कच्ची-सी धूप, गुनगुनी-सी धूप / प्रियंका गुप्ता
कहते हैं परिवार किसी इंसान के जीवन की पहली पाठशाला होती है और माँ सबसे पहली शिक्षिका। बचपन में जाने कितने ऐसे खट्टे-मीठे से किस्से होते हैं जो आप के जीवन की दिशा-निर्धारण करने में...आपको सही-ग़लत की पहचान कराने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण साबित होते हैं।
हर किसी की तरह मेरी ज़िन्दगी में भी कुछ ऐसे ही चटपटे से किस्से हैं जो वैसे तो घटे एक बहुत ही मासूम-सी उम्र में...पर जिनकी अमिट छाप अब भी मेरे जेहन में बिल्कुल वैसे ही तरोताज़ा है, जैसे वह कल-परसों की ही बात हो। उनमें से दो मैं आज आप सब के साथ सांझा कर रही।
मैं बमुश्किल तीन-चार साल की ही रही हूँगी। नया-नया स्कूल जाना शुरू किया था। एक दिन किसी सहपाठी के लाए हुए इरेज़र पर पड़ी। एक नन्हें से खिलौने की शक़्ल वाले खोल में छिपा एक सुगन्धित इरेज़र। मन एकदम ललचा गया। मैं तो समझे थी, नन्हा-सा खिलौना है...पर इससे तो पेन्सिल का लिखा आराम से मिट जाता है। सो आव देखा न ताव...उसे उठाया और पेन्सिल-बॉक्स में डाल लिया। घर आकर कपड़ा बदल कर मैं तो निश्चिन्त हो कर खेलने लगी...पर माँ अपने रोज के नियम के मुताबिक मेरा पूरा बैग पलट चुकी थी। इरेज़र देख कर उन्होंने उसे किनारे रख दिया...मुझे पास बुलाया और सीधा सवाल...ये किसका है...? मैने बड़े भोलेपन से अपने सहपाठी का नाम बता दिया। माँ ने बोला...बिना पूछे किसी दूसरे का सामान ले आई हो, पता है...गन्दी बात है ये...इसको चोरी कहते हैं। मेरे नन्हें दिमाग़ में चोरी का कन्सेप्ट ही दूसरा था। कुछ दिन पहले घर के पास हुई चोरी का खाका दिमाग़ में था। चोरी ताला तोड़ के की जाती है। मैने कौन-सा ताला तोड़ा था...? पसन्द आया, रख लिया। मैने माँ को भी यही ज्ञान देने की कोशिश की। जाने माँ को कितना ज्ञान प्राप्त हुआ, कितना नहीं...मुझे नहीं पता, पर उन्होंने बड़े प्यार से समझाया...नहीं बेटा, कोई भी सामान जो तुम्हारा नहीं है, उसे बिना पूछे लेना...अपने पास रख लेना भी चोरी ही कहलाता है...जो बहुत गन्दी बात है। मैं अब भी उस इरेज़र को अपने से दूर नहीं करना चाहती थी...सो बोली...अच्छाऽऽऽ...तो कल उससे पूछ के रख लेंगे। शायद बहुत धैर्य लगा होगा माँ को मुझे ये समझाने में कि किसी से कोई चीज़ यूँ ज़बर्दस्ती माँग कर लेना भी बुरी बात है...पर अन्ततः बात मेरे नन्हें से दिमाग़ में बहुत अच्छे तरीके से घुस गई... । दूसरे दिन माँ ने अपने सामने मेरे ही हाथों से वह इरेज़र उसके वास्तविक मालिक तक पहुँचवाई, जिसकी चश्मदीद गवाह बनी मेरी क्लास-टीचर। दोपहर को स्कूल से लौटने के बाद मुझे खाना खिला कर माँ ने पहला काम किया, बाज़ार ले जाकर माँ ने मुझे मेरी पसन्द का उससे भी अच्छा इरेज़र दिलवाया, वह भी एक नहीं...बल्कि तीन-तीन। तीनों अब तक मेरे पास हैं...एक पीले रंग का कुत्ता...एक बैट...और एक आदमी। मज़े की बात ये है कि तीनों से एक भीनी-भीनी सुगन्ध अब भी आती है।
दूसरी घटना के बारे में ये याद नहीं कि वह इस घटना के पहले हुई थी या इसके बाद...पर हुई इसी कच्ची-मासूम उम्र में ही थी। मैं माँ के साथ पड़ोस के घर में गई थी। उन्होंने क्या-क्या नाश्ते में रखा था, याद नहीं...पर एक प्लेट क्रीम-बिस्कुट की थी, ये अच्छे से याद है। शुरू से माँ ने सिखाया था, किसी के घर में हबक्का मार के नहीं खाना है...चाहे वह चीज़ कितनी भी पसन्द आए... ( 'हबक्का' का अर्थ शायद किसी डिक्शनरी में नहीं मिल पाएगा...इसका सीधा-सपाट अर्थ सम्भवतः 'झपट्टा मारना' या 'लपक के खाना' होगा...भुक्खों की तरह...) सो अच्छे बच्चे की तरह मैने आँटी के बहुत इसरार करने पर, माँ की आँखों से सहमति का संकेत पाकर एक बिस्कुट उठा कर धीमे-धीमे कुतरना शुरू किया। निश्चय ही बड़ा स्वादिष्ट बिस्कुट रहा होगा, क्योंकि मन-ही-मन मुझे दूसरा बिस्कुट खाने की लालसा भी हो आई थी...आखिर उम्र का भी तो तकाज़ा था। पर आँटी के कहने के बावजूद माँ की आँख का इशारा नहीं मिला था, सो मैने मन मसोस कर इंकार में गर्दन हिला दी। ख़ैर, चलने का वक़्त भी हो गया था। बाहर निकल कर जब तक विदा लेते हुए माँ और आँटी बात करने में मशगूल थी, वहीं उछलती-कूदती मैं वापस उनके ड्राइंगरूम में पहुँच गई। सामने बिस्कुट की प्लेट अब भी रखी थी। अब मन पूरा बेकाबू हो चुका था। आखिर आँटी इतना तो कह ही रही थी, एक खा भी लूँगी तो क्या हो जाएगा...शायद यही आया हो मन में...ठीक से याद नहीं। पर जो भी आया हो, मैने झट से एक बिस्कुट उठाया और फ़ट्ट से मुँह में...पूरा-का-पूरा। कुतरने का रिस्क कौन लेता...? बिस्कुट चुगलाती मैं वापस मुझे पुकारती माँ के पास आ गई... । राम जाने आँटी कुछ देख पाई कि नहीं, पर मम्मी की पारखी नज़र ताड़ गई थी, दाल में नहीं, बल्कि पूरी की पूरी दाल ही काली हो चुकी थी। वहाँ उन्होंने कुछ नहीं कहा, पर घर आते ही ताला बाद में खोला गया, पहले मेरा मुँह खुलवाया गया। जैसे कान्हा के मुँह में मिट्टी देखने के लिए पूरा मुँह खुलवाया गया होगा, शायद वैसा ही कुछ नज़ारा था। अब मैं कन्हैया तो थी नहीं कि पूरा ब्रह्माण्ड दिखा देती अपने नन्हें से मुख में...हाँ बिस्कुट के ताज़ातरीन अवशेष ज़रूर दिख गए... । बहुत ठीक से नहीं याद, पर थोड़ी सख़्ती तो ज़रूर थी माँ की आँख और बात...दोनो में ही...कि मैं तभी समझ गई थी, कुछ तो गड़बड़ हो ही गई... । सारी बात कबूलवा कर माँ ने कुछ खास नहीं किया, बस्स...मेरा हाथ थामा...पर्स लिया और पास की दुकान पर जाकर उसी बिस्कुट के कई सारे पैकेट ले आई... । उसके बाद सिर्फ़ उस दिन ही नहीं, बल्कि आगे आने वाले कई दिनों तक मुझे अपने पास उस बिस्कुट की बिल्कुल कमी नहीं रहने दी गई... । इतनी कि एक दिन उस बिस्कुट की ओर देखने भर से मेरा मन और पेट दोनों भरे लगते थे। बिस्कुट के उन सारे पैकेटों के साथ माँ की एक और सीख भी मिली थी...खाने की कोई चीज़ अगर इतनी पसन्द आए कि उसे चुपके से उठा लेने का मन करे, तो बजाए उठा कर अपने मुँह में डालने के, मैं उन्हें बता दूँ। तब से लेकर आज तक, जब मैं खुद अपनी पसन्द की चीज़ खरीदने-बनाने के क़ाबिल हो चुकी हूँ, मुझे कुछ भी ज़्यादा मात्रा में खिला पाना एक सामान्य जान-पहचान वाले मेज़बान के लिए बहुत चुनौती भरा काम होता है।
इन दोनों घटनाओं ने जहाँ मुझे स्वाभिमानी (अभिमानी नहीं...) बनाया, बल्कि किसी इच्छा के पूरे होने की प्रतीक्षा में धैर्यवान होने का गुण भी दिया। बहुत हद तक संतोषी-संतुष्ट होना भी। माँ वक़्त आने पर अधिकाँश इच्छाएँ पूरी करने की कोशिश तो करती थी, पर ज़िद, चाहे जायज़...चाहे नाजायज़..., कभी पूरी नहीं की जाएगी...ये बहुत छोटी उम्र में मुझे समझ आ गया था। यही कारण था कि अधिकतर मामलों में जो मेरे पास था, उसमें मैं संतुष्ट हो जाती थी। एक तरह से कहूँ तो ज़िद करना आया ही नहीं। इसी लिए अक्सर जब मेरी सहेलियाँ मुझे या उनकी मम्मियाँ माँ को बताती थी कि उन लोगों ने कैसे अपने पापा या माँ से ज़िद करके कोई मनपसन्द चीज़ हासिल की, तो मैं बस मुस्करा के रह जाती थी। जिस बात का अनुभव ही न हो, उस बारे में मैं कहती भी तो क्या...? हाँ, माँ ज़रूर गर्व से कहती कि उनकी बेटी, यानी कि मैं, तो ज़िद करती ही नहीं...अकेली होने के बावजूद। उस समय बाकी आँटियाँ एक ठण्डी 'आह' भर के रह जाती...आखिर आपने अपनी बेटी को पाला कैसे...?
ख़ैर, बात चाहे 'कैसे पाला' की हो न हो, पर मैं इतना ज़रूर मानती हूँ कि बचपन में आप अपने बच्चों की छोटी-छोटी ग़लतियों को अगर नज़रअन्दाज़ न करें, तो आगे आने वाले समय में न केवल आप, बल्कि सबसे ज़्यादा तो वो...अपने आप पर एक इंसान के रूप में तो सचमुच गर्व करने के क़ाबिल होंगे ही। बस ज़रूरत इतनी है कि उस नाज़ुक-नर्म से पौधे को उसकी कच्ची-सी... गुनगुनी-सी धूप सही मात्रा में मुहैया होती रहे।