कचड़े की गुड़िया / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
कचड़े की एक विशाल ढेर में बच्चियाँ तन्मय होकर पॉलीथिन चुन रही थीं। एक हाथ में लकड़ी का एक टुकड़ा लिये कचड़े को बिखेर रही थीं। दूसरे हाथ से पॉलिथीन खींचकर निकाल रही थीं और अपने-अपने बोरे में भर रही थीं तभी कचड़े में से एक गुड़िया निकल गई। गुड़िया क्या थी, ख़ुशी का खजाना थी। चारों झूम उठीं। वे दौड़कर चापाकल में गईं। संयोग से वहाँ साबुन का एक टुकड़ा भी मिल गया। उन्होंने गुड़िया को धोया। नहलाया। कपड़ों को साफ़ किया और सुखाया॥
चारों बच्चियाँ गोल घेरा बनाकर बैठ गईं। उनके सिर पक्षी के घोंसले जैसे दिख रहे थे। पहने हुए कपड़े रफू से भरे हुए थे। गंदे इतने ही किसी विक्षिप्त व्यक्ति के वस्त्र की याद दिला रहे थे। परंतु चेहरे पर ख़ुशी की चमक इतनी थी, जितनी किसी अर्थ लोलुप व्यक्ति को कारूं का खजाना मिलने पर भी नहीं होगी।
वे गुड़िया को कपड़े पहना रही थीं। बाल संवार रही थीं। अपने-अपने ढंग से कहानियाँ गढ़ रही थीं-- गुड़िया की शादी होगी... ससुराल जाएगी... ख़ुश रहेगी.. और फिर चारों मिलकर शादी का गाना गाने लगीं। गाते-गाते उनकी आंखों से आंसू छलकने लगे।