कंडक्टर रामलाल / शोभनाथ शुक्ल
बस स्टेशन के गेट नं0 एक पर बस लगा कर ड्राइवर अपना गेट खोलकर कूद गया और सीधे निर्धारित चाय के ठेले के पास जा खड़ा हुआ। दुकानदार शिवहरी बाबू ने ड्राइवर की तरफ अदब से देखा और बगल ही पड़ी बेंच पर बैठने का संकेत किया, "क्या चलेगा साब?" कहते हुए ड्राइवर पर निगाह टिका दी मानो वह कन्डक्टर साहब के अभी तक न आने का कारण पूछ रहा हो...ड्राइवर साहब उसके इशारे को, उसकी भाव भंगिमा को वर्षों से जानते-परखते आ रहे हैं। सो उन्होंने शिवहरी बाबू के शान में कसीदें पढ़ दिये-' आ रहे होंगे और कहाँ जायेंगे भाई...आप की चाय का मोह भला कैसे छोड़ सकता है कोई? "
हरी बाबू अपने काम में जुट गये। चायदानी का मलवा फेंका, गरम पानी से उसे धोया और फिर पानी डालकर भट्ठी पर चढ़ा दिया। धीरे-धीरे पानी उबलने लगा तो हरी बाबू ने अदरक कूटी...काली मिर्च और एकाध लौंग मिलाया और फिर उसे पानी में डाल दिया... कुछ देर बाद चाय की पत्ती डाली और चायदानी में चाय के उबाल पर निगाहें गड़ा दी...'का हो ड्राइवर साब का बात है! कन्डक्टर साब कहाँ गुम हो गये-लगता है माल-असबाव की सेटिंग अभी तक नहीं हो पाई का...आखिर चाय को कब तक खौलायेंगे बाबू।'
हरी बाबू ने आंच धीमी कर दी और इस बीच पहले से बनी चाय, जो केतली में छानी गई थी, उसे आते ग्राहकों को वितरित करने में लग गये। तभी कन्डक्टर साहब भी आ पहुंचे। बेंच के एक किनारे सट कर बैठ गये और तुरन्त चाय की तलब व्यक्त कर दी...थोड़ी देर में चाय छन कर दोनों के हाथों में पहुंच गई...गरम-गरम पकौड़ी से भरे दोने दोनों के बीच आ गये। बतकहीं चली तो कहाँ खत्म होती...? शुरूआत चाय के स्वाद से हुई... 'हरी बाबू ई चाय बनाने का डिप्लोमा कहाँ से किये हो भाई...तुम्हारी चाय में मजा आ जाता है...और दुकानों पर तो मजबूरी में चाय पीना नहीं सुड़कना पड़ता है...और समझो कि ड्राइवर साहब की अगली चाय हैदरगढ़ में ही होती है...वह भी सवारियों के अनुनय विनय पर...' बगल खड़ी चाय पीती कई सवारियाँ चाय का स्वाद इस बतकही के साथ ज़रूर ले रही थीं पर उन्हें बस के लेट होने की चिन्ता बराबर सता रही थी। तभी किसी एक ने ड्राइवर को टोकते हुए लखनऊ जल्दी पहुँचने की विवशता का जिक्र किया तो कई लोग एक साथ खिलखिला कर हंस पड़े। ' अरे भई अभी तो बस का चक्का हिला भी नहीं और आप लखनऊ पहुँचने की सोचने लगे... ज़रा ड्राइवर को हाथ-पैर तो सोझ करने दो दिल दिमाग को थोड़ी ताजगी मिल जाये तभी तो गाड़ी हिलेगी..." इस पर कईयों ने अपनी खींसे निपोर दी और ड्राइवर ने यह कहते हुए चाय का कुल्हड़ फेंका कि तनिक हरीबाबू अखबरवा तो पढ़ लेई इधर करा तो...और वे अखबार के पृष्ठ पलटने लगे...कन्डक्टर से सुर्ती-पान की व्यवस्था की बावत इशारा किया और कुछ देर बाद स्वंय अखबार रख कर आगे बढ़ गये। सवारियाँ तो इसी का इंतजार ही कर रही थीं...वे सभी ड्राइवर से पहले ही अपनी सीट पर जा बैठीं।
ड्राइवर साहब अपनी सीट पर बैठे तो पर गाड़ी मोड़ना उनके लिए आसान नहीं था। गेट नं0 एक पर बस लगाते समय उन्हें इस बात का भान नहीं था कि वे बस को गेट पर आड़ी-तिरछी लगा रहे हैं। जब तक वे चाय पीते-वापस आते, दो चार बसें उनकी बस के आगे पीछे, अगल-बगल खड़ी हो गई थीं।
अब कन्डक्टर साब की जिम्मेदारी बढ़ गयी थी। ड्राइवर को खोज-खोज कर लायें और बस हटवायें तभी इनकी बस आगे बढ़ सकती है। लम्बी जद्दोजेहद के बाद बस का पहिया घूमा और लोगों ने संतोष की सांस ली। बस के चलते ही कन्डक्टर ने अपनी टिकट मशीन निकाली और टिकट काटना शुरू कर दिया। टिकट लेने के बाद कई सवारियाँ धीरे-धीरे आँखें बन्दकर झपकी लेने की प्रक्रिया में झूलने लगीं-'टिकट...और किसका बाकी है भाई टिकट...पैसा बढ़ाओ जल्दी हाँ। आप को कहाँ जाता है' , कन्डक्टर की यह आवाज ऊँघते लोगों के आनन्द में रह-रह कर बाधक बन रही थी। वे अपने गंतव्य तक किसी भी तरह की सुख-बाधा से बचना चाह रहे थे। ये गर्मी का महीना था और 400 से 450 तापमान में शहर से देहात तक उबल रहा था। यह बस सुबह पाँच बजे छूटती थी और इसे पकडने का मतलब था कि चार बजे उठकर बस पकड़ने तक की तैयारी समय से पूरी कर ली जाय, यानी कि पूरी नींद लेने के पहले ही बिस्तर छोड़ देना और फिर भागते-भागते बस पकड़ना यह तमाम लोगों की दिनचर्या में शामिल था। नौकरी पेशा लोगों के लिए यह बस उपयुक्त थी। थोड़ा बहुत लेट भी हो जाय तो उतना चलता ही है। इस देश में समय से पहुँचने की आदत भला कहाँ होती है लोगों में। सरकारी नौकरी तो लोग सरकारी दामाद बनकर मौज उड़ाते हुए करते हैं। कितने तो ऐसे भी बाँक-बहादुर आपको मिल जायेंगे जो गर्व से सीना तानकर कहते हैं कि भाई हमने तो कभी कलम उठाई नहीं, न ही सीट पर बैठे, वेतन लिया और अब सकुशल रिटायर भी हो गये। किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ी काम लेने की और न हमने कभी काम सीखा ही तो करते क्या...मौज किया और अब पेंशन उठा रहा हूँ। 'ऐसी बातें करने वालों की हाँ में हाँ मिलाने वालों की कमी नहीं होती उनकी वाह-वाही की जाती है...' यार तुम किस्मत वाले थे वरना तो देखो राम बाबू को कलम घिसते-घिसते बीसों बीमारियाँ पाल ली... उच्च रक्तचाप, मधुमेह, गठिया और मोतियाबिन्द सब...क्या मिला उसे? ...रात दिन अफसर की हाँ हुजूरी और शाम को दो रोटी के लाले...पर हाँ बन्दा ईमानदारी से एक चूर भी नहीं हिला..."।
-'बस यही तो उसकी पूँजी है और इसी ईमानदारी का फल है कि उसका लड़का बिना कोचिंग-टयूशन के एमबीबीएस निकाल लिया और लड़की जेआरएफ में सेलेक्ट हो गई...'।
-'यह क्या कम बड़ी बात है...मुफ्तखोरी करने वाले, बेईमानोें की औलादें तो नाकारा ही निकलती हैं न? देखो ऐसे लोग प्रायः अपनी ही औलादों के नाकारेपन और लुच्चई का दण्ड जीवन भर भोगते हैं।'
कुछ लोग पहली झपकी में डूबने वाले थे और कुछेक बगल बैठी सवारियों के बीच इस तरह की बातचीत में मशगूल थे कि अमहट चौराहे पर लखनऊ की ओर बस मुुड़ते ही ड्राइवर ने उचक कर इतनी जोर से ब्रेेक लगाई कि बस तो दो-चार सेकेन्ड में चूँ-चूँ चीं चांऽऽ करते रूक तो गई पर ऊँध रही सवारियों का सिर अपने सामने की सीट से ऐसा टकराया कि उनकी चीख निकल गई। यह वह जगह है जहाँ से कई रास्ते फूटते हैं...लखनऊ जाना हो तो, गौरीगंज, अमेठी और आगे रायबरेली फिर फतेहपुर जाना हो तो या फिर इलाहाबाद या वाराणसी की तरफ यात्रा करनी हो, किसी भी दिशा से आती-जाती बसें यहाँ रूकती ज़रूर हैं...तो इस बस का रूकना भी लाजिमी ही था सो रूकी।
यद्यपि कि बस लगभग भरी हुई थी फिर भी पर्याप्त मात्रा में खड़ी सवारियों को उठाना कन्डक्टर की मजबूरी है। बस खड़ी कर ड्राइवर साहब अपना गेट खोलकर नीचे कूद गये...अब यहाँ लघु शंका जाने की बारी थी उनकी। लघुशंका से लौटने के बाद उन्होंने कन्डक्टर को चेताया कि "रामलाल जी टिकट यहीं बना लीजिए अब बस बीच में कहीं खड़ी नहीं होगी और हाँ कहीं आगे चेकिंग हो गई तो...इसका भी ध्यान रखा करो...संविदा की नौकरी आखिर कय दिन..." और वे बगल किनारे खड़ी छोटी-सी पान गिमटी की ओर बढ़ गये।
अब सवारियों की नींद गायब थी। ज़रूरत से ज़्यादा भीड़ और वैसे भी गर्मी का महीना...उसम और चिपचिपाहट...एक अजीब किस्म की गंध से नथुने भरने लगे थे...सुबह-सुबह नहा धोकर निकलने का क्या मतलब रह गया है...? ऐसी ठूसम-ठूस में तो सांस लेना दूभर हो रहा था...कईयों की सोच शायद एक जैसी थी सो बात निकली तो समर्थन बढ़ता चला गया।
रमन बाबू ने अपने मन के उबाल को उड़ेल दिया...' कन्डक्टर साहब हमें भी नौकरी पर समय से पहुंचना हैं और आप हैं कि पैर पसार कर बैठ गये हैं। कहाँ गये ड्राइवर-उन्हें बुलाइये और आप टिकट बनाते रहियेगा-सफर तो पूरा हो...बुलाइये ड्राइवर को। " रमन बाबू तहसील में बड़े बाबू हैं। पिछले पांच साल से वे इसी बस से आ रहे हैं तो कईयों से अच्छी खासी जान पहिचान हैं।
उनकी आवाज में धार देते हुए आर0पी0 सिंह गरज पड़े..."कन्डक्टर तुम्हारा भेजा खराब हो गया है क्या? पूरा समय यहीं गंवा दोगे आखिर लोग टाइम पर कैसे पहुँचेंगे? ..." हालांकि आर0पी0 सिंह कालेज में टीचर हैं पर समय से पहुंचना और कक्षाओं में जाना दोनों उनके स्वभाव के विपरीत है। आज वे जल्दी इस लिए निकले हैं कि स्कूल में हाजिरी लगा कर वे पुनः दूसरी बस से लखनऊ निकल जायेंगे। बगल बैठे गजाधर शास्त्री जो उसी कालेज में संस्कृत के अध्यापक हैं, ने उन्हें दबाया और आगे बात बढ़ाने से रोका। उनका मकसद था कि 'भाई सिंह साहब सुबह की ताजगी को काहे खराब करते हो। अभी तो पूरा दिन पड़ा है और फिर जब ड्राइवर ने पूरा टिकट कटने के बाद ही बस चलाने की बात कह दी तो जूतम-पैजार क्या?' रामाधार शास्त्री वैसे भी टंटा बखेड़ा से दूर ही रहते हैं, स्कूल में भी वे अपने काम से काम रखते हैं। संस्कृत विषय वैसे ही स्कूलों से गायब होता हुआ विषय है तो कक्षा में कम विद्यार्थियों में उनकी अच्छी खासी पकड़ रहती है। अपनी कक्षाएँ समय से पढ़ाते हैं और समय से स्कूल पहुंचते हैं। आज तो वे भी शंकित हो गये हैं? पर आर0पी0 बाबू के लिए इसका-सबका कोई मायने नहीं है...वे दिन भर में अपनी जीभ को धार दिये बिना नहीं रह सकते...और नहीं तो स्टाफ रूम में बैठे-बैठे हवाओं को ही दो चार गालियाँ बक ही देते हैं। वे ऐसे विषय के अध्यापक हैं जिसे पढ़ाने की ज़रूरत वे कभी समझते ही नहीं है। हफ्ते में एकाध बार कक्षा की तरफ यदि घूम भी गये तो आधे से ज़्यादा बच्चे गायब मिलते हैं और जो रहते भी हैं उन्हें दो-चार पाठ के प्रश्नोत्तर लिख कर लाने का गृह कार्य देकर फिर हफ्तों के लिए अर्न्तध्यान हो जाते हैं। सिंह साहब की गर्जना का कुछ तो असर दिखाई पड़ा कि कंडक्टर जो अपनी सीट पर बैठकर टिकट बना रहा था अब वह खड़ा होकर सवारियों के पास पहुंचने की कोशिश करने लगा...पर उसका आगे बढ़ना काफी मुश्किल लग रहा था। दसियों सवारियाँ तो बीच रास्ते में खड़ी हो गई थीं और कईयों के बैग-झोले-सामान की बोरियाँ बीच में ही रख दी गई थीं जिसके बीच रास्ता बना कर आगे बढ़ना मुश्किल था...खैर कन्डक्टर रामलाल हार मानने वालें नहीं थे, हार मान कर करते भी क्या? कूदते-फांदते बस के अन्तिम छोर पर पहुंच गये और अन्तिम व्यक्ति को टिकट देकर उन्हांेने ह्विसिल बजा दी...यानि कि अब बस के चलने की उम्मीद जग गई थी। सवारियों की सवालिया निगाहें अब ड्राइवर पर जा टिकीं...ड्राइवर साब पान की गिलौरी मुँह में चबुराते बस की तरफ आते दिखाई दिये। गेट खोला, सीट पर बैठने के बाद आवाज लगाई-'क्योें भाई रामलाल, सब ठीक हो गया। कोई सवारी छूटी तो नही...एक बार फिर सवारी की गिनती कर लो और अपना हिसाब देख लो...फिर चलते हैं...अब कहीं रूकना तो नहीं...' , कहकर ड्राइवर साब ने हाथ की उगुंलियों में लगे चूना को बोनट के एक किनारे सुरक्षित किया थोड़ा बहुत मुंह में डाला और गमछे को कन्धे से हटा कर सामने रखा...कमीज की बटन खोली और सामने लगे शीशे में ताका...स्वंय को भी और पीछे जहाँ तक दीख सकता था वहाँ के दायरे में आ रही सवारियों को भी।
अब कई सवारियों के धैर्य का अन्तिम क्षण आ गया था कि कुछ हो जाता इसके पहले ही रामलाल ने पुनः सीटी बचाई और बस बढ़ाने के लिए इशारा किया। ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट करने की प्रक्रिया शुरू की पर गाड़ी स्टार्ट ही नहीं हुई, उछल-उछल कर दो-तीन बार अपनी पूरी ताकत झोंकी...किन्तु बेकार। वोनट खोला। अपनी जानकारी के मुताबिक कुछ हिलाया-डुलाया...किन्तु बेकार। फिर वह नीचे उतरा। झुक कर झांका, उठकर कुछ जगहों पर उंगुली की पर सब बेकार... ड्राइवर साब की कोशिश में कोई कमी नहीं थी, क्योंकि उनका माथा पसीने से तरवतर था और बटन खुले होने से दीख रहे सीने पर पसीने की धार रेंग रही थी।
'उफ्फ...आज ही स्साला दिन खराब होना था...' कहते हुए उन्होंने गाड़ी के साथ-साथ व्यवस्था को जो गाली दी कि उसे सुन का बस में बैठी कई एक महिलाओं के कान से कीड़े ज़रूर झड़ गये होंगे...उनके चेहरे अजीब वितृष्णा से भर गये थे और नजर झुका ली थी उन सबने।
-'चलो उतरो भाई लोगों अब बिना धक्का खाये इसका दिमाग ठिकाने नहीं आयेगा।' , ड्राइवर के स्वर में वेबशी थी या आदेश... इसे परखने का समय नहीं था सो कुछेक भले लोग धीरे-धीरे नीचे उतर आये पर ज्यादातर लोग ऐसे बैठे रहे मानों उन्होंने कुछ सुना ही न हो।
अब कन्डक्टर की बारी थी। उसने विनम्रता का परिचय दिया और अनुनय के स्वर में लोगों से मदद मांगी। तभी एक नवजवान उठ खड़ा हुआ और लगभग चिल्लाते हुए बेतहाशा गरियाने लगा..."स्साले हरामी बस को वर्कशाप से निकाला ही क्यों...बिना चेक कराये...हम कोई तुम्हारे बाप के नौकर-चाकर हैं जो इस भयानक गर्मी में तुम्हारी बस ठेलें...दिमाग खराब कर दिया है इन स्सालों ने...अभी 5 किमी0 भी नहीं आई, शहर छोड़ा भी नहीं और फुस्सऽऽ...खाओ कमीशन बेटों, विभाग तुम्हारे बाप-दादों का है...'। वह अन्तिम वाक्य तक पहुंचते-पहुंचते हाँफने लगा था और अपनी बात पूरी होने पर उसने बस में एक नजर दौड़ाई कि उसकी गर्जना का कुछ तो असर हुआ होगा...पर कोई खास प्रतिक्रिया उसे नहीं मिल पाई. हाँ रफीक खानदानी जो कपड़ों के थोक व फुटकर व्यापारी हैं और लखनऊ माल बुक कराने जा रहे हैं, ने अपने अन्दर भरे गुबार को ज़रूर निकाल दिया-" नवजवान भाई आप की बात में दम है पर लहजा ग़लत है...यह बात तहजीब से कही गई होती तो ज़्यादा अच्छी लगती...सचमुच व्यवस्था का बुरा हाल है घर से निकलो तो एक छोटी-सी यात्रा भी नरक बन जाती है, बस हो या ट्रेन...सबका जोड़-जोड़-चूल तक हिली हुई है...' वे कुछ और आगे कहना चाह रहे थे पर नौजवान का गर्म खून ठण्डा पड़ने के बजाय और खौल उठा...'चुप करो माई बाप...अपनी तहजीब जेब में डाल कर बैठे रहो...ये सब शराफत के दुश्मन हैं। दुश्मन...इनसे तमीज और तहजीब से पेश आने का मतलब सिर पर पेशाब करवाना हैं। लात घूसों के आदमी मीठी बातों से नहीं समझते...चलो ठेलो चचाजान काहे बैठे हो...अरे ये इस गरमी में लीद निकाल लेंगे...समझे।'
नौजवान के लहजे में रोष के साथ-साथ घृणा और तिरस्कार का भी भाव व्यक्त हो रहा था। अब बस दो भागों में बँटती जान पड़ी थी...उसकी बातों में कुछेक ने अपनी हामी भरी थी और अपनी जुबान को कुछ और ही कडुवा बना लिया था। कुछ लोग इस झगड़े के विरूद्ध हो गये थे और उनका कहना था कि आखिर कन्डक्टर-ड्राइवर भी तो इसी व्यवस्था-तन्त्र के पुर्जे मात्र हैं। इस बीच कुछ लोग एकाध बार बस को धक्का लगा चुके थे पर वह अपनी जगह से हिली तो नहीं पर कई सवारियों के हांथों से खून ज़रूर रिसने लगा... बस की बाहरी बाड़ी जगह-जगह फटकर ऐसा मुँह बाये थी मानो मगरमच्छ अपने शिकार पर दाँत गड़ाये हुए हो। ड्राइवर तो अपनी सीट पर यमराज की तरह विराजमान था और लोगों को थोड़ा और जोर लगाने के लिए ललकार रहा था पर कन्डक्टर रामलाल की पेशानी पर बल पड़ गये थे। वे सवारियों के टेम्परामेंट से काफी परिचित हो चुके हैं। क्या पता सभी सवारियाँ एक होकर उन पर ही न पिल पड़े सो वे बस के अन्दर घुस कर एकबार पुनः लोगों से अनुनय विनय करने लगे...'अरे भईया लोगों...कम से कम बस से नीचे आ जाओ, गाड़ी न ठेलो चलेगा। गाड़ी कुछ तो हल्की हो आखिर...और फिर थोड़ी मदद हो जायेगी तो बस चल निकलेगी नहीं तो देर में देर तो हो ही रही है।' कन्डक्टर के हाथ स्वतः आपस में जुड़ गये थे।
अचानक समय का भान हुआ सवारियों को और काफी लोग खटाखट नीचे उतर आये। महिलाएं-बच्चे-बूढे़ लोगों को सबकी तरफ से छूट मिल गई थी। कई बार आगे-फिर पीछे...फिर आगे की ओर धक्के मारे गये। तब कहीं जाकर बस का इंजन धौंकनी की मानिंद हाँफ कर झनझना उठा।
-'चलो भाइयों जल्दी-जल्दी अन्दर आ जाओ...अब सब ठीक हो गया है...ड्राइवर भाई अब इसे बन्द करने की गलती मत करना...' कहते हुए रामलाल ने सीटी बजाई। बस चल पड़ी तो सवारियों की जान में जान आई. वैसे भी इस झमेले में बस लगभग पौन घण्टे यहीं लेट हो गयी थी। 'भगवान जाने आगे क्या होगा...' किसी की जैसे आह निकल गई हो...'समय से न पहुँच पाये तो... आज तहसील का मुआयना भी है।' रमन बाबू की आह में स्वर मिलाते हुए बगल में बैठे सज्जन कुछ ज़्यादा ही जजबाती हो गये...
-'देखो भईया, जमाना तो इतना बदल गया है कि किसी को किसी की चिन्ता नहीं है सब अपने में मस्त हैं। दूसरे का दुःख दर्द उन्हें अब परेशान नहीं करता... पहनावा देखो, खान-पान, बात-बतकही देखो, गाड़ी-घोड़ा-मोटर की सवारी देखो, मोबाइल के बिना तो हाथ विधवा ही नजर आता है, क्या-क्या देखोगे लौंड़ो की जाने दो लौड़ियाँ भी अब लाज लिहाज ताक पर रख चुकी हैं। बस सब कोई भाग रहा है कहाँ जा रहे हैं किसी को पता नहीं...छोटे-छोटे बच्चे अपनी हरकतों में बाप' सरीखे लगते हैं...और इस सबने हमारी सोच को इतना गिरा दिया है कि अब रिश्ते-नाते सब के सब बिकाऊ हैं। स्वार्थ के पाँव चल रहे हैं। फिर लूट-खसोट, हत्या-व्यभिचार, बेईमानी, बलात्कार क्या-क्या नहीं हो रहा है रिश्तों के बीच ही...हमारे समय में मनुष्य की 'बात' और 'रिश्ते' बड़े मजबूत हुआ करते थे...अब देखो इन नौजवान भाई का क्या लहजा है...और सब के सब चुप थे। बेचारा कन्डक्टर क्या करता...? '
पीछे की सीट पर बैठी दो-तीन सवारियों को उबकाई-सी आने लगी थी। इन बुजुर्ग सज्जन के उपदेश उन्हें राम कहानी सरीखे लगे थे। उनमें से एक ने प्रतिवाद भी किया-"दादा जी अब आप पके आम हो, समय बदल गया है तो सब कुछ बदलेगा ही। आप के हाथ में भी तो मोबाइल है क्या इसके बिना अब कोई रह सकता है। आपके समय में जब ये सब चीजें थी ही नहीं, विज्ञान एवं तकनीकी विकास हुआ ही नहीं था तो क्या सुख भोगते...अब आप चिन्ता छोड़ो और जो हो रहा है उसे देखते जाओ।"
इन सज्जन की बात दादा जी को हजम नहीं हो पाई. उनके तेवर और जुबान में थोड़ी तल्खी आ गई पर वे अपनी उमर का लिहाज करते, यह कहते हुए चुप लगा गये-गये कि बेटा अभी तो बहुत अच्छा लग रहा है पर आने वाला दिन घोर कलयुग का ही होगा और जब तुम्हारे साथ, परिवार के साथ कुछ बुरा होगा तब समझ में आयेगा। "
पीछे बैठी सवारियाँ ऊँघने लगी थी। एक ने तेज आवाज में टोका- -'अरे समाज सुधारकों। ज़रा देर के लिए अपनी गतिविधियों पर विराम तो लगा लीजिए... अभी पेट में कुछ गया भी नहीं होगा कि हजम करने के लिए जुगाली शुरू कर दी...तनिक छप्पी आ रही है तो सबके-सब अपना ज्ञान पेले जा रहे हैं। समाज जहाँ जा रहा है जाने दो-कहाँ तक गिरेगा...? एक सीमा तक न...फिर मर्सिया पढ़ने से क्या फायदा...' इस आवाज का असर कुछ देर तक बस के अन्दर रेंगता रहा...लगा एक चुप्पी है चारों ओर और इस चुप्पी ने सारी समस्याएँ निगल ली हैं।
बस पूरी रफ्तार में दौड़ रही थी कि अचानक रामलाल कन्डक्टर की सीटी ने ड्राइवर के पैरों को ब्र्रेेक के ऊपर दबाव बनाने के लिए मजबूर कर दिया। सीटी के साथ ही साथ राम लाल की 'रोको जल्दी रोको...' की आवाज से घबराकर ड्राइवर ने जोरदार ब्रेेक मारी कि औंघाई सवारियाँ उतनी ही गति से औंधी जा गिरीं-किसी के सिर में चोट आई तो कोई बगल लुढ़का...कोई किसी पर तो कोई किसी पर।
ची-चूँ चीं चाँऽऽ करती बस रूक गई. अपनी आदत के मुताबिक ड्राइवर अपना गेट खोल कर नीचे कूद गया। उसको इस समस्या से कुछ लेना-देना नहीं था...उसने खैनी निकाली-चूना डाला और हथेली पर, एक किनारे खड़े होकर, फटर-फटर करने लगा। बस के रूकते ही सवारियाँ सम्भली और कन्डक्टर की इस हरकत का विरोध करने लगीं। शुरू में तो दबी-दबी जुबान से इस हरकत की बखिया उधेडने पर जुटे लोग पर अचानक रामाधार शास्त्री, जिनके सिर में कुछ ज़्यादा ही चोट लग गई थी, फनफना उठे...उनका सभ्य आचरण अचानक बदसलूकी पर उतर आया...'करे राम ललवा तेरा दिमाग खराब हो गया है, ससुरे ई कोटा की नौकरी पाइके बऊराय गयो है...हरामी यह बस है या लढ़िया...पैसा वापस कर हम सबका अब नहीं चलेंगें तेरी बस से...डाल ले इसे चूतड़ में।'
शास्त्री जी की आवाज की शह पाकर पूरी बस मानो भार की बालू जैसी जल उठी। वह नव जवान जो पहले ही अपना भाषण दे चुका था अचानक सोते से जागा... 'धत् तेरे की..., ऐसी ही नौकरी करेगा तू यह बस तेरे बाप की है क्या, जब देखो रोक देगा, जब देखो धक्का लगवायेगा... अरे हम सब कब पहुँचंेगे अभी पचास किलोमीटर भी गाड़ी नहीं चल पाई कि तूने फिर से बदतमीजी कर दी' स्साला। '
कई सवारियाँ इस मसले पर चिल्ल पों करने लगीं। तब तक ड्राइवर को बिगड़ती स्थिति का भान हो चुका था। झट से वह कन्डक्टर के पास पहुँच कर सवारियों को शान्त करते हुए कहने लगा-'अरे भाई शरीफ लोगों पहले कारण तो जानो कि आखिर बस क्यों रोकी गई. हाँ बताओ कन्डक्टर साब क्या बात हो गई.? ड्राइवर ने बात कन्डक्टर की ओर मोड़ दी थी। कन्डक्टर रामलाल रूआँसे हो गये...उन्हें लगा आज उनकी खैर नहीं फिर भी हिम्मत बटोर कर वे बोल पड़े...' आप लोग नाहक बिगड़ रहे हो, गाली बक रहे हो जैसे हमारी कोई औकात ही नहीं है, हमने नौकरी पा ली तो कौन-सा पाप कर दिया। हमारी जिम्मेदारी है कि बस साफ-सुथरी चले। मैंने कई बार सवारियाँ गिनी-टिकट मिलाया पर एक सवारी बढ़ रही है...कौन भाई है, जिन्होनें टिकट नहीं बनवाया है...आगे चेकिंग की सूचना मिली है फोन पर तो मिलान ज़रूरी है कि नहीं...मेरी नौकरी काहे को ले रहे हो भाई। '
कन्डक्टर का पक्ष वाजिब लगा लोगों को। कई सवारियाँ एक साथ चिल्ला पड़ी-' कौन है ऐसा जो बेटिकट यात्री बना है, अरे शर्म करो, जिसने टिकट न लिया हो तुरन्त उतारो उसे कन्डक्टर साब। हम सबका बेड़ा गर्क कर दिया है इसने आज तो। ,
सभी सवारियाँ एक मत हो आई थी। फिर यह तय हुआ कि सब गाड़ी में बैठ जायँ और अपना-अपना टिकट निकाल लें, कन्डक्टर साब एक-एक को चेक करें, पर बस रोकी न जाय चलती रहे, धीरे-धीरे ही सही...अन्ततः कन्डक्टर को इस बात पर सहमत होना पड़ा। माहौल काफी बिगड़ चुका था और समय तो इतना जाया हो चुका था कि कुछ पूंछो मत।
बस धीरे-धीरे आगे बढ़ी तो कन्डक्र ने यह काम पीछे से शुरू किया, जो टिकट लेकर बैठे थे वह भी टिकट दिखाने में कोई रूचि नहीं ले रहे थे, कई-कई बार आवाज देने पर ही उन्हें सहयोग मिल रहा था। आधी बस के टिकट का मिलान करने में गाड़ी दस किलोमीटर से भी आगे निकल गई थी। कन्डक्टर की चिन्ता बढ़ती जा रही थी कि कहीं आगे चेकिंग वाले खड़े न मिल जाँय।
उन्होंने ड्राइवर से गाड़ी रोक लेने की बात कही तो आगे बैठी कई सवारियाँ कुनमुना उठी। यह बात ड्राइवर को भी नागवार गुजरी पर उसकी मजबूरी है कि वह कन्डक्टर की बात माने, पर उसने गाड़ी और धीमी चलाने की बात कह कर स्पीड धीमी कर दी और उम्मीद जताई कि कुछ दूरी के अन्दर कन्डक्टर वेटिकट का मसला हल कर लेगा। दो साल की नौकरी में रामलाल आज पहली बार इतनी सांसत झेल रहे थे। फिर भी राम का नाम लेकर उन्होंने ड्राइवर से हामी भरी और अपने काम में जुट गये।
एक सज्जन इतनी गहरी नींद में झूल रहे थे कि बगल बैठे व्यक्ति का कन्धा लगभग उनके सिर का आशियाना बन चुका था। वे बेचारे संकोच में अपने में ही सिकुड़े हुए थे। हाँ कभी कभार उनके सिर को अपने कंधे पर आने से बचाने का उपक्रम कर लेते थे। कन्डक्टर ने उन्हें झकझोरा-"भाई साब अपना टिकट तो निकालिये...मिलान करना है..." हड़बड़ा कर उठे सज्जन की त्यौरियाँ चढ़ गई. आँखंे वैसे भी लाल थी...उन्होंने अजीब-सा मुँह बनाया और मुँह के किनारे से बह आई लार को पोंछते हुए चिल्ला उठे...' अबे क्या बदतमीजी है। मैं बिना टिकट चल रहा हूँ पूरे सफर भर तुम यही चेक करोगे...जा बैठो अपनी जगह पर और हमें डिस्टर्ब न करो, हमारे पास टिकट है। "
-'पर वही तो हम देखना चाहते हैं-मिलान ज़रूरी है...एक आदमी बिना टिकट चल रहा है।'
-' तो अब तक क्या कर रहे थे...इतना भी गणित नहीं आता तो यहाँ क्या करने आ गये...सरकार कम चूतिया थोड़े ही है। लल्लू जगधर जो भी मिला थमा दिया बैग। "
-'पर महाशय हमें पहले टिकट देखना है, मिलान करना है। अन्यथा हम गाड़ी आगे नहीं चलवायेगे।'
-'क्या कहा? अरे वाह यह बस तुम्हारे-दोनों के बाप-दादों की है? और हमें लल्लू पंजू समझ रखा है...तुम्हे नौकरी करना है या नहीं।'
दोनों के बेमतलब की तू-तू, मैं-मैं में आखिरकार कइयों को कूदना पड़ा। एक स्वर में लोगों की आवाज का असर पड़ा-'तो भाई अगर टिकट है तो दिखा दीजिए क्यों बहस में समय बरबाद हो..." फिलहाल उनके टिकट का मिलान हुआ और इस झाैंवझौंव के बीच गाड़ी अपनी सुस्त रफ्तार में भी 5-6 किमी0 आगे बढ़ गई. अभी तो आधी बस की चेकिंग बाकी थी। कन्डक्टर रामलाल अन्दर ही अन्दर इन सबके व्यवहार से खिन्न हो उठे थे। रेंगते-रेंगते बस मुसाफिरखाना के बस स्टाफ से बिना रूके आगे बढ़ जाना चाहती थी। यह रामलाल ने तय भी किया था किन्तु बाज़ार में एक फर्लांग से भी अधिक लम्बे जाम के कारण ड्राइवर को मजबूरन बस खड़ी करनी पड़ी। फिर क्या था भारी संख्या में खड़ी सवारियों का जबरदस्त रेला बस के अन्दर घुसने को बेताब नजर आया। कन्डक्टर क्या करता?' वह चुप्पी साध गया-'जो हो रहा है होने दो इसे कौन रोक सकता है। हम कहाँ आई0ए0एस0 आई0पी0एस0 हैं जो फोर्स के जरिये इन पर काबू पाते... अब तो आज बेड़ा गर्ग हो ही गया है।' कन्डक्टर ने अपने सामने लगे राड़ पर सिर टिका दिया...और जाम खुलने तक भगवान के हवाले बस को छोड़ दिया।
उसने आंखें बन्द कर ली...तो एक खास किस्म की दुनिया में जा घुसा...नरही गांव के राम भरोसे का एकलौता लड़का रामलाल अपने गांव का या यूँ कहिए पूरे खानदान का पहला लड़का है जिसने एम0ए0 किया है और नौकरी की दौड़ और परीक्षाओं की सिर फुटैव्वल में, आरक्षण में आने के बावजूद, अभी तक धक्के खाता रहा है पर अभी दो साल से उसे संविदा पर यह कन्डक्टरी नसीब हुई है। लेक्चरर बनने का उसका सपना उस समय टूटा था जब वह लिखित परीक्षा में पास होने के बावजूद तीन लाख की व्यवस्था नहीं कर पाया था। इन्टरब्यू पेनल में शामिल डॉ0 बखारी लाल अम्बेडकर ने उसे अलग से मिलने का न्यौता दिया था और मुलाकात वेनतीजा रही थी क्योंकि उनके द्वारा लम्बी रकम की फरमाइश वह पूरा नहीं कर पाया था। सिर्फ़ इतना कह कर उनके आवास से बाहर आ गया था कि 'आप शायद अपना अतीत भूल गये हैं। वर्तमान ने आप को अहंकारी और अधिकार सुख की मादकता ने आप की संवेदना को सुखा दिया है।' बाद में पता चला था कि उसी गांव के जोखन पासी, जो बैंक में चपरासी हैं, के लड़के को साढ़े तीन लाख की अन्तिम बोली पर नौकरी मिल गई थी।
रामलाल कई बार मर्माहत हो चुके हैं। जब भी बस की कन्डक्टरी करने के दौरान अपमानित होते उन्हें अक्सर अपने वर्तमान पर अतीत के खूनी दांत गड़े नजर आते। एक बार वे सफाई कर्मचारियों की बम्पर भर्ती में भी शामिल हुए थे। कार्यानुभव के दौरान झुण्ड के झुण्ड नव युवकों को गन्दगी से पटे बिजबिजाते नालोें में कुदा दिया गया था। गांठ-गांठ भर कीचड़ और सड़े कूड़े-कचरों की बजबजाती गंध की सफाई करने का जज्बा देखकर वे सिहर गये थे-' हे भगवान ऐसी भी नौकरी के लिए इतना मारा-मारी...बी0ए0 की बात तो जाने दें, एम0ए0 बी0एड्0, एम0एड्0, कुछ तो इसके बाद एल0एल0बी0 में भी दाखिला ले चुके थे। अडोस-पड़ोस के तानों से बचने के लिए कुछ तो करना ही पड़ता है। नौकरी जीवन संचालन के लिए कितनी महत्त्वपूर्ण और ज़रूरी है... सवर्ण हों या अवर्ण...सब एक दूसरे से इस साक्षात्कार में आगे निकल जाना चाहते थे...युवकों का एक ही लक्ष्य-मकसद था कि अधिकारियों की निगाह में ये साबित कर लें जांय कि सफाई कर्मी के सारे गुण उनमें मौजूद हैं। रामलाल शुरू से ही बड़े मेहनती थे..., साफ-सफाई करने से उन्हें परहेज नहीं था। निर्धारित समय से, काफी पहले ही उन्होंने अपना कार्य पूर्ण भी कर लिया था किन्तु अगले दिन मौखिक साक्षात्कार में उन्हें सफलता मिलने के आसार नहीं दिखे। बाद में पता चला कि यहाँ गरीब-अमीर, सवर्ण-अवर्ण सब के लिए नियुक्ति-नियम एक जैसा बनाया गया था। एक लाख भला कहाँ से लाते। यह घाव उनके दिमाग में रिसता रहा और उधर गन्दले नाले के पानी से ऐसा इन्फेक्शन हुआ कि महीनों तक वे अपने दोनों हाथ व दोनों पाव खुजला-खुजला कर लहूलुहान करते रहे।
अब उन्हें थोड़ा तो संतोष है कि वे सफाई कर्मचारी नहीं बने कन्डक्री उसके मुकाबिले तो सम्मानित नौकरी है ही। वे इसी सोच में डूबे थे कि अचानक पुलिस की गाड़ियों के हार्न की आवाज सुन कर चौंक पड़े। जाम खुलवाने पुलिस फोर्स आ गई थी। अब धीरे-धीरे रास्ता खुलने लगा था। बस की तमाम सवारियाँ अभी भी राम भरोसे ऊँध रही थीं। गर्मी बेतहाशा बढ़ गई थी। खड़ी बस भट्टी की तरह तप रही थी। कुछ खिड़कियों के शीशे टूटे हुए थे सुबह जिनसे ठण्डी हवा आ रही थी इस समय लू के थपेड़े चेहरा झुलसा रहे थे। लोग पसीने से तरबतर थे फिर भी झूूम-झूमकर कर एक दूसरे पर गिर रहे थे। ड्राइवर ने अपनी शर्ट उतार दी थी। रह-रह कर गमछे से बदन पोंछ लेता था। मूंछों की कोरों से टपकती पसीने की बूंदे रिमझिम बारिश में टपकती ओरौनी की मानिंद चू रही थीं। जाम के खुलते ही उसने बस की स्पीड में बढ़ोत्तरी की...उसके झटके से सवारियाँ चैतन्य हुई. ड्राइवर ने कन्डक्टर को याद दिलाया... "क्यों रामलाल जी बेटिकट यात्री का मसला हल कर पाये या नहीं।"
अब कन्डक्टर को होश आया कि यह काम तो रह ही गया है। पर अब क्या करते। नये सिरे से बाज़ार में कई सवारियाँ बस में घुस चुकी थीं... आधी बस की चेकिंग की मेहनत पर पानी फिर गया और उन्हांेने नई सवारियों का टिकट बनाना शुरू कर दिया।
-'यहाँ से कौन-कौन बैठा है ज़रा हाथ में पैसा बढ़ाओ-जल्दी करो, वरना बस आगे खड़ी करनी पड़ेगी...वैसे ही आज पता नहीं हम सब किसका मुँह देख कर उठे हैं। आप में से किसी के सामने से बिल्ली ने तो रास्ता नहीं काट दिया था आज, या किसी सवारी को खाली बाल्टी तो रखी नहीं मिली घर से निकलते वक्त। चलो जाने दो निकालो पैसा भईया जल्दी करो।'
टिकट काटने की जल्दी में वे एक सवारी के टिकट के पीछे वापसी का पैसा लिखना ही भूल क्या गये कि उसने हंगामा ही खड़ा कर दिया-
-' इतनी बड़ी धूर्तई कर रहे हो कन्डक्टर, इसी बेईमानी पर तो सरकार का भट्ठा बैठ रहा है...अरे कितनी भी ईमानदार सरकार क्यों न आ जाये पर तुम्हारे जैसो से देश की मिट्टी पलीद होकर ही रहेगी... अरे वेतन से पेट नहीं भरेगा तो इस तरह की चोरी से क्या अमीर बन जाओगे..."और अपना टिकट ऊपर उठाकर सबको दिखाते हुए बोला-" देखो मैंने पांच सौ की नोट दी और इसके पीछे वापसी का पैसा लिखा तक नहीं अब बताओ ये मुकर जायं तो...? मैंने तो देख लिया नहीं तो...मेरे ही पैसे से इनके घर वाले आज ऐश करते"।
बरदास्त की भी एक हद होती है...और अब इस हद को रामलाल पार चुके थे...उनका स्वाभिमान फनफना उठा...' क्यों जी, जल्दबाजी में हुई भूल-चूक को बेईमानी से जोड़ रहे हो... मैंने तो अभी इस चूक से इन्कार नहीं किया और न ही तुम्हारे नोट को नकारा ही मैंने...फिर इतना बड़ा लेक्चर झाड़़ रहे हो, तुम्हें सारी दुनिया बेईमान ही नजर आती है...? अब अपनी जुबान पर ताला लगाओ नहीं तो...? "
-'क्या कर लोगे...नहीं तो...बोल क्या कर लेगा तू...' सवारी की आवाज और तेवर अब बदतमीजी पर उतर आया था।
-'नहीं तो तेरे खिलाफ सरकारी काम काज में बाधा डालने और जाति सूचक गाली देने के खिलाफ एफ0आई0आर0 दर्ज करा दूंगा। ड्राइवर साहब ले चलिये गाड़ी थाने में।' कन्डक्टर ने यह बात झल्ला कर कहा था...फिर भी उन्हें थोड़ा सुकून मिला। इतना कहना इस समय उनकी मजबूरी थी। इतना सुनते ही सवारियाँ कुनमुनाने लगीं। हे भगवान। यह तो नया झमेला आ खड़ा हुआ। पुलिस का लफड़ा हुआ तो अब तो यह बस आगे बढ़ने से रही...रही-सही गंुजाइश एकदम से खत्म होती जान पड़ी।
उनमें से एक बोल पड़ा...'देखो भाई आप जबर्दस्ती कन्डक्टर पर इल्जाम लगाने लगे...पहले पैसे वापस मांगने चाहिए थे न मिलते तो दबाव बनाते, अभी से ही आपने कन्डक्टर साब को चोर, उचक्का सब बना दिया... यह तो कोई बात नहीं हुई।' इसका समर्थन किया कन्डक्टर की सीट के बगल बैठे वकील पी0वाई0एस0 पटेल ने-'देखो महोदय, आप अपनी बात वापस ले लीजिए, कन्डक्टर ने अगर थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी तो कई धाराएँ लग जायेंगी और जमानत के लाले पड़ जायेंगे...आप कन्डक्टर से पैसे वापस करने की बात कर लेते।' वकील साहब जिन्हें आज अभी तक चुप बैठे देखकर अचरज हुआ था लोगों को..., इण्डस्ट्रियल एरिया के इफ्को खाद फैक्ट्री के इंजीनियर नाथूराम साहू ने धीरे से कोंचा-'आप की बात लाख टके की ह, ै वकील जो ठहरे...फिर भी अभी तक आप की चुप्पी यह बता रही थी कि आप के पास कोई खास काम नहीं है आज कचेहरी में...फोकट में क्यों घर छोड़ दिया आखिर...पटेल जी?'
-'किसी वकील के पास काम न हो, मुवक्किल न हों, किसी डाक्टर के पास मरीज न हों और किसी नेता के पास पद और दस-बीस चमचे न हों तो समझो वह मर गया। ऐसा कैसे हो सकता है साहू जी...अरे आज तो कई मुकद्मे बहस में है पर क्या करूँ थक हार कर बैठा हूँ...एस0डी0एम0 और तहसीलदार की कोर्ट में आज लगता है समय से पहुँच ही नहीं पायेंगे। कही खारिज न हो जाय बड़ी अंकडू है कोर्ट...समय का बड़ा पाबन्द है। बहुत दिनों बाद तो आज मुवक्किलों से बकाया फीस मिलनी है लगता है गई भैंस पानी में आज भी। अब क्या बताएँ कन्डक्टर बेचारे की क्या गलती है इसमें, पर सब के सब उसी पर पिले पड़े हैं।' पटेल जी पूरे बहस के मूड़ में दिखाई दिये।
वे सज्जन कुछ प्रतिवाद करना चाह रहे थे कि कई सवारियाँ एक साथ हो गईं और उनकी बोलती बन्द कर दी-'गाड़ी चलने दो, वरना ठीक नहंीं होगा...' की आवाज पर वह व्यक्ति सहम गया। एफआईआर की बात उसके दिमाग में कौंधने लगी थी।
अब कन्डक्टर की हिम्मत बंधी। ड्राइवर ने एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ा दिया और फिर वह धीरे-धीरे कोई भोजपुरी गीत गुनगुनाने लगा जिसमें कमर हिलने से धरती हिलने तक के जोरदार अश्लील भाव समाहित थे। ड्राइवर के होठ़ों पर रह-रह कर आ रही मुस्कान इसका प्रमाण प्रस्तुत कर रही थी।
कन्डक्टर ने अपने को समेटा और अपने काम में लग गया। चढ़ी सवारियों का टिकट बनाया और बाकी पैसे तुरन्त लेने की आवाज लगाई. अब उन्हें पुनः सवारियों केे मिलान का होश आया। जल्दी-जल्दी गिनती लगाई पर इस बार भी टोटल का मिलान नहीं हो पाया और अबकी बार एक के बजाय जो सवारियाँ बेटिकट हो गईं...'हे भगवान! यह क्या हो रहा है? सारी विपत्ति आज ही के दिन झेलनी थी...' वे ड्राइवर के बगल जाकर बोनट पर बैठ गये। ड्राइवर को अपनी समस्या बताई कि ड्राइवर ठहाका मारकर हंस पड़ा...सवारियाँ सतर्क हो आईं कहीं कोई अनहोनी तो नहीं घटने वाली है।
-'वाह! भाई कन्डक्टर रामलाल... तुमने भी क्या सोचा रहा होगा नौकरी पाने के बाद और सरकार ने भी क्या सोचा होगा नौकरी देने के साथ... शायद दोनों की काबिलियत यहाँ संदिग्ध ही नजर आई...बोलो अब क्या चाहते हो सवारियों के मिलान के लिए गाड़ी खड़ी करवाना या फिर स्वंय मार खाना चाहते हो तय करो और जल्दी बताओ...?'
ड्राइवर ने गमछे से चेहरा साफ किया। पर शीशे में वह धुंधला ही दिखाई पड़ा...तत्काल उसकी समझ में आया कि नहीं...शीशा साफ करना ज़रूरी है तभी चेहरा साफ दिखेगा।
कन्डक्टर ने अब तय कर लिया कि बस रोके बिना वह वेटिकट यात्री को खोज निकालेगा। एक की समस्या अभी हल ही नहीं हो पाई एक बढ़ कर अब दो हो गये हैं। बोनट से उठ कर वे पीछे गये और फिर से टिकट का मिलान शुरू किया। दो-तीन पंक्तियाँ चेक करने के बाद थोड़ा आगे बढ़े तो उनका माथा ठनका-'
-'अरे वह कहाँ गया' कन्डक्टर की आश्चर्य मिश्रित आवाज बस में गूँज गई.
-'कौन? किसके बारे में पूँछ रहे हो कन्डक्टर साब?' तब किसी सवारी की आवाज आई.
-'अरे भाई वही नवजवान जो यहीं सीट पर बैठा था और हर वक्त गाली-गलौज करने और झगड़ने के मूड़ में दीखता था।'
-'कहीं बाज़ार में उसकी बस छूट तो नहीं गई. अब तो बस काफी दूर चली आई है। यह तो गड़बड़ हुआ।' किसी अन्य सवारी की शंका सार्वजनिक हुई.
-हम भी सोच रहे हैं कहीं छूट तो नहीं गया? पर वह तो काफी दबंग था यह गलती नहीं हो सकती है उससे...कोई और बात हो सकती है। '
कन्डक्टर की सोच गोते लगाने लगी...फिर भी वे अगली सवारी के टिकट का मिलान करने आगे बढ़ गये, पर उनके दिमाग में कुछ और ही गूंज रहा था।
कन्डक्टर का मन फिर पीछे मुड़ा...बगल की सीट पर बैठी सवारी से उन्होंने तहकीकात की-'क्या वह आदमी आप से बात कर उतरा है...?'
-'नहीं, जाम लगी जगह पर वह उतरा तो था...हमने सोचा-पान-सिगरेट या फिर पेशाब करने की ज़रूरत रही होगी...' सवारी ने अनभिज्ञयता जाहिर की।
-'बस्सऽऽ मिल गया...स्साला। चिरकुट कहीं का...बड़ी-बड़ी बातें कर रहा था...बड़ी जल्दी थी हरामी को...बस रोके नहीं, बस जल्दी चलाओ देर हो रही है...कमीना हराम खोरों का बाप निकला। चोरों की तरह इतना सफर तय कर लिया और गंतव्य पर पहुंच कर चूहों की तरफ बिल में घुस गया...ड्राइवर साब, मिल गया चूहों की औलाद।' कन्डक्टर रामलाल इतनी जोर से चिल्लाये कि ड्राइवर को अचानक ब्रेक मारनी ही पड़ी... बस रूकते ही वे अपनी आदत के मुताबिक बस से कूद गये और कन्डक्टर की तरफ आ खड़े हुए...' क्या हुआ रामलाल, क्या मिल गया? कौन मिल गया...? कुछ तो बताओ? "
-'अरे वही, चोरों की तरह दुम दबा कर ऐसा उतरा कि किसी को भनक तक नहीं लगी। टिकट चोर कहीं का...' कन्डक्टर ने उसका हुलिया बयान किया तो अन्य सवारियों का भी ध्यान उधर गया।
चारों तरफ से थू-थू की फुसफुसाहट आने लगी थी। अपने-अपने अनुभव, अपना-अपना राग लोग अलापने लगे थे। पीछे से किसी ने तंज कसा-'
'विपक्षी रहा होगा शायद। इतनी बड़ी दबंगई और मुफ्त में यात्रा का पूरा लाभ और कौन ले सकता है?'
-'हो सकता है...आम आदमी बेचारा तो टिकट पहले ले लेता है। भले ही सीट पर चलता पुर्जा वाले क्यों न कब्जा कर लें...' किसी ने सच का बयान किया।
-'पर भाई सत्ता पक्ष के लोग क्या ऐसा नहीं कर सकते...? टोल टैक्स तक न देने के लिए वे मारपीट कर लेते हैं तो टिकट काहे लेंगे? आखिर बस-रेल तो सब उन्हीं की होती है।' इं0 साहू जी जो कभी जिला जन सरोकार कमेटी के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं और अब फैक्ट्री में यूनियन के सचिव हैं, ने धीरे से बर्रय (ततैया) की छत को कोंच दिया।
-' अरे कोई निर्दलीय भी तो हो सकता है। ऐसे लोग पक्ष-विपक्ष-दोनों को साधे रहते हैं...लाभ जहाँ से मिले, जैसे भी मिले-लेकर ही मानते हैं। , पीछे से किसी की आवाज आई.
अब बारी वकील साहब की थी, निर्दलीय की बात उन्हें अपने ऊपर तंज लगी। वे निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में कई चुनाव लड़ चुके हैं। बोल पडे़-
-'चुनाव में निर्दलीय न हो तो सत्तापक्ष का मनोबल टूटता ही नहीं है। कभी-कभी पूर्ण बहुमत न मिल पाने पर निर्दलीय ही सरकार बनाते हैं और उगुँली पर नचाते-रहते हैं...तो आखिर इन्हीं की सौदेबाजी क्यों बुरी लगती है लोगों को...? एक बार में जो खींच सके-खींच लेते हैं। बाद में तो सरकार ही माल पुआ उड़ाती है। मैं तो पैसे के लिए नहीं, पार्टियों को डराने के लिए लड़ता हूँ...अब तुम्हीं बताओ मैं बैठ भले जाता हूँ पर किसी पार्टी की सरकार आये मेरा कोई काम कभी रूका है? इनकी नकेल तो कसना ही पड़ता है...मेरे पास दो चार जिलों में पचासों हजार वोट जो हैं।'
-'वोटर बहुत चालाक हो गया है वकील सांब...अपने घर के वोट की कोई भी गारंटी नहीं ले सकता तो पचास हजार की बात क्या करते हैं आप।' नाथूराम साहू ने प्रतिवाद किया।
-'सवाल यह नहीं है, सवाल यह है किसी के दिमाग में कितना भय पैदा कर सकते हैं आप, फिर आप धीरे से उसे विश्वास दिला सकते हैं कि इतने वोट आप को ही मिलेंगे।' वकील ने गूढ़ रहस्य पर से मानो पर्दा उठाया हो।
बात अब राजनीति की झौं-झौं में मस्त थी। सब के अपने-अपने नजरिये हैं। आखिर समय काटने के लिए राजनीति से बढ़िया और कौन विषय हो सकता है?
-'बस करो भाई यह राजनीतिक समस्या नहीं है। यह सामाजिक समस्या है जिससे कन्डक्टर जूझ रहा है। अनायास बहस में काहे उलझ रहे हैं...' यह उन सज्जन का सुझाव था जो कुछ समय पहले समाज सुधार को लेकर चिंता जता चुके थे।
माहौल शांत हुआ तो अन्दर बैठे लोगों ने देखा, बस से उतरी अधिकांश सवारियाँ सड़क के किनारे कतार बद्ध होकर, कमर पर हाथ रखे तनाव ढ़ीला कर रही थीं।
-'चलो एक समस्या का समाधान तो हुआ... गया तो गया, गनीमत है इस बीच चेकिंग नहीं हुई।' ड्राइवर ने लम्बी साँस छोड़ी और कन्डक्टर की तरफ इशारा करते हुए कहा-'इन लोगों को आवाज दो...बस स्टार्ट करने चल रहा हूँ।'
बस के स्टार्ट होते ही लोग दौड़ कर बस में आ धमके.
-'चलो कन्डक्टर साब,' अब तो तनाव मुक्त हो जाओ...'किसी सवारी की आवाज आई तो अपने में खोया कन्डक्टर चौकन्ना हुआ। उन्होंने तेज आवाज में सीटी मारी... बस पर चढ़ते-चढ़ते उन्होंने एक नजर दूर तक डाली' शायद वह कहीं दिख जाय। '
-'ड्राइवर साब अब रास्ते में कोई सवारी नहीं उठानी है...' कह कर रामलाल निश्चिंत होकर बैठ गये। वे विचारों में ऐसा खोये कि यह भी होश नहीं रहा कि अभी एक बेटिकट यात्री की शिनाख्त उन्हें करनी है। कुछ लोगों के पैसे वापस होने हैं...वे अपनी सीट पर बैठे-बैठे ऊँघने लगे कि अचानक चाैंके. मन उलथाया लगा कुछ अन्दर घुमड़ रहा है। उन्होंने आंखे मिचमिचाई...बल पूर्वक खँखारा और लोंदा पर थूक मुँह से उगल दिया बाहर...उस नवजवान की बदतमीजी का बदला लेकर वे निश्चिंत हो गये थे, उन्हें एक तरह का आत्म सुख महसूस हुआ।
बाहर लू का प्रकोप बढ़ गया था...दोपहरिया ढ़ल रही थी...बस किस रफ्तार में जा रही थी यह महसूसने की ज़रूरत अब नहीं रह गई थी उन्हें।
बस कब पहुँची होगी? बस में बैठी सवारियों के परिजनों को अभी इसकी कोई सूचना नहीं मिली है।