कंजूस सेठ, चटोरी सेठानी / गिजुभाई बधेका / काशीनाथ त्रिवेदी
एक थे सेठ और एक थी सेठानी। सेठानी खाने-पीने की बहुत शौक़ीन और चटोरी, थीं सेइ बड़ा कंजूस था। लेकिन सेठानी बड़ी चंट थी। जब सेठ घर में होते तो वह कम खाती और सेठ बाहर चले जाते, तो वह बढ़िया-बढ़िया खाना बनाकर खाया करती।
एक दिन सेठ के मन में शक पैदा हुआ। सेठने सोचा—‘मैं इतना सारा सामान घर में लाता रहता हूं, पर वह इतनी जल्दी ख़तम कैसे हो जाता है? पता तो लगाऊं कि कहीं सेठानी ही तो नहीं खा जाती?’
सेठ ने कहा, "पांच-सात दिन के लिए मुझे दूसरे गांव जाना है। मेरे लिए रास्ते का खाना तैयार कर दो।" सुनकर सेठानी खुश हो गई। झटपट खाना तैयार कर दिया और सेठ को बिदा किया। सेठ सारा दिन अपने एक मित्र के घर रहे। शाम को जब सेठानी मन्दिर में गई, तो सेठ चुपचाप घर में घुस गए और घर की एक बड़ी कोठी में छिपकर बैठ गए। रात हुई। सेठानी की तो खुशी का पार न था। सेठानी ने सोचा--‘अच्छा ही हुआ। अब पांच दिन मीठे-मीठे पकवान बनाकर भरपेट खाती रहूंगी।’
रात अपने पास सोने के लिए सेठानी पड़ोस की एक लड़की को बुला लाई। लड़की का नाम था, खेलती। भोजन करने के बाद दोनों सो गई। आधी रात बीतने पर सेठानी जागी। उन्होंने खेतली से पूछा:
खेतली, खेतली,
रात कितनी?
खेतली बोली, "मां! अभी तो आधी रात हुई है।"
सेठानी ने कहा, "मुझको तो भूख लगी है। उधर उस कोने में गन्ने के सात टुकड़े पड़े है। उन्हें ले आओ। हम खा लें।" बाद में सेठानी ने और खेतली ने जी भरकर गन्ने खाए और फिर दोनों सो गई।
अन्दर बैठे-बैठे सेठजी कोठी के छेद में से सबकुछ देखते रहे। उन्होंने सोचा—‘अरे, यह तो बहुत दुष्ट मालूम होती है।’
फिर जब दो बजे, तो सेठानी जागी और उन्होंने खेतली से पूछा:
खेतली, खेतली,
रात कितनी?
खेतली बोली, "मां, अभी दूसरा पहर हुआ है।"
सेठानी ने कहा, "लेकिन मुझे तो बहुत ज़ोर की भूख लगी है। तुम छह-सात मठरी बना लो। आराम से खा लेंगे।"
कोठी में बैठे सेठजी मन-ही-मन बड़-बड़ाए, ‘अरे, यह तो कमाल की शैतान लगती है!’
खेतली ने मठरी बनाई। दोनों ने मठरियां खाईं और फिर सो गईं।
जैसे ही चार बजे, सेठानी फिर जागी और बोली:
खेतली, खेतली,
रात कितनी?
खेतली बोली, "मां, अभी तो सबेरा होने में थोड़ी देर है।"
सेठानी ने कहा, "बहन! मुझे तो बहुत भूख लगी है। थोड़ा हलुआ बना लो।" लड़की ने थोड़ा हलुआ बनाया। हलुए में खूब घी डाला। फिर दोनों ने हलुवा खाया और दोनों सो गईं। कोठी में बैठ-बैठे सेठजी दांत पीसने लगे। फिर ज्यों ही छह बजे, सेठानी उठ बैठी और बोली:
खेतली, खेतली!
रात कितनी?
खेतली ने कहा, "मां, बस, अब सबेरा होने को है।"
सेठानी बोली, "मैं तो भूखी हूं। तुम थोड़ी खील भून लो। हम खील खा लें और पानी पी लें।"
खेतली ने खील भून ली। दोनों ने खील खा लीं।
कोठी में बैठे सेठजी ने मन-ही-मन कहा—‘सबेरा होते ही है मैं इस सेठानी को देख लूंगा!’
खेतली अपने घर चली गई और सेठानी पानी भरने गई। इसी बीच सेठजी कोठी में से बाहर निकले, और गांव में गए। थोड़ी देर बाद हाथ में गठरी लेकर घर लौटे। सेठ को देखकर सेठानी सहम गई। उन्हें लगा, कैसे भी क्यों न हो, सेठ सबकुछ जान गए है।
सेठानी ने पूछा, "आप तो पांच-सात दिन के लिए दूसरे गांव गए थे। फिर इतनी जल्दी क्यों लौट आए?"
सेठ ने कहा, "रास्ते में मुझे अपशकुन हुआ, इसलिए वापस आ गया।"
सेठानी ने पूछा, "ऐसा कौन-सा अपशकुन हुआ?"
सेठ ने कहा, "एक बड़ा-सा सांप रास्ता काटकर निकल गया।"
सेठानी ने कहा,”हाय राम! सांप कितना बड़ा था?"
सेठ बोले, "पूछती हो कि कितना बड़ा था? सुनो वह तो गन्ने के सात टुकड़ों के बराबर था।"
सेठानी ने पूछा, "लेकिन उसका फन कितना बड़ा था?"
सेठ ने कहा, "फन तो इतना बड़ा था, जितनी सात मठरियां होती हैं।"
सेठानी ने पूछा, "वह सांप चल कैसे रहा था?"
सेठ ने कहा, "बताऊं? जिस तरह हलुए में घी चलता था।"
सेठानी ने पूछा, "क्या वह सांप उड़ता भी था?"
सेठ ने कहा, "हां-हां जिस तरह तबे में खील उड़ती है, उसी तरह सांप भी उड़ रहा था।"
सेठानी को शक हो गया कि सचमुच सेठ सारी बातें जान चुके हैं।
उसी दिन से सेठ ने अपनी कंजूसी छोड़ दी, और सेठानी ने अपना चटोरा-पन छोड़ा।