कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? / जयप्रकाश चौकसे

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कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?
प्रकाशन तिथि :02 मार्च 2017


दक्षिण भारत की 'बाहुबली' की बॉक्स ऑफिस सफलता ने तो रजनीकांत व उनके प्रिय निर्देशक शंकर को भी हिलाकर रख दिया। कुछ ही दिनों बाद 'बाहुबली दो' का प्रदर्शन होने जा रहा है अौर प्रदर्शन पूर्व ही दक्षिण भारत के सिनेमाघरों से किए गए प्रदर्शन अनुबंध से प्राप्त होने वाली रकम फिल्म को पहले शो से पहले ही मुनाफे का सौदा बना रही है। 'बाहुबली' ने मनोरंजन उद्योग के सारे समीकरण बदल दिए हैं। इस अंधड़ में बाहुबली की कलात्मकता पर बात ही नहीं की जा सकती। वह फूहड़ एक्शन फिल्म है, जिसमें सिनेमा की टेक्नोलॉजी अपने चरम पर पहुंचती दिखती है। बाहुबली दक्षिण से प्रकाशित 'चंदामामा' और देवकीनंदन खत्री की ' चंद्रकांता संतति' तथा 'भूतनाथ' इत्यादि का अजीबोगरीब मिश्रण है। आजादी के बाद ही दक्षिण से रंजन अभिनीत 'चंद्रकाता' का प्रदर्शन हुआ था, जो विशुद्ध फंतासी थी तथा उसी धारा की फिल्म है 'बाहुबली।' उस फिल्म में हर चीज का अतिरेक है। नायक दस-बीस को मारकर संतुष्ट नहीं है, उसे हजार दो हजार मारने होते हैं। फिल्म का अधिकांश भाग टेक्नोलॉजी अौर संपादन की टेबल पर रचा हुआ है।

फिल्म के प्रथम भाग में नायक का सबसे बड़ा सहायक कटप्पा है और आखिरी दृश्य में कटप्पा ही नायक को मार देता है और दर्शक की जिज्ञासा बनी रहे, इसलिए भाग एक को इस रहस्यमय मोड़ पर छोड़ दिया गया है। इस फंतासी की सफलता ने सामाजिक सौद्‌देश्यता की धारा को अवरुद्ध कर दिया है, जो भारतीय सिनेमा का आधार रही है। यहां तक कि शम्मी कपूर निर्देशित फिल्म 'बंडलबाज' के एक दृश्य में नायक अपनी बोतल से निकले जिन्न से कहता है कि वे पहाड़ पर चढ़कर नायिका का जीवन बचाएंगे। उस दृश्य में बोतल से निकले जिन्न का संवाद है, 'आज मालूम हुआ कि आम आदमी रहकर जीना कितना कठिन है।' उसी तर्ज पर आज हमारे अवाम को भी ज्ञात हो गया है कि अच्छे दिन कैसे होते हैं।

पेरिस के होटल के 'इंडिया सलून' नामक कक्ष में लुमियर बंधुओं ने फिल्म का पहला प्रदर्शन किया था, जिसमें जादूगर जॉर्ज मेलिए मौजूद थे। उन्होंने कहा कि इस नए माध्यम का उपयोग करके वे अपने जादू अर्थात 'हाथ की सफाई और नज़रों के धोखे' को अधिक रोचक बना सकेंगे तथा अपने तमाशे की सहायता से फिल्म भी बनाएंगे। उन्हें पहला साइंस फिक्शन बनाने का गौरव प्राप्त है। फिल्म का नाम था, 'जर्नी टू मून।' कालांतर में फिल्म माध्यम को जादू कहा गया। बाहुबली इसी जादू पर आधारित फिल्म है। फिल्मकार ने मायथोलॉजी का भी उपयोग किया है। मसलन शिशु श्रीकृष्ण को सिर पर उठाकर यमुना पार लाया गया था और यमुना की लहरें मचलकर शिशु श्रीकृष्ण के चरण छूती हैं। 'बाहुबली' में भी बालक बाहुबली को इसी तरह नदी पार कराई जा रही है। दर्शक अपने अवचेतन में दुबकी मायथोलॉजी के कारण यह दृश्य देखकर न केवल रोमांचित होता है वरन श्रद्धा से उसकी आंखें नम हो जाती हैं।

फिल्म में जाने कैसे अत्यंत साधारण संवाद पर खूब तालियां पड़ती हैं। मसलन 'शोले' का 'कितने आदमी थे रे सांभा' के सामने इसी फिल्म का सार्थक संवाद, ' सबसे बड़ा दु:ख है कि बूढ़े पिता के कांधे पर जवान बेटा जाए' अनसुना रह गया। कभी-कभी गलत बात की भी प्रशंसा होती है जैसे 'बाजीगर उसे कहते हैं, जो हारी हुई बाजी जीत ले।' दरअसल, बाजीगर महज ट्रिक्स दिखाता है उसका हार-जीत अथवा साहस से कोई संबंध नहीं है। इसी तरह की बात है, 'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?' अवाम इससे प्रभावित हो यह समझा जा सकता है परंतु सत्ता शिखर पर विराजा जादूगर भी उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार सभा में कहे कि 'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा' तो हम शर्मसार होते हैं। यक ब यक झटका लगता है कि क्या हम मीडियोक्रिटी के स्वर्णकाल में सांस ले रहे हैं? क्या बाजीगार सत्तासीन है?

स्टूडियो में ही ज्ञात हुआ था कि परेश रावल प्रति सप्ताहांत गुजरात जाकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भाषण देने की कला सिखाते थे और इसकी पुष्टि इस तरह से होती है कि परेश रावल गुजरात से ही सांसद चुने गए हैं। आश्चर्य नहीं कि मोदी जब भाषण देते हैं तो अवचेतन में परेश रावल ध्वनित होते हैं। शुक्र है कि महान कलाकार परेश रावल की संवाद अदायी मोदी की तरह नहीं हो गई है।

बर्लिन की एक कला विथिका में जिसे हिटलर की तस्वीर समझकर लगाया गया है, वह चार्ली चैपलिन की तस्वीर है, जो उनकी फिल्म 'ग्रेट डिक्टेटर' से ली गई है। भयावह यह है कि आज भी हिटलर फैन क्लब गुमनाम जगहों पर सक्रिय है। कुछ लोग मरकर भी नहीं मरते, जबकि अधिकतर लोग जीते जी जीने का स्वांग करते नज़र आते हैं। मायथोलॉजी से श्राप और वरदान हटा दो तो हजारों पृष्ठ की गाथा लघुकथा हो जाती है। हम कभी भी मायथोलॉजी से मुक्त नहीं हो सकते। यह अवाम को दिया गया श्राप है या वरदान है, कोई नहीं बता सकता।