और मैं बड़ी हो गई / देवी नांगरानी

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चंचलता और नटखटता उसके हर एक नस में बसी थी जो जवानी की तरह उमड़-उमड़कर अपना इजहार किसी न किसी स्वरूप में करती थी । चाहे वह उसका उठना हो, बैठना हो या बात करना हो !

"मैं क्या दो चोंटियाँ नहीं कर पाऊँगी, क्यों ?“

"क्योंकि तुम बड़ी हो गई हो ?“

"तो क्या बड़े होकर दो चोटियाँ करना मना है ?”

"अरे मना नहीं है, हर इक उम्र की अवस्थाएँ बदल जाती है, रिश्तों के नाम बदलते है, तो अपनी देख-रेख और बर्ताव भी तो बदलना पड़ता है या नहीं ? “

"आपका मतलब है रिश्तों के नाम बदल जाने से हम भी बदल जाते है या यह बदलाव लाना पड़ता है.”

"अरे बाबा, तुमसे बात करना बहुत ही मुश्किल है मिनी.”

"खाल की बात निकालने लगती हो। बेटा मैं नहीं समझाऊँगी तो उन ऊँच-नीच की गलियों से गुज़रने के लिये, तो कौन आकर तुम्हें ये दुनियादारी के सलीके बताएगा ।”

“तुम चाहती हो कि दुनियाँ की सब लड़कियाँ जब औरत बन जायें तो सब कुछ भूल जायें । हँसना, मुस्कराना, लंगडी खेलना, कबडी-कबडी, तू तू मैं मैं, जो बचपन से लेकर आज तक वो करती रही और तेरी तरह बन जाए - दो पाटों के बीच पिसती हुई कोई धान का दाना । क्या हर शादी का अंत ऐसा ही होता है । पति की सेवा, उसके माता-पिता के पाँव दबाना, उसके बच्चों का लालन-पालन, खाना बनाकर खिलाना, स्कूल के लिये तैयार करना और उनकी जरूरत और माँगों की कशमश में घिरे रहना, जैसे कोई टूटी फूटी नांव चल रही हो महाकाल की भंवरमें।”

“क्या कह रही हो मिनी, ये तो बाग़ी सोच है । परिवार के लिये अपना समस्त अर्पित कर देना कुरबानी नहीं, यह तो कर्तव्य होता है, वो मेरे हैं और उनका परिवार भी मेरा है ।”

"यह तुम कह रही हो माँ, अब मैं छोटी नहीं हूँ जो यह भी न समझ सकूँ । आप जिनकी बात कर रही है, वह मेरे पिता होते हुए भी मेरे पिता नहीं है । उन्हें यह तक मालूम नहीं कि किस कक्षा में मैं पढ़ती हूँ । मेरा छोटा भाई किस पाठशाला में जाता है, क्या ओढता है, क्या बिछाता है । बस साल में एक दो बार होश में होता है तो पूछ लेता है । पढ़ाई कैसे चल रही है और ऊपर से सुझाव देते हैं । माँ की बात सुना और माना करो.”

मिनी अपनी उम्र की बाग़ी सोच को उड़ेलते हुए कहती रही ।

“माँ तुम तो ऐसे कहती हो जैसे वो कभी तुम्हारी बात सुनते हैं और मानते हैं - मुझे तो लगता है उन्हें अपने नशे में और जवानी की चौखट पर बैठी मैत्री के सिवा कुछ याद नहीं रहता । क्या तुम इसे कर्तव्य कहती हो जो फकत एक तरफा ही रह गया है.”

माँ की ज़ुबान को अब ताले लग गये । सच ही तो कह रही है मिनी । दिखने में वो चुलबुली है पर समझ में काफी सतर्क है । दसवी में पढ़ रही है पर दुनियादारी को समझते हुए न समझने का दिखावा करती है ।

मिनी अपनी माँ की सखी है , उसके अंतरमन के घट को छू आती है । वहाँ पर जो ज़ख़्मों के छाले हैं कभी-कभी उन्हें ऐसी ही बातों से फोड़ आती है - ताकि माँ के दिल का दर्द ज़हर बन जाने के पहले अश्रू बनकर

वह बह निकले । उसके मन के संघर्ष से वह भली भाँति परिचित थी । अपनी तरफ से एक अनजान दिखावे को वह ओढ़कर विचरती रहती है, पर नज़र चारों ओर उस घर की चारदिवारी के अंदर और बाहर के आसपास मंडराती है । जिस दहलीज़ की मर्यादा के सुर माँ को अलापते हुए सुनती है उसीका रोना रोते माँ कह रही थी‍‍...

“बेटा घर की बात घर में ही रहे तो बेहतर । मुझे तेरी भी तो चिंता लगी रहती है । साल भर में कोई अच्छा लड़का देखकर तेरी शादी कर दूँगी, फिर मेरी नैया का जो हो सो हो। तेरा भाई तो लड़का है । ज़िन्दगी के सफर में मर्दों को कई दिशाए मिलती है । कई मोड़ आते हैं जहाँ वो अपना पड़ाव डाल लेते हैं । दुनिया उसे गवारा कर पाती है पर औरत का एक ग़लत कदम उसी मर्यादा के उल्लंघन के नाम से कलंकित हो जाता है । जिसके बाद उम्मीदों के सारे दरवाज़े अपने आप उस पर बंद होते चले जाते हैं ।”

अब मिनी कुछ ज़्यादा ग़ौर से सुनने लगी और सोचकर कि माँ क्यों ऐसा कह रही है और क्या कहना चाह रही है - जहाँ उसकी सोच उसकी जुबान का साथ देने से कतरा रही है । घर के आँगन को पार करते हुए दो बार मैत्री पिछवाड़े के कमरे में पिताजी के साथ बेधड़क चली गई थी और तब माँ की उदासी और गहरी होती हुई देखी थी उसने । मिनी की पैनी नज़रों से यह सब छुपा नही था ।

“माँ तुम किस सन्दर्भ में बात कर रही हो ? कौन-सा डर मन में पाल लिया है मुझे बताओ, मुझे बताओ शायद अपने ढंग से कुछ सोच पाऊँ और किसी सुझाव का दरवाज़ा खटखटाऊँ ।”

"मिनी"..और माँ आँसुओं के दरयाह में डूबती हुई नज़र आई ।

“माँ कहो ना । क्या बात है जो तुम चाहकर भी नहीं कह पा रही हो ? “

"बेटी तुम्हारे पिता तुम्हारे रिश्ते की बात कर रहे थे ...और मैं जानती हूँ उन रिश्तों की नींव कितनी कमजोर होती है....!!”मैं सुनकर बहरी हो गई. "बस कोई लड़का तलाश करके तेरे हाथ पीले करना चाहती हूँ और यह प्रार्थना करूँगी कि इस घर से तू बहुत दूर चली जा, जहा ये जहरीली हवाएँ साँसों में घुटन न पैदा कर सके...!! “

चर-चर की आवाज के साथ पुराने दरवाज़े का चरमराता किवाड़ खुला और अंदर आने वालों मे पहले पिता फिर मैत्री और साथ में एक नवयुवक का नया चहरा नज़र आया, जो अपनी भूखी नज़रों से मुझ पर नज़र डालता है । आँगन के उस पार वाले कमरे में चला गया । पिताजी ने वहाँ कुछ ओताक जैसा माहौल बना रक्खा था। पान का बक्सा, बीड़यों के चंद छल्ले, माचीस की तीलियाँ यहाँ, वहाँ बिखरी भरी और खाली बोतलों की महक से वह कमरा गंधमय होता जा रहा था । कभी-कभी माँ को लातों से मारकर उसकी सफाई की ताकीद करते हुए सुना है, पर माँ वह काम कब करती है यह मैंने खुली आँखों से कभी नहीं देखा, पर जानती हूँ हमारी पलकों में नींद भर जाने के बाद वह करती रही होगी, यह है मेरी माँ। सोच के भी डर लगने लगता है कि ऐ औरत क्या यही तेरी कहानी है ? क्या इन बेजुबान जख्मों को देखकर आदमन का दामन आयुओं से नही भरता ? और तेरे ऐसे कई सिलसिलों को देखकर, उन्हें महसूस करते हुए मुझे लग रहा है जैसे मैं वह दौर खुद जी रही हूँ - उन दरिंदों के चंगुल का शिकार बनकर, जिनमें आदमीयत का नामों-निशान बाकी नहीं । पर आज जो हादसा हुआ उसके गुजर जाने के बाद अब मैं बड़ी हो गई हूँ !!

वहीं उस चौखट पर बचपन लुट गया, उसकी मासूमियत लुट गई । वो खिलखिलाना, वो चुलबुलाहट, वो नटखटता उस मानवता के आगे घुटने टेक कर रह गई । शायद अमानुष बनना ज्यादा आसान है । मानुष तो बस कीमत चुकाने के लिये होता है ।