कँटीले तारों के आर-पार / विद्यानिवास मिश्र
आपने कठिन प्रश्न किया है - 'आपको अंधकारमय क्षणों में प्रकाश कहाँ से मिलता है?' प्रश्न आपने यह मानकर किया है कि प्रकाश मिलता है कहीं न कहीं से। कहाँ से मिलता है, बस आपको फकत इसी से प्रयोजन है। पर क्या प्रकाश का पाना ऐसा है कि मानकर चला जाए? प्रकाश है - यह तो मानकर चला जा सकता है, पर वह हर किसी को मिल ही जाए - यह कैसे मानकर चला जा सकता है? और फिर प्रकाश कहीं - भ्रम के रूप में ही सही - दिखे भी तो! वह तो अपने घेरनेवाले अंधकार से अलग करके देखा नहीं जा सकता। फिर एक आदमी के प्रकाश से, बिना उस आदमी के अंधकार को समझे कोई दूसरा आदमी पा क्या सकता है?
मैं कई दिनों तक इन प्रश्नों में उलझा रहा, और कुछ-न-कुछ उत्तर लिखने जा रहा था, आपका दूसरा पत्र भी आ गया, पर इसी बीच मुझे ज्वर ने आ दबोचा। तेज ज्वर, हाड़-हाड़ में फूटन, आँखों में तीव्र जलन, दो-दिन, दो रात झेलते झेलते एकबारगी ऐसा हुआ कि सचमुच ऐसा लगा कि आँखें तो बंद हैं, खुल नहीं पा रही हैं, पर चिनगारियाँ छिटक रही हैं, एक रोशनी का अलाकचक्र बन रहा है, दर्द असह्य हो रहा है, शरीर का प्रत्येक अंग इस दर्द में अलग-अलग पहचाना जा सकता है, हर एक जर्रा दर्द की संवेदना से दहक रहा है, सारी इंद्रियाँ अपना काम छोड़कर दर्द का अनुभव करने के लिए केवल मन का काम कर रही हैं। ऐसा लगता है कि बस शरीर खंड-खंड होकर चिटकेगा। और कुछेक क्षण के लिए बिलकुल अंधकार घुप, सब-कुछ जैसे खाली हो गया हो...
कुछ तबीयत सँभली तो आपके प्रश्नों के टूटे हुए सूत्र ले फिर उधेड़बुन में बैठा, तो लगा कि जोगी-जती लोगों की बात या बाबागीरी के नक्शे में डूबे रहनेवालों की बात जो भी हो, उन्हें सुख और प्रकाश का तादात्म्य मिल जाता हो, मुझे नहीं मिलता। मुझे तो दुख का निबिड़तम क्षण ही चैतन्य के प्रखरतम प्रकाश से उद्भासित क्षण के रूप में मिलता है, जो एक बार सब कुछ खाली करा देता है और फिर निखालिस दर्द भर देता है।
ध्येय जिसका सधता हो, वह जो कहे, पर मेरे-जैसे आदमी के लिए (जिसका ध्येय बराबर असधा रहेगा, बराबर खिसकता रहेगा, क्योंकि वृत्त पूरा नहीं होने पाएगा, कि एक पास के बिंदु पर पहुँचते वृत्त का घेरा बढ़ जाएगा और फिर ध्येय का केंद्रबिंदु अस्पष्ट हो जाएगा) ध्येय न पा सकने का तुरंत बोध ही प्रकाश की आशा है।
मैंने आपके पहले पत्र के उत्तर में लिखा था कि मेरी स्थिति एक कोरियाई कहानी 'कँटीले तारों के आर-पार' के उस मासूम बच्चे जैसी है, जो उत्तर और दक्षिण कोरिया की विभाजन-रेखा का महत्व नहीं पहचानता। पिता दक्षिण की ओर गया है; माँ पूछती नहीं, सारा दिन कहाँ रहती है, मुझे पता नहीं, रात में आकर तुरंत चल देती है। वह बच्चा एक दिन सुबह आता है, स्कूल बंद मिलता है। वह निरुद्देश्य चल पड़ता है, शायद पिता की तलाश कहीं मन में हो! ट्रेन पर सवार हो जाता है, और ट्रेन उस स्टेशन पर छोड़ देती है, जहाँ सीमांत है।
बच्चा पैदल चल पड़ता है। एक बिल्ली का बच्चा मिलता है, बस यात्रा-स्फूर्ति बन जाती है। रोटियाँ चुक जाती हैं, प्यास लगती है और एक छोटे-से पोखर की ओर जाते मृग दिखते हैं। बिल्ली के बच्चे को लिये दौड़ता है। मृग भाग जाते हैं, पर पानी बड़ा ठण्डा मिलता है। कोयल की बोली सुनने को मिलती है, फिर और नयी स्फूर्ति से यात्रा शुरू होती है। कँटीले तारों का सीमांत आता है, जिसके पार एक पट्टी है - युद्धबंदी की पट्टी। नरसलों की दीवार बनाकर तार लाँघता है, फिर पट्टी भी पार कर जाता है। सुरंगों से, बमों से जाने कैसे बच निकल जाता है! फिर दूसरा कँटीले तारों का घेरा आता है।
उसे पार करते-करते उस पार के सिपाही द्वारा पकड़ लिया जाता है। सिपाही समझता है कि बच्चा दुश्मन की ओर से भेजा गया कोई भेदिया है। उसे अफसर के पास ले जाता है। अफसर को बच्चे को देखते ही अपने छोटे भाई का चेहरा याद आता है और वह दुलार कर बच्चे से उसका पूरा वृत्तांत जान लेता है। वह बच्चे को नहलाता है, खिलाता है, बिल्ली के बच्चे को भी अच्छी चीजें खाने को देता है और वह बच्चे को अपने कपड़े पहनाकर अपने पास सुलाता है। बच्चे को आश्वासन देता है कि तुम्हारे पिता तुम्हारे पास बुला दिये जाएँगे। बच्चा पिता को पाने का ख्वाब देखता-देखता सो जाता है। नींद खुलती है, बिल्ली के बच्चे की सुधि आती है। वह हड़बड़ाकर भागता है, उत्तर की ओर जिधर से आया था। बिल्ली के बच्चे को पुकारता-पुकारता एक कँटीला तार पार करके पट्टी पार करके फिर उसी नरसलवादी दीवार के पास दूसरे कँटीले तार के पास पहुँच जाता है। नरसल तो उस पार है, ढीले कपड़े फँस जाते हैं। इतने में कुछ खड़-खड़ सुनकर उत्तर के एक सैनिक की बंदूक दग जाती है और बच्चे का शरीर (जो बालिग पोशाक में बड़ा दिखने लगा है) गोली से छिदकर तारों पर झूल जाता है।
रक्त टप-टप गिरने लगता है। उत्तर का एक सैनिक और उसका अफसर और दक्षिण का सैनिक और अफसर (जिसने बच्चे को अपने पास सुलाया था) कँटीले तार के आर-पार खड़े हो जाते हैं और दोनों ओर टप्-टप् आँसू झरने लगते हैं। इतने में सूरज की पहली किरणें आती हैं और खून और आँसू की बूँदों को झलका देती हैं।
मुझे लगता है कि मेरे-जैसे आदमी को, जिसके लिए विभाजन-रेखाएँ कोई अस्तित्व नहीं रखतीं, चाहे वह परंपरा और आधुनिकता के बीच हों, चाहे देवता और आदमी के बीच हों, चाहे कल्पना और यथार्थ के बीच हों, चाहे अध्यात्म और बाह्य विषय के बीच हों, चाहे समाज और व्यक्ति के बीच में हों, चाहे प्रेम और कर्तव्य के बीच हों, चाहे कर्तव्य और अधिकार के बीच। अपनी प्रेरणा का स्रोत तलाशने के लिए ऐसी ही यात्रा पर निकलना होगा और एक छोटी-सी जानदार चीज की आत्मीयता के बल पर ही कटीले तार लाँघने होंगे और पिता के मिलने की आशा उगते ही यदि आत्मीयता का सम्बल बिछुड़ गया, तो फिर पिता को भूलकर उस कँटीले तारों की बाड़ पर बलि होने आना होगा और तब कहीं उसको, या ठीक कहें, उसकी आत्मा को सुबह की रोशनी मयस्सर होगी।
आपको इस कहानी से मेरा अपनी नियति से जोड़ना शायद बहुत अतिरंजित भावुकता लगे। अब आपको किस तरह समझाऊँ ! काशी-जैसी धर्मप्राण नगरी में बरसों से रह रहा हूँ, संस्कृत के बड़े आस्थावान पंडितों के बीच रह रहा हूँ, पर जब देखता हूँ कि यहाँ ऐसे सनातनी हैं, जो पश्चिमी सभ्यता को कोसने से दिन का श्रीगणेश करते हैं और पश्चिमी सभ्यता के सबसे निकृष्ट और घिनौने रूप की आराधना से रात का, जो शास्त्र की रक्षा के लिए प्राण देने की बात करते हैं और उसी शास्त्र से एक ही दिन में दो विरोधी वचन निकालकर दो पक्षों से गहरी रकम लेकर दो विरोधी व्यवस्थाएँ दे देते हैं; ऐसे पंडित हैं, जो स्वयं पूजा-पाठ में रंचमात्र विश्वास नहीं रखते, पर दूसरों से दक्षिणा लेकर पूजा-पाठ करने में कोई संकोच भी नहीं करते; ऐसे धर्मधुरीण हैं, जो समस्त विश्व की राजनीति को वर्णाश्रम का धर्मिक आधार देंगे, पर स्वयं भीख माँगनेवाली अपनी पत्नी को कर्तव्य की दृष्टि से कौन कहे, दया की दृष्टि से भी वंचित रखेंगे, तो मन विषाद से भर जाता है।
कथावाचकों, पुजारियों, मठाधीशों, संन्यासियों - सबको देखता हूँ, सब माँग रहे हैं - कोई धार्मिक अनुष्ठान हो, पैसे माँगता है; कोई मंदिर हो, चढ़ावा माँगता है, तभी दर्शन अधिक सुगमता से होंगे। आप कितनी भी तल्लीनता से गंगास्नान करना चाहें, पैसों के लिए डुबकी लगानेवाले छोकरों टकराकर अचकचा ही जाएँगे, यहाँ तक कि श्मशान पैसे माँगता है। कभी-कभी सोचता हूँ कि आहुति, त्याग, यज्ञ की बात करनेवाले धर्म में इतना लोभ कहाँ से आ गया है? आदमी चाहेगा कि जैसे भी मुझे स्नान करने को मिल जाए, दर्शन करने को मिल जाए, भले ही मेरे धक्के से दूसरे दर्शनार्थी गिर जाएँ, पिस जाएँ। मैं ऐसे आत्मलोभी धर्म से घबरा जाता हूँ।
मैं अपनी अयाची परंपरा को अतीत के आगे हाथ पसारे नहीं देख पाता, न आधुनिकता को पश्चिम के टुकड़े पर पलना और तनिक भी ग्लानि का अनुभव न करते देखना गवारा कर पाता हूँ। दूसरी ओर शास्त्रीय विधि-विधान कुछ भी न जाननेवाली भीड़ देखता हूँ, जिसको धक्का वगैरह कुछ महसूस नहीं होता; पण्डा जिसे विश्वनाथ जी बता दें, वहीं एक लोटा जल चढ़ाकर यह भीड़ कृतार्थ हो जाती है, पर इस भीड़ का हर आदमी दूसरे आदमी का हाथ पकड़े रहता है कि कहीं हम एक-दूसरे से बिछुड़ न जाएँ। इन लोगों को पता लग भी जाए कि हम ठगे जा रहे हैं, तो हँसकर कहेंगे कि तीर्थ में ठगा जाना भी पुण्य है, हम तो नहीं ठग रहे हैं!
शास्त्रीय विधि-विधान का जानकर सोचेगा कि पंडे इनसे अशुद्ध मंत्र पढ़वाकर इनके पितरों का पिंड दिला रहे हैं, उस पिंड का भी कोई महत्व है? और मैं शास्त्रीय विधि-विधान पूरा करने-कराने के पीछे जब लोभ का अच्छा-खासा फैलाव देखता हूँ, तो सोचता हूँ कि कभी सम्भव होगा कि 'वसुधैव-कुटुंबकम्' की बात करनेवाले संकीर्णता छोड़ सकेंगे और भारत को जगद्गुरू मानकर अपने को जगद्गुरू माननेवालों का छुटपन कम हो सकेगा।
आप ही सोचिए, ऐसे आदमी को, जिसका शास्त्रों से कुछ परिचय है, पर जो गाँव के आदमी के हुलास की भाषा भी कुछ पहचानता है, प्रकाश कहाँ से मिलेगा! मुझे तो दूर पश्चिमी दिगंत में प्रकाश की खोज में भटकनेवालों में भयंकर अंधकार दिखाई पड़ता है और बाहर लोग हिंदू धर्म की ओर आकृष्ट हो रहे हैं, कृष्णभक्ति, योग, रुद्राक्ष नए निर्यात हो गए हैं। इस गर्व से आस्फालित भारत को जगद्गुरु कहनेवालों में भी घोर अंधकार दिखाई पड़ता है। किसी की भावना पर आघात पहुँचाना नहीं चाहता, इसलिए कुछ बोलता नहीं, पर भावना की इजारेदारी जहाँ भावनाशून्य लोगों में सिमट रही हो, वहाँ कुछ कह न पाऊँ, इससे बड़ा क्लेश होता है।
कबीर बनना सबके बूते की बात नहीं, और तुलसी बनना तो और भी मुश्किल है। बहुत कोशिश करके अपने मन को रोजमर्रा की जिंदगी के दो पाटों में चीरा जा सकता है, और राग-द्वेष की पाट में रहते हुए राग-द्वेष से परे की जिंदगी के दूसरे पाट के लिए तड़पा जा सकता है, और दूसरे पाट में रहते हुए रोजमर्रा की जिंदगी के चरपरे स्वाद के लिए ललचा जा सकता है, और आकुलता इतनी बढ़ सकती है कि आदमी विद्यापति बने न बने, यह अनुभव तो कर ही सकता है कि "अपने विरह अपन तनु जरजर, जिबइत मेल संदेह!"
अपने ही विरह में अपना शरीर ऐसा हो गया है कि जीना संदिग्ध हो गया है। अपनी परंपरा में मैंने रस लिया है, पर उस परंपरा के नाम पर जब एक अलग खेमा बना देखता हूँ, तो मेरा मन आधुनिक हो जाता है; आधुनिक मनुष्य की संवेदना में भीगा हूँ, पर उसे जब परंपरा के विरोध में तना देखता हूँ, तो मन परंपरा की ओर झुक जाता है। इस ऊहापोह में प्रकाश पाने के लिए दोनों के सीमांत की कँटीली बाड़ पर आकुल प्राण बार-बार लौट आते हैं।
इस आकुलता के लिए कितनी मधुमास उपासे (उपवासे) निकल जाते हैं। प्राणपिक एक ऋतु से दूसरी ऋतु कुहुकते-कुहुकते थक जाता है - 'थाकल सकल सरीर।' कभी जी-भर जीवन का आस्वाद नहीं मिलता, कभी मिला भी तो बिल्ली के बच्चे की याद आ जाती है। मेरे एक विदेशी मित्र हिंदू धर्म की ओर आकृष्ट हुए। उन्होंने कहा - मैं शुद्धि में विश्वास नहीं करता, पर मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ। भारत आए, उन्होंने बहुत दर्द के साथ अनुभव किया कि लोग मुझे हिंदू मानने को तैयार नहीं हैं।
मैं भक्ति की धारा की विशालता से जब कभी अभिभूत होता हूँ, तो मुझे उस विदेशी मित्र की पीड़ा कचोटने लगती है। कैसी है धारा, जो एक अर्पित व्यक्ति को किनारे डाल देती है, क्योंकि वह दूसरी धारा से आया है। कैसा है पिता का यह देश, जो मेरी जिंदगी को आत्मीयता का संस्पर्श देनेवाले बिलौटे को भगा देता है!
मेरे पास कोई उत्तर नहीं, कोई प्रकाश नहीं, बस केवल जानने की तीव्र आकांक्षा है - मैं किसका हूँ? और इस आकांक्षा की तीव्रता ने मेरा दिग्बोध हर लिया है। मैं बार-बार लौटकर प्रकाश के दो दावेदार अंधकारों की संधि-रेखा, या ठीक-ठीक कहें, युद्धविराम-रेखा पर सूरज के पहले पहुँचना चाहता हूँ, छिदकर, बिंधकर।
इस पत्र से आपको संतोष नहीं होगा, न दीपावली-परिचर्चा का उद्देश्य पूरा होगा, पर आपने ममता की बात छेड़कर प्रश्न पूछा है, तो आप ही बतलाइए, मैं निर्मम होकर कैसे लिखता? जो मेरा नहीं है, उस प्रकाश की बात मैं क्या करता? मैं ठहरे हुए प्रकाश से आकुल अंधकार को अधिक महत्व देता हूँ, क्योंकि जहाँ गति होगी, तीव्रता होगी, वहाँ प्रकाश दौड़ा-दौड़ा आएगा, भले ही तब आए, जब गहरी कीमत चुका दी गई हो।*
- यह निबंध श्रीमती पुष्पा भारती के एक पत्र के उत्तर में, पत्रोत्तर के रूप में लिखा गया था। उस पत्र में उन्होंने पूछा था - आपको अंधकारमय क्षणों में प्रकाश कहाँ से मिलता है? यह प्रश्न 'धर्मयुग' की दीपावली-परिचर्चा का विषय था।