कछुआ फिर बाजी मार ले गया / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :07 जनवरी 2017
ओम पुरी खुरदरे चेहरे के साथ एक मध्यम वर्ग के परिवार में जन्मे थे। अभिनय के प्रति उनका समर्पण ऐसा था कि उन्होंने इब्राहिम अल्काजी के जमाने में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में प्रशिक्षण लिया और बाद में पुणे फिल्म संस्थान में भी तीन वर्ष अभिनय की शिक्षा ली गोयाकि फिल्म उद्योग में आने के पहले उन्होंने सात वर्ष तक इस विधा का अध्ययन किया। स्वयं को अभिनेता के रूप में मांजने की ललक इतनी गहरी थी कि उन्होंने कभी पारिश्रमिक या भूमिका की लंबाई की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उस दौर में चिकने व सुंदर चेहरे वाले लोग ही अभिनय क्षेत्र में आते थे। जब अपने खुरदरेपन के साथ ओम पुरी ने अभिनय क्षेत्र में आने की इच्छा जाहिर की तब लोग उन पर हंसते थे। यह उनकी इच्छा शक्ति और जुनून ही था कि उन्होंने सारी सीमाएं तोड़ीं और पारम्परिक परिभाषाओं की सतह से ऊपर उठे। वे एकमात्र भारतीय अभिनेता हैं, जिन्होंने दो दर्जन अंतरराष्ट्रीय फिल्मोें में अभिनय किया।
गिरीश कर्नाड की 'गोधूली' उनकी पहली फिल्म थी परंतु यह सीमित क्षेत्रों में ही प्रदर्शित हुई थी। मेरी लिखी और बनाई 'शायद' का व्यापक प्रदर्शन हुआ। बांद्रा पश्चिम में रेलवे स्टेशन के निकट बने होटल मानसरोवर में शरद जोशी का स्थायी कमरा था, जहां मेरी मुलाकात ओम पुरी से हुई। उन दिनों मैं 'शायद' लिख रहा था और एक भूमिका रेडियो नाटकों के लिए प्रसिद्ध नंदलाल शर्मा के लिए लिखी थी, क्योंकि अाकाशवाणी, इंदौर के लिए मैंने भारत रत्न भार्गव के आग्रह पर 'तीसरी सिम्फनी' नामक एक घंटे का नाटक लिखा था, जिसमें नंदलाल शर्मा को जयपुर केंद्र से विशेष रूप से इंदौर निमंत्रित किया गया था। फिल्म की शूटिंग इंदौर में करने का निर्णय हो चुका था। नंदलाल शर्मा से संपर्क नहीं हो पाने के कारण वह भूमिका ओम पुरी को दी। उनका काम मात्र दस दिन का था परंतु उनके आग्रह पर उन्हें पूरे समय यूनिट के साथ इंदौर में ही ठहराने का तय हुआ। अोम पुरी ने फिल्म निर्माण के हर भाग में भरपूर सहायता की और उनके इस योगदान के कारण ही चालीस दिन में फिल्म बन पाई। 'शायद' में नसीरुद्दीन शाह नायक थे और ओम पुरी ने एक ऐसे व्यक्ति की भूमिका अभिनीत की जो शीत ऋतु में किसी बीमारी के बहाने अस्पताल में दाखिल हो जाता था ताकि उस निर्मम मौसम में फुटपाथ पर सोते हुए उसकी मृत्यु न हो जाए। ओम पुरी ने अपनी भूमिका की तैयारी के लिए कई दिन इंदौर की सड़कों पर घूमने और लोगों के आचरण तथा बोलचाल का अध्ययन करने का निश्चय किया। गोविंद निहलानी सर रिचर्ड एटनबरो की 'गांधी' की दूसरी यूनिट के कैमरामैन थे और उसी दरमियान उनके हाथ 'तमस' लग गई। किताब पढ़कर उन्होंने 'तमस' बनाने का निश्चय किया। 'गांधी' में एक चरित्र भूमिका में ओम पुरी को उन्होंने देखा था। उन्होंने ओम पुरी के साथ 'अर्धसत्य' व 'तमस' बनाई। प्रतिक्रियावादी ताकतों ने 'तमस' के प्रदर्शन में रुकावटें खड़ी कीं परंतु जज महोदय ने रविवार के दिन ही उसे देखा और निर्बाध प्रदर्शन का पथ प्रशस्त किया। यह पूंजी निवेशक मनमोहन शेट्टी का ही साहस था कि खुरदरे चेहरे वाले ओम पुरी के साथ 'अर्धसत्य' बन पाई। कहते हैं कि शायर जिगर मुरादाबादी मुशायरों में शेर पढ़ते हुए खूबसूरत लगने लगते थे। वे खुरदरे चेहरे के साथ जन्मे थे परंतु उनकी शायरी उन्हें एक आब प्रदान करती थी। कमोबेश ऐसा ही कुछ ओम पुरी के साथ होता था। अभिनय उन्हें आब और चमक प्रदान करता था। एक संवेदनशील व्यक्ति की आत्मा का ताप इसी तरह अभिव्यक्त होता है।
नसीरुद्दीन शाह ने 'कथा' में अभिनय किया था। सई परांजपे ने कछुए और खरगोश के बीच की प्रतिस्पर्द्धा से प्रेरित होकर यह फिल्म बनाई थी। ज्ञातव्य है कि इस पंचतंत्रनुमा रचना में खरगोश अति-आत्मविश्वास के कारण दौड़ में आगे निकलने पर एक जगह सुस्ताने के लिए बैठ जाता है। उसे नींद अा जाती है और कछुआ दौड़ जीत जाता है। इसी पैराबल को आग बढ़ाते हुए मैं एक काल्पनिक संवाद प्रस्तुत करता हूं कि प्रतिभाशाली नसीरुद्दीन शाह का खरगोश दौड़ में आगे निकलने के बाद सुस्ताने लगा और उसे नींद आ गई। ओमपुरी का कछुआ जिंदगी की दौड़ में आगे निक गया और अपने परम मित्र के बिना जिंदगी ढोने के लिए नसीरुद्दीन शाह को पीछे छोड़ गया।
संभवत: गहरे दु:ख में डूबे परममित्र नसीरुद्दीन शाह के मुंह से भी निकले, 'कमबख्त जिंदगी और मौत की दौड़ में भी मुझे पीछे छोड़ गया, मैंने पलक झपकाई और वह मौत के अागोश में चला गया।' ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह का रिश्ता किंग हेनरी और बैकेट की तरह था।