कट्टरपंथी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
पूरे शहर में मौत जैसा सन्नाटा छाया हुआ था। सुनसान गलियों में आतंक पहरा दे रहा था। लोग ज़रा–सी तेज आवाज़ पर भी चौंक उठते। पंडित दीनदयाल आँगन में बैठे हुए थे। दरवाज़े पर थपथपाहट हुई. बिना कुछ सोचे–समझे उन्होंने द्वार खोल दिया। एक युवक तेजी से भीतर आया और गिड़गिड़ा उठा–"मुझे बचा लीजिए. कुछ गुण्डे मेरे पीछे पड़े हैं।" याचना उसकी आंखों में तैर रही थी। पंडित किंकर्त्तव्यविमूढ़। कट्टरता नस–नस में बसी थी। किसी का छुआ अन्न–जल तक ग्रहण नहीं करते थे। उन्होंने आग्नेय नेत्रों से युवक को घूरा। वह सिहर उठा। भीड़ दरवाज़े पर आ चुकी थी। युवक को उन्होंने भीतर कोठरी में जाने का इशारा किया।
भीड़ में से एक बाहर निकल आया–"पंडित जी, एक काफिर इधर आया था। हमने उसको इसी दरवाज़े में घुसते देखा है। देखिए न, वह अन्दर कोठरी में बैठा है।"
पंडितजी हँसे–"उसे तुम काफिर कह रहे हो? अरे वह तो मेरा भतीजा सोमदत्त है। आज ही जबलपुर से आया है। बाहर घूमने निकल गया था। वह तुमको मुसलमान समझकर भाग खड़ा हुआ होगा।"
"पंडितजी, आठ झूठ बोल रहे हैं।" कई स्वर उभरे–"अगर आप इसके हाथ का पानी पी लें तो हमें यकीन हो जाएगा।"
पंडितजी ऊँची आवाज़ में बोले–"बेटा सोमदत्त, एक गिलास पानी ले आना।" पानी आ गया। पंडितजी एक ही साँस में गट्गट् पी गए–"अब तो तुम्हें विश्वास हो गया?"
"हाँ! हो गया।" और भीड़ लौट गई।
युवक की आंखों में कृतज्ञता तैर रही थी।