े बाप का बिगडै़ल लडक़ा था जो गाँव-मुहल्ले में दादागिरी करता घूमता रहता था। कितनी ही बदनाम औरतों के साथ उसका नाम जुड़ा हुआ था। पैसों के जोर और कट्टों की नोक के चलते कोई भी उसका विरोध नहीं कर पाते थे।
आज एक ऐसा युवक मेरा हाथ माँग रहा था जिसका कि अपना भविष्य ही दांव पर लगा हुआ है। बाप अनाप-शनाप पैसा छोड़ गया है और बेटा अय्याशी पर लाखों लुटा रहा है। जी में आया कि उसके मुंह पर थूक दूं पर न जाने किस अज्ञात शक्ति ने मुझे रोक रखा था।
बारात के खाली हाथ लौट जाने पर उन लोगों की क्या बदनामी हुई होगी मैं नहीं जानती पर हाँ बापू और मैं तो इतने डर चुके थे कि बस पूछो मत। बापू को अपनी नाक कटाई का डर था साथ ही रिश्तेदारों का और समाज का खौफ भी ... उनकी तो जैसे सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गई थी। पर मेरा निर्णय एकदम ठीक था। मुझे अपने किए पर कोई पछतावा था न तो कोई मलाल ही। न जाने बापू ने किस सन्मति के चलते या किसी भय के चलते इस रिश्ते को स्वीकार करने का मन बना लिया था। जी में आया कि कि इस रिश्ते पर भी अस्वीकृति की मुहर लगा दूं पर यह सोचकर चुप रहना ही श्रेयस्कर लगा कि कहीं बापू हाथ से न खो बैठूं। यदि उन्हें कुछ हो गया तो फिर मेरा क्या होगा। क्या मैं अकेली समाज से लड़ सकूंगी। बापू की सहमति में ही अपनी भलाई जानकर चुप रहना पड़ा। अभी-अभी तो एक खाई से बचकर निकली हूं और दूसरी ओर, एक अन्धी बावली में गिरने जा रही हूं। सुखों की शीतल चांदनी से जले-भुने व्यक्ति से अब पूरी जिंदगी वास्ता जो पडऩे जा रहा था। मन पर पत्थर रखकर आखिर अपनी जिंदगी की नौका को उस उद्दण्ड धारा में छोड़ ही देना पड़ा। शायद यह सोचकर कि जो कुछ भी नसीब में होगा उसका डटकर मुकाबला करना ही होगा। शायद यह नसीब को भी मंजूर था और चैलेंज के रूप में मुझे भी।
इस अफरा-तफरी के चलते हवन-बेदी कभी की बुझ चुकी थी और दमघोंटू धुआँ उगल रही थी। ब्राह्मण ने उसमें लकड़ी डाली और आग प्रज्ज्वलित की। फिर अग्नि को साक्षी मान मुझे उस रईस बाप के बिगड़े बेटे को अपना पति स्वीकार करना पड़ा, बिना बारात के, बिना ढोल- ढमाके के मेरी बिदाई हुई।
गाँव के एक नुक्कड़ पर उसका महलनुमा बंगला था जो देख रेख के अभाव में अनाथ सा हो गया था। बंगला बाहर से जाना-पहचाना भी था क्योंकि स्कूल अक्सर इसी के सामने वाली सडक़ से होकर जाना होता था।
अजय के दो पुराने नौकरों ने मेरी आगवानी की, उनकी आँखों में आए आँसू प्रसन्नता के चलते आए थे या फिर मेरी बदनसीबी देखकर आए थे, नहीं बतला सकती। पर जो भी हो उन्होंने स्वागत में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।
अंदर प्रवेश करते ही अजय मुझे एक विशाल कक्ष में ले गया जहाँ एक ऊंची दीवार पर शीशे की फे्रम में उसके दिवंगत माता-पिता की विशालकाय तस्वीरें लगी थीं। अपनी जिंदगी की शुरुआत अच्छे से हो और उनका बिगड़ैल लडक़ा सुधर जाये, इस आशा के साथ मैंने माथा नवाकर आशीर्वाद माँगा। मन के आँगन में अब भी आशंका और कुशंकाओं के जहरीले नाग मुझे विचरते नजर आ रहे थे। मन ही मन मैं देवी-देवताओं को नवसती-मिन्नतें माँगती। पूरा दिन पहाड़ जैसा ही कटा, शाम होते ही मैंने बिस्तर पकड़ लिया था और पूरी रात घुरककर सोती रही। दिन कब निकल आया पता ही नहीं चला।
अजय दूसरे पूरे दिन खटर-पटर करता रहा। यहाँ वहाँ की बातों को लेकर बैठा रहा। मुझे आश्चर्य तो इस बात पर आ रहा था कि बातों के दौरान न तो उसमें वहशीपन दिखलाई दिया और न ही दुष्टों के से लक्षण। अन्यथा आदमी चाहे कितनी ही बनावट क्यों न ओढ़ ले पर अपना ओरिजनल रूप कभी न कभी उजागर कर ही देता है। मैं इस बात को लेकर संतुष्ट हो रही थी कि मेरा अजय वैसा नहीं है जैसा मैंने उसके बारे में भ्रांतियां पाल ली थीं। उसने मुझसे एक निश्चित दूरी बनाकर रख ली थी और वह उस लक्षमण रेखा का उल्लंघन न कर जाए इस बाबत सतर्क भी रहता जान पड़ता था। अजय अब मेरे लिए एक रहस्यमय पहेली बनता जा रहा था। शादी के बाद क्या कुछ होता है, यह सहेलियों से सुन रखा था पर वैसा अब तक तो कुछ भी नहीं हुआ था। अजय के इस व्यवहार पर मुझे आश्चर्य इसलिए भी हो रहा था कि औरतें उसकी कमजोरी रही हैं, इतने बड़े विशाल बंगले में उसके और मेरे सिवाय कोई तीसरा भी तो नहीं था जो उसे ऐसा करने से रोक रहा हो या यह भी संभव है कि वह अपने आपको मेरी नजरों में हीरो बनाना चाह रहा हो। अन्यथा उसने कभी का मुझ पर झपट्टा मार दिया होता। एक दिन छत पर खड़ी होकर मैं शाम का नजारा देख रही थी सूरज आँखों से ओझल हो चुका था। दूरदराज से पखेरू अपनी-अपनी चोंचों में दाना-चुग्गा दबाए अपने-अपने नीड़ों को वापिस लौट रहे थे। नवजात शिशु भी अपने घोंसलों से निकल-निकल कर चिंचिया रहे थे। गाएँ चरकर अपने-अपने घरों को लौट रही थी। उनके गलों में बंधी घंटियां टनटना रही थीं। पखेरू अब अपने-अपने घोंसलों में आ चुके थे और अपने शिशु की चोंचों में दाना डालने लगे थे। सुन्दर सजीला दृश्य देखकर मेरे अन्दर भी कुछ-कुछ होने लगा। मन अब अजय का सामीप्य पाने को अधीर सा हो उठा। जितना भी बन सकता था मैंने सिंगार किया। अपने आपको सजाया-संवारा और उसके आने का इंतजार करने लगी।
अजय अब घर लौट चुका था। उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और तारीफ के पुल बाँधने शुरू कर दिए और फिर मुझे उसने अपनी बाँहों में कस लिया। लगा कि मैं अंदर ही अंदर पिघली जा रही हूं। फिर न जाने किन विचारों के चलते वह मुझसे छिटक कर एक कुर्सी पर आ धंसा। इस अजीबोगरीब व्यवहार से मुझे मानसिक वेदना तो हुई पर यह सोचकर चुप रह जाने पर विवश होना पड़ा कि शायद मेरी ओर से की गई पहल पर वह नाराज हो गया हो। उसने शुरू से ही अपनी ओर से एक दूरी बना रखी थी और आज वह अपने ही मन से दूरी तोडऩे चला आया था फिर उसे अचानक क्या हो गया कि वह मुझसे छिटककर दूर हो गया। उसकी इस विचित्रता पर मुझे संदेह होने के साथ आश्चर्य भी हो रहा था। न तो वह कुछ कह पाने की स्थिति में था और न ही मैं। काफी लंबे समय तक हम दोनों के बीच संवादहीनता की दीवार सी उग खड़ी हो गई थी।
बड़ी देर तक टकटकी लगाए वह छत की ओर देखता रहा। शायद अपने आपको तौल रहा था या फिर कोई गुत्थी सुलझाने में व्यस्त था। उसकी इस रहस्यमयी चुप्पी ने मुझे लगभग रुला ही दिया और लगभग रोती हुई अवस्था में मैं उसके चरणों में जा गिरी। मुझे रोता देख शायद वह अपने आपमें वापिस लौटा और मुझे हौले से उठाकर एक कुर्सी पर बैठ जाने का संकेत किया और हिदायत भी दी कि मैं अकारण न रोऊं।
मौन को तोड़ते हुए उसने बहुत संजीदगी से पहल की और पूछा, ‘जया, तुम्हारे पास मैट्रिक की अंक-सूची है क्या?’ हिचकियों को रोकते हुए लडख़ड़ाते शब्दों में मैंने ‘हाँ’ कहा तो उसने मार्कशीट ले आने को कहा। इश्क लड़ाने की बजाय वह अंक सूची माँग रहा था। उसका व्यवहार अब भी उलझनों की ओर बढ़ा ही रहा था। भारी कदमों से मैंने जाकर अपना बक्सा खोला और अंक-सूची ले आई और उसके हाथों में थमा दी।
‘हाँ- तो ये बतला सकती हो कि तुम्हें मैथ्स में कितने नंबर मिले थे।’
‘डेढ़ सौ में से एक सौ अड़तालिस’ मेरा उत्तर था।
‘अच्छा -फिजिक्स में...’
‘लगभग इतने ही’
‘और केमेस्ट्री में’
‘शायद इतने ही’
‘अंग्रेजी में’
‘उतने ही’, रुआँसे स्वर में मैं प्रत्युत्तर दिए जा रही थी।
‘अच्छा तो एक विशेष बात ध्यान लगाकर सुनो। मेरी दिली इच्छा है कि तुम अपनी आगे पढ़ाई जारी रखो।’
‘आगे पढक़र मुझे अब क्या करना है?’
‘मात्र मेरी इच्छा का सम्मान करना है।’
‘फिर?’
‘फिर क्या (आश्चर्य से) तुम्हें कुछ बन दिखाना है।’
‘किसे?’
‘मुझे ... हाँ मेरी दिली इच्छा है कि तुम आगे भी पढ़ो और एक मुकम्मल पोस्ट पर बैठो।’
‘अब मन नहीं लगेगा।’
‘मन तो तुम्हें लगाना ही होगा। जया जानती हो मैं ये सब क्यों करना चाहता हूं। तुमने जब मैट्रिक में उत्तीर्ण होकर पूरे सम्भाग में अपने गाँव का नाम रौशन किया था और शायद एक संवाददाता ने तुमसे पूछा था कि आगे क्या करोगी और क्या बनोगी। वह प्रश्न सुनकर तुम रो पड़ी थी और घर में जाकर छुप गई थी। संवाददाता ने तुम्हारी चुप्पी को उजागर करते हुए अपनी रपट में लिखा था कि इस लडक़ी में अनेक संभावनाएँ वह देख रहा है, यदि उसे आगे विद्या अध्ययन करने को मिले तो वह एक सितारा बनकर चमक सकती है। मैंने उसकी रिपोर्टिंग पढ़ी थी, मैं तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की मदद करना भी चाहता तो मेरी बदनामी के चलते वह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया जाता। किसी संजोग के चलते आज तुम मेरी ब्याहता हो और अब तुम्हारे शरीर पर, मन पर मेरा ही अधिकार है। जहाँ तक शरीर का सवाल है, मैंने स्त्री तन को जी भर भोगा है। उसका मनमाफिक इस्तेमाल किया है। औरत फिर मेरी कमजोरी रही है। मैं चाहूं तो तुम्हें अपनी हवस का शिकार बना सकता हूं पर मैं अब ऐसा घृणास्पद कार्य करना नहीं चाहता। रही मन की बात तो तुम्हारा मन सदा से ही कुछ बनकर दिखाने को रहा है, ऊंचाइयों को छूना चाहता है, अत: मेरी मानो, कालेज ज्वाईन करो और एक अधिकारी बनकर लौटो। मेरे दादाजी ने यहाँ तक पिताजी ने भी नीति और अनीति के चलते ढेरो रुपया बटोरा है। मैं ऐसा मानकर चल रहा हूं कि मैंने भी अनीति के रास्ते पर चलकर खूब रुपया लुटाया है और अब जो भी पैसा बच रहा है शायद वह नीति का ही हो— तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई पर खर्च करना चाहता हूं। अब भी इतनी राशि शेष है कि तुम चाहे जितनी मंहगी पढ़ाई करना चाहो कर सकती हो। इस सबकी भरपाई मैं आराम से कर सकता हूं। अत: मैं चाहता हूं कि तुम मेरी भावनाओं को समझो तथा उनका सम्मान करो।’
वह धाराप्रवाह बोल रहा था और मैं टकटकी लगाए उसके चेहरे को देख रही थी और महसूस कर रही थी कि वह कितना विशाल हृदय का व्यक्ति है। जिसे मैंने अब तक एक कामुक पुरुष के रूप में सुना था वह तो ठीक इसके विपरीत निकला। मेरे मन के किसी कोने में दफन हो चुके अरमान फिर मचल उठे। कुछ कर जाने की तमन्ना फिर अंगड़ाईयां लेने लगी। उसका विराट व्यक्तित्व देखकर मन श्रद्धा से भर उठा। आँखों से अश्रुधारा बह निकली। मैंने उसके चरणस्पर्श किए और वादा किया कि उनकी भावनाओं का हृदय से सम्मान करूंगी और आशाओं के अनुरूप बनने की भरसक कोशिश करूंगी।
कॉलेज-वालेज गाँव में कहाँ। जाहिर है कि दाखिला किसी अन्य शहर में लेना होगा। पर वहाँ हॉस्टल की समुचित व्यवस्था नहीं थी। अत: दूसरे बड़े शहर में दाखिला लेना पड़ा। उन्होंने काफी दौड़धूप करके इस काम को अंजाम दिया था। मैं अपनी पढ़ाई लिखाई में मन प्राण से जुट गई। मन अब भी उन्हीं के इर्दगिर्द घूमता। अपने जज्बातों को कागज पर उतारती और उन्हें पोस्ट कर देती। शुरू-शुरू में पत्रों का सिलसिला अपने चरम पर था, बाद में एक लंबा अंतराल आने लगा। वह हर बार अपने पत्र में लिखते प्यार-व्यार सब बाद की बात है, पहले पढ़ाई जरूरी है, सख्त हिदायतों से मन रोने को होता, पर लगता उसका कहना सच ही है।
समय पंख लगाकर तेजी से उड़ा चला जा रहा था। फस्र्ट ईयर, सेंकड ईयर और इस तरह फाइनल में भी मेरी पोजीशन टॉप ही रही। यूनिवर्सिटी में भी टॉप की पोजीशन ही बनी थी। मैंने उन्हें पत्र द्वारा सूचित किया। उन्होंने प्रसन्नता से भरा पत्र भेजा और आदेश दिया कि आई.पी.एस. भी अब कर ही डालो।
आज मुझे आई.पी.एस. अवार्ड से नवाजा जा रहा था। हॉल खचाखच भरा हुआ था। पर मन अजय को ही ढूंढ़ रहा था। उसे ढूंढ़ते आँखें पथरा गई थीं पर वह नहीं आया। पत्र तो लिखा था— शायद न मिला हो, या फिर कहीं शहर से बाहर हो अथवा तबीयत खराब हो। तरह-तरह के प्रश्नों ने मन को मथ डाला, आखिर कर भी क्या सकती थी।
महिला पुलिस अधीक्षक बनने का श्रेय भी मुझे मिला। अब पोस्टिंग भी हो चुकी थी। बंगला भी अलाट हो चुका था। अपने कमरे में आदमकद आईना लगवाना नहीं भूली थी। जब भी मैं कप्तान की डे्रस पहनकर उसके सामने खड़ी होती, मन एक विशेष गर्व से फूल जाता। ऐसा लगता अजय ठीक पीछे खड़े होकर मुझे निहार रहा है और अब उसने मुझे अपनी बाँहों में भर लिया है। एक सुखद कल्पना से शरीर रोमाँचित हो उठता। फिर सहसा एक ख्याल मन के किसी कोने में से उठता। वह अपने आप से ही कह उठती कि जया अगर तेरी शादी उस बेवड़े से हो चुकी होती तो शायद अब तक पाँच-सात बच्चे पैदा कर चुकी होती। पुरानी बातें याद आते ही मितली सी होने लग जाती। अजय उसकी जिंदगी में न आया होता तो क्या वह इस गौरवशाली लिबास को पहनने की हकदार बन पाती। अजय उसकी जिंदगी में क्या आया उसने उसकी दुनिया ही बदल डाली। मन में ढेर सारा प्यार अजय के लिए उमड़ आया। आज वह पास में होता तो कितना अच्छा होता मैंने सोचा।
मैंने छुट्टियों के लिए एप्लाई किया और मंजूर होते ही घर की ओर चल पड़ी। मन में तरह-तरह के गुदगुदे विचार आते। मैं अजय को सरप्राईज देना ही चाहती थी। अत: बिना सूचना दिए रवाना हो गई थी।
जब मेरी जिप्सी ने गाँव में प्रवेश किया तो लगा वहाँ सन्नाटा खिंच गया है। गाँव की सीमा में पहली बार पुलिस की जीप को प्रवेश करते वहाँ के लोगों ने देखा था। भयमिश्रित प्रतिक्रिया ने प्राय: उन्हंी अंदर तक डरा दिया था और लोग-बाग खड़े होकर जीप को प्रवेश करते देख रहे थे। गली-सडक़ों को लांघते हुए गाड़ी अपने चिर-परिचित बंगले के सामने जाकर खड़ी हुई। मैंने मिरर में अपने आपको निहारा, हैट ठीक किया और गागल चढ़ाए ही उछलकर अपनी सीट से बाहर आ गई। मन अब बल्लियों कूदने लगा था। बढ़ आई धडक़नों को कानों तक सुना जा सकता था।
मैंने अपने ही हाथों से गेट खोला और लपककर मेरे हाथ कॉलबेल पर जा पहुंचे। एक तेज चीख के साथ घंटी घनघना उठी। अब मुझे दरवाजा खुलने का इंतजार था, दिल अब भी जोरों से धडक़ रहा था। अजय वहीं कहीं किसी कमरे में बैठा काम में व्यस्त होगा। जैसे ही घंटी की आवाज सुनेगा, दरवाजा खोलने के लिए आगे बढ़ेगा। अब वह आगे बढ़ रहा है, उसने अब दरवाजा खोल दिया है। उसके सामने एक आई.पी.एस. अधिकारी खड़ी मिलेगी। उसकी आँखें वर्दी देखते ही सिकुड़ जायेंगी। सबसे पहले उसके मन में यह ख्याल आयेगा कि पुलिस क्यों आई है। वह दिमाग पर जोर डालेगा और अपने ही आपसे प्रश्न करेगा कि आखिर उसका अपराध क्या है, वह अपने आपको खंगालेगा और शायद इसी उधेड़बुन में वह अपनी जया को पहचान नहीं पायेगा। फिर मैं खिलखिलाकर जोर से हंस पड़ूंगी। न पहचान पाने की भयानक भूल पर उसे मलाल होगा या फिर कहेगा अरे जया ... तुम हो और फिर अपनी विशाल बाँहें फैलाकर मुझे अपनी गिरफ्त में ले लेगा।
दरवाजा अब तक खुल नहीं पाया था। मुझे अपने आप पर ही क्रोध हो आया। एक मिनट में कितने ही सपने बुन डाले थे। दरवाजा खुलता न देख हृदय किसी अज्ञात भय के कांप उठा। कोई अंदर है भी या नहीं। यदि है तो वह क्या कर रहा होगा। तरह-तरह के प्रश्न मन को मथते-से लगे। जी में आया कि जोरदार धक्का देकर दरवाजा ही तोड़ डालूं, मैं पलभर भी इंतजार नहीं करना चाहती थी।
तभी मैंने महसूस किया कि कोई दरवाजे की तरफ आ रहा है। आते हुए व्यक्ति के पदचाप स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ रहे थे। अब धीरे से दरवाजा खुलता है। नजरें जबरन अंदर प्रवेश करने के लिए मचलने लगीं। दरवाजा अब पूरा खुल चुका था। एक बूढ़े को मैंने सामने खड़ा पाया जिसकी कमर झुक आई थी। लगता था उसने हफ्तों से शेव नहीं किया था। उसकी निगाहें, निस्तेज हो आई हैं और चेहरा ऐसा लगा जैसे पीला पका आम हो। मेरा दिल धक्क से रह गया। क्या हालत बना ली है अजय ने। मैंने अपने आपसे कहा। गला सूख आया था। मैं कुछ कहना भी चाह रही थी पर शब्द जैसे गले में ही आकर चिपक से गए थे। किसी तरह अपने आपको संयत करते हुए मैंने उस बूढ़े को घूरकर देखा। वह मेरा अजय नहीं है कोई और है— यह जानकर कुछ राहत हुई। पर इससे पहले तो उसने उसे देखा ही नहीं। आखिर कौन हो सकता है यह वृद्ध? “अजय साब घर में हैं?” मैंने अब लगभग गरजते हुए पूछा। बूढ़ा शायद कम सुनता था। उसने कोई भी प्रत्युत्तर नहीं दिया।
मैंने लगभग इसी प्रश्न को बार-बार दोहराया। पर बूढ़ा अब भी अविचलित खड़ा मुझे टकटकी लगाए घूर रहा था। शायद तेज आवाज सुनकर एक व्यक्ति दूर से आता दिखलाई पड़ा। कौन हो सकता है यह, मैंने अपने आपसे प्रश्न किया। नजदीक आते हुए उसने एक पुलिस अफसर को सामने खड़ा पाया। उसने अब शिष्टतावश हाथ जोड़े और अंदर आने को कहा। अंदर प्रवेश करते ही मेरी निगाहें तेजी से चारों ओर चक्कर काट रही थीं पर अब तक अजय दिखलाई नहीं पड़ रहा था। सोफे पर बैठते हुए मैंने उस अजनबी से पूछा, ‘अजय कहाँ हैं? क्या कर रहे हैं? कहीं बाहर गए हैं क्या?’ एक ही साँस में मैंने ढेरों प्रश्न पूछ डाले।
‘जी- जी- हाँ। मैं अजय को जानता हूं। उन्होंने ही इस बंगले को मेरे हाथों बेच दिया है और अब वे यहाँ नहीं रहते।’ इस अप्रत्याशित उत्तर को सुनते ही ऐसे लगा जैसे ढेरों सारी बर्र ने मुझे डस लिया हो। मैं बिफर कर खड़ी हो गई और लगभग चिल्लाते हुए मैंने कहा, ‘नहीं- ऐसा नहीं हो सकता।’ तब उस व्यक्ति ने डरते हुए कहा- ‘हाँ मैम ऐसा ही हुआ है। उन्होंने ये बंगला बहुत समय पहले हमें बेच दिया था। और अब वे कहाँ चले गए होंगे, हम नहीं बतला सकते।’ यह सुनकर लगा कि मेरा अस्तित्व ही समाप्त हो गया है। आज मैं जिस मकाम तक पहुंची हूं— बेमानी है। मैंने आज एक जो अमूल्य वर्दी पाई है, वह अपने अजय को खोकर पाई है। सब कुछ पाकर भी मैंने एक ऐसी अमूल्य निधि को खो दिया है जिसकी कल्पना शायद ही मैंने कभी सपने में भी नहीं की होगी। जी में आया कि चीख पड़ूं और अपने ही हाथों से वर्दी की चिंदी-चिंदी कर दूं। अब ऐसा लगने लगा था कि कोई भूचाल ही आ गया है। अब मैं वहाँ पलभर भी न ठहर सकी और वापिस हो ली।
बाहर आकर मैंने पड़ोसियों से अजय के बारे में जानना चाहा। पर सभी की लटकी हुई सूरतों को देखकर दिल बैठने लगा। पसरे हुए मौन को तोड़ते हुए एक अधेड़ ने लगभग डरते हुए कहा, “कहीं चला गया होगा बेचारा। यहाँ रहकर करता भी क्या। पूरी दौलत तो उसने अपनी बीवी को अफसर बनाने के चक्कर में दांव पर लगा दी है।” उस अधेड़ की बातें सुनकर मुझे लगा कि जैसे किसी ने मेरे नंगे बदन पर हाई वोल्टेज का करंट लगा दिया हो। जी में आया कि उस व्यक्ति का मुंह ही नोंच दूं पर किस-किसका मुंह बंद करेगी वह। बात भी सच ही तो है। अजय ने अपनी तमाम दौलत मुझ पर ही तो खर्च की है। अब एक पल को भी वहाँ न रुक सकी और स्टेयरिंग पर बैठते हुए गाड़ी स्टार्ट की और एक झटके से आगे बढ़ ली।
कितनी ही तमन्नाओं-उम्मीदों को लेकर मैं गाँव आई थी। जीप चलाते समय ढेरों प्रश्न जहरीले नागों की तरह मन के आँगन में फन फैलाए डोलते नजर आने लगे। कहाँ होगा अजय, किस हाल में होगा अजय, और न जाने ही कितने ही नुकीले प्रश्न हृदय को व्यथित कर जाते। अगर मैं अजय का कहा न मानती और घर से न निकल पड़ती तो आज अजय मेरी बाँहों में होता, काश मैं ऐसा कर पाती।
घर वापिस लौटकर मैंने अपने आपको लगभग कमरे में ही बंद कर लिया था। न तो दफ्तर जाना ही उचित लगा और न ही किसी अफसर से वार्तालाप ही। यहाँ तक कि तीन दिनों से अनाज का एक दाना भी हलक के नीचे नहीं उतरा था। यह सोचकर दफ्तर चली आई थी कि वहाँ रहकर अजय को खोजने का प्रयास किया जा सकता है। मैंने ऐसा अनुमान लगाया कि इस किस्म का व्यक्ति संन्यास भी ले सकता है। अत: मैंने प्राय: सभी बड़े तीर्थों को छान मारा और यहाँ वहाँ खबरें भी भिजवाईं पर निराशा ही हाथ लगी। खोज खबर लेते पूरा साल बीत गया पर मैं अपने अजय को खोज नहीं पाई। अब मुझे कांपते हृदय से यह स्वीकार करना पड़ा कि अजय अब इस दुनिया में नहीं है।
सुबह-शाम क्रिमिनलों के पीछे भागना, अब मेरी नियति बन गई थी। अजय के गम ने मुझे लगभग विक्षिप्त सा ही कर दिया था। अपराधियों को सामने पाती तो कहर बनकर टूट पड़ती। अब तो यह स्थिति बन गई थी कि अपराधी मेरा नाम सुनकर ही थर-थर कांपते और लगभग उन्होंने वह स्थान ही छोड़ दिया था। जब मैं अपने आपको अकेला पाती तो अपने आपसे ही प्रश्न दुहराती और कहती- ‘इतनी नाजुक है जया, तू पहले तो इतनी आक्रामक नहीं थी। एक चूहे से डर जाने वाली जया- आज तुझे हो क्या गया है?’ कभी-कभी तो, अपने आप पर क्रोध आ जाता।
समय के क्रूर हाथों ने पाषाण हृदयी बना दिया था, इस बात का अहसास मुझे भी हो चला था। इस बात को मैं रेखांकित करना नहीं भूलती कि अब मेरी जिंदगी पतझर से भी बदतर हो चली है और शायद वहाँ अब एक रेगिस्थान उग आया है जिसमें चारों तरफ शुष्क रेत ही रेत है, दूर जहाँ तक नजर जाती रेत के अलावा कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। कभी-कभी तो जी में आता कि आत्महत्या ही उसकी अंतिम परिणति है पर बीच में बापू आकर खड़े हो जाते। जब तक जीना है- तब तक सीना है- ईश्वर की दी जिंदगी है जैसे प्रभु रखना चाहें- सुख-दुख क्या है-धूपछांव है और भी तरह-तरह की सीखें तरह-तरह की नसीहतें देते नजर आते जो मुझे ऐसा करने से रोक देते थे। सुबह-शाम अजय की यादें चुपके से आतीं और मुझे व्यथित कर देतीं।
आज सुबह जल्दी ही उठ बैठी। मुझे कलेक्टोरेट भी जाना था। दोपहर बाद मि. बैनर्जी को फेयरवैल दी जानी थी, उनका तबादला हो चुका था और अब उनकी जगह विक्रान्त लेने वाले थे। विक्रान्त उनसे तीन साल सीनियर थे। शायद 96 के बैच के और मैं 98 की थी। मैंने ढेरों सारी फाइलें निपटाईं। पी.ए. को कुछ हिदायतें दीं और स्वयं तैयार होने में जुट गई।
हॉल में पूरा स्टाफ बैठा अपने जिलाध्यक्ष को बिदाई देने एवं विक्रांत के स्वागत में व्यस्त नजर आ रहा था। सभी फार्मेलिटीज निपट जाने के बाद विक्रांत का नंबर आया कि वह भी दो शब्द बोले— जब वह माईक के सामने आकर खड़ा होकर बोलने को उद्धत हुआ और उसने अपनी शैली में जो कुछ भी बोला, लोगों के दिलों को बात छूती हुई सी लगी। उसकी हर बात पर तालियां पीटी जाने लगीं। लगा बहुत बड़ा दार्शनिक है और जब वह बीच-बीच में नुकीले चुटकुले छोड़ता तो पूरा हॉल हंसी की गूंज से थिरकने लग जाता। उसके चेहरे पर हंसी खेलते ही रहती। शायद यह पहला मौका था कि मैं खुल कर हंसी थी। विक्रांत से यहाँ मेरी पहली मुलाकात हुई थी। उसके बाद से तो मुलाकातें होती रहीं। एक दिन उसने मुझे अपने आवास पर चाय पार्टी के लिए आमंत्रित किया। नियत समय पर मैं जा पहुंची। वह लॉन में चहल-कदमी कर रहा था। लगा उसे सिर्फ मेरे आने का ही इंतजार था।
गार्डन में बैठते हुए बातों का सिलसिला चल निकला। फिर बातों को एक गंभीर मोड़ की ओर मोड़ते हुए उसने मुझसे मुखातिब होकर संजीदगी से कहा— “मैडम, अगर आप बुरा न मानें तो आपकी शान में एक बात कह सकता हूं।” जब वह इजाजत माँग ही रहा था तो मैंने भी हाँ कहने में परहेज नहीं किया और उससे वह विशेष बात उजागर करने का आग्रह किया जो वह काफी पहले कह देना चाहता था। “मैम, सच कहूं, आपकी सूरत पर से नजरें हटाने को मन नहीं करता। ऐसा लगता है कि बस देखता ही रहूं। देखता ही रहूं। इस बात को सोचकर डर भी लगा रहता है कि कहीं आप बुरा न मान जाएँ। भई पुलिस वालों का क्या भरोसा- कहीं गिरफ्तार ही न कर लिया जाऊं। सुंदरता पर पुलिस वर्दी का पहरा भी तो बिठा रखा है आपने ...।” अपनी बातों को सफाई से पेश करते हुए वह काफी गंभीर भी नजर आ रहा था, साथ ही उसके चेहरे पर मंद हंसी भी थिरक रही थी। उसकी बातें सुनकर मैं कुछ झेंप सी भी गई थी। जब वह मेरी सुन्दरता को लेकर कसीदे काढ़ रहा था तो मुझे अजय की याद हो आई। अजय ही पहला व्यक्ति था जिसने दिल खोलकर मेरी सूरत और सीरत पर बात की थी। नारी सुलभ लज्जा से मेरे गाल लाल हो उठे होंगे जिन्हें यहाँ बैठे देख तो नहीं सकती थी पर बातों ही बातों में उसकी बातों ने मुझ पर गहरा असर डाला है, मैंने यह स्पष्ट रूप से महसूस भी किया था। उसने अपनी मन की बात भी मुझ पर उजागर कर दी कि वह मुझसे शादी करना चाहता है। सिर से लेकर पाँव तक मैं सिर्फ अजय की हूं और अजय की ही रहूंगी। चाहे वह कहीं भी हो अथवा न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है, कोई भी दूसरा पुरुष अब उसकी जगह नहीं ले सकता, मैंने उसके सामने अपने अतीत की गठरी खोलनी चाही पर उसने साफ इंकार कर दिया। मुझे उस पर क्रोध हो आया और मैं उठकर सीधी घर चली आई। मेरे इस तरह के चले आने के बाद उस पर क्या बीती, मुझे पता नहीं पर उसकी बातों ने मुझे हर्ट जरूर कर दिया था।
जब भी मन व्यथित होता है अथवा अवसादों से भर जाता है तो मैं किसी नदी के तट पर अथवा जंगल की ओर निकल पड़ती हूं। और घंटों बैठकर अपना मन बहलाती रहती हूं और अपनी गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास भी करती हूं। नदी-पहाड़-जंगलों ने मुझे सदा से ही अपनी ओर आकर्षित किया है। मेरी नजरों में इनसे अच्छे दोस्त कोई हो ही नहीं सकते। नदी के तट पर बैठी मैं- उसका निर्बाध गति से बहना देख रही थी, कल-कल छल-छल के स्वर निनादित करती नदी मन्थर गति से बही चली जा रही थी। मैंने मन ही मन नदी से कहा कि वह थोड़ी देर रुक जाए तो हंसकर नदी ने जवाब दिया- कल-कल, माने वह पलभर भी रुकना नहीं चाहती थी, अत: कल का वादा करके आगे बढ़ी चली जा रही है, चलते-चलते उसने एक बात भी हौले से बतला डाली कि यदि मैं रुक गई तो पोखर बन जाऊंगी- तेरी तरह जिसमें बाद में सड़ांध के सिवाय कुछ शेष नहीं रह जायेगा। गति है तो जिंदगी है और जिंदगी है तो गति भी होनी चाहिए। न जाने किस कोड में उसने अपना गूढ़ रहस्य मुझ पर उजागर कर दिया था। सच ही तो कह रही है नदी, अजय ने मुझे नदी के रूप में परिवर्तित कर दिया था और बहना भी सिखा दिया था। यदि मैं वहीं रुकी रहती तो आज शायद ही इस मुकाम तक आ पाती। अजय के न रहने के गम ने मुझे विचलित तो किया ही है। साथ में ही गति भी अवरुद्ध हो गई है। ठीक है अजय आज मेरे साथ नहीं है। तो क्या मुझे रुक जाना चाहिए? हाँ रुक जाना चाहिए- जब वह साथ नहीं है-तो रुक ही जाना चाहिए। मैं बहना भी चाहूं तो किसके लिए? अब न तो मेरा कोई उद्ïदेश्य ही शेष रह गया है न ही कोई प्रयोजन। मुझे रुके ही रहना चाहिए- मैंने अपने आप ही अपने प्रश्नों का जवाब दिया। तभी नदी बीच में बोल उठी— जया, अजय ने तुझे चलते रहने की सीख दी थी और तू चल भी पड़ी थी... मेरी तरह, जहाँ से तू चली थी अजय आज भी वहाँ ही खड़ा है और तुझे आज भी आगे बहते रहने के लिए ही कह रहा है। संभव है कि उसकी आवाज तुझ तक आ पा भी रही है अथवा नहीं, तो भी उसने तुझे आगे बढ़ते रहने को कह रखा है। मान लो अजय वहाँ नहीं भी है तो क्या फर्क पड़ता है। तू तो बहते हुए कोसों दूर आ चुकी है, जहाँ से अजय तुझे दिखलाई भी नहीं पड़ेगा, अजय न भी दिखलाई पड़े तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अजय के कहे हुए वाक्य आज भी तेरे साथ हैं- अजय की याद भी तो तेरे साथ ही बही चली आ रही है। तुम्हारी जिंदगी में अजय की उपस्थिति मात्र इतनी ही देर के लिए थी। वह तुझसे यह कह सके कि जया तेरा मुकाम यहाँ तक ही सीमित नहीं है, इसके आगे भी एक दुनिया है, इस दुनिया के परे भी एक दुनिया है और जहाँ तक दुनिया है तुझे अविरल बहते ही जाना है मेरी तरह। हाँ, एक बात और ध्यान से सुन- नदी को मजबूत तटबंध की भी आवश्यकता होती है। यदि उसे मजबूत बाँहों का सहारा न मिला तो वह उद्दंड हो उठती है और अकारण ही उसके किनारे पर बसे लोगों पर कहर बनकर टूट पड़ती है, क्या तू आज ऐसा नहीं कर रही है? नदी ने आज बहुत कुछ कह डाला था जिसका मुझ पर व्यापक असर तो हुआ ही, साथ ही रुक आई गति फिर से गतिमान होने को मचलने लगी। नदी के इस समझाईस के बाद, विक्रान्त की बातें अब मुझे अच्छी सी लगने लगी थीं। अब मेरी बारी थी। मुझे ही पहल करनी थी सो एक दिन मैंने उसे अपनी ओर से स्वीकृति प्रदान कर दी।
एक सादे समारोह के चलते हमने कोर्ट मैरिज की और इस तरह जिंदगी की नदी फिर बह निकली।
अब नित नये सपने सलोने तन मन को गहराई तक उत्तेजित कर जाते, मरुस्थल अब हरीतिमा में बदलने लगा था। कंटीली झाडिय़ां ढूंढ़े पर भी नहीं मिल रही थीं। चारों ओर अरमानों की, चाहत की बेलें, वृक्षों से लिपटकर आसमाँ की ओर बढ़ चली थीं। अब तक जो लू के थपेड़े रोम-रोम को झुलसा देने वाले लगते थे, शीतलता ओढ़े हुए से लगते, मंद-मंद समीर का प्रवाह थिरकने लगा था। मन की कुढऩ व टीस कोसों दूर छूट से गए थे। अब तो जी भर कर खिलखिलाकर हंसने को जी चाहने लगा था। कोयल कूहकने लगी थी। लगा बसंत लौट आया है पीली-पीली चुनरिया ओढ़े। अजय का ख्याल अंदर गहरे तक दफन हो चुका था और वक्त ने भी उस पर ऊंचे तक मिट्टी डाल दिया था।
बरसों-बरस बीत गए अजय का ख्याल फिर पलटकर नहीं आया। लगा कि इसमें भी उसकी मौन स्वीकृति ही रही हो।
टेलीफोन लगातार घनघनाए जा रहा था। मैं किसी काम में जरूरत से ज्यादा ही व्यस्त थी। टेलीफोन का इस तरह लगातार बजते रहना कोफ्त पैदा कर रहा था। आखिर खीजकर रिसीवर उठाना पड़ा। पी.ए. भी शायद अपनी सीट पर नहीं था। उसका इस तरह बिना इतल्ला दिए चले जाना उचित नहीं लगा। आखिरकार टेलीफोन उठाते हुए मैं लगभग बरस पड़ी। दूसरी ओर टेलीफोन पर, हमारा मुखबिर था। उसने सूचना दी कि कुछ आतंकवादी ट्रेन को उड़ाना चाहते हैं और उन्होंने लगभग इस काम को अंजाम भी दे दिया है, आज पुलिस को गुमराह करने के चलते वे उसी ट्रेन पर सवार होकर सफर भी कर रहे हैं और बम फटने के पहले वे कम्पार्टमेंट से कूद पड़ेंगे ताकि खोजी दस्ता एक्सीडेंटल पाईंट पर ही अपनी तफतीश करने में व्यस्त हो जाये।
मैंने रिस्टवॉच पर नजर डाली। टे्रन का डिपार्चर लेने का समय था। यह संभव है कि ट्रेन लेट भी हो या वह स्टेशन पर लग भी चुकी होगी। मैंने मन ही मन अपने आप से कहा और अपनी जीप उठाकर सीधे स्टेशन की ओर बढऩे लगी। मेरा अपना स्टाफ मुझे फॉलो कर रहा था।
स्टेशन पर पहुंचकर मैंने देखा ट्रेन रवाना हो चुकी थी और उसने अब गति भी पकड़ ली थी। जाहिर है कि उसे अगले स्टेशन पर अटेंड करना होगा। समय भी कहाँ था कि स्टेशन मास्टर से तत्काल संपर्क साधा जा सके। एक के बाद एक स्टेशनों को छोड़ते हुए गाड़ी अपनी रफ्तार से बढ़ी चली जा रही थी। आखिरकार एक स्टेशन पर किसी तरह गाड़ी को रोका जा सका, मुखबिर की इस खबर के आधार पर कंपार्टमेंट में सघन जांच की जाने लगी, पर कोई सूत्र हाथ नहीं लगा। “संभव है कि क्रिमिनलों को इसकी भनक पड़ गई हो और वे चलती टे्रन से छलांग भी लगा चुके होंगे।” मैंने अपने आप को समझाने का प्रयास किया और ट्रेन को आगे बढऩे की इजाजत दे दी।
टे्रन अब प्लेटफार्म छोड़ रही थी। कंपार्टमेंट से उतरते समय मेरी नजरें अचानक दूर तक चली गईं। देखा अजय जैसा ही कोई व्यक्ति ट्रेन पर सवार होने का उपक्रम कर रहा था। मेरी आँखें धोखा नहीं खा सकतीं। निश्चित ही वह अजय ही होगा। अजय को देखते ही लगा कि वह जीवित है। यदि अजय सचमुच जीवित था तो फिर वह मुझसे मिलने अब तक आया क्यों नहीं। हो सकता है कि वह मिलना ही नहीं चाह रहा होगा। तभी तो उसने इतने बरस मुझसे दूरी बनाए रखीी। या यह भी संभव है कि उसका मकसद मुझे एक मुकम्मल अफसर बनाने तक का ही रहा होगा और जब मैं इस काबिल बन गई तो उसने मुझे शायद अपने लायक ही नहीं समझा होगा और चाहता रहा होगा कि आगे की जिंदगी मैं अपनी इच्छा के अनुसार, अपनी मर्जी के अनुसार जीऊं। खैर जो भी उसकी सोच रही होगी— गलत ही थी। मैं तो कभी से पलकें बिछाए उसके इंतजार में बैठी रही हूं। यदि मुझे उससे जुड़ाव न होता तो मैं नाहक ही उसकी खोजबीन क्यों करती। क्यों वापिस लौटती अपने गाँव। मैं तो उसे लिवा लेने गई थी पर तब तक तो वह कोसों दूर जा चुका था। या फिर वह नक्सलियों से जा मिला होगा। तभी तो मुझे देखकर भागने का उपक्रम कर रहा था। यदि उसने मुझे देख लिया था तो उसे चाहिए था कि वह प्लेटफार्म पर ही रुका रह जाता और ट्रेन के चले जाने के बाद मुझे मिलता या संभव है कि वह मुझसे मिलने आया रहा होगा और जब उसने मेरे निवास पर लगी नेमप्लेट पर मेरे नाम के आगे श्रीमती जया विक्रान्त लिखा देख लिया होगा तो वापिस लौट गया होगा। हाँ, इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि कुछ वैसा ही हुआ होगा। जो भी हो, मेरा अजय नक्सली तो हो ही नहीं सकता। तरह-तरह के प्रश्नों ने दिल और दिमाग को मथ डाला। अजय दिखा भी ऐसे समय कि टे्रन अपनी गति पकड़ चुकी थी और मैं सरपट भागती ट्रेन को देखती ही रह गई।
अपनी गाड़ी में बैठते हुए मैंने निर्णयात्मक शैली में अपने आपको समझाने का प्रयास किया कि यह मेरा भ्रम ही रहा होगा। अब उसे अकारण ही परेशान होने की जरूरत नहीं है। वह अजय नहीं बल्कि उस जैसा दिखने वाला कोई भद्रपुरुष रहा होगा।
गाड़ी ने यही कोई चार छ: स्टेशन पार किए होंगे कि जबर्दस्त हादसा घटा, कई बोगियां हवा में उछलकर या तो दूर जा गिरीं या एक दूसरे पर जा चढ़ीं। चारों तरफ लाशों का ढेर सा लग गया था और जो जिंदा बचे थे, सहायता के लिए चिल्ला रहे थे, तो कुछ सकुशल बचे व्यक्ति बेसहारों को मदद दे रहे थे। इन सारी घटनाओं का ब्यौरा मुझे अपने वायरलैस सेट पर मिला। मैंने बिना समय गंवाए अपनी जीप मोड़ी और दुर्घटनास्थल की ओर चल पड़ी। जितना मैंने वायरलैस पर सुना था, उससे कहीं ज्यादा वीभत्स दृश्य था वह। चारों ओर खबरें आग की तरह फैल गई थीं और बचाव दलों का पहुंचना शुरू हो चुका था।
घटनास्थल का निरीक्षण करते हुए मैंने देखा एक व्यक्ति औंधा पड़ा हुआ था, उसकी डील-डौल बनावट से ऐसा लगा कि वह कहीं अजय तो नहीं है। मात्र इस ख्याल के आते ही साँसें दूनी गति से दौडऩे लगीं और कलेजा धक-धक करके धडक़ने लगा। एक पुलिसमैन ने बाडी को पलटा- देखते ही कलेजा मुंह को आ गया। मैं अब लगभग चीख ही पड़ी थी। आँखें फटी की फटी ही रह गई थीं। अरे ये तो कोई और नहीं बल्कि मेरा अपना अजय ही है। मैंने अपने आप को नियंत्रित करने का सायास प्रयास किया और स्वयं लपककर अन्य जनों से भी उसे उठाकर एक ओर ले चलने के लिए आग्रह करने लगी। जब उसके शव को उठाकर ले जाया जा रहा था तो वह मन ही मन अजय को देखकर कह रही थी- अजय, तुम मिले भी तो इस तरह। अपनी जया से मिलने का क्या यही एकमात्र रास्ता बचा था तुम्हारे पास। जब तुमने मुझे वहाँ स्टेशन पर ही देख लिया तो दौडक़र क्यों नहीं चले आए मेरे पास। जब मेरे दिल को भी यह विश्वास हो गया था कि तुम अब लौटकर नहीं आओगे तो मैंने दिल पर पत्थर रखकर विक्रान्त को अपना लिया था। शायद इसी सोच के चलते कि औरत को कितने ही अधिकार दे दिए जाएँ, फिर भी मर्दों का उन पर नियंत्रण रहता ही है। और वे उसी तरह औरतों को वापरते हैं, जिस तरह से वे चाहते हैं या फिर औरत को कितना ही बड़ा शक्तिशाली पद दे भी दिया जाए तो भी उसे मर्द की हुकूमत के आगे सिर झुकाना ही पड़ता है। कोई चाहे जितना ही जुर्म ढाए उसे सिर झुकाकर स्वीकार करना ही पड़ता है। अब मुझे ही ले लो- आज पुलिस कप्तान के पद पर हूं, लोग मुझसे खौफ भी खाते हैं पर जानती हूं कि एक न एक दिन किसी शैतान से मेरा पाला पड़ेगा ही, और जब मैं उसकी चंगुल में आ जाऊंगी तो वह मुझे मसलकर रख देगा। पता नहीं औरतों को कब तक मर्दों की गुलामी करनी पड़ेगी, अगर वह भी न चाहे तो उसे गुलामी स्वीकार करने पर यह कहकर मजबूर कर दिया जाता है कि बिना पुरुष के औरत संपूर्ण हो ही नहीं सकती। चलते-चलते अपने आपको समझाने का भरपूर प्रयास करने लग जाती हूं। पर इस बात पर अफसोस जरूर हो रहा था कि अजय मुझसे मिला भी तो मुर्दा हालत में।
मैंने स्वयं अपनी ओर से पहल करते हुए दाह संस्कार का इंतजाम किया और चिता को कांपते हुए हाथों से अग्नि दी और एक निश्चित स्थान पर खड़े होकर अजय के पार्थिव शरीर को सेल्यूट मारा और उल्टे पैर वापिस हो ली।
लगा कि मेरी अपनी देह भी अजय की देह के साथ जली जा रही है। मैंने अपने आपको छूकर देखा सचमुच बदन दहक रहा था। तभी समुद्र में उफान सा आने लगता है और एक बड़ी सी लहर पत्थरों से आकर टकरा जाती है। ढेरों पानी बदन पर आकर पड़ता है, इस अप्रत्याशित घटना से मैं चौंक पड़ती हूं और अपनी तंद्रा से बाहर वापिस आ जाती हूं।
मैंने रिस्टवॉच में समय देखने का प्रयास किया परंतु अंधेरे के चलते समय नहीं देख पाई। भारी मन से मैं उठ बैठी और समुद्र की ओर बढ़ चली, जहाँ समुद्र जोरों से हिलोरें मार रहा था। मैंने अपने हाथों से चूडिय़ां उतारीं। हथेली में लेकर अपने मस्तक से लगाया और अजय पर ध्यान केन्द्रित करते हुए उसे अन्तिम नमस्कार किया और चूडिय़ों को दूर गहरे समुद्र में समर्पित कर दिया।
मैंने नजरें उठाकर देखा सिंदूरी रंग में लिपटे हुए भुवन भास्कर मंद-मंद मुस्करा रहे हैं।