कंकाल / द्वितीय खंड / भाग 5 / जयशंकर प्रसाद
विचार सागर में डूबती-उतराती हुई घण्टी आज मौलसिरी के नीचे एक शिला-खण्ड पर बैठी है। वह अपने मन से पूछती थी-विजय कौन है, जो मैं उसे रसालवृक्ष समझकर लता के समान लिपटी हूँ। फिर उसे आप ही आप उत्तर मिलता-तो और दूसरा कौन है मेरा लता का तो यही धर्म है कि जो समीप अवलम्ब मिले, उसे पकड़ ले और इस सृष्टि में सिर ऊँचा करके खड़ी हो जाये। अहा! क्या मेरी माँ जीवित है
पर विजय तो चित्र बनाने में लगा है। वह मेरा ही तो चित्र बनाता है, तो भी मैं उसके लिए निर्जीव प्रतिमा हूँ, कभी-कभी वह सिर उठाकर मेरी भौंहों के झुकाव को, कपोलों के गहरे रंग को देख लेता है और फिर तूलिका की मार्जनी से उसे हृदय के बाहर निकाल देता है। यह मेरी आराधना तो नहीं है। सहसा उसके विचारों में बाधा पड़ी। बाथम ने आकर घण्टी से कहा, 'क्या मैं पूछ सकता हूँ?'
'कहिए।' सिर का कपड़ा सम्हालते हुए घण्टी ने कहा।
'विजय से आपकी कितने दिनों की जान-पहचान है?'
'बहुत थोड़े दिनों की-यही वृदावन से।'
'तभी वह कहता था...'
'कौन क्या कहता था?'
'दरोगा, यद्यपि उसका साहस नहीं था कि मुझसे कुछ अधिक कहे; पर इसका अनुमान है कि आपको विजय कहीं से भगा लाया है।'
'घण्टी किसी की कोई नहीं है; जो उसकी इच्छा होगी वही करेगी! मैं आज ही विजय बाबू से कहूँगी कि वह मुझे लेकर कहीं दूसरे घर में चलें।'
'बाथम ने देखा कि वह स्वतन्त्र युवती तनकर खड़ी हो गयी। उसकी नसें फूल रही थीं। इसी समय लतिका ने वहाँ पहुँचकर एक काण्ड उपस्थित कर दिया। उसने बाथम की ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हुए पूछा, 'तुम्हारा क्या अभिप्राय था?'
सहसा आक्रान्त होकर बाथम ने कहा, 'कुछ नहीं। मैं चाहता था कि यह ईसाई होकर अपनी रक्षा कर लें, क्योकि इसके...'
बात काटकर लतिका ने कहा, 'और यदि मैं हिन्दू हो जाऊँ?'
बाथम ने फँसे हुए गले से कहा, 'दोनों हो सकते हैं। पर तुम मुझे क्षमा करोगी लतिका?'
बाथम के चले जाने पर लतिका ने देखा कि अकस्मात् अन्धड़ के समान यह बातों का झोंका आया और निकल गया।
घण्टी रो रही थी। लतिका उसके आँसू पूछती थी। बाथम के हाथ की हीरे की अँगूठी सहसा घण्टी की उँगलियों में लतिका ने देखी, वह चौंक उठी। लतिका का कोमल हृदय कठोर कल्पनाओं से भर गया। वह उसे छोड़कर चली गयी।
चाँदनी निकलने पर घण्टी आपे में आयी। अब उसकी निस्सहाय अवस्था सपष्ट हो गयी। वृदावन की गलियों में यों ही फिरने वाली घण्टी कई महीनों की निश्चित जीवनचर्या में एक नागरिक महिला बन गयी थी। उसके रहन-सहन बदल गये थे। हाँ, एक बात और उसके मन में खटकने लगी थी-वह अन्धे की कथा। क्या सचमुच उसकी माँ जीवित है उसका मुक्त हृदय चिंताओं की उमस वाली संध्या में पवन के समान निरुद्ध हो उठा। वह निरीह बालिका के समान फूट-फूटकर रोने लगी।
सरला ने आकर उसे पुकारा, 'घण्टी क्या यहीं बैठी रहोगी उसने सिर नीचा किए हुए उत्तर दिया, 'अभी आती हूँ।' सरला चली गयी। कुछ काल तक वह बैठी रही, फिर उसी पत्थर पर अपने पैर समेटकर वह लेट गयी। उसकी इच्छा हुई-आज ही यह घर छोड़ दे। पर वह वैसा नहीं कर सकी। विजय को एक बार अपनी मनोव्यथा सुना देने की उसे बड़ी लालसा थी। वह चिंता करते-करते सो गयी।
विजय अपने चित्रों को रखकर आज बहुत दिनों पर मदिरा सेवन कर रहा था। शीशे के एक बड़े गिलास में सोडा और बरफ से मिली हुई मदिरा सामने मेज से उठाकर वह कभी-कभी दो घूँट पी लेता है। धीरे-धीरे नशा गहरा हो चला, मुँह पर लाली दौड़ गयी। वह अपनी सफलताओं से उत्तेजित था। अकस्मात् उठकर बँगले से बाहर आया; बगीचे में टहलने लगा, घूमता हुआ घण्टी के पास जा पहुँचा। अनाथ-सी घण्टी अपने दुःखों में लिपटी हुई दोनों हाथों से अपने घुटने लपेटे हुए पड़ी थी। वह दीनता की प्रतिमा थी। कला वाली आँखों ने चाँदनी रात में यह देखा। वह उसके ऊपर झुक गया। उसे प्यार करने की इच्छा हुई, किसी वासना से नहीं, वरन् एक सहृदयता से। वह धीरे-धीरे अपने होंठ उसके कपोल के पास तक ले गया। उसकी गरम साँसों की अनुभूति घण्टी को हुई। वह पल भर के लिए पुलकित हो गयी, पर आँखें बंद किये रही। विजय ने प्रमोद से एक दिन उसके रंग डालने के अवसर पर उसका आलिंगन करके घण्टी के हृदय में नवीन भावों की सृष्टि कर दी थी। वह उसी प्रमोद का आँख बंद करके आह्वान करने लगी; परन्तु नशे में चूर विजय ने जाने क्यों सचेत हो गया। उसके मुँह से धीरे से निकल पड़ा, 'यमुना!' और वह हटकर खड़ा हो गया।
विजय चिन्तित भाव से लौट पड़ा। वह घूमते-घूमते बँगले से बाहर निकल आया और सड़क पर यों ही चलने लगा। आधे घन्टे तक वह चलता गया, फिर उसी सड़क से लौटने लगा। बड़े-बड़े वृक्षों की छाया ने सड़क पर चाँदनी को कहीं-कहीं छिपा लिया है। विजय उसी अन्धकार में से चलना चाहता है। यह चाँदनी से यमुना और अँधेरी से घण्टी की तुलना करता हुआ अपने मन के विनोद का उपकरण जुटा रहा है। सहसा उसके कानों में कुछ परिचित स्वर सुनाई पड़े। उसे स्मरण हो आया-उसी इक्के वाले का शब्द। हाँ ठीक है, वही तो है। विजय ठिठककर खड़ा हो गया। साइकिल पकड़े एक सब-इंस्पेक्टर और साथ में वही ताँगे वाला, दोनों बातें करते हुए आ रहे है-सब-इस्पेक्टर, 'क्यों नवाब! आजकल कोई मामला नहीं देते हो?'
ताँगेवाला-'इतने मामले दिये, मेरी भी खबर आप ने ली?'
सब-इस्पेक्टर-'तो तुम रुपया चाहते हो न?'
ताँगेवाला-'पर यह इनाम रुपयों में न होगा!'
सब-इस्पेक्टर-'फिर क्या?'
ताँगेवाला-'रुपया आप ले लीजिए, मुझे तो वह बुत मिल जाना चाहिए। इतना ही करना होगा।'
सब-इस्पेक्टर-'ओह! तुमने फिर बड़ी बात छेड़ी, तुम नहीं जानते हो, यह बाथम एक अग्रेज है और उसकी उन लोगों पर मेहरबानी है। हाँ, इतना हो सकता है कि तुम उसको अपने हाथों में कर लो, फिर मैं तुमको फँसने न दूँगा।'
ताँगेवाला-'यह तो जान जोखिम का सौदा है।'
सब-इन्स्पेक्टर-'फिर मैं क्या करूँ पीछे लगे रहो, कभी तो हाथ लग जायेगी। मैं सम्हाल लूँगा। हाँ, यह तो बताओ, उस चौबाइन का क्या हुआ, जिसे तुम बिन्दरावन की बता रहे थे। मुझे नहीं दिखलाया, क्यों?'
ताँगेवाला-'वही तो वहाँ है! यह परदेसी न जाने कहाँ से कूद पड़ा। नहीं तो अब तक...'
दोनों बातें करते अब आगे बढ़ गये। विजय ने पीछा करके बातों को सुनना अनुचित समझा। वह बँगले की ओर शीघ्रता से चल पड़ा।
कुरसी पर बैठे वह सोचने लगा-सचमुच घण्टी एक निस्सहाय युवती है, उसकी रक्षा करनी ही चाहिए। उसी दिन से विजय ने घण्टी से पूर्ववत् मित्रता का बर्ताव प्रारम्भ कर दिया-वही हँसना-बोलना, वही साथ घूमना-फिरना।
विजय एक दिन हैण्डबैग की सफाई कर रहा था। अकस्मात् उसी मंगल का वह यन्त्र और सोना मिल गया। उसने एकान्त में बैठकर उसे फिर बनाने का प्रयत्न किया और यह कृतकार्य भी हुआ-सचमुच वह एक त्रिकोण स्वर्ण-यन्त्र बन गया। विजय के मन में लड़ाई खड़ी हो गयी-उसने सोचा कि सरला से उसके पुत्र को मिला दूँ, फिर उसे शंका हुई, सम्भव है कि मंगल उसका पुत्र न हो! उसने असावधानता से उस प्रश्न को टाल दिया। नहीं कहा जा सकता कि इस विचार में मंगल के प्रति विद्वेष ने भी कुछ सहायता की थी या नहीं।
बहुत दिनों की पड़ी हुई एक सुन्दर बाँसुरी भी उसके बैग में मिल गयी, वह उसे लेकर बजाने लगा। विजय की दिनचर्या नियमित हो चली। चित्र बनाना, वंशी बजाना और कभी-कभी घण्टी के साथ बैठकर ताँगे पर घूमने चले जाना, इन्हीं कामों में उसका दिन सुख से बीतने लगा।