कंबोडिया और वियतनाम / संतोष श्रीवास्तव
विश्व धरोहर अंगकोरवाट से चर्चित कंबोडिया
सुना था कंबोडिया हिंदू मंदिरों का प्राचीन देश है। प्राचीन काल में जब संस्कृत वहाँ की राजभाषा हुआ करती थी तब कंबोडिया को कंबोज कहते थे। वैसे इसे कंपूचिया भी कहते हैं। ऐसा लगता है जैसे एक भव्य नाम के कई लाड़ले नाम हैं।
कंबोडिया के सिआमरिप शहर में छत्तीसगढ़ सृजन गाथा डॉट कॉम के द्वारा आयोजित एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिए मैंने जब बैंकॉक के सुवर्ण भूमि अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कदम रखा तो बिल्कुल भी गुमान नहीं था कि मैं एक ऐसे देश में जा रही हूँ जहाँ भारतीय धर्म, सभ्यता, संस्कृति, साहित्यिक परंपराएँ, वास्तुकला और भाषा तक में भारतीयता की गहरी छाप देखने मिलेगी। चूँकि हम बैंकॉक से जा रहे थे अतः पोईपेट (poipet) बॉर्डर पर हमें वीजा और इमीग्रेशन के लिए काफी वक्त गुजारना पड़ा। उस वक्त को हमने वहाँ के अजीबोगरीब शक्ल वाले फलों को चखने में गुजारा। एक फल गोल चीकू जैसा लेकिन ऊपर से सेही के काँटों (नर्म) का जाल... छीलने पर लीचीनुमा मीठा फल निकला। एक अनन्नास की शक्ल का गहरे बैंगनी रंग का फल... छीलने पर मीठे मीठे ताड़ के गोलनुमा चार फल निकले। एक फल डंडी सहित बिक रहा था। लंबी डंडी में बेर बराबर भूरे फल लगे थे जिन्हें बिना छीले खाना था... इतने मीठे जैसे शक्कर की पोटली... इमीग्रेशन के बाद हमारी बस कच्चे पक्के धूल उड़ाते रास्तों से गुजरने लगी। आसपास भारतीय गाँव जैसा दृश्य था। छोटे-छोटे फूस और खपरैल और कुछ टीन के शेड वाले मकान जिनके बाहर आँगन में कंबोडियाई औरतें घरेलू कामकाज में व्यस्त थीं... मर्द आराम से बैठे तंबाखू खाते हुए बतिया रहे थे।
कंबोडिया दक्षिण पूर्व एशिया का प्रमुख देश है। आबादी एक करोड़ बयालीस लाख, इकतालीस हजार छह सौ चालीस है। यहाँ की मुद्रा राइल है। यहाँ संवैधानिक राजशाही और संसदीय प्रतिनिधित्व लोकतंत्र है। राजशाही है तो राजा भी हैं नोरोदम शिहामोनी। राजधानी नामपेन्ह है। सिआमरिप के बाद हम नामपेन्ह भी घूमेंगे। कंबोडिया का आविर्भाव शक्तिशाली हिंदू एवं बौद्ध खमेर साम्राज्य से हुआ जिसने ग्यारहवीं से चौदहवीं सदी के बीच इंडोचाइना पर शासन किया था। खमेर साम्राज्य के कारण ही यहाँ की भाषा खमेर कहलाती है। हम जिन रास्तों से गुजर रहे थे अधिकतर औरतें काम करती मिलीं... मर्द सिर्फ पैंट या जींस पहने बिना शर्ट के... बाइक या स्कूटर पर दिखे... शर्ट भले नहीं थी पर हेल्मेट जरूर लगाए थे और पैरों में जूतों की जगह रबर की चप्पलें... मुझे कंबोडिया गरीब देश लगा जहाँ की अर्थ व्यवस्था वस्त्र उद्योग, पर्यटन और निर्माण उद्योग पर आधारित है। यहाँ चावल, तंबाखू, कहवा, नील और रबर की खेती होती है। हालाँकि भूमि उपजाऊ है पर श्रम नहीं के बराबर। कुछ ही खेत दिखे बाकी विस्तृत उपजाऊ जमीन बिना खेती के खाली पड़ी है क्योंकि उस पर खेती करने के लिए श्रमिक नहीं मिलते। ऐसा क्यों है मेरी समझ से परे था... क्यों स्त्रियाँ ही श्रम करती हैं पुरुष नहीं जबकि विधाता ने कंबोडिया को प्राकृतिक खूबसूरती और उपजाऊ भूमि प्रदान की है। कंबोडिया को हेलीकॉप्टर से देखो तो तश्तरी के आकार की एक खूबसूरत घाटी दिखती है। घाटी में मीकांग नदी (जो कंबोडिया की प्रमुख नदी है) उदाँग नदी और शीशे सी चमकती तांगले झील है। गझिन हरियाली से भरे घने और गहरे जंगल हैं। चावल तो यहाँ बहुतायत से पैदा होता है इसलिए चावल और मछली यहाँ से निर्यात भी की जाती है। कंबोडिया को अंडमान सागर और दक्षिण चीन सागर घेरे है जिन पर बड़े-बड़े जलयान चलते हैं। निश्चय ही व्यापार के लिए चलते होंगे।
एक देश से दूसरे देश की सरहद पार कर हम थके मांदे जब सिआमरिप पहुँचे तो शाम हो चुकी थी पर सूरज चमक रहा था। रास्ते से ही डिनर लेते हुए हम होटल पेसिफिक पहुँचे जो सिआमरिप में हमारा ठिकाना था।
सुबह दस बजे सम्मेलन का उद्घाटन सत्र था जिसकी अध्यक्षता मुझे करनी थी। हॉल में लेखक कम साहित्य के रसिक अधिक थे जो मेरे लिए बड़ा प्यारा तजुर्बा था क्योंकि ज्यादातर सम्मेलनों में लेखक ही मंच पर होते हैं और लेखक ही श्रोता भी। संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों के बीच टी ब्रेक और लंच ब्रेक का भी इंतजाम था। सम्मेलन की अवधि सुबह दस से रात के नौ बजे तक की थी। बावजूद इसके संगोष्ठी के सभी सत्र सफलतम रहे। अंतिम सत्र काव्य विधा पर था। अभी मैंने अपनी कविता की शुरुआत ही की थी कि हॉल में हलचल सी शुरू हो गई। अप्सरा शो का समय निकला जा रहा था जिसकी प्रवेश टिकट सभी ने पहले से खरीद ली थी। आयोजक साहित्य की गंभीरता वश सत्र कैसे बीच में खत्म करते, लिहाजा तय हुआ पहले अप्सरा शो देख लिया जाए फिर लौटकर अंतिम सत्र होगा जिसमें प्रतिभागियों को प्रतीक चिह्न और प्रमाण पत्र दिया जाएगा।
एक बहुत बड़े कंपाउंड में काफी बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटकों के बैठने की व्यवस्था थी और आसपास बुफे डिनर की भी... अप्सरा शो जैसा कि मेरा अनुमान था भारतीय आध्यात्म पर आधारित स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक पर तैयार नृत्य नाटिका थी जिसकी साज सज्जा, परिधान, श्रृंगार, नृत्य मुद्राएँ सब पर भारतीय नृत्य कला की छाप थी। नृत्य अनवरत चल रहा था। बीच में दर्शक डिनर भी परोस लाते। जब मैं डिनर लेने टेबिल के पास पहुँची तो मेरे खाने लायक वहाँ कुछ भी न था। कंबोडियाई जुगनू, टिड्डी, मच्छर, मकड़ी, कॉकरोच, मेंढक, साँप आदि सब तरह के कीड़े मकोड़े खाते हैं। यही सब कुछ बड़े बड़े बर्तनों में चावल के साथ रखा था। उफ... मैं तो उबकाई दबाकर चुपचाप अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गई। किसी ने कहा था कि दाहिनी तरफ के स्टॉल में प्याज, आलू के पकौड़े हैं पर मेरा मन खाने से उचट गया था। क्या पता पकौड़ों के साथ परोसी जाने वाली चटनी भी इन्हीं कीड़े मकोड़ों से बनी हो। वैसे लाल चीटी की चटनी तो मेरे भारत के बस्तर जनपद और बुंदेलखंड के आदिवासी भी खाते हैं।
अप्सरा शो से लौटने के तुरंत बाद अंतिम सत्र संपन्न हुआ। सुबह हमें सिटी टूर करना था जिसमें प्रमुख अंगकोरवाट है जो वर्ल्ड हेरिटेज में गिना जाता है। लिहाजा हम शुभरात्रि कहकर अपने-अपने कमरों में सोने चले गए। कमरे में मेरी पार्टनर प्रख्यात लेखिका डॉ. प्रमिला वर्मा थीं। मैंने उनके साथ मिलकर एक उपन्यास लिखा है "हवा में बंद मुट्ठियाँ" जिसके आठ चैप्टर मैंने और आठ प्रमिला जी ने लिखे हैं। महिला लेखकों के द्वारा इस सहयोगी लेखन को राजेंद्र यादव जी ने अभिनव प्रयोग कहा है।
टूर की शुरुआत में ही हमें हिदायत दे दी गई थी कि अपना पर्स, कीमती सामान सँभालकर रखना है। पता भी नहीं चलेगा कब जेब कट गई। लेकिन इस हिदायत के बावजूद भी और पूरी सतर्कता के रहते एक पर्स वाले ने मेरे सौ डॉलर पार कर लिए और मेरी सावधानी कुछ काम नहीं आई। काफी देर मैं उदास रही। सौ डॉलर यानी छह हजार का नुकसान। लेकिन जब हम अंगकोरवाट के लिए रवाना हुए तो खुशगवार मौसम ने मुझे उदास नहीं रहने दिया। आसमान में बादल छाए थे और देर शाम तक चमकने वाला सूरज लापता था। ठंडी हवाएँ चल रही थीं। मौसम के इस खुशनुमा मिजाज ने अंगकोरवाट देखने की दुगनी ललक जगा दी। रास्ते में प्रवेश टिकट निकलवाना था तभी बस आगे बढ़ सकती है। काउंटर पर हमारे डिजिटल फोटो लिए गए जो टिकट में प्रिंट होकर आए। टिकट सुंदर और संग्रहणीय था। बस जहाँ पार्क हुई वहाँ से अंगकोरवाट के भव्य गेट तक पैदल जाना था। सामने दर्पण सी चमकती झील... झील नहीं नहर जिसे राजा इंद्र वर्मन ने एक झरने के पानी को तालाब जैसी जगह में एकत्रित कर झील बनवाई थी। झरने से झील तक का पंद्रह फुट चौड़ा और पाँच मील लंबा पानी का सफर मानो नहर बनकर आसपास हरियाली के दृश्य उकेरता चला गया। इसीलिए दरख्तों का घना रास्ता बेहद छायादार है। झील के उस पार किनारे से लगा अंगकोरवाट जो अति प्राचीन हिंदू मंदिर है और आकार में दुनिया का सबसे बड़ा धर्मस्थल है। इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय के शासन में (1112 से 53 ई.) हुआ। मीकांग नदी के किनारे बसे सिआमरिप शहर में यह मंदिर सैंकड़ों वर्गमील में फैला हुआ है। कंबोडिया ने इस मंदिर को राष्ट्रीय सम्मान देते हुए राष्ट्रीय ध्वज में अंकित किया है। हमारे तिरंगे के समान तीन धारियों वाला पहले सिलेटी फिर लाल और फिर सिलेटी ध्वज के बीचोंबीच यह सफेद रंग से अंकित है। यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से अंगकोरवाट एक है।
झील के इस पार सड़क है जिसके किनारे पर बरगद आदि के दरख्त कतार में लगे हैं। जिसकी छतनार डालियों ने रास्ते पर मंडप सा तान दिया है। डालियों पर बंदर धमाचौकड़ी मचाए थे। अंदर प्रवेश करते ही विशाल प्रांगण में मंदिर ही मंदिर... एक दिन में क्या इतने सारे मंदिर देखे जा सकते हैं? असंभव फिर भी अधिक से अधिक देखने के प्रयास में हमारे कदमों में गति आ गई। प्रसात क्रान, नीक पिएन, प्राहा खान और ता प्रोम मंदिरों को देखते हुए पत्थरों पर की गई कारीगरी ने हमें विस्मित कर दिया। ता प्रोम और प्राहा खान मंदिर बारहवीं शताब्दी में राजा जयवर्धन ने अपने माता पिता की स्मृति में बनवाए थे। ता प्रोम की शायद ठीक से देखभाल नहीं की गई। बरगद की मोटी मोटी जड़ें अजगर की तरह मंदिर को लपेटे हुए थीं। मंदिर की दीवारों पर भी जहाँ जगह मिली बरगद उग आया था।
बेयोन मंदिर जयवर्मन सप्तम ने 2282 से 1220 के दरम्यान बनवाया। इस मंदिर की ढेर सारी मीनारों (लगभग 54 तो गिनी मैंने) पर राजा जयवर्मन का चेहरा बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में चारों ओर बना है जैसे चारों दिशाओं का एक साथ निरीक्षण कर रहा हो।
अंगकोरवाट मंदिर हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित है। इसके पाँच शिखर हैं। बीच का शिखर काफी ऊँचा पूरे ब्रह्मांड के मध्य में स्थित सुमेरु पर्वत का प्रतिनिधित्व करता है। शिखर में देवता क्रिया कलाप करते नजर आते हैं। यह पाँच शिखर वाला मंदिर ब्रह्मा की नगरी कहलाता है। वैसे ब्रह्मा के मंदिर अजमेर के पुष्कर को छोड़कर मैंने कहीं नहीं देखे। इन शिखरों पर खुदी हुई सागर मंथन की सुंदर कृतियाँ रोमांचित कर रही थीं। इसके पश्चिम में महाभारत के कुरुक्षेत्र के दृश्य अंकित हैं। श्रीकृष्ण चक्र धारण किए हैं, भीष्म शरशैय्या पर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसी के सामने मानो हम त्रेता युग में पहुँच गए हों। लंका में श्रीराम, रावण और वानरों का संग्राम और राम से जुड़े उस काल के तमाम दृश्य उकेरे गए हैं। ऐसा लगता था जैसे अंगकोरवाट देवी देवताओं का विशाल मॉल है जहाँ हर एक देवी देवता बिराजमान हैं। शिव शंकर भी हैं, विष्णु लक्ष्मी भी... इस मंदिर का संपूर्ण आकार सुमेरु पर्वत जैसा है। चारों ओर की दीवारों पर क्षीर सागर उकेरा गया है। इस मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि यह पश्चिममुखी है जबकि विश्व के सभी मंदिर पूर्वमुखी होते हैं। खमेर भाषा में वाट का अर्थ मंदिर है और अंगकोर... नगर... यानी मंदिरों का नगर। अंगकोरवाट मिली जुली संस्कृतियों, सभ्यताओं और अध्यात्म के एक दूसरे में समाहित हो जाने का सबूत है। पहले इसका नाम वराह विष्णुलोक था। पूरा का पूरा महाभारत, पूरी रामचरितमानस, समुद्रमंथन के पत्थरों पर उकेरे गए दृश्य... बौद्ध मंदिरों का विशाल समूह है अंगकोरवाट... सचमुच विश्व धरोहर है यह।
मंदिर के गेट से बाहर आते ही पहले बूँदाबाँदी और फिर तेज बारिश शुरू हो गई। पहले तो हम लोग पेड़ के नीचे खड़े होकर बारिश के रुकने का इंतजार करते रहे। लेकिन बारिश नहीं रुकी और हमें टुकटुक लेनी पड़ी। टुकटुक एक ऐसा रिक्शानुमा वाहन है जिसमें आगे साइकिल की जगह बाइक होती है और टुकटुक का ड्राइवर बाकायदा हेलमेट पहने बाइक चलाता है। टुकटुक ने हमें पार्किंग प्लेस पहुँचा दिया फिर भी थोड़े बहुत तो भीग ही गए थे।
आज की रात कंबोडिया में आखिरी रात है। कल हम वियतनाम के लिए रवाना होंगे। डिनर के दौरान चर्चा का विषय कंबोडिया ही था। विश्व धरोहर के नाम से पूरी दुनिया में चर्चित कंबोडिया के निवासी अगर मेहनती होते तो इसकी उपजाऊ धरती सोना उगलती लेकिन वे मेहनती नहीं हैं और इसीलिए विकासशील देशों में इसकी गिनती नहीं है। सुबह बस से वियतनाम की ओर रवाना होते हुए मीलों फैली सूनी उदास धरती देर तक मेरी आँखों में चुभती रही।
साहस और चुनौती का प्रतीक वियतनाम
दुनिया के नक्शे पर वियतनाम अपनी बहादुरी के लिए एक रुपहले सितारे सा जगमगा रहा है जिसने दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरका के साथ बीस वर्षों तक लंबी लड़ाई लड़ी और उसे पराजित किया। मेरे लिए वियतनाम मेरे बचपन का वह हैरतअंगेज देश है जिसकी लड़ाई के किस्से सुनकर, पढ़कर मैं बड़ी हुई। आज उसी वियतनाम की धरती पर कंबोडिया और वियतनाम की धरती पर कदम रखते मैं रोमांचित हूँ। इतनी अधिक कि पासपोर्ट की लंबी प्रक्रिया भी मुझे अखरी नहीं। कंबोडिया से हम जिस बस में आए थे उसे सरहद पर ही छोड़ देना पडा। हम वियतनाम की बस में सवार हो गए।
अचानक तेज बारिश होने लगी। यहाँ बारिश का कोई ठिकाना नहीं, चाहे जब बरसने लगती है, चाहे जब धूप खिल आती है। हमने वियतनाम में चलने वाली दाँग मुद्रा कंबोडिया से ही ले ली। ठीक इसलिए रास्ते में पड़ने वाले गाँवों से हम फल आदि खरीद सकते थे। हमारे गंतव्य होचीमिन्ह पहुँचने में अभी काफी वक्त था। कभी जंगल, कभी गाँवों से गुजरते हुए लग रहा था जैसे मैं सपनों की खूबसूरत गली से गुजर रही हूँ और गली जिसमें मुहाने पर रुकी है वह एक छोटा सा गाँव... एक झोपड़ी के सामने कुछ वियतनामी औरतें या तो चटाई बुन रही थीं या करघा चला रही थीं। लग रहा था जैसे टीम वर्क हो। हम जिन जिन गाँवों से गुजरे औरतों को विभिन्न भूमिकाओं में देखा। कोई जड़ी बूटियाँ बेच रही है तो कोई स्थानीय शराब। अमूमन यही दृश्य थोड़े परिवर्तित रूप में होचीमिन्ह पहुँचने पर भी मिला। हम सफारे होटल के रिसेप्शन हॉल में रखे सोफों पर आराम से बैठे वेलकम ड्रिंक का मजा ले रहे थे लेकिन मेरी नजरें काँच के पार्टीशन के उस पार अपने दोनो हाथों, कंधों या फिर साइकिल पर सामान बेचती औरतों पर पड़ी। वे विदेशी ग्राहकों से मोलभाव कर रही थीं। अचानक होने वाली बारिश से बचने के लिए वे सामान प्लास्टिक के बैगों में भरे, सिर पर हैट लगाए बड़ी मुस्तैदी से डटी थीं। रिसेप्शन में भी औरतें, वेलकम ड्रिंक देने वाली भी औरतें ही... यानी की औरतों की यहाँ की अर्थ व्यवस्था में काफी बड़ी भूमिका है।
होचीमिन्ह विश्व का सबसे बड़े क्षेत्रफल (2095) वाला शहर है। पहले इसका नाम यहाँ बहने वाली नदी सेगॉन के कारण सेगॉन ही था। यह काफी विकसित और खूबसूरत शहर है। संग्रहालय, राष्ट्रपति का महल, अन्य राजकीय भवन, सुंदर बाग बगीचे, कसीनो, ऑपेरा, शॉपिंग मॉल, थियेटर और सबसे बडा बाजार बेनथॉन है। डिनर के लिए जब हम रेस्तराँ की ओर जा रहे थे रोशनी में नहाए होचीमिन्ह का स्थापत्य तिलस्मी नजर आ रहा था। डिनर के बाद हमने उस तिलिस्म को नजदीक से देखना शुरू किया। भीगी ठंडी हवा सुकून दे रही थी जबकि यहाँ का तापमान 30 से 32 तक रहता है। सूती कपड़े ही आरामदायक लगते है। रंग बिरंगे फूलों से सजा निवर्तमान राष्ट्रपति महल और उस पर फहराता लाल रंग का बीचोंबीच षट्कोण सितारे के चिह्न वाला राष्ट्रीय ध्वज और नदी के किनारे बिल्कुल मुंबई के मरीन लाइंस जैसा नजारा था। महत्वपूर्ण पर्यटन स्थलों को विशेष रोशनी से रोशन किया गया था। कुछ परिंदे जिनके पर नदी के काले से दिखते जल पर अधिक सफेद नजर आ रहे थे शायद भटक गए थे। उनके परों की आवाज बहुत देर बाद जाकर कहीं थम गई थी। दूर होचीमिन्ह विश्वविद्यालय की इमारत दिखाई दे रही थी जहाँ सन 2000 से हिंदी पढ़ाई जाती है और हिंदी वियतनामी कोश भी है जिसे वहाँ की प्राध्यापिका श्रीमती साधना सक्सेना और उनके एक विद्यार्थी ने मिलकर तैयार किया है। यह एक सुखद समाचार है। वियतनामी भाषा जिसकी लिपि पहले चीनी थी लेकिन अब परिवर्तित कर लैटिन वर्णमाला को स्वीकार कर लिया गया है बड़ी समृद्ध भाषा है उतना ही समृद्ध वियतनामी साहित्य भी। वियतनाम का इतिहास 2700 वर्ष पुराना है जिसके किस्से यहाँ की पाठ्य पुस्तकों में मौजूद हैं।
सुबह नाश्ते के बाद हमारा सिटी टूर के लिए निकले। जिन इमारतों को रात में देखा था अब वे सुबह की धूप में चमक रही थीं। सड़कों पर अधिकतर संख्या स्कूटरों की जिनकी तुलना में कारें कम थीं। स्कूटरों पर भी महिलाओं की संख्या अधिक थी। एक आदिवासी महिला सिर पर लकड़ी का गट्ठर उठाए सिग्नल पर खडी थी। गाइड ने बताया ये ब्लैक हमोंग समुदाय की आदिवासी महिला है। इस स्मुदाय की महिलाओं को जलाऊ लकड़ी लाने के लिए जंगलों में बहुत ऊँचाई तक जाना पडता है। आदिवासियों में भी विभिन्न समुदाय हैं। डोंगरिया कौंध समुदाय के आदिवासी जंगलों में रहते हैं लेकिन काम शहर में आकर ही करते हैं। एक बात और मैंने देखी। यहाँ सड़कों पर स्ट्रीट डॉग या बिल्ली कहीं नजर नहीं आते, यहाँ उनका मांस बडे चाव से खाया जाता है।
200 किलोमीटर फैली कू ची की सुरंगों की ओर बस ने रुख किया। 1 नवंबर 1955 से 30 अप्रैल 1975 तक चले वियतनाम युद्ध में कैसे इन दुबले पतले दिखने वाले वियतनामियों ने अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश को पराजित किया। यह बात कल्पना से परे थी। लेकिन जब कू ची की सुरंगें देखीं तो उनके युद्ध कौशल की मैं कायल हो गई। तेज बारिश में भी सुरंगें देखने के लिए हमने घने जंगल में प्रवेश किया। जंगल का रास्ता पथरीला शायद बारिश की वजह से ही बनाया गया था। जिसमें नाममात्र को भी कीचड़ नही थी। जंगल के सघन दरख्तों के साये में चलने के कारण बारिश हमें भिगो नहीं पा रही थी। अचानक हमारी दाहिनी ओर से एक सिपाही जमीन के अंदर से प्रगट हुआ जिसके सिर पर घास का चौकोर ढक्कन था। मैं चौंक पड़ी। वो एक सुरंग का मुहाना था जिसमें भीतर ही भीतर कई वियतनामी काँग गुरिल्ला छिपे रहते थे और दुश्मन के करीब आने पर उन्हें खत्म कर देते थे। इसी तरह की अन्य छोटी बड़ी सुरंगें थीं जो अब पर्यटकों के लिए बाकायदा युद्ध के डिमांस्ट्रेशन सहित मौजूद थीं। खंदकों में हथियार रखे थे जिन्हें बिजली की सहायता से वहाँ रखे सैनिकों के पुतले बाकायदा चलाकर दिखाते है। काँग गुरिल्लाओं ने इन खंदकों और सुरंगों का इस्तेमाल छिपने के ठिकानों, संचार यंत्र स्थापित करने, रसद हथियार आदि इकट्ठा करने और छापामार युद्ध के लिए किया। शक्तिशाली अमेरिका के विरुद्ध अपनी जीत गाथा इतिहास में दर्ज करने और श्रेष्ठ रणकौशल का बखान करने वाली ये सुरंगें देख रोंगटे खड़े हो गए। कुछ सुरंगों में तो हमें रेंग कर जाना पडा। उफ... जहरीले साँप, बिच्छू, चींटियाँ, मकड़ी का बसेरा होने के बावजूद और मलेरिया जैसी बीमारी को झेलते हुए जाँबाज वियतनामी सैनिकों ने अमेरिकी सेना के पैर उखाड़ दिए। जब सुरंगें बनाने का काम काँग गुरिल्लाओं ने शुरू किया होगा तब उनके दिमाग में निश्चय ही ये बात रही होगी कि 'इस वक्त बहा उनका एक एक बूँद पसीना हमारे नागरिकों का एक एक गैलन खून बहने से रोकेगा।'
बीस साल तक भी अमेरिकी इन सुरंगों की गुत्थी नहीं सुलझा सके। सुरंगें देखने के बाद जंगल पार करते हुए मैंने मन ही मन उन वीर सैनिकों को सेल्यूट किया जो तमाम असुविधाओं के बीच हारे नहीं, समय शून्य होकर लड़ते रहे और जीत हासिल की।
कल मैं अपने देश लौट जाउँगी। इन वीर सैनिकों की छवि को अपनी नजर में बसाए। ...विदा वियतनाम।