कंगना रनौट : जलसाघर पर फेंका गया पत्थर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :11 मार्च 2017
फिल्म उद्योग के सफल लोगों ने अपना एक जलसाघर रचा है, जहां उनके द्वारा अर्जित ख्याति एक रक्कासा की तरह निरंतर नृत्य करती है अौर संभवत: हर क्षेत्र में सफल जमात यही करती है। इस तरह जीवन और संसार दो हिस्सों में बंट गया है- जलसाघर और उसके भीतर आने के लिए प्रतिबंधित अवाम। इस जलसाघर के सारे दरवाजे अवाम के लिए बंद हैं परंतु जाने कैसे एक खिड़की अधखुली रह गई है, जिसके जरिये अवाम की ताक-झांक जारी है। करण जौहर उद्योग के इस भद्दे एवं अश्लील जलसाघर के प्रतीक बन गए हैं और दर्शक की 'क्वीन' कंगना रनौट उस पत्थर की तरह है, जो श्याम बेनेगल की फिल्म 'अंकुर' के अंतिम दृश्य के बालक द्वारा जलसाघर पर फेंका गया था।
करण जौहर ने बिन मांगे सलाह दी कि कंगना फिल्म उद्योग छोड़ दें तो कंगना ने अपने लहजे में गोला दागा कि उद्योग करण जौहर के अब्बा का घर नहीं है कि कंगना को घर से निकाल दें। विशाल भारद्वाज की कंगना रनौट अभिनीत 'रंगून' घनघोर असफल फिल्म है, तो कंगना विरोधी कैम्प से आवाजें आ रही हैं कि कंगना स्वयं को फिल्म की सफलता का आधार मानती हैं, तो अब 'रंगून' की असफलता को भी अपनाएं। सच्चाई यह है कि कंगना रनौट अभिनीत फिल्म देखने के लिए दर्शक कंगना के कारण ही जाता है, इसलिए वह सचमुच में फिल्म की नायक ही मानी जाएंगी। 'रंगून' के सैफ एवं शाहिद तो ढेरों असफल फिल्में करते रहे हैं। उनके सपाट, चिकने चेहरों पर कभी भाव उभरते ही नहीं। विशाल भारद्वाज ने अपनी 'ओंकारा' में सैफ अली खान को लंगड़े पात्र की भूमिका दी थी और 'रंगून' में उसका एक हाथ काम नहीं करता। इन ईश्वरीय कमतरियों के प्रति जागी सहानुभूति विकलांगता के लिए है, न कि कलाकार के लिए। 'रंगून' के हादसे के लिए जिम्मेदार केवल विशाल भारद्वाज हैं, जिन्होंने नाडिया की कथा में सुभाषचंद्र बोस की फौज को खींचने की घिनौनी कोशिश की है। अगर वे केवल फिल्मों की स्टंट क्वीन की कथा ही कहते तो यह यादगार सफल फिल्म होती। जितने भी दर्शक सिनेमाघर में 'रंगून' देखने पहुंचे वे सब केवल कंगना रनौट के लिए गए थे। अत: कंगना रनौट टिकिट खिड़की पर भीड़ जुटाती हैं तो उनकी इस शक्ति का आदर करना चाहिए।
कंगना रनौट की बहन'रंगोली के चेहरे पर एक हुडदंगी ने एसिड फेंका था और इलाज द्वारा वे तंदुरुस्त हो गई हैं। रंगोली सुखी दाम्पत्य जीवन जी रही हैं और कुछ समय के लिए उन्होंने कंगना रनौट का काम भी संभाला था। आज कंगना महसूस करती हैं कि उनकी बहन रंगोली को पुन: उनके व्यवसाय मैनेजर की भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। दोनों बहनें मिलकर एक मजबूत संस्थान बनाती हैं तथा फिल्म उद्योग के जलसाघर में उनके लिए यह जरूरी है। अभी तक कंगना ने बतौर नायक किसी सुपर सितारे के साथ अभिनय नहीं किया है। उसे नायक रूपी बैसाखी की आवश्यकता ही नहीं है। अमेरिका में बसे मेरे कुछ रिश्तेदारों ने कहा है कि प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण के बाद कंगना को हॉलीवुड आना चाहिए। हॉलीवुड भारतीय कलाकारों को उनकी अभिनय प्रतिभा के लिए आमंत्रित नहीं कर रहा है, वरन जो एक करोड़ भारतीय अमेरिका में बसे हैं और फिल्में देखने के निहायत ही शौकीन है, उनके बॉक्स ऑफिस मूल्य के कारण ऐसा कर रहा है।
दरअसल, कंगना को हॉलीवुड नहीं वरन् भारतीय संसद में अपने नाडियावाले हंटर के साथ मौजूद होना चाहिए। ऐसा होते ही कोई सांसद सोते हुए संसद में नहीं पकड़ा जाएगा। दरअसल, संसद के कैंटीन में अत्यंत स्वादिष्ट भोजन नाममात्र के मूल्य पर मिलता है। जिस देश में करोड़ों लोगों को पूरे जीवन एक संपूर्ण भोजन नहीं मिलता है, उसके प्रतिनिधि सांसद को यह सुविधा क्यों दी जाती है। उन्हें रेल किराया नहीं देना पड़ता, कुछ हवाई टिकट भी मुफ्त में मिलते हैं। एक वेतन सांसद होने का दूजा पूंजीपतियों द्वारा दिया धन उनके हितों की रक्षा के लिए दिया जाता है।
पवन करण को अगले वर्ष 8 मार्च को महिला दिवस पर कंगना रनौट को आमंत्रित करना चाहिए। ग्वालियर में डॉ. नीलकमल माहेश्वरी ने महान महिलाओं के फोटोग्राफ पर उनके हस्ताक्षर भी लिए हैं। इस फोटो गैलरी में सात वर्षीय कन्या से सत्तर वर्षीय महिलाओं द्वारा संग्रहित स्थिर चित्र हैं, जिन पर उके हस्ताक्षर भी हैं। इनमें मदर टेरेसा का चित्र भी है। 1839 में मेबल ने स्थिर छायांकन की खोज की थी और आज तो सीसीटीवी द्वारा निगरानी रखी जा रही है। आज कोई व्यक्ति और कोई जगह ऐसी नहीं, जिस पर कैमरे की नज़र नहीं। यहां तक कि भयभीत मंत्री भी पत्रकार को अपने बंगले के पिछले द्वार से बुलाते हैं जैसा कि राजदीप सरदेसाई ने लिखा है।