और हम फ़रार हो न सके / ममता व्यास

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हजारों लोगो की भीड़, अनगिनत चेहरे। सभी एक जैसे। दो आँखें, एक नाक... लेकिन कहाँ एक जैसे? कोई भी किसी से नहीं मिलता। हाँ, मिलता है तो सबका एक जैसा रवैया। किसी को किसी की परवाह नहीं। कोई किसी को देखता नहीं। भीड़ का सैलाब आता और दूसरी दिशा में चला जाता। ये किसी फिल्म का दृश्य नहीं बल्कि इक़ प्लेटफार्म का नजारा था। सभी को जाने की जल्दी। किसी को रेल पकड़ने का जूनून। किसी को रेल से उतरने की घबराहट। और सबसे ज्यादा जल्दी रेल को थी। और रेल से भी ज्यादा जल्दी उन खोमचे वालों को होती है जो हर रेल का स्वागत इतने उत्साह से करते है जैसे उनकी प्रेमिका सात समन्दर पार से आई हो। इतने मासूम और ईमानदार की हर आने वाली रेल का इन्तजार उसी शिद्द्त से करते है। जितना पहले वाली का किया था।

रेल, आती है चली जाती है। प्लेटफार्म वही रुके रहते है। मुझे प्लेटफार्म पर बैठना ज्यादा प्रिय है। ना किसी रेल में चढ़ने का मन, ना किसी रेल से उतरने की इच्छा। अक्सर सोचती हूँ। ये प्लेटफार्म और रेल आपस में कितने जुड़े हैं। इक़ के बिना दूजे का कोई अस्तित्त्व ही नहीं। साथ-साथ हैं, पर साथ नहीं। पास-पास है, पर पास नहीं।

इन दोनों का रिश्ता कितना अनोखा-सा है ना। हमेशा गुस्से से भरी रेल आते ही झगडा करने के अंदाज में दिखती है। प्लेटफार्म कितने शांत। किसी जोगी से! ये धुंआ उडाती रेल जब-जब भी आती होगी प्लेटफार्म से सौ शिकायते करती होगी। आती जाती बलखाती, दिल धड़काती रेल ना जाने क्या कहती होगी इस प्लेटफार्म से।

ध्यान से सुना तो ये आवाज़ें सुनाई दी। रेल बड़े ही प्यार से बोली उस दिन, “ओ मेरे प्लेटफार्म तुम दिन भर कितनी रेलों से घिरे रहते हो। लेकिन सच बोल कौन-सी रेल तुम्हे ज्यादा प्यारी है? और क्यों?”

प्लेटफार्म बोला- तुम बहुत ही भली और प्यारी हो। लेकिन बाकी सब रेल भी मेरी प्रिय हैं। मुझे सभी रेलों से प्रेम है। मैं प्रेममय हूँ। मैं तुम में और तुम मुझमें हो। हमारे बीच ये धुँआ इस बात का साक्षी है की हमारा रिश्ता जीवित है।

इस पर रेल तुनक कर बोली - कवियों की तरह बाते न बनाओ नहीं तो मैं चली।

प्लेटफ़ार्म मुस्काया- कहीं नहीं जा सकोगी तुम। अपनी मर्जी से आई थी। अब जा रही हो। तो खुद ही आना वापस।

रेल रास्ते भर खुद को जलाती रही। कितना अभिमान है उसमे। क्या वो नहीं जानता की, मेरे बिना वो कितना बेरौनक हो जायेगा। कौन पूछेगा प्लेटफार्म को रेल के बिना...

प्लेटफार्म सोचने लगा- मेरा जीवन भी क्या जीवन है। मैं किसी रेल का सगा नहीं बन पाया कभी। आती जाती सभी रेल मुझे कोसती हैं। कोई भी रेल मेरे पास ठहरती नहीं ज्यादा देर। दिन भर शोर फिर भी कितना सन्नाटा है मन में। इतनी भीड़ लेकिन फिर भी तन्हा हूँ मैं।

तभी इक़ दूसरी रेल ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। कैसे हो तुम?

बढ़िया हूँ। और तुम?

मैं ठीक हूँ।

प्लेटफार्म फिर चुप। इक़ लम्बी चुप्पी से रेल भड़क गयी, “क्यों रे प्लेटफार्म सदियों से मैं आती हूँ जाती हूँ। तुम्हारे हालचाल पूछती हूँ। तुमने कभी मेरा हाल नहीं पूछा। कितनी लम्बी थकन और भटकन के बाद मैं तुम तक आकर सांस लेती हूँ। तुम इतने बेरुखे से क्यों लगते हो। कभी रोकते नहीं मुझे। पुकारते नहीं मुझे। ना मेरे आने की ख़ुशी ना जाने का गम।“

प्लेटफार्म का अभिमान, रेल को रोकता नहीं। रेल का स्वाभिमान उसे ठहरने नहीं देता और शायद इसीलिए वो जीवन भर पटरियों पर दौड़ती रहती है। कहीं किसी सुनसान डगर पे थक के टूट के बिखर जाती होगी रेल। अपनी पटरियों से हट जाती होगी रेल। फिर सौ बार पुकारे कोई लौट के नहीं जाती होगी रेल। रेल कभी मुड़ती नहीं। पलट के देखती नहीं। और प्लेटफार्म ख़ामोशी से रोज आती-जाती बहुत-सी रेलों में से उस रेल को रोज खोजता होगा। लेकिन वो नहीं आती। इक़ दिन प्लेटफार्म भी भस्म हो जाते है खुद बखुद।

हमारा जीवन भी तो ऐसा ही है न। बहुत से ऐसे रिश्ते आसपास बनते हैं जिन्हें हम जीवन भर भुला नहीं पाते। और स्वीकार भी नहीं कर पाते। साथ-साथ चलते है। लेकिन साथी नहीं होते। पल-पल महसूस होते है लेकिन हम उन्हें अपना कहते नहीं। कोई कैद में रखता नहीं और हम उनसे आजाद भी नहीं हो पाते। कैसी अदृश्य-सी कैद होती है जो सिर्फ महसूस होती है। दिखती नहीं। बिन बांधे ही बंधते हैं हम। और जीवन भर खुद को छुडा भी नहीं पाते।

शोर मचाती, सीटी बजाती रेल ने इक़ बार फिर ठंडी आह भर कर प्लेटफार्म को निहारा और स्टेशन छोड़ दिया। धुंआ देर तक थरथराता रहा। बहुत से खोमचे वाले, चाय वाले, बिसलरी की बोतल वाले रेल के पीछे दौड़े लेकिन वो नहीं रुकी। धीरे-धीरे वो सभी आवाज़ें चुप हो गयी। और वो ग्रीन सिग्नल भी अब ग्रीन नहीं दिखता था।

प्लेटफार्म ने मन ही मन कहा- तुम चली गयी?

इस बार हवाओं ने जवाब दिया "हमारी मोहब्बत का सिलसिला भी अजीब है। तुमने कैद में रख्खा नहीं, और हम फ़रार हो ना सके”