ककून / सुशील कुमार फुल्ल

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ककून

कुत्तों के सरपाट दौड़ने तथा बीच-बीच में भौंकने की आवाज छन-छन कर उस तक पहुंचने लगी तथा धीरे-धीरे दशहत का कोहरा उसकी नसों में जमने लगा। उसने चढ़यार रोड़ के तीनों तरफ अपनी दृष्टि घुमाई। नीचे को उतर गयी। सड़क के दोनों ओर घटाटोप झाड़-झंखाड़ों में से अनेक अजगर चिर उठाये उसे दबोचने के लिए तैयार खड़े थे। इस स्थिति से उबरने के लिए उसने धौलाधार पर्वत-श्रृंखला को निहारना चाहा परन्तु काले स्याह जंगलों में से उभरती हुई चिन्दियों में से भुतहा सांय-सांय का ही आभास हुआ।

दशहत का कोहरा उसकी नसों में निरन्तर नीचे उतर रहा था। सरपट दौड़ते कुत्तों की भों-भों उसके और नजदीक आ रही थी। झाड़ी में से फुदक कर बेचने के लिए प्रयास में कोई खरगोश कुत्तों की लपेट में आ गया था...... उसके कीं-कीं कर शान्त हो जाने का एहसास उसे लिजलिजा-सा लगा।

वह स्वयं खरगोश बन गया था। वह कब तक भागता रहेगा। कुत्तों की लार बढ़ती ही जा रही थी और फुदकता हुआ वह कई बार थका-हारा सह सोचने पर विवश हो जाता कि इस भागम-भाग से तो पहले ही बार धराशायी हो जाना कहीं अच्छा है। फिर उसक संस्कार जोर मारते- ऐसा करना कायरता है। जूझन्त कहीं बेहतर है। चुपचाप अपने सिद्धान्तों को ताक पर रख देना या अजगर केे मुंह में धकेल देना हार का पर्याय है। उससे तो खरगोश ही अच्छे हैं जो छलांगते-छलांगते कहां से कहां जा निकलते हैं लेकिन उसे खरगोशों का रोशनी के आगे दुबक कर बैठ जाना तथा आत्म-समर्पण कर देना कुछ अटपटा-सा लगता है शायद वह भी तो खरगोश-सा एक दिन दुबक कर शान्त हो जाएगा। यह भी कोई जिन्दगी हुई। घास-पात की तरह उगो और कट जाओ। कोई प्रतिरोध नहीं, कोई विरोध नहीं। हूं...

कुत्ते सरपट दौड़े आ रहे थे और उसकी नसों में दशहत का विष निरन्तर फैल रहा था। स्कूटर को भी यहीं, खराब होना था। चढ़यार रोड़ पर रात के अन्धकार में बिच्छुओं के झुण्ड खलबली मचा रहे थे।

कोई गाड़ी ही आ जाए परन्तु शायद किसी तांत्रिक ने सड़क को कील दिया था। कहीं से कोई रोशनी नहीं, कोई आता-जाता नहीं। सरयू प्रसाद को जंगलों से सदा मोह रहा है। उसने बहुत से ऐसे पौधे खोज निकाले हैं, जो रात में प्रकाश रश्मियां विकीर्ण करते हैं परन्तु आज किसी पौधे से प्रकाश नहीं निकल रहा था। ठण्ड में जुगनू भी शायद कहीं विलुप्त हो गए थे।

कुत्ते सरपट दौड़ रहे थे।

वह एकाएक कांप गया। उसने एक ओर हट जाना चाहा। शायद वे निकल जाएं। लेकिन वह आ गए थे। बड़े-बड़े ओवरकोट पहने तथा हाथों में टार्च लिये हुए। एक के पास बन्दूक भी थी। वह पहले तो घबराया लेकिन फिर सम्भल कर बोला- ‘‘आप लोग?’’ वे कुछ नहीं बोले। उन्होंने केवल ही... ही...ही... हे...हे... का स्वर किया।

‘‘लेकिन इस वक्त शिकार... ?’’ ‘‘शिकार का कोई टाइम होता है क्या?’’ उसमें से एक चिंघाड़ा।’’ ‘‘फिर भी।’’ ‘‘फिर भी क्या?’’ पहले ने ही पूछा।

‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो? अपनी बहन को ढूँढने आए हो?’’ दूसरे ने प्रश्न उछाला। ‘‘देखो ढंग से बात करो। नहीं तो अपना रास्ता नापो।’’

उनमें से एक ने बन्दूक उसकी और तान दी। उसे लगा वह गलत आदमियों में फंस गया है। शिकारियों पर उसे शुरू से ही सन्देह रहा है। न जाने किस की आड़ में वे क्या कर बैठें। विश्वास से एक महीन दीवार ही तो होती है। कुत्ते सरपट दौड़ रहे थे।

उस दिन वे तीनों रात दो बजे ही धौलाधार जंगलों की तरफ चल दिए थे। घने जंगल, ऊबड़-खाबड़ पगडंडियां, पेचदार उतराई-चढ़ाई लेकिन फत्तू तो तूफानी चाल से दौड़ा जा रहा था। उसका दोस्त रमिया बहुत बर्षों के बाद उसके पास आया था। आया क्या फत्तू ने ही उसे आमचित्र किया थ वैसे उनकी भेंट तो प्रायः होती रहती थी। रमिया दिल्ली के जिस कॉलेज में पढ़ाता था वहीं फत्तू की पत्नी सुनहरी भी गृह-विज्ञान पढ़ाया करती थी। जब भी फत्तू की छुट्टियां होतीं, तो वह प्रायः दिल्ली चला जाया करता था परन्तु सुनहरी तो अपनी छुट्टियां भी दिल्ली में ही व्यतीत कर देती थी। कभी उसका पति प्रोफेसर नाराज भी होता, तो वह प्यार से घुड़क देती- माई डियर फत्तू! दिल्ली और पालमपुर की दूरी तुम क्या जानो लेकिन सच मानो तो कहूं। मैं कल्पना में हर रोज पालमपुर आया करती हूं। जिन्दगी क्या है? बस एक भरम को पालना एवं ढोना है। अपने ही कवच में सिमट कर अपने ही रंगों का इन्द्रधनुषी ककून बुनना कितना प्रिय लगता है।

‘‘ककून बुनने का अर्थ मृत्यु को आमंत्रित करना है सुनहरी।’’

‘‘मैंने कहा न मृत्यु को टालने का भ्रम ही जीवन है। तुम अपने कन्धे पर भ्रम की लाशें ढो रहे हो- लाश को स्वप्न मानकर चलना भरम नहीं तो और क्या है?’’ ‘‘तो कल्पना में तुम्हारा पालमपुर आगमन भी एकमात्र एक छलावा है।’’

‘‘मेरे प्यारे फत्तुआ, छलावा है वह सत्य कैसे हो सकता है।’’ ‘‘तो तुम छलावा हो?’’ ‘‘फत्तू राम जी, तुम तो निरे तोताराम हो, एकदम भोले-भाले। औरत छलावा नहीं तो और क्या है?’’ ‘‘यह तुम कहती हो सुनह.....’’वह अवाक् रह गया था।’’ ‘‘हां मैं कहती हूं, जिसके हाड़-मांस में भी रक्त प्रवाहित होता है। क्या कभी तुमने मेरे दिल की धड़कन सुनी है?’’ सुनहरी ने पूछा। ‘‘क्या कभी तुमने कुत्तों के सरपट दौड़ने का संगीत सुना है?’’


‘‘तुम्हारे दिल-दिमाग पर शिकार छाया रहता है। मेरे दिल की धड़कन तथा कुत्तों के सरपट दौड़ने मे तुम्हें कोई अन्तर नहीं आता। तुम जानवर हो, जानवर।’’ ‘‘हां, मैं जानवर हूं लेकिन मेरे अन्दर का जानवर अभी पगलाया नहीं। जब वह पगला उठेगा तो तुम्हें रौंद कर रख देगा।’’ ‘‘वह दिन कभी नहीं आएगा। तुम्हारा जानवर मर चुका है। तुम्हारा आदमी भी मर चुका है।’’

फत्तू को सुनहरी की बातों पर विश्वास नहीं होता था। वह इतनी दबंग हो सकती है, यह उसकी कल्पना से बाहर था। उसके मन में नारी की मूर्ति थी मुलायम-सी, लाजवन्ती-सी लाजवन्ती के पौधे-सी छुई-मुई हो जाने वाली, बर्फ का पिघलना या मोम का तरल हो उठना उसे नारी का पर्याय लगता था परन्तु जब उसे सुनहरी में देह की फुंफकार तथा कच्ची लस्सी की डंकार सुनायी दी तो वह चौंक उठा था। अचानक पालमपुर तथा दिल्ली की दूरी कम हो गयी थी। वह सुनहरी पर छा जाना चाहता था। दिल्ली नगर लिजलिजा एवं बेतहाशा तेज जिन्दगी को न चाहता हुआ भी अब वह पालमपुर से दिल्ली तक की सड़कों की लम्बाई में फैल जाता। सुनहरी ने एक बार कहा भी- क्यों व्यर्थ में अपने आप को तोड़ते हो?

‘‘तुम उसे तोड़ना कहती हो?’’ ‘‘और क्या तुम इसे जुड़ जाना कहोगे?’’ ‘‘किससे?’’ ‘‘किसी से भी। क्या जुड़ जाना किसी एक पुरुष से ही होता है? तोड़ कर फिर जुड़ना तो भावनात्मक संधि पर आधारित होता है।’’ ‘‘तुम में क्रूर जानवर है और तुम जानती हो मैं शिकार का शौकीन हूं। जानवर और शिकारी का भावनात्मक संधि-स्थल दोनों में से किसी एक की मौत होती है।’’ ‘‘होती होगी।’’ दोनों एक-दूसरे की बातें समझते थे। परन्तु दोनों अपने अस्तित्व को, अपनी पहचान को बनाए रखना चाहते थे। फिर पालमपुर और दिल्ली में दूरी बढ़ती ही गयी। सड़कें और लम्बी हो गयीं, हां, पत्र-व्यवहार बराबर बना हुआ था। सुनहरी प्रायः अपने पत्रों में जीवन के नये क्षितिज देखने का उल्लेख करती। निरन्तर विस्तार.......... विस्तार ही, विस्तार और अपनी दार्शनिक मुद्राओं द्वारा वह फतहचन्द ‘अफलातून’ को कील कर रखना चाहती थी। फिर एक पत्र में उसने अपने पति को लिखा था- क्या आत्मा को कभी बांधा जा सकता है? और फिर यह व्यर्थ के सामाजिक अंकुश, क्या कभी तुमने सोचा है कि ये सब अव्यावहारिक एवं अवांछित हैं। शायद तुमने कभी देश-धर्म की तरलता एवं स्निग्धता को महसूस नहीं किया। तुम कर ही नहीं सकते। जो आदमी दिल की धढ़कन को कुत्तों के सरपट दौड़ने से मिलाता हो, क्या वह आदमी कहलवाने का हकदार है। फिर भी फत्तू, मैं एक बात की कायल हूं- तुम हो महान। तुम्हारा शिकारी जब जानवर हो उठता है न, तो मुझे बड़ा आनन्द आता है। तुम पता नहीं धोलाधार के आंचल में सिकुड़े-सिमटे क्या करते हो, मैं तो आजकल तुम्हारे दोस्त रमिया से योग सीख रही हूं। आह! कितनी आनन्द-दायक घड़ियां होती हैं। बस, इन्ही क्रियाओं में अपना समय व्यतीत हो जाता है।

कुत्तों का सरपट दौड़ना युद्ध-भूमि में टैंको के दहाड़ने-सी ध्वनि पैदा करने लगा।

फत्तू को चिट्ठी मिली थी या वह बौखला उठा था। साले रमिया से योग सीखती है। रामनाथ को रमिया लिखती है। लोक-लज्जा की भी कोई हद होती है। उसके सामने योग करती होगी, उल्टी-सीधी टंगती होगी या फिर रमिया उसे पकड़-पकड़ कर टांगें ऊंची करके हवा में उल्टे लटकना तथा अंग-संचालन सिखाता होगा। बड़ा शिकारी आया है। जानवर कहीं का। और वह दिल्ली पहुंच गया। बस सुबह पांच बजे इण्टर-स्टेट बस-अड्डे पर जा लगी थी। और घण्टे में फत्तु अपने घर था। घर के बरामदे में सुनहरी वृश्चिक-आसन कर रही थी और रमिया जी उसे सब सिखा रहे थे।

‘‘अरे अफलातून! तुम.....’’ ‘‘हां, मैं।’’ ‘‘फत्तू, पहले लिखा तो होता।’’ ‘‘क्यों क्या पत्नी के पास आने के लिए पहले डेट लेनी होती है?’’ ‘‘तुम तो जानवर ही रहे।’’ ‘‘हूं, अब मैं तुम दोनों को जानवर दिखाई देता हूं।’’ ‘‘हूं, अब मैं तुम दोनों को जानवर दिखाई देता हूं। और तुम दोनों शायद शिकारी हो गए हो।’’ उसकी आँखों में खून उतर आया था। रमिया स्थिति को भांप गया। वहां से गायब हो गया था। फत्तू ने अपने अन्दर के जानवर को अस्थायी तौर पर दबा लिया था वह शान्त दिखाई देने लगा था। वह एक-दो दिन दिल्ली रह कर लौट आया था। सरयू प्रसाद को याद है कि फत्तू ने उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया था। रमिया को भी दिल्ली से बुलाया था। धौलाधार पर बर्फ की परतें जम गयी थीं और शिकार की सम्भावना बढ़ गयी थी। फत्तू ने सरयू प्रसाद से कहा था- तुम भी साथ चलना। तुम्हारा मन बहल जाएगा।

‘‘अगर दहल गया तो?’’ ‘‘नहीं... तुम तो व्यर्थ में परेशान रहते हो। अच्छी नौकरी है। गऊ-सी बीबी तुम्हारे पास है, पुत्र है, पुत्री है, तुम्हारा अपना मकान है। फिर भी परेशान रहते हो।’’ ‘‘परेशान क्यों रहता हूं यह तो तुम जानती ही हो। सच को सच कहना भी आजकल गुनाह है। मैंने यही तो कहा था कि विभाग का सीमेंट, लकड़ी आदि न जाने कहां गायब हो गया।’’

‘‘सबको पता होता है कि कहां जाता है परन्तु सब चुप रहते हैं। परन्तु तुम नौकरी का अर्थ नहीं जानते क्या?’’ ‘‘अब थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा है।’’ ‘‘क्या?’’ ‘‘यही, कि जितना बड़ा अधिकारी, सुविधाओं के प्रति उतना ही बलात्कारी। सब अधिकारियों की कुण्डली एक-सी होती है।’’ ‘‘तुम महात्मा गांधी हो क्या? बुद्ध हो या ईसा? तुम सरासर बेवकूफ हो। क्यों व्यर्थ में सलीब पर गड़ जाना चाहते हो। ‘‘हां, मैं सलीब पर गड़ जाना चाहता हूं। सच्चाई के लिए मैं ईसा हो जाना चाहता हूं।’’ ‘‘बातों में तुम्हें कौन जीत सका है। शायद तुम्हारे पीतल के दांत ने तुम्हें कानूनी बना दिया है। जंगल में जाओगे तो सब भूल जाओगे, वहां जंगल का कानून लगता है।’’ ‘‘मैंने कभी शिकार नहीं खेला है।’’

‘‘यह सब झूठ है। हर आदमी जिन्दगी भर शिकार की तलाश में रहता है और पता नहीं क्या-क्या दांव पेच अपनाता है।’’ थोड़ा रूक कर वह बोला था- ‘‘मुझे प्रायः लगता है कि मेरा भी शिकार किया जा रहा है। मैं धीरे-धीरे शिकारी के मुंह में धंसता जाता हूं।’’

सरयू प्रसाद को लगा था फत्तू ने उसकी मनःस्थिति का बिल्कुल सही चित्रण कर दिया था। उसका अपना सिर भी तो शेर के जबड़ों में फंसा हुआ है। सिर बाहर खींचता है तो लहूलुहान हो जाने का भय है और यदि अन्दर जाने देता है, तो उसका अन्त है।

खरगोश का कुत्ते के मुंह में लटक जाना......... अजगर की जीव को लपक जाना....... छिपकली का मुंहबाए दीवार पर लटके रहना........ या फिर बड़ी मछली का छोटी मछली को निगल जाना....... क्या विधान है? शायद आदमी ने शिकार खेलना जीव-जन्तुओं से ही सीखा हैः जीव-जन्तु जो निरीह होते हैं, सीधे-सादे........ आदमी बहुमुखी जानवर है, जो रूप बदल-बदलकर हर प्रकार का शिकार करता है- जीवनभर घात लगाए बैठा रहता है। सर्पिणी की तरह अपनों को खा जाता है। सोचकर सरयू प्रसाद चौंक उठा था।

रात के दो बजे वे धौलाधार पर्वत-श्रृंखला पर चढ़ रहे थे। फत्तू, रमिया तथा सरयू प्रसाद। कड़कड़ाती ठण्ड। थोड़ी दूर जाकर फत्तू ने कहा था- ‘‘अरे भई, वाटरमैन लाओ तो घूंट-घूंट।’’ सरयू प्रसाद ने पालमपुरी तोड़ की ड्रमी आगे कर दी थी। फत्तू मुंह लगाकर दो-चार घूंट पी गया था। फिर उसने ड्रमी रमिया की ओर बढ़ा दी थी। रमिया बोला था- ‘‘फत्तू! मैं ऐसे नहीं पी सकता। मुझे उबकाई आती है।’’

‘‘हूं। मैं तुझे बार में ले चलूंगा। वहां कच्चे पनीर की लम्बी-लम्बी टुकड़िया होंगी, कलेजी होगी और फिर तुम मजे से बैठ कर चढ़ा लेना।’’ रमिया ने अविश्वास से उसकी ओर देखा। सरयू प्रसाद ने मुस्कराते हुए कहा था- ‘‘बातों ही बातों में फत्तू महल खड़े कर देता है।’’ ‘‘क्या अपनी बात को सच कर दूं।’’ ‘‘कैसे?’’ ‘‘जानते नहीं अभी तो हम पहली धार पर ही हैं। यहां से नीचे धक्का दूं तो रमिया ‘न्यूगल कैफ’ में जा घुसेगा।’’ रमिया ने लुढ़कते हुए पत्थर की कल्पना की तथा वह बहल गया। गड्र-गड्र गड् गड्। फिर उसने धीमे से सरयू प्रसाद से कहा था- ‘‘मुझे जंगल भयावना लगता है।’’ फत्तू ने सुन लिया था। जंगल तो सदा सुहावना होता है। मुझे तो शहरी जानवर ज्यादा भयावने लगते हैं। ‘‘अच्छा।’’ रमिया संकेत पा गया था।

जंगल में किसी जानवर के ‘रड़ाने’ (कातर हो चिल्लाने) की आवाज से रमिया दहल उठा। उसे कुत्ते के मुंह में लटकता हुआ खरगोश दिखाई दिया, जो कोई आवाज नहीं कर पा रहा था परन्तु किसी जानवर के रड़ाने की आवाज ने उसे बैचेन कर दिया। फत्तू भागा जा रहा था। अ बवह बिल्कुल चुप था। वे आवा-खड्ड के निकास स्थल के नजदीक थे। सात फुहारे एक स्थान पर आकर गिरते थे। पहाड़ की ऊंचाई कुछ ज्यादा ही टेड़ी-तिरछी हो गयी थी।

पिज का पीछा करते-करते वे पर्वत-शिखर पर पहुंच गए थे। फिर वे सरपट दौड़ रहे थे। सरयू प्रसाद पीछे रह गया था... वह बुरी तरह से हांफ गया था। वह पहली बार शिकार के लिए गया था...और वह भी वाटरमैन के रूप में। फिर भी वह प्रसन्न था। वह क्षण भर के लिए रूका। तभी धड़ाम्-से किसी के नीचे खड्ड में लुढ़कने की आवाज सुनाई दी। वह पत्थरा गया था। शायद फत्तू का पांव फिसल गया था। वह चीख रहा था? लेकिन फत्तू तो नीचे उतर रहा था और चिल्ला रहा था- ‘‘सरयू, हम लुट गए। रमिया नीचे जा गिरा खड्ड में। उसका पांव फिसल गया। बेचारा।’’

‘‘चलो नीचे उतरें।’’ ‘‘तुम बेवकूफ हो।’’ ‘‘क्यों?’’ ’’जो गया सो गया।’’ ‘‘क्या?’’ सरयू प्रसाद लगभग रो पड़ा। ‘‘हां, यह जंगल है। शिकार स्थल है। क्या पता कब किसका शिकार हो जाए। बेचारा कितना अच्छा था।’’ ‘‘अभी तो वह जीवित होगा। सिसकियां तो सुनायी दे रही हैं।’’ ‘‘तुम पागल हो। सिसक-सिसक कर जीना भी कोई जीना होता है।’’ ‘‘फिर?’’ ‘‘फिर क्या? थोड़ी रोशनी होगी तो मैं नीचे उतरकर देख आऊंगा।’’ सरयू प्रसाद डर गया था। वह वापस लौटने लगा। फत्तू के विकराल रूप से वह घबरा गया था। वह नीचे सरकता रहा। फत्तू ने कहा- ‘‘यदि तूने गांव में जरा भी हो-हल्ला मचाया तो तुम्हारा क्या हश्र होगा, जाओ और चुपके से जाकर अपनी माँ की रजाई में छिप जाओ।’’ सरयू प्रसाद पालमपुर से कुछ मित्रों को लेकर घटना-स्थल पर पहुंचा तो खड्ड में से धुआं उठ रहा था- एक तरफ फत्तू बैठा था। धुआं धीरे-धीरे लपटों में बदल गया। लपटों में से चीखें निकलती हुई सरयू प्रसाद ने सुनी थीं परन्तु उसे तो सांप सूंघ गया था।

सांस चलते आदमी को जला दिया गया था- सरयू ने सोचा। कुत्ता जीवित खरगोश को चबा सकता है, छिपकली जीवित जीवों को निगल जाती है...यह सब क्या है? एक कुत्ता एक और खरगोश को मुंह में लपकाए चढियार रोड़ पर आ पहुंचा था। ‘‘तुम्हें वह अच्छी लगती है?’’ ओवर-कोट पहने एक व्यक्ति ने पूछा।


‘‘कौन?’’ ‘‘लक्ष्मी।’’ ‘‘मैं समझा नहीं।’’ ‘‘अभी समझाते हैं तुम्हें।’’ ‘‘तुम असम में थे?’’ ‘‘लेकिन इन बातों का यहां क्या सम्बन्ध है?’’ ‘‘सम्बन्ध है, तभी तो पूछ रहे हैं।’’ ‘‘हां, मैं वहां था।’’ ‘‘तो रिपोर्ट ठीक है।’’ ‘‘कैसी रिपोर्ट?’’ ‘‘यही कि तुम नक्सली हो।’’ ‘‘मैं? नक्सली?’’ ‘‘नहीं, तो क्या हम नक्सली हैं।’’ सन्नाटा और भी गहराने लगा। सरयू प्रसाद को लगा कि चढियार रोड़ पर कुत्ते ही कुत्ते घूम रहे हैं तथा उनके मुंह में खरगोश लटके हुए हैं। लक्ष्मी, सुनहरी, फत्तू, रमिया...यह सब क्या जाल है... उसे लगा वह ककून बुनता उसी में बन्द हो जाएगा। उसने पहले ही अपने आपको सारे सामाजिक संसर्ग में काट लिया है। वह अपने आप में सिमट जाता है...और सिमटा रहना चाहता है। हां, एक बार कहीं बातचीत में उसने यह अवश्य कह दिया था- लक्ष्मी के लक्षण अच्छे नहीं लगते।


‘‘क्यों?’’ एक सहयोगी ने पूछा था। ‘‘देखते नहीं कैसे गंधाती फिरती है। अभी अविवाहित है फिर भी नंग-धड़ंग-सी हवा में घूमती रहती है... प्रायः नर मादा को सूंघता है, यहां बात ही उल्टी है। बाप की नाक कटवायेगी।’’ ‘‘नहीं ऐसी कोई खास बात नहीं। तुम तो व्यर्थ में परेशान होते हो।’’ दरबारी लाल ने लक्ष्मी के दुश्चरित्र होने की बात सरयू प्रसाद के बकौल सारी हवा में फैला दी.. साथ ही वह स्वयं लक्ष्मी की देह में पिघलता चला गया था। उसने कहा था- देह नश्वर है। परस्पर आकर्षण शाश्वत है। ‘‘मैं सब समझती हूं।’’ लक्ष्मी ने कहा था। ‘‘तुम कुछ नहीं समझती! क्षण का ठहर जाना ही आनन्दवाद का पर्याय है।’’ ‘‘क्षण का ठहर जाना निश्चय का शरण मात्र है। फिर भी आकर्षण की बात मुझे जंचती है।’’

और उन दोनों में आकर्षण की आम चर्चा होने लगी थी परन्तु नाम सरयू प्रसाद का ही लगता है। अब उसे समझ आने लगा था कि ओवरकोट पहने व्यक्ति में विभिन्न रूपों में दरबारी लाल ही थे। ऊंची कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की इज्जत के संरक्षण सरयू प्रसाद को धराशाही करने के लिए तैयार खड़े थे।

ऊंची कुर्सी पर बैठा व्यक्ति और ऊंचा होने लगा था। सरयू प्रसाद उसके सामने बौना लग रहा था। हूं। तुम मुझे धराशाही करना चाहते हो? उल्लू की दुम। तुम्हारी सात पुश्तों में भी कोई अफसर हुआ है? तुम क्या जानो अफसर तथा उनके अधिकार होते हैं? तुम्हारे बाप-दादा ने कभी लहराती कन्यायें देखी हैं। जिन बातों को तुम सुविधा का दुरूपयोग कहते हो, वे ही तो वास्तव मे अफसरी का सही रंग होती हैं। तुम्हें लक्ष्मी का देह-धर्म चौंकाता है न। एक वर्ग से ऊपर उठ कर देह का कोई धर्म नहीं रहता... बस, हम तो कर्म में विश्वास रखते हैं और तुम व्यर्थ में लक्ष्मी का नाम लेकर अपनी उच्छृंखललता को अभिव्यक्त करते हो। तुम्हारी विचारधारा...?

सरयू प्रसाद को अब असम, नक्सलवादी, लक्ष्मी आदि शब्दों का अर्थ खुलने लगा था। ओवरकोट पहने लोग...चुपचाप उसे ललकारते लोग...कुत्तों के मुंह में लटके खरगोश.... चुपचाप उसे ललकारते लोग...कुत्तों के मुंह में लटके खरगोश...बिम्बों का एक अपार सिलसिला। सरयू प्रसाद सोचता है तो अनेकों बिम्ब उसके मस्तिष्क में उभरने लगते हैं। कभी ककून में बन्द होता कीड़ा... गुफा में गायब होता आदमी, ककून से बाहर निकलता... छटपटा कर बेसुध हो जाता जीव...लक्ष्मी का देह धर्म मोम का पिघलना...रमिया को सुनहरी का ख्याल...फत्तू का अपनी कल्पना में रमिया को धड़ाम-धड़ाम कर देना...दरबारी लाल का आनन्दवाद... उसका अपना आदर्शवाद... पिछड़ापन... ऊपरी वर्ग के लोगों का देह धर्म...आम आदमी का हवा में उलटे लटक जाना...भ्रम की लाश एवं लालसा को ढोना...

उसे सब गड्ड-गड्ड लगा। सब व्यर्थ एवं महत्वहीन। उसकी अपनी आदर्श भूमिका भी धीरे-धीरे-धूसारित होने लगी। तभी उसकी इच्छा हुई कि वह अपने ही ककून में बन्द हो जाये। बन्द हो जाने का अभिप्रायः उसका न होना होगा लेकिन होने न होने से क्या फरक पड़ता हैं। क्या यह मात्र भ्रम ही नहीं कि हम बहुत प्रासंगिक हैं, महत्वपूर्ण हैं। उसके सिर में कान खजूरे रेंगने लगे और वह जल्दी से अपने ककून में बन्द हो जाने की सोचने लगा। ‘‘तुम लक्ष्मी में खो गए?’’ ओवरकोट पहने एक व्यक्ति ने फिर पूछा।

‘‘सुनहरी। कौन सुनहरी?’’ ‘‘अरे लक्ष्मी तो थी, यह सुनहरी कहां से आ गई।’’ ‘‘कोई होगी। यह भी पूरा घाघ है। पता नहीं कहां-कहां भटकता रहा है।’’ ‘‘हूं। देखो इस समय पौधों में प्रकाश-रश्मियां ढूंढ रहा है। बड़ा न्यूटन बिना फिरता है।’’ ‘‘क्यों समय नष्ट करते हो? जाओ अपना शिकार ढूंढो।’’ ‘‘शिकार तो स्वयं हमारे सामने आकर खड़ा हो गया है।’’ ‘‘मुंह में खरगोश लटकाये कुत्ते खड़े थे। जरा-जरा चहलकदमी करते हुए।’’ सरयू प्रसाद की इच्छा हुई कि वह अपने ही ककून में बन्द हो जाये... अन्दर बाहर की व्यथा कथा को एक कर दे। तभी बैजनाथ की ओर से दौड़ते हुए सांड आये...तथा सब में भगदड़ मच गई। ओवरकोट पहने लोग हकबका गए। कुत्ते मुंह में खरगोश लटकाए इधर-उधर सरपट दौड़े। कुत्तों के सरपट दौड़ने की आवाज अब भी आ रही थी। कीं-कीं की आवाज करता कोई खरगोश शान्त हो गया था।

उसकी धमनियों में दशहत का कोहरा जमने लगा था ककून अपना आकार लेने लगा था। गुफा के दरवाजे धीरे-धीरे बन्द हो रहे थे और महानगर की सड़क पर मरे हुए कुत्ते-सा वह किसी जमादार द्वारा बेरहमी से घसीटा जा रहा था...निरन्तर।