कछुआ और खरगोश / राजेन्द्र वर्मा
देश को आज़ाद हुए कई दशक बीत चुके थे। पूर्वजों की लगन और काहिली की कथा बार-बार दुहराये जाने के बावजूद कछुए और खरगोश में अभी भी समरसता बनी हुई थी। इसका कारण श्रेष्ठ जन अपने देश का संविधान के मौलिक अधिकारों का समान रूप से लागू न होना पाते हैं। ... दुनिया जानती है कि अपने देश का संविधान इतिहास-भूगोल की तरह लचीला और कठोर, दोनों है। जब जैसा अवसर आता है, वैसा बन जाता है-जैसा गाल, वैसा तमाचा! उसके एक हाथ में फूल है, तो दूसरे में पत्थर! ऐसे ही संविधान द्वारा गारंटीड 'समानता के अधिकार' के चलते कछुआ और खरगोश साथ-साथ खेलते-कूदते और पढ़ने जाते। गांव के स्कूल और कस्बे के कालेज में प्रतिदिन खेलते-कूदते जीवन के इक्कीसवें वर्ष में दोनों 'बी.ए. पास' घोषित हो गये।
जैसा कि अब तक घटित होता आया है, पढ़-लिख जाने के बाद आदमी कलम घिसने वाली नौकरी के अलावा किसी काम के लायक नहीं रहता, कछुआ और खरगोश भी नौकरी के अलावा किसी काम के न रहे। उनसे बहस चाहे जितनी करवा लो, लेकिन जब भूख लगेगी, तो वे माता-पिता का मुख ही ताकेंगे! माता-पिता भी क्या करें? उन्होंने आखि़र पढ़े-लिखे लायक़ पुत्रों को पैदा किया था-उसका कुछ तो सिला उन्हें मिलना चाहिए! इसलिए वे अपने प्रसन्नतापूर्वक अपने खून-पसीने का प्रतिफल उन पर लुटाने के लिए विवश थे।
नौकरी पाने के लिए, जैसा कि चलन है, रिश्तेदारों और 'श्रेष्ठ' टीचर के सुझाव पर कछुआ और खरगोश ने पहला कदम यह उठाया कि दोनों गाँव को उसके हाल पर छोड़ शहर आ गये। शहर आकर पहले उन्होंने किराये पर खोलीनुमा कमरा लिया। फिर उसमें स्वास्थ्यपूर्वक रहने लगे। ...खिचड़ी बना-खाकर वे 'रोजगार समाचार' का साप्ताहिक रूप से आदि-अन्त करने लगे।
खरगोश की माँ चाहती थी कि वह अपने किसी रिश्तेदार के साथ रहे, लेकिन उसने कछुए की दोस्ती के कारण रिश्तेदारी की ओर मुंह न किया। ... दोनों में दोस्ती का आलम यह था कि दोनों साथ-साथ नौकरी की तैयारी करते, साथ-साथ सिनेमा देखते और साथ-साथ कनखियों से लड़कियाँ भी देखते। ... कुछ लड़कियाँ खरगोश को तो भाव देतीं, लेकिन कछुए की तरफ देखती तक न थीं। इससे कछुआ हतोत्साहित होता। लेकिन एक अच्छे दोस्त की तरह खरगोश उसे धैर्य बंधाता-"यार! कोई तो कछुई होगी तेरी। एक-न-एक दिन तुझे मिलकर रहेगी!" दोस्त की बात सुन कछुए के चेहरे पर मुस्कान तैर जाती। ...इसी प्रकार दो-ढाई साल वे 'दिन दूनी और रात चौगुनी' करते रहे, पर नौकरी न मिलनी थी, न मिली! ...नौकरी मिलना कोई आसान है क्या? अगर ऐसा होता तो, सभी नौकरी न कर रहे होते, कोई घास क्यों खोदता?
नौकरी न मिलने के कारणों की जाँच की गयी, तो पाया गया कि दोनों ने बी.ए. की डिग्री हासिल की थी-बी.टेक्। बी.बी.ए., एलएल.बी., होटेल मैनेजमेंट जैसी रोजगारपरक डिग्री नहीं! सेक्यूरिटी गार्ड की नौकरी ज़रूर मिल रही थी, पर उसे कोमलांग खरगोश कैसे करता? दोस्ती को निभाते हुए कछुए ने भी उस पर लात मार दी।
यहाँ एक प्रकृति-प्रदत्त बात जो आपस में भेद करने वाली थी, उसे दोनों दोस्त नहीं समझ पा रहे थे-कछुआ मेहनती ख़ानदान से था और खरगोश चंट से! ...एक जमीन में धंसा हुआ, तो दूसरा आसमान नापने को कुलांचें भरता हुआ। ...एक के घरवाले-रिश्तेदार अनपढ़ ग़रीब, मेहनती और लगनशील, जबकि दूसरे के पढ़े-लिखे अपेक्षाकृत अमीर, आरामतलब और अवसरवादी!
नौकरी के नाम पर तैयारी वाली अवधि में थोड़ी-बहुत मटरगश्ती करने के बाद दोनों दोस्त गांव वापस आ गये। कछुए के साथ खरगोश की दोस्ती किसी को पसन्द नहीं आ रही थी। फिर भी दोनों की दोस्ती में कोई दरार न आयी। ... कछुआ अक्सर खरगोश के घर पर रह जाता, क्योंकि उसका घर बड़ा था। घर में केवल दो ही प्राणी थे-मां-बाप। उधर कछुए के घर पर ख़ासी भीड़। जरा-सी खोली और उसमें पाँच-पाँच प्राणी—माँ-बाप और भाई-बहन! ऊपर से जब देखो तो मीट-मछली की बदबू। कछुआ स्वयं तो निरामिषभोजी था, पर माता-पिता और भाई-बहन पर उसका कोई अधिकार न था। वह समझाता-"कुछ ढंग से रहना सीखो। मेरे दोस्त से ही कुछ सीखो—देखो, कैसा सजा-सँवरा रहता है!"
घरवाले दो टूक जवाब देते, "अरे रह्य द्यो, रह्य द्यो! हम, हम हैं और वे, वे! चार किताबै का पढ्यो, खरगोश हुई गयो? ..."
कछुआ मन मार कर रह जाता। उधर खरगोश के माता-पिता बेटे की कछुए की दोस्ती से परेशान रहते; ख़ास तौर पर जब कछुआ उनके घर ही रह जाता। रिश्तेदारों से भगवान की शिकायत करते, "कैसा बेटा दिया है कि उसने दोस्ती भी की, तो कछुए से! भला बताओ कछुए से कोई निभाये भी, तो कैसे? न रंग-रूप, न कद-काठी और न कोई गुण! मन तो करता है कि इस कलूटे को चिमटे से मार-मार कर भगा दूँ, लेकिन इकलौते बेटे का ख़याल आ जाता है। ... न जाने क्या कर बैठे!"
कछुआ और खरगोश को शहर से लौटे हुए दो साल बीत चुके थे। खरगोश के मौसाजी सचिवालय में अंडर सेके्रटरी थे। एक दिन वे सपरिवार 'टोएटा' से खरगोश के घर पधारे। उस समय कछुए महाराज भी घर पर थे। जब डायनिंग टेबिल पर कछुआ भी बैठा, तो मौसीजी नाराज हो गयीं। उठकर कमरे में चली गयीं, कहा-"खाना यहीं भिजवा दो। वे किसी कछुए के साथ नहीं खा सकतीं!"
जब कछुए को इस बारे में पता चला, तो वह डाइनिंग टेबल से उठने लगा, पर खरगोश ने उसे नहीं उठने दिया। उलटे मम्मी की ओर कुछ ऐसे देखा कि जैसे कह रहा हो, 'अगर कछुआ नहीं बैठेगा, तो वह भी नहीं बैठेगा!' लेकिन तब मम्मीजी उठ चुकी थीं। कछुआ, खरगोश और उसके पापा व मौसाजी ने साथ-साथ खाना खाया।
मौसाजी ने मौसी को समझाने की कोशिश की, "ज़माना बदल रहा है अब कछुआ और खरगोश हर जगह साथ-साथ हैं-चाहे घर हो या दफ्तर, रेल हो या बस! और तो और एरोप्लेन में भी दोनों साथ-साथ सफर करते हैं, इसलिए इनको साथ लेकर चलना सीखो, ज़्यादा मुँह मत बिचकाओ!" , पर मौसीजी ने मौसाजी का प्रवचन अनसुना कर दिया। ...दोनों बहनों ने कमरे में ही खाना खाया।
सचिवालय में दो क्लर्की की दो जगहें खाली हुई थीं-एक रिटायरमेंट से और एक पदोन्नति से। मौसाजी का पुत्र भी अभी तक बेरोजगार था। उसका मन पढ़ने-लिखने में लगता नहीं था। किसी तरह इंटर पास हो पाया था। वह भी तब, जब मौसाजी ने शिक्षा विभाग के अनु सचिव से सिफ़ारिश करवा कर बोर्ड के एक अधिकारी के घर पर पुत्र महोदय से कापी लिखवाने की व्यवस्था करा दी। अधिकारी को उम्मीद थी कि जब नक़ल में कोई बाधा न थी, तो फ़स्र्ट डिवीज़न आनी चाहिए थी, पर उसने एग्ज़ामिनर को नम्बर बढ़ाने के लिए नहीं कहा। नतीज़ा, थर्ड डिवीजन! बहरहाल, फ़ेल रहने से तो अच्छा ही था।
दो पदों में से एक के लिए मौसाजी का पुत्र सशक्त उम्मीदवार था। दूसरी जगह के लिए अपने साढ़ू महोदय के सुपुत्र के लिए उन्होंने बात कर रखी थी, किन्तु न्योक्ता का कहना था-"यार! तू मेरे दस लाख का ख़ून क्यों करना चाहता है?"
मौसाजी ने कहा-"हरामी! मैं तुझे अपने बेटे का हिस्सा छोड़ने को कह रहा हूँ, दूसरी पोस्ट को कुर्बान करने के लिए थोड़े ही कर रहा हूँ। तेरे दस लाख तो सुरक्षित ही हैं।"
-अमां कहा यार! दो जगहों के लिए वह साला मुख्यमंत्री का पी.ए. मुझसे दस लाख हगा ही लेगा! मुझे क्या बचेगा? कद्दू? जब दोनों जगहों के बीस लाख मिलते, तभी तो मुझे दस बचते!
-उससे कह देना, एक की जगह तो मेरा बेटा ही है। मैंने उसके दसियों काम बिना पैसे के नहीं किये क्या?
-तो भी, वह साला पाँच से कम में तो नहीं मानेगा।
-जो भी हो, मैं तुझे दस लाख तो दिलवा ही दूँगा।
-चलो, देखते हैं!
दोनों पद 'रोजगार समाचार' में प्रकाशित हुए. डेढ़ सौ एप्लीकेशन्स आयीं। इनमें में कछुआ और खरगोश भी शामिल थे। खरगोश को नहीं पता था कि उसके लिए एक पद खरीदा जा चुका है, इसलिए वह स्वयं और अपने कछुआ मित्र के साथ जमकर तैयारी करने लगा। सामान्य ज्ञान, पत्राचार विधि, अंकगणित के सामान्य प्रश्न, देश का इतिहास और भूगोल-लगभग सभी प्रश्न लिखित और मौखिक रूप से तैयार हो गये। तैयारी में कछुआ खरगोश से आगे ही था।
एक-से-एक उम्मीदवार! कोई डबल एम.ए., कोई एल-एल.बी., कोई एम.बी.ए, कोई बी.टेक्। इंटर-बी.ए. वाले तो उनके आगे जैसे बच्चे! लेकिन जब 'भगवान' मदद करने पर उतारू हो, तो आदमी की क्या औक़ात? प्रक्रियाएँ पूरी हुईं और जब न्योक्ता महोदय के पास पन्द्रह लाख के एक-एक हज़ार के करारे नोट पहुँच गये, तो नियुक्ति पत्र जारी हो गये-पहले मौसाजी के पुत्र को, फिर उनके साढ़ू भाई के सुपुत्र को। साढ़ू भाई को इस अदने से कागज़ के लिए बारह लाख रुपये खर्च करने पड़े थे, जिसके लिए उन्हें गाँव से सटी ज़मीन का एक टुकड़ा आठ लाख रुपये में बेचना पड़ा। उसे यदि आराम से बेचा जाता, तो कम-से-कम दस लाख ज़रूर मिलते!
कछुए की आँखों में निराशा के आँसू आ गये। उसे हैरत थी कि खरगोश मियाँ कैसे बाज़ी मार ले गये, जबकि पेपर और इंटरव्यू उसके अच्छे हुए थे। गनीमत थी कि कछुए को वास्तविकता का पता नहीं चला, अन्यथा उसके प्राण ही सूख जाते। उसके पास ज़मीन भी न थी कि जिसको बेचकर आगे कोई जुगाड़ भिड़ाया जा सकता!
खरगोश नौकरी करने शहर चला गया। कछुए का मन तो नहीं लग रहा था, लेकिन कि़स्मत का लेखा मान वह भविष्य में निकलने वाले पदों के लिए नये सिरे से तैयारी में जुट गया।
बहुत दिनों बाद कछुए के मतलब की एक जगह निकली है। उसका फॅार्म भरने वह शहर जा रहा है। ...फॉर्म जमा करने के बाद वह अपने यार, खरगोश से ज़रूर मिलेगा—शायद वह कोई जुगाड़ भिड़ा दे!