और मैना मर गई / गिरिराजशरण अग्रवाल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह घटना मेरी पत्नी संगीता ने उस वक़्त सुनाई थी, जब वह नई नवेली दुल्हन थी और कुछ दिन पहले ब्याहकर इस घर में आई थी। मार्च की हलकी सर्दी की रात थी। दीवार पर लगी इलैक्ट्रानिक घड़ी में आवाज एक-एक क्षण के बारी-बारी गुजरते जाने का अहसास दिला रही थी, मैंने दूधिया रोशनी में घड़ी की ओर देखा। एक बजने में सात मिनट शेष थे। संगीता जाग रही थी। अभी मेरी आँखों में भी नींद का खुमार नहीं उतरा था। हम दोनों गर्म शाल लपेटे बराबर-बराबर लेटे थे। कुछ पल ऐसे ही होते हैं, जब बातें समाप्त हो जाती हैं और कहने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहता। जब दिल धड़कते हैं और ख़ामोशी शब्द बनकर बोलने लगती है। संगीता सरककर मेरे और निकट आ गई. मैंने उसके शरीर की गर्मी अपने भीतर प्रवेश करते हुए महसूस की।

संगीता एक ऐसी महिला थी, जो प्रेम में अपना पूर्ण अधिकार चाहती थी। प्रेम में किसी और की भागीदारी सहन नहीं थी उसे। पूरा कब्जा चाहती थी वह और जैसा कि होता है कि प्रेम में पूरा कब्जा चाहनेवाले व्यक्ति प्रायः शंकालु प्रवृत्ति के होते हैं। उन्हें हर पल यह खटका लगा रहता है कि उनका प्रेमी किसी और तरफ़ न झुक गया हो। किसी और ने उसे अपनी ओर आकर्षित न कर लिया हो। ऐसे व्यक्तियों में निरंतर एक असुरक्षा-सी बनी रहती है। एक भय-सा बना रहता है कि कहीं कोई दूसरा उनके प्यार में भागीदार न बन जाए. मैं आरंभ ही में संगीता की इस प्रवृत्ति को भलीभाँति समझ गया था और प्रयास करता था कि ऐसा कोई कारण न आने दूँ, जो उसके लिए किसी तरह का संदेह पैदा कर सकता हो।

रात कुछ और आगे सरकी। मैंने देखा, अचानक मेरी पालतू बिल्ली कमरे की खिड़की से कूदकर मेरी गोद में आ बैठी। यह बिल्ली, जिसे हम सब परिवार के लोग गोल्डी कहकर पुकारते थे, मुझसे बहुत ज़्यादा हिल गई थी। मैंने नर्म-नर्म बालों वाली बिल्ली की पीठ पर प्यार से हाथ फेरा और उसे सहलाते हुए अपने और संगीता के बीच में लिटा दिया।

'कैसी प्यारी बिल्ली है, संगीता। है ना!' मैंने बस कहने के लिए कह दिया और पलटकर गोल्डी की तरफ़ देखा। मुझे उसकी भूरी-भूरी आँखों में प्रेम का सागर उमड़ता दिखाई दिया। भावनाओं के पास शब्द नहीं होते। पर वे शब्दों के बिना ही सब-कुछ कह देती हैं, सब-कुछ बता देती हैं, जो कुछ भी उनके भीतर होता है। भावनाओं की भाषा आँखों से व्यक्त हो जाती है, चेहरे से व्यक्त हो जाती है। प्रेम की भाषा को शब्दों की ज़रूरत नहीं होती।

मैंने देखा, संगीता बिल्ली के विषय में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है। इस समय एक विचित्र-सी उदासीनता उसकी आँखों में है। मैंने पूछा-

'क्यों डियर, तुम्हें पालतू प्राणियों में कोई रुचि नहीं है क्या?'

संगीता ने मेरे सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं दिया। बोली, ' डैडी ने एक पहाड़ी मैना पाल रखी थी। वह हमारे सारे परिवार के लिए एक खिलौने जैसी थी। जिस व्यक्ति ने भी उसे शिक्षित किया होगा, बहुत ज़्यादा मेहनत की होगी, उसके साथ। सच कहती हूँ गौरव, वह इस तरह बोलती थी, जैसे सचमुच आदमी बोलते हैं। कितनी मीठी मधुर आवाज थी उसकी। डैडी ने एक सुंदर खुला-खुला-सा पिजरा उसके लिए ख़रीदा। पावों में चाँदी के छोटे-छोटे छल्ले पहनाए. गले में सुनहरे मोतियों की छोटी-सी माला डाल दी। हमने उसका नाम तारा रखा था। घर के सारे लोग उसे तारा दीदी कहकर पुकारते थे।

मैंने बिल्ली को उठाकर छाती पर रख लिया। इस समय बिजली की रोशनी में उसकी आँखें सचमुच तारों जैसी चमक रही थीं। उसने अपना सिर मेरे गर्म-गर्म चेहरे पर रख लिया था। मैं गोल्डी की नाक के आसपास खड़े मूँछ के बालों का स्पर्श अपने चेहरे पर महसूस कर रहा था। है तो विचित्र-सी बात, लेकिन सत्य है। प्रेम की भावना न होती तो यह बाल मेरे लिए असुविधा का कारण बन सकते थे। इनकी चुभन मेरे लिए असहनीय हो सकती थी। इस समय यह मुझे अच्छी लग रही है। प्रेम की भावना में तो ऐसी चीजें भी अच्छी लगने लगती हैं, जो सामान्य स्थिति में स्वीकार नहीं की जा सकतीं। मैंने सोचा और गोल्डी के सिर को धीरे-धीरे सहलाने लगा।

संगीता अपने डैडी की मैना का ब्यौरा दे रही थी। 'तारा दीदी सुबह अँधेरे ही बोलना शुरू कर देती। उठो भ्राता जी, उठो भाभी जी, राम नाम जपो भोर का समय है और जैसे ही घर में चहल-पहल होती, तारा दीदी सबको नाम लेकर प्रणाम करती, बारीक मीठी आवाज में उसका नमस्ते कहना कितना अच्छा लगता था हम लोगों को। सच तो यह है गौरव, तारा दीदी हमारे परिवार का सबसे प्रिय सदस्य थी। वह बच्चों से बतियाती, बड़ों से बतियाती। डैडी मैना का सबसे अधिक ध्यान रखते थे। समय पर खाना देते, समय से पानी देते, रात को उसका पिजरा अपने बैड के पास टँगवा लेते। डैडी को मैना के बिना चैन ही नहीं पड़ता था।'

गोल्डी अपने अगले दोनों पाँव उठाकर मेरे पेट पर बैठ गई और अपनी गोल-गोल आँखों से इधर-उधर देखने लगी। मैंने संगीता से कहा, 'गोल्डी को भूख तो नहीं लगी है, हो सकता है, इसे भूख लगी हो। यह इधर-उधर देख रही है, जैसे इसे किसी खाने योग्य वस्तु की खोज में हो।'

संगीता ने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। चुपचाप बैड पर लेटी रही। मैं बिस्तर से उठा और किचन से दूध ले आया, बिल्ली को पिलाने के लिए. संगीता यह सब देखती रही। बोली कुछ नहीं। गोल्डी ने दूध पिया। मैंने कपड़े से उसकी मूँछें साफ़ कीं और उसे बाहर जाने के लिए नीचे छोड़ दिया। पर गोल्डी बाहर नहीं गई. कमरे के चारों ओर घूमकर वापस लौट आई और उछलकर फिर मेरे बिस्तर में आ घुसी.

प्रेम में जो आकर्षण है, वह शायद ही किसी और चीज में हो। मैंने संगीता को सम्बोधित करते हुए कहा, 'चुंबक तो बस लोहे की चीजों को खींच पाता है। पर प्रेम की भावना तो पशु-पक्षियों तक को मोहित कर देती है।' मैंने गोल्डी को उठाकर फिर अपने पास लिटा लिया। इसे मैं अपने एक मित्र के यहाँ से लाया था। तब यह आठ दिन की थी। सोहनी नाम की उसकी बिल्ली ने तीन बच्चे दिए थे। एक मैं ले आया था, दूसरा एक और मित्र ले गया था और तीसरा पैदा होने के तीसरे ही दिन निमोनिया से पीड़ित होकर मर गया था। मैंने गोल्डी को ऐसे लाड़ से पाला है, जैसे माँ अपनी संतान को पालती है। '

मैंने महसूस किया कि संगीता गोल्डी के विषय में कोई विशेष रुचि नहीं ले रही है। पशु-पक्षी प्रेम की महक इतनी जल्दी महसूस करते हैं, जितनी जल्दी शायद आदमी भी महसूस नहीं करता होगा। गोल्डी, तबसे अब तक एक बार भी संगीता की तरफ़ नहीं गई थी। उसकी बाहों में आकर नहीं खेली थी। शायद उसे लग रहा था कि संगीता की बाहों में उसके लिए वह अपनत्व नहीं है, जो मुझमें है। प्रेम की गंध पशु-पक्षी भी सूँघ लेते हैं।

गोल्डी शांत होकर मेरी बगल में लेट गई.

संगीता ने मुँह पर हाथ रखकर लंबी-सी जम्भाई ली।

'तुमने कभी मैना पाली है गौरव!' उसने मेरी ओर करवट लेते हुए पूछा। जवाब में 'न' सुनकर संगीता बोली, 'सबसे बुद्धिमान पक्षी है यह। बुद्धिमान भी और संवेदनशील भी।'

मुझे लगा कि संगीता पुनः अपने डैडी की मैना का वि़्ाफ़स्सा सुनाने को उत्सुक है। मैंने गोल्डी की ओर से ध्यान हटाकर संगीता की मैना में दिलचस्पी ली। कहा, 'मैना तो वह मैंने भी देखी है। विवाह के बाद केवल दो बार ही मैं तुम्हारे यहाँ गया हूँ। पहली बार जब मैंने घर में प्रवेश किया, बहुत मधुर बारीक आवाज में सुनने को मिला-' स्वागतम्-स्वागतम्। 'मैंने चारों ओर घूमकर देखा, किसकी आवाज है। कुछ समझ में नहीं आया। तब माँ जी ने बताया कि यह मनुष्य नहीं मैना बोल रही है। सच, मनुष्यों की तरह साफ़ शब्दों में बोल रही थी वह।'

'हाँ' , संगीता ने उत्तर दिया। बोली, 'पर वह मैना जो तुमने देखी, वह नहीं थी, जिसकी चर्चा मैं कर रही हूँ, जिसे हम प्यार से तारा दीदी कहते थे, उसका तो बहुत दुखद अंत हुआ था, गौरव। अब भी वह घटना याद करती हूँ तो सिहर उठती हूँ।'

संगीता ने अपना गर्म-गर्म हाथ मेरे माथे पर रख दिया। लंबी साँस खींचकर बोली, ' एक दिन डैडी एक और मैना घर में ले आए. बताया कि बेचनेवाला इसकी बहुत प्रशंसा कर रहा था। इसे बड़ी मेहनत और चाव से पढ़ाया गया है। यह पूरे-पूरे वाक्य ही नहीं बोलती, गीत भी गाकर सुनाती है। डैडी ने बताया कि इसके गीत से मोहित होकर ही मैंने इसे ख़रीद लिया है। डैडी ने नई मैना का पिजरा तारा दीदी के पिजरे के निकट ही टाँग दिया।

' हमने मिलकर इस नई मैना का नामकरण किया। सबकी सहमति से इसका नाम मोहनी रख दिया गया। मोहनी आते ही सबके ध्यान का केंद्र बन गई. सारा परिवार उसकी ओर आकर्षित हो गया। बेचनेवाले ने डैडी को बता दिया था कि इसे कौन-कौन से गीत याद हैं। सो, कभी परिवार का कोई सदस्य तो कभी कोई सदस्य मोहनी दीदी से गीत गाने की फरमाइश करता रहा। डैडी ने इसके गले में नन्हे-नन्हे मोतियों की माला डाली, पैरों में रिंग पहनाए, पूरा घर नए आनेवाले के स्वागत में लगा रहा। मोहनी से गीत सुनता रहा। किसी ने भी तारा दीदी की ओर ध्यान नहीं दिया। मानो जैसे भूल गए हों सब उसे।

'रात गए तक मोहनी से दिल बहलावा होता रहा।'

'खाने के बाद सब लोग सोने के लिए अपने-अपने बिस्तरों में चले गए. इस बीच तारा दीदी की सुध किसी ने नहीं ली। वह चुपचाप अपने पिजरे में सब-कुछ देखती रही, कुछ बोली नहीं।'

' सुबह आँख खुली तो तारा दीदी की आवाज सुनाई नहीं दी। डैडी ने जाकर देखा तो तारा प्राण छोड़ चुकी थी। उसकी मृत देह पिजरे के एक तरफ़ पड़ी थी।

' सबको आश्चर्य था कि तारा कैसे मर गई? वह बीमार नहीं थी। कुछ भी ऐसा उसके साथ नहीं हुआ था, जो उसकी मौत का कारण माना जा सकता। सभी अलग-अलग कारण बता रहे थे।

तभी उदास स्वर में डैडी बोले, 'सोतिया डाह ने मार डाला है इसे।' फिर वह मम्मी से बोले, कई पक्षी तो मनुष्य से भी अधिक संवेदनशील होते हैं, नीलिमा। तारा मर गई, क्योंकि उसे अपनी उपेक्षा सहन नहीं हुई. प्रेम का बँट जाना, छिन जाना, सहन नहीं हुआ। वह मर गई. कहते-कहते डैडी रुआँसे हो गए. '

मैं नहीं कह सकता कि संगीता ने यह घटना मुझे क्यों सुनाई थी। कोई असुरक्षा का भाव तो नहीं पल रहा था उसके भीतर। कौन जाने?