कंकाल / चतुर्थ खण्ड / भाग 1 / जयशंकर प्रसाद
वह दरिद्रता और अभाव के गार्हस्थ्य जीवन की कटुता में दुलारा गया था। उसकी माँ चाहती थी कि वह अपने हाथ से दो रोटी कमा लेने के योग्य बन जाए, इसलिए वह बार-बार झिड़की सुनता। जब क्रोध से उसके आँसू निकलते और जब उन्हें अधरों से पोंछ लेना चाहिए था, तब भी वे रूखे कपोलों पर आप ही आप सूखकर एक मिलन-चिह्न छोड़ जाते थे।
कभी वह पढ़ने के लिए पिटता, कभी काम सीखने के लिए डाँटा जाता; यही थी उसकी दिनचर्या। फिर वह चिड़चिड़े स्वभाव का क्यों न हो जाता। वह क्रोधी था, तो भी उसके मन में स्नेह था। प्रेम था और था नैसर्गिक आनन्द-शैशव का उल्लास; रो लेने पर भी जी खोलकर हँस लेता; पढ़ने पर खेलने लगता। बस्ता खुलने के लिए सदैव प्रस्तुत रहता, पुस्तकें गिरने के लिए निकल पड़ती थीं। टोपी असावधानी से टढ़ी और कुरते का बटन खुला हुआ। आँखों में सूखते हुए आँसू और अधर पर मुस्कराहट।
उसकी गाड़ी चल रही थी। वह एक पहिया ढुलका रहा था। उसे चलाकर उल्लास से बोल उठा, 'हटो सामने से, गाड़ी जाती है।'
सामने से आती हुई पगली ने उस गाड़ी को उठा लिया। बालक के निर्दोष विनोद में बाधा पड़ी। वह सहमकर उस पगली की ओर देखने लगा। निष्फल क्रोध का परिणाम होता है रो देना। बालक रोने लगा। म्युनिसिपल स्कूल भी पास न था, जिसकी 'अ' कक्षा में वह पढ़ता था। कोई सहायक न पहुँच सका। पगली ने उसे रोते देखा। वह जैसे अपनी भूल समझ गयी। बोली, 'आँ' अमको न खेलाओगे; आँ-आँ मैं भी रोने लगूँगी, आँ-आँ आँ!' बालक हँस पड़ा, वह उसे गोद में झिंझोड़ने लगी। अबकी वह फिर घबराया। उसने रोने के लिए मुँह बनाया ही था कि पगली ने उसे गोद से उतार दिया और बड़बड़ाने लगी, 'राम, कृष्ण और बुद्ध सभी तो पृथ्वी पर लोटते थे। मैं खोजती थी आकाश में! ईसा की जननी से पूछती थी। इतना खोजने की क्या आवश्यकता कहीं तो नहीं, वह देखो कितनी चिनगारी निकल रही है। सब एक-एक प्राणी हैं, चमकना, फिर लोप हो जाना! किसी के बुझने में रोना है और किसी के जल उठने में हँसी। हा-हा-हा-हा।...'
तब तो बालक और भी डरा। वह त्रस्त था, उसे भी शंका होने लगी कि यह पगली तो नहीं है। वह हतबुद्धि-सा इधर-उधर देख रहा था। दौड़कर भाग जाने का साहस भी न था। अभी तक उसकी गाड़ी पगली लिए थी। दूर से स्त्री और पुरुष, यह घटना कुतूहल से देखते चले आ रहे थे। उन्होंने बालक को विपत्ति में पड़ा देखकर सहायता करने की इच्छा की। पास आकर पुरुष ने कहा, 'क्यों जी, तुम पागल तो नहीं हो। क्यों इस लड़के को तंग कर रही हो
'तंग कर रही हूँ। पूजा कर रही हूँ पूजा। राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा की सरलता की पूजा कर रही हूँ। इन्हें रुला देने से इनकी एक कसरत हो जाती है, फिर हँसा दूँगी। और तुम तो कभी भी जी खोलकर न हँस सकोगे, न रो सकोगे।'
बालक को कुछ साहस हो चला था। वह अपना सहायक देखकर बोल उठा, 'मेरी गाड़ी छीन ली है।' पगली ने पुचकारते हुए कहा, 'चित्र लोगे देखो, पश्चिम में संध्या कैसा अपना रंगीन चित्र फैलाए बैठी है।' पगली के साथ ही और उन तीनों ने भी देखा। पुरुष ने कहा, 'मुझसे बात करो, उस बालक को जाने दो।' पगली हँस पड़ी। वह बोली, 'तुमसे बात! बातों का कहाँ अवकाश! चालबाजियों से कहाँ अवसर! ऊँह, देखो उधर काले पत्थरों की एक पहाड़ी; उसके बाद एक लहराती हुई झील, फिर नांरगी रंग की एक जलती हुई पहाड़ी-जैसे उसकी ज्वाला ठंडी नहीं होती। फिर एक सुनहला मैदान!-वहाँ चलोगे
उधर देखने में सब विवाद बन्द हो गया, बालक भी चुप था। उस स्त्री और पुरुष ने भी निसर्ग-स्मरणीय दृश्य देखा। पगली संकेत करने वाला हाथ फैलाये अभी तक वैसे ही खड़ी थी। पुरुष ने देखा, उसका सुन्दर शरीर कृश हो गया था और बड़ी-बड़ी आँखें क्षुधा से व्याकुल थीं। जाने कब से अनाहार का कष्ट उठा रही थी। साथ वाली स्त्री से पुरुष ने कहा, 'किशोरी! इसे कुछ खिलाओ!' किशोरी उस बालक को देख रही थी, अब श्रीचन्द्र का ध्यान भी उसकी ओर गया। वह बालक उस पगली की उन्मत्त क्रीड़ा से रक्षा पाने की आशा में विश्वासपूर्ण नेत्रों से इन्हीं दोनों की ओर देख रहा था। श्रीचन्द्र ने उसे गोद में उठाते हुए कहा, 'चलो, तुम्हें गाड़ी दिला दूँ।'
किशोरी ने पगली से कहा, 'तुम्हें भूख लगी है, कुछ खाओगी?'
पगली और बालक दोनों ही उनके प्रस्तावों पर सहमत थे; पर बोले नहीं। इतने में श्रीचन्द्र का पण्डा आ गया और बोला, 'बाबूजी, आप कब से यहाँ फँसे हैं। यह तो चाची का पालित पुत्र है, क्यो रे मोहन! तू अभी से स्कूल जाने लगा है चल, तुझे घर पहुँचा दूँ?' वह श्रीचन्द्र की गोद से उसे लेने लगा; परन्तु मोहन वहाँ से उतरना नहीं चाहता था।
'मैं तुझको कब से खोज रही हूँ, तू बड़ा दुष्ट है रे!' कहती हुई चाची ने आकर उसे अपनी गोद में ले लिया। सहसा पगली हँसती हुई भाग चली। वह कह रही थी, 'वह देखो, प्रकाश भागा जाता है अन्धकार...!' कहकर पगली वेग से दौड़ने लगी थी। कंकड़, पत्थर और गड्ढों का ध्यान नहीं। अभी थोड़ी दूर वह न जा सकी थी कि उसे ठोकर लगी, वह गिर पड़ी। गहरी चोट लगने से वह मूर्च्छित-सी हो गयी।
यह दल उसके पास पहुँचा। श्रीचन्द्र ने पण्डाजी से कहा, 'इसकी सेवा होनी चाहिए, बेचारी दुखिया है।' पण्डाजी अपने धनी यजमान की प्रत्येक आज्ञा पूरी करने के लिए प्रस्तुत थे। उन्होने कहा, 'चाची का घर तो पास ही है, वहाँ उसे उठा ले चलता हूँ। चाची ने मोहन और श्रीचन्द्र के व्यवहार को देखा था, उसे अनेक आशा थी। उसने कहा, 'हाँ, हाँ, बेचारी को बड़ी चोट लगी है, उतर तो मोहन!' मोहन को उतारकर वह पण्डाजी की सहायता से पगली को अपने पास के घर में ले चली। मोहन रोने लगा। श्रीचन्द्र ने कहा, 'ओहो, तुम बड़े रोने हो। जी गाड़ी लेने न चलोगे?'
'चलूँगा।' चुप होते हुए मोहन ने कहा।
मोहन के मन में पगली से दूर रहने की बड़ी इच्छा थी। श्रीचन्द्र ने पण्डा को कुछ रुपये दिये कि पगली का कुछ उचित प्रबन्ध कर दिया जाय और बोले, 'चाची, मैं मोहन को गाड़ी दिलाने के लिए बाजार लिवाता जाऊँ?'
चाची ने कहा, 'हाँ-हाँ, आपका ही लड़का है।'
'मैं फिर आता हूँ, आपके पड़ोस में तो ठहरा हूँ।' कहकर श्रीचन्द्र, किशोरी और मोहन बाजार की ओर चले।
ऊपर लिखी हुई घटना को महीनों बीत चुके थे। अभी तक श्रीचन्द्र और किशोरी अयोध्या में ही रहे। नागेश्वर में मन्दिर के पास ही डेरा था। सरयू की तीव्र धारा सामने बह रही थी। स्वर्गद्वार के तट पर स्नान करके श्रीचन्द्र व किशोरी बैठे थे। पास ही एक बैरागी रामायण की कथा कह रहा था-
'राम एक तापस-तिय तारी।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥'
'तापस-तिय तारी-गौतम की पत्नी अहल्या को अपनी लीला करते समय भगवान ने तार दिया। वह यौवन के प्रमाद से, इन्द्र के दुराचार से छली गयी। उसने पति से इस लोक के देवता से छल किया। वह पामरी इस लोक के सर्वश्रेष्ठ रत्न सतीत्व से वंचित हुई, उसके पति ने शाप दिया, वह पत्थर हो गयी। वाल्मीकि ने इस प्रसंग पर लिखा है-वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी। ऐसी कठिन तपस्या करते हुए, पश्चात्ताप का अनुभव करते हुए वह पत्थर नहीं तो और क्या थी! पतित-पावन ने उसे शाप विमुक्त किया। प्रत्येक पापों के दण्ड की सीमा होती है। सब काम में अहिल्या-सी स्त्रियों के होने की संभावना है, क्योंकि कुमति तो बची है, वह जब चाहे किसी को अहल्या बना सकती है। उसके लिए उपाय है भगवान का नाम-स्मरण। आप लोग नाम-स्मरण का अभिप्राय यह न समझ लें कि राम-राम चिल्लाने से नाम-स्मरण हो गया-
'नाम निरूपन नाम जतन से।
सो प्रकटत जिमि मोल रतन ते॥'
'इस 'राम' शब्दवाची उस अखिल ब्रह्माण्ड पें रमण करने वाले पतित-पावन की सत्ता को सर्वत्र स्वीकार करते हुए सर्वस्व अर्पण करने वाली भक्ति के साथ उसका स्मरण करना ही यथार्थ में नाम-स्मरण है!'
वैरागी ने कथा समाप्त की। तुलसी बँटी। सब लोग जाने लगे। श्रीचन्द्र भी चलने के लिए उत्सुक था; परन्तु किशोरी का हृदय काँप रहा था अपनी दशा पर और पुलकित हो रहा था भगवान की महिमा पर। उसने विश्वासपूर्ण नेत्रों से देखा कि सरयू प्रभात के तीव्र आलोक में लहराती हुई बह रही है। उसे साहस हो चला था। आज उसे पाप और उससे मुक्ति का नवीन रहस्य प्रतिभासित हो रहा था। पहली ही बार उसने अपना अपराध स्वीकार किया और यह उसके लिए अच्छा अवसर था कि उसी क्षण उससे उद्धार की भी आशा थी। वह व्यस्त हो उठी।
पगली अब स्वस्थ हो चली थी। विकार तो दूर हो गये थे, किन्तु दुर्बलता बनी थी, वह हिन्दू धर्म की ओर अपरिचित कुतूहल से देखने लगी थी, उसे वह मनोरंजक दिखलायी पड़ता था। वह भी चाची के साथ श्रीचन्द्र वाले घाट से दूर बैठी हुई, सरयू-तट का प्रभात और उसमें हिन्दू धर्म के आलोक को सकुतूहल देख रही थी।
इधर श्रीचन्द का मोहन से हेलमेल बढ़ गया था और चाची भी उसकी रसोई बनाने का काम करती थी। वह हरद्वार से अयोध्या लौट आयी थी, क्योंकि वहाँ उसका मन न लगा।
चाची का वह रूप पाठक भूले न होगे; जब वह हरद्वार में तारा के साथ रहती थी; परन्तु तब से अब अन्तर था। मानव मनोवृत्तियाँ प्रायः अपने लिए एक केन्द्र बना लिया करती हैं, जिसके चारों ओर वह आशा और उत्साह से नाचती रहती हैं। चाची तारा के उस पुत्र को, जिसे वह अस्पताल में छोड़कर चली आयी थी, अपना ध्रुव नक्षत्र समझने लगी थी, मोहन को पालने के लिए उसने अधिकारियों से माँग लिया था।
पगली और चाची जिस घाट पर बैठी थीं; वहाँ एक अन्धा भिखारी लठिया टेकता हुआ, उन लोगों के समीप आया। उसने कहा, 'भीख दो बाबा! इस जन्म में कितने अपराध किये हैं-हे भगवान! अभी मौत नहीं आती।' चाची चमक उठीं। एक बार उसे ध्यान से देखने लगीं। सहसा पगली ने कहा, 'अरे, तुम मथुरा से यहाँ भी आ पहुँचे।'
'तीर्थों में घूमता हूँ बेटा! अपना प्रायश्चित्त करने के लिए, दूसरा जन्म बनाने के लिए! इतनी ही तो आशा है।' भिखारी ने कहा।
पगली उत्तेजित हो उठी। अभी उसके मस्तिष्क की दुर्बलता गयी न थी। उसने समीप जाकर उसे झकझोरकर पूछा, 'गोविन्दी चौबाइन की पाली हुई बेटी को तुम भूल गये पण्डित, मैं वही हूँ; तुम बताओ मेरी माँ को अरे घृणित नीच अन्धे! मेरी माता से छुड़ाने वाले हत्यारे! तू कितना निष्ठुर है।'
'क्षमा कर बेटी। क्षमा में भगवान की शक्ति है, उनकी अनुकम्पा है। मैंने अपराध किया था, उसी का तो फल भोग रहा हूँ। यदि तू सचमुच वही गोविन्दी चौबाइन की पाली हुई पगली है, तो तू प्रसन्न हो जा-अपने अभिशाप ही ज्वाला में मुझे जलता हुआ देखकर प्रसन्न हो जा! बेटी, हरद्वार तक तो तेरी माँ का पता था, पर मैं बहुत दिनों से नहीं जानता कि वह अब कहाँ है। नन्दो कहाँ है यह बताने में अब अन्धा रामदेव असमर्थ है बेटी।'
चाची ने उठकर सहसा उस अन्धे का हाथ पकड़कर कहा, 'रामदेव!'
रामदेव ने एक बार अपनी अंधी आँखों से देखने की भरपूर चेष्टा की, फिर विफल होकर आँसू बहाते हुए बोला, 'नन्दो का-सा स्वर सुनायी पड़ता है! नन्दो, तुम्हीं हो बोलो! हरद्वार से तुम यहाँ आयी हो हे राम! आज तुमने मेरा अपराध क्षमा कर दिया, नन्दो! यही तुम्हारी लड़की है!' रामदेव की फूटी आँखों से आँसू बह रहे थे।
एक बार पगली ने नन्दो चाची की ओर देखा और नन्दो ने पगली की ओर-रक्त का आकर्षण तीव्र हुआ, दोनों गले से मिलकर रोने लगीं। यह घटना दूर पर हो रही थी। किशोरी और श्रीचन्द्र का उससे कुछ सम्बन्ध न था।
अकस्मात् अन्धा रामदेव उठा और चिल्लाकर कहने लगा, 'पतित-पावन की जय हो। भगवान मुझे शरण में लो!' जब तक उसे सब लोग देखें, तब तक वह सरयू की प्रखर धारा में बहता हुआ, फिर डुबता हुआ दिखायी पड़ा।
घाट पर हलचल मच गयी। किशोरी कुछ व्यस्त हो गयी। श्रीचन्द्र भी इस आकस्मिक घटना से चकित-सा हो रहा था।
अब यह एक प्रकार से निश्चित हो गया कि श्रीचन्द्र मोहन को पालेंगे और वे उसे दत्तक रूप में भी ग्रहण कर सकते हैं। चाची को सन्तोष हो गया था, वह मोहन को धनी होने की कल्पना में सुखी हो सकी। उसका और भी एक कारण था-पगली का मिल जाना। वह आकस्मिक मिलन उन लोगों के लिए अत्यन्त हर्ष का विषय था। किन्तु पगली अब तक पहचानी न जा सकी थी, क्योंकि वह बीमारी की अवस्था में बराबर चाची के घर पर ही रही, श्रीचन्द्र से चाची को उसकी सेवा के लिए रुपये मिलते। वह धीरे-धीरे स्वस्थ हो चली, परन्तु वह किशोरी के पास न जाती। किशोरी को केवल इतना मालूम था कि नन्दो की पगली लड़की मिल गयी है। एक दिन यह निश्चय हुआ कि सब लोग काशी चलें; पर पगली अभी जाने के लिए सहमत न थी। मोहन श्रीचन्द्र के यहाँ रहता था। पगली भी किशोरी का सामना करना नहीं चाहती थी; पर उपाय क्या था। उसे उन लोगों के साथ जाना ही पड़ा। उसके पास केवल एक अस्त्र बचा था, वह था घूँघट! वह उसी की आड़ में काशी आयी। किशोरी के सामने भी हाथों घूँघट निकाले रहती। किशोरी नन्दो के चिढ़ने से डर से उससे कुछ न बोलती। मोहन को दत्तक लेने का समय समीप था, वह तब तक चाची को चिढ़ाना भी न चाहती, यद्यपि पगली का घूँघट उसे बहुत खलता था।
किशोरी को विजय की स्मृति प्रायः चौंका देती है। एकान्त में वह रोती रहती है, उसकी वही तो सारी कमाई, जीवन भर के पाप-पुण्य का संचित धन विजय! आह, माता का हृदय रोने लगता है।
काशी आने पर एक दिन पण्डितजी के कुछ मंत्रों ने प्रकट रूप में श्रीचन्द्र को मोहन का पिता बना दिया। नन्दो चाची को अपनी बेटी मिल चुकी थी, अब मोहन के लिए उसके मन में उतनी व्यथा न थी। मोहन भी श्रीचन्द्र को बाबूजी कहने लगा था। वह सुख में पलने लगा।
किशोरी पारिजात के पास बैठी हुई अपनी चिन्ता में निमग्न थी। नन्दो के साथ पगली स्नान करके लौट आयी थी। चादर उतारते हुए नन्दो ने पगली से कहा, 'बेटी!'
उसने कहा, 'माँ!'
'तुमको सब किस नाम से पुकारते थे, यह तो मैंने आज तक न पूछा। बताओ बेटी वह प्यारा नाम।'
'माँ, मुझे चौबाइन 'घण्टी' नाम से पुकारती थी।'
'चाँदी की सुरीली घण्टी-सी ही तेरी बोली है बेटी।'
किशोरी सुन रही थी। उसने पास आकर एक बार आँख गड़ाकर देखा और पूछा, 'क्या कहा-घण्टी?'
'हाँ बाबूजी! वही वृदांवन वाली घण्टी!'
किशोरी आग हो गयी। वह भभक उठी, 'निकल जा डायन! मेरे विजय को खा डालने वाली चुड़ैल।'
नन्दो तो पहले एक बार किशोरी की डाँट पर स्तब्ध रही; पर वह कब सहने वाली! उसने कहा, 'मुँह सम्भालकर बात करो बहू। मैं किसी से दबने वाली नहीं। मेरे सामने किसका साहस है, जो मेरी बेटी, मेरी घण्टी को आँख दिखलावे! आँख निकाल लूँ!'
'तुम दोनों अभी निकल जाओ-अभी जाओ, नहीं तो नौकरों से धक्के देकर निकलवा दूँगी।' हाँफते हुई किशोरी ने कहा।
'बस इतना ही तो-गौरी रूठे अपना सुहाग ले! हम लोग जाती हैं, मेरे रुपये अभी दिलवा दो!' बस एक शब्द भी मुँह से न निकालना-समझी!'
नन्दो ने तीखेपन से कहा।
किशोरी क्रोध में उठी और अलमारी खोलकर नोटों का बण्डल उसके सामने फेंकती हुई बोली, 'लो सहेजो अपना रुपया, भागो।'
नन्दो ने घण्टी से कहा, 'चलो बेटी! अपना सामान ले लो।'
दोनों ने तुरन्त गठरी दबाकर बाहर की राह ली। किशोरी ने एक बार भी उन्हें ठहरने के लिए न कहा। उस समय श्रीचन्द्र और मोहन गाड़ी पर चढ़कर हवा खाने गये थे।
किशोरी का हृदय इस नवान्तुक कल्पित सन्तान से विद्रोह तो कर ही रहा था, वह अपना सच्चा धन गँवाकर इस दत्तक पुत्र से मन भुलवाने में असमर्थ थी। नियति की इस आकस्मिक विडम्बना ने उसे अधीर बना दिया। जिस घण्टी के कारण विजय अपने सुखमय संसार को खो बैठा और किशोरी ने अपने पुत्र विजय को; उसी घण्टी का भाई आज उसके सर्वस्व का मालिक है, उत्तराधिकारी है। दुर्दैव का कैसा परिहास है! वह छटपटाने लगी; परन्तु अब कर ही क्या सकती थी। धर्म के विधान से दत्तक पुत्र उसका अधिकारी था और विजय नियम के विधान से निर्वासित-मृतक-तुल्य!