कठघरे में कौन / पूनम मनु
-"बस्स कर, जब देखो शैला! शैला! शैला! पढ़ा-लिखाकर इतना बड़ा क्या सिर्फ़ इसीलिए किया था तुझे कि तू अपनी ज़िंदगी का अहम फैसला भी ऐसे बेवकूफाना तरीके से करे..." किरण का सब्र बांध तोड़ बह निकला।
-"अम्मा...बचपन से ही मेरे मन में ये बात गहरे तक बैठी है कि मेरी माँ दुनिया की सबसे अच्छी माँ है। अम्मा... अम्मा... मेरा भविष्य अब आपके-आपके हाथों में है। अम्मा प्लीज़...अम्मा!" वीर माँ के चरणों में बैठ उसके दुखते एड़ि-तलवों को सहलाते-दबाते उससे अपनी बात मनवाने की पुरजोर कोशिश में था।
पर, किरण भी अपने हठ पर अड़ी थी तो अड़ी थी। उसने अपने पैर उसके हाथों से खींचते फिर तल्ख अंदाज़ में डपटा उसे-"देख, ज़्यादा चिकनी-चुपड़ी बातें मत कर... मैं तेरी बातों में आने वाली नहीं...समझा तू!"
-"अम्मा... तुम तो पहले कभी ऐसी नहीं थीं। इतनी निर्मम। इतनी निष्ठुर। मेरी हालत देख भी तुम्हारा हृदय नहीं पिघलता..." किरण के अड़ियल रुख से खिन्न वीर के चेहरे पर लाचारी और उदासीनता फैलती चली गई.
इंजीनियर वीर प्रताप सिंह... पहली कक्षा से लेकर आईआईटी तक में टॉपर। बाहर की एक कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत। पैकेज पच्चीस लाख पहले ही साल में। केम्पस प्लेसमेंट। आज कितना विवश। कितना लाचार। सब होते भी।
क्या है ऐसा जो माँ-बाप नहीं करते अपनी औलाद के लिए. आज तक उसके माँ-बाप ने भी तो यही किया। पर आज जाने क्यों माँ अड़ी। बात गंभीर थी। पर इतनी नहीं जितनी कि माँ ने उसे बना दिया था। वीर को गहरे तक इस बात का यक़ीन था। तभी तो प्रतिदिन चींटियों तक के लिए आटा बिखेर आती माँ के आज के व्यवहार पर वह भीतर ही भीतर क्षोभ से भरा हुआ था। निर्मल हृदय वाली माँ के बर्ताव में इतनी कठोरता... कैसे...?
किरण का इस मामले से पूरी तरह यूँ तटस्थ बन जाना। मानों इस समस्या के सुलझाव पर कोई विचार करना तक समय की फिजूलखर्ची के सिवाय कुछ नहीं। बोध होते भी कि उसका प्रिय पुत्र इन दिनों कितना विचलित है। बड़े आश्चर्य की बात थी।
पर, वीर के पिता जो कोने में पड़ी एक आरामदायक कुर्सी पर बहुत देर से बेचैन बैठे थे... लगातार तल्ख होती जाती उनकी मूक वार्तालाप से उत्पन्न कुटिल मौन के लंबे विस्तार के मध्य एक अवरोध की भांति प्रकट हुए-"अरे, वीर की माँ! तुम खुद ही क्यों अनुमान लगा रही हो कि उस तरफ वाले बिलकुल ना मानेंगे। क्या पता वह मान ही जाएँ। चलकर देखने में क्या हर्ज़ है। इंसान ही तो हैं वह भी। हमें मारकर थोड़े न खा जाएंगे।"
-"अरे... तुम भी पागल हो गए हो क्या? ये तो बेवकूफ है। पर तुम...! तुम्हें क्या हुआ?" वीर के पिता का उद्देश्य अवश्य उन दोनों के बीच सुलह कराना रहा होगा। पर, इस बात पर उन्हें भी लताड़ पड़ सकती है उन्होंने शायद नहीं सोचा था। सही बात पर अपने अड़ियल रुख के लिए जानी जाती किरण आज सचमुच ही अड़ियल रुख अपनाए बैठी थी। ये लताड़ इसी रुख का नतीजा थी। अतः वे अकबकाकर चुप हो गए.
बचपन से ही होशियार, हंसमुख, साहसी उनका पुत्र जब भी अपना उज्ज्वल मुख लिए बालसुलभ कोई भी मांग करता हुआ उनके सन्मुख आता तो वह बिना कोई देरी किए उसकी मांग पूरे जोश से पूरी किया करते थे। पर आज...
नाम ऋषिपाल और स्वभाव से ऋषि। शांत, सरल स्वभाव के ऋषिपाल किसी फैक्टरी में प्राइवेट नौकरी करते थे। मामूली तंख्वाह पाने पर भी वे अपने लाडले वीर की हर इच्छा पर अपनी जान निकालकर रख देते थे। अपनी पत्नी किरण की बार-बार डांट खाते भी। किन्तु आज किरण के समक्ष स्वयं को बड़ा ही विवश महसूस कर रहे थे। ये ज़िद ऐसी न थी जो केवल उनके भर पूरा करने से पूरी हो जाती।
किरण पढ़ी-लिखी समझदार स्त्री थी। वह समाज के हर पहलू से वाकिफ़ थी। वे भी उसके डर से अनभिज्ञ न थे। जानते थे कि आज भले ही हर ओर छूआछूत, ऊँच-नीच के खात्मे का खोखला डंका बजता दिखता हो पर सत्य यही है कि निम्न वर्ग और छोटी जाति वालों का पुत्र बेशक उच्च शिक्षित, सभ्य, संस्कारवान क्यों न हो तब भी, तब भी उच्च वर्ग, उच्च जाति के लोग स्वेच्छा से तो अपनी पुत्री का विवाह उससे नहीं ही करते हैं।
पर, वीर दुनिया की बन्दिशों से बेपरवाह। नये विचारों वाला नौजवान था। अभी उसका परिचय समाज के उस 'घृणित पहलू' से नहीं हुआ था जिसमें सदियों पहले बनी और अब लगभग सड़ चुकी परम्पराओं के पैरोकार मानवता को ताक पर रख जात-पांत के नाम पर अपनी मनमरज़ी करते हुए प्रतिदिन उन जैसे जाने कितने मासूम प्रेमियों को ज़िबह कर देते हैं। तबाह कर देते हैं। वह क्रांतिकारी विचारों का लड़का यदि समझता तो किसी राजपूत की कन्या से प्रेम के विषय में सोचता भी नहीं-
-'बावला, ऊपर से माँ को भेजे है उनके घर रिश्ता लेकर। पगला गया लगता है। कहता है वह लोग जात-पांत नहीं मानते।' इस विचार के बार-बार मन में आते भी ऋषि वीर की मायूस सूरत देखकर हर हालत में उसी के साथ रहना चाहते थे।
-"क्या करेंगे...? अधिक से अधिक मार ही देंगे न वे लोग हमें...! क्या करना है वैसे भी हमें जीकर। जब हमारा बेटा हमारे रहते ऐसे संत्रास संताप में जिएगा तो!" अपने पुत्र का मलिन मुख देख विकल ऋषिपाल अब तर्क पर उतर आए थे। उनके खुद के वाक्य विरोधाभासी थे।
-"बात हमारी नहीं है... इसकी है! इसे कुछ हो गया तो!" किरण का डर उसके लबों पर आकर ठहर गया।
पर, माँ के हर डर से लापरवाह वीर अपनी ही उधेड़बुन में उलझा-सा उस पर झल्ला उठा-"अम्मा, अम्मा, मेरे और शैला के पास अब कोई भी रास्ता नहीं है। डॉक्टर ने कहा है अबोर्शन का समय निकल चुका है।"
-"क्या!" प्रलयकर रहस्योदघाटन
हैरत और गुस्से से किरण की आँखें फैलती चली गईं।
-"वह लड़की... बेशर्म..." किरण यकायक चिल्ला उठी।
-"नहीं अम्मा, इसमें उसका कोई दोष नहीं... मैं ही..." शर्म और लिहाज में वीर की गरदन झुकती चली गई.
किरण जहाँ थी वहीं की वहीं सुन्न... भीतर कहीं ऋषि भी काँप उठे।
-"हा! अब तो सिर्फ़ विनाश!" डर दौड़ता हुआ आया और किरण की पसलियों में सिमट कर बैठ गया। वह कई पल सिहरती हुई काँपती रही।
-"असल बात तो इसने अब बताई. ये देखो... असल बात! मैं तो पहले से ही कहती आई. ये जब भी शैला... शैला करता था। तब ही कोई डर मेरे भीतर पसर जाता था। कई बार समझाया इसे। बेटा, कालेज हॉस्टल में भले हो न हो समाज में अब भी वही ऊंच-नीच पसरी हुई है। लड़की राजपूत की है तो उससे दूर ही रहना...और ... और ... ये कहता रहा-माँ हम तो केवल दोस्त हैं। हमारा तो सब लड़के लड़कियों का एक ग्रुप है। फलाना है। ढीमकाना है..." कलेजे को थामे बैठी किरण का मुख क्रोध से लाल भभूका हो गया।
तड़... तड़... तड़... कई चांटे एक साथ वीर के चेहरे पर। खिन्नता और विवशता की पराकाष्ठा देखे कोई.
ऋषिपाल तो दहशत और ऊहापोह से भरे जहाँ बैठे थे। वहीं माथा पकड़े बैठे रहे।
दो कमरों के छोटे से घर में अब सिवाय साँय-साँय के और कुछ नहीं। जून की कड़ी दोपहरी में धुंध... जैसे तीनों के मध्य उतर आई थी।
पाँच माह पहले ली बेटे की 'आई ट्वेंटी' में बैठते आज फिर उसके पैर उसी तरह काँपे जैसे पहली बार इसमें बैठते काँपे थे। परंतु कंपन में अंतर रहा। उस पल कामयाब बेटे की पहली सफलता पर गौरवान्वित माँ के खुशी की अधिकता से सराबोर होने पर भी कहीं अंदर ही अपने भाग्य को अविश्वसनीय रूप से सौभाग्य में परिवर्तित होते देख किंचित अनजाने संदेह से भर काँप उठे थे और आज... निश्चित ही, किसी विनाश की ओर बढ्ने में यकीन भरते हुए मन उसी सौभाग्य पर मंडराती दुर्भाग्य की काली छाया से आतंकित हुआ तो उसके समर्थन में पैर काँपे थे।
उसने आज शैला की माँ से मिलने का फैसला किया। 'क्या पता एक माँ दूसरी माँ का मान रख ले।'
वैसे भी प्रेम जैसे संवेदनशील मामले में एक स्त्री ही दूसरी स्त्री की बात को गहराई से समझ सकती है। फिर यहाँ तो परिस्थितियाँ अपने बिखरे स्वरूप में थी।
-"वीर..." बुझा स्वर... मृत्यु से पहले मानों जीवन की उत्कंठा में तड़प रहा हो।
-"हाँ, अ माँ..."
यकायक उसने दिमाग को सजग किया-
-"कौन है रे ये ठाकुर...? किस जगह के हैं ये लोग...? क्या नाम है लड़की के पिता का...?"
-"बताया तो था शैला ने... वीर ने उत्साह में अपने दिमाग पर ज़ोर डाला।" अम्मा, किसी गाँव के सरपंच रहे हैं शैला के दादा, परदादा... बड़े रईस जमींदारों में गिनती होती है उनकी। " वीर का मुख आज मानों किरणों का केंद्र।
किन्तु, किरण जैसे-जैसे शैला के परिवार के विषय में जानती जा रही थी। वैसे-वैसे उसके पैरों तले की ज़मीन अधिक दलदली होती जा रही थी। किसी अनजान अपभय से भरी वह अपने हाथों को बार-बार मसले जाती थी। इसी त्रास के वशीभूत तो वह वीर के पिता को कसम धरम देकर घर छोड़ आई थी।
-"एक काम कर, तू यहीं रुक। अंदर अकेली मैं जाऊँगी।" गंतव्य पर गाड़ी के रुकते ही माँ ने पुत्र को आदेश दिया।
क्या अजीब बात थी कि गाड़ी से बाहर निकलते ही वहाँ की हवा में भी किसी अजनबीपन का एहसास-सा हुआ उसे। 'इतनी बड़ी हवेली, वह भी शहर में...!' कोई सिहरन उसकी हड्डियों में आकर ठहर गई. उसे लगा उसके गाँव की सुनसान हवेलियाँ नया रूप धर कर शहर में आ गई है। बड़ी हवेलियों के बड़े किस्से और बड़े राज़... अचानक उसके कान के पीछे पसीना उतर आया। वह भौंचक कई घड़ी उस घर के दरवाजे को खड़ी देखती रह गई... जिस घर में उसे बेमन प्रवेश करना था। जुड़ाव से परे यहाँ पर कोई रिश्ता जोड़ना...!
दुविधाओं में घिरी वह उस जगह भले आज अकेली थी। पर एक आस उसे सम्बल देने का कार्य अपनी पूरी निष्ठा से कर रही थी-"क्या पता उधर की स्थिति इधर से भी बुरी हो..." बाद इसके एक उच्छ्वास
वीर उसे अपलक देखे जा रहा था। वह समझ न पा रहा था। माँ की इतनी हिचकिचाहट का कारण क्या...!
उसने पलट कर एक बार वीर को नज़र भर देखा। बाद इसके गेट पर खड़े गार्ड से मुखातिब हो गई-"जी, मुझे रजनी सिंह जी से मिलना है।"
-" जी, आप कहाँ से आई हैं। क्या परिचय दूँ आपका...मेमसाब को? गार्ड का स्वर नरम था। वह शायद उसे गाड़ी से उतरते देखा चुका था।
-"जी, मेरा नाम किरण है। वे मुझे नहीं जानती हैं। किन्तु मेरा उनसे मिलना निहायत ही आवश्यक है।" किरण ने आत्मविश्वास का परिचय देते हुए गार्ड को उन तक अपनी बात पहुँचाने का निवेदन किया।
-"आप ठहरिए. मैं अंदर पूछ कर आता हूँ..."
-"हम्म ठीक..." के साथ ही उसकी नज़रें गार्ड की पीठ पर चिपक गईं। माथे की शिकन को जितना हल्का करने की कोशिश करती जाती। उतना ही उसक धैर्य जवाब देता जाता रहा। गार्ड के साथ गईं नज़रें लौटकर न आयीं।
वह चौंक उठी तब जब गार्ड ने उससे कहा-"जी, आइए... मैडम आपको बुला रही हैं।"
उसने गार्ड पर एक फ़ीकी-सी मुस्कान डाली और डगमगाती हुई उसके संग भीतर प्रवेश कर गई. इस वक़्त वीर को अनदेखा करना उसे बेहतर लगा।
कुछ ही देर में उसने अपने आपको मुख्य हॉल के दरवाजे पर पाया। कई पल असमंजस से भरी किन्तु चौंधियाई हुई-सी वह आँखें फाड़-फाड़ उस बड़े हॉल के अंदर उसकी महंगी साजसज्जा और बड़े-बड़े मखमली गद्दों वाले सोफ़ों को देखती रही। कि तभी न जाने कैसे उसकी पहली निगाह से चूके ठीक उसके सामने वाले सोफ़े में धँसी बैठी मुटल्ली-सी एक स्त्री पर पड़ी। खिले साँवले रंग में उसके तीखे नयन-नक्श अधिक अभिमान से और भी अधिक तीखे हो गए लगते थे।
किरण को देखते ही उसने सामान्य दिखने की एक छोटी-सी कोशिश के साथ सोफ़े से उठकर उसके स्वागत का जैसे मात्र स्वांग किया-"आइए, आइये..."
-"जी, नमस्ते!"
-"नमस्ते। जी, बैठिए..."
-"जी, हाँ... जी, मेरा ना...म..."
इससे पहले कि हिचक भी खुलती उससे पहले ही एक भारी-भरकम हाथी जैसे शरीर ने हॉल में गरजती-सी आवाज़ के साथ प्रवेश किया। यकायक इतना शोर... किरण के हृदय को कंपाने को बहुत था। उसने घबराकर उधर देखा-
लस्त-पस्त-सा एक व्यक्ति आते ही सबसे बेपरवाह-सा उसकी विपरीत दिशा वाले सोफ़े पर पसर गया। उसकी नज़र किरण पर पड़ी न पड़ी पर किरण उस चेहरे को देखते ही पहचान गई.
-"गजिया! ये यहाँ कैसे...? वह भी इस घर में। इस अधिकार से? हे ईश्वर! रहम...!" चेहरा भक्क सफेद। काटो तो खून नहीं।
-"जी, हाँ बताइए..." वही खरखरी-सी आवाज़ उसके कानों में पड़ी तो वह जैसे सोते से जागी। जो उस हाथी जैसे व्यक्ति को देखते ही बिना उसकी परवाह किए उसकी ओर लपक गई थी। सहसा सामने आ खड़ी हुई. -"जी, वो..." उसने उंगली से उस सोफ़े की ओर इशारा किया जहाँ वही आगंतुक फोन पर लगा हुआ अपनी ही दुनिया में विचर रहा था।
-"वो, वह मेरे पति ठाकुर गजेंद्र सिंह जी हैं। जो अबके एमपी के चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं..."
-"क्या...?"
-जी, हाँ..."
उसने उस स्त्री की आँखों में गहरे तक झाँका। उनमें उसे किसी गर्व की अनुभूति नहीं हुई. यकीनन ये अभिमान का समंदर था जो उस स्त्री की आँखों में ठाठे मार रहा था।
'तो, क्या ग...गजे... गजिया ही ठाकुर गजेंद्र है!' मन के भीतर उमड़-घुमड़ आए प्रश्नों को भीतर ही दबोचा उसने।
-"जी, शै...शै...ला..." स्वर में कंपन था।
-"वो हमारी बेटी है।" इस उत्तर में ऐसा कुछ था जो उसे भीतर तक काट गया। अब वह पानी-पानी थी। अचानक ही उसका शरीर अपना चैतन्य खो बैठा। मानों प्राण नहीं। वह सोफ़े पर ही लुड़कने लगी। कल्पना से भी अधिक डरावना यथार्थ...
-"क्या हुआ...? आप ठीक तो है..." उस स्त्री ने सोफ़े पर उसके लुड़कने से पहले संभाला उसे।
-"अरे, क्या हुआ...?" वह आदमी गजेंद्र भी उनकी ओर मुड़ा।
-"पता नहीं, लगता है इन्हें चक्कर आ गया है।" शैला की माँ ने जितनी तीव्रता से उन्हें जवाब देकर अपने मुवामले से दूर ही रहने का इशारा दिया। उतनी ही तेजी से किरण ने अपने मुख पर अपना आँचल डाला।
-"लगता है, मे... में रा... बीपी बढ़ गया है... मैं... मैं बाद में आकर आ...पसे मिलती हूँ..." सोफ़े से बमुश्किल उठते हुए किरण ने फंसी-फंसी-सी आवाज़ में कहा।
-"अरे, कहाँ...रुकिए तो!" अब असमंजस में डूबने की बारी शैला की माँ की थी।
अचानक उनके मोबाइल फ़ोन की घंटी बज उठी। दूरभाष के चित्रपटल पर नंबर देखते ही वे अजीब पेसोपेश में पड़ गईं। फोन ज़रूरी था शायद। बिना देरी किए उधर उन्होंने फ़ोन उठाया। इधर किरण ने मौके का लाभ। वह तेजी से नमस्ते करती हुई उनके घर से बाहर निकली। बाहर निकलना ऐसे रहा मानों कुछ देर यदि वह इस हवेली में और ठहरती तो उसका दम घुट जाता। घर के बाहर भी एक पल ठहरना उसके लिए आसान न था। वह गाड़ी की ओर लगभग दौड़ पड़ी।
-"क्या हुआ अम्मा!" वीर माँ को यूं भागते हाँफते देख चिंतित हो उठा।
-"कुछ नहीं! तू गाड़ी चला... जल्दी..." माँ ने रूखेपन से उसे आदेश दिया। वह कोई बच्चा तो न था कि हर बार चुप उसकी आज्ञा का पालन करे। बड़ा था। कमाऊ था। सबसे भिन्न सबसे अहम बात उसे इस बात का एहसास भी था।
-"कुछ हुआ भी...? कुछ तो बताओ...?" आवाज़ में माँ की आज्ञा की अवज्ञा का पुट होने के साथ-साथ बड़े होने का दंभ भी साफ़ झलक रहा था। ये माँ के प्रति उसकी चिंता से उपजे बोल थे कि वह शैला के प्रति किसी अनिष्ट की आशंका में क्रूर-सा हो उठा था। पता नहीं।
-"तू चुप गाड़ी चलाता है कि एक झापड़ रसीद कर दूँ यहीं!" हाँफती माँ की गुस्से में लाल आँखें... वीर चुप गाड़ी में ड्राइवर की सीट पर बैठ गया। किरण ने गाड़ी में बैठ जैसे ही झटके से गाड़ी का दरवाजा बंद किया वैसे ही गाड़ी अपने घर की ओर फर्राटा भरने लगी।
कुआशंकाओं से भरा वीर... पीछे बैठी निढाल-सी अपनी माँ को बार-बार शीशे में देखकर बेचैन हुए जाता रहा।
कई दिन हो गए थे। किरण जब से वहाँ से आई थी तब से मुंह ढाँपे बिस्तर पर पड़ी थी। न खाने का होश। न पीने का। जाने कौन-सा गम था जो सीने से लगा लगाई थी वह। पिता पुत्र दोनों ही के बार-बार वजह पूछने पर सिर्फ़ मौन हाथ लगता। दोनों बहुत परेशान थे। न बुखार। न खांसी. जाने कौन-सी बीमारी से घिरी वह बिस्तर पर मरणासन्न हुई जाती थी।
वह शैला से कई बार इस विषय में पूछ चुका था कि-पूछे अपनी माँ से कि-'क्या हुआ था वहाँ।' परंतु उधर से भी उसे कोई संतोषजनक जवाब अभी तक नहीं मिला था।
शैला का कहना था-" उसकी माँ ने उसे बताया कि-' कोई किरण नाम की लेडी उनसे मिलने आई तो ज़रूर थीं। पर वे जब तक कोई बात कर पातीं उससे पहले ही उनकी तबीयत खराब-सी हो गई थी। इन फेक्ट इससे पहले कि वे ढंग से एक दूसरे को परिचय भी दे पातीं... उससे पहले ही वे वहाँ से चली गयी थीं।
-"ऐसा कैसे हो सकता है! जब माँ वहाँ बात करने गयी थीं तो बिना कोई भी बात किए कैसे लौट सकती हैं" वीर शैला की बात पर विश्वास नहीं कर पा रहा था।
इधर किरण के रात-दिन बेमतलब रोते रहने से जैसे घर में शूल उग आए थे। उसकी आँखों के पपोटे सीले-सीले, गीले, लाल सूजे मानों उस घर में कोई सोग मनाया जा रहा हो। वीर के पिता उसकी ये हालत देख अंदर ही अंदर घुटे जाते थे। दवा की खुराक की जगह दिन में वे कई बार पूछते-"वीर की माँ, क्या बात है... क्या रंज है। जो तुम मुझसे छुपाकर भीतर ही भीतर घुल रही हो।" पर वह थी कि 'सब ठीक है' की रट लगाए जाती थी।
साँप को सामने देखकर आँखे मूँद लेना। उससे बचने का बिना कोई भी प्रयास किए. ये तो हद थी! कुछ ऐसा-सा ही किरण कर रही थी। तभी तो समस्या का समाधान ढूँढने से बेहतर उसे समस्या से नज़र चुराना लगा। अपने सभी कर्तव्यों से विमुख निःसन्देह वह भूल गई थी कि बिना मुकाबला किए किसी भी समस्या से निजात नहीं मिलती। जैसे आकुल वीर की समस्या अब भी जस की तस थी।
-"माँ, आप लोग कोई बात-वात करोगे शादी की या फिर हम दोनों कोर्ट मेरीज ही कर लें... शैला के पास समय नहीं है। शैला भी कोर्ट मेरीज को राजी है।" दस दिन से बंधा धैर्य आखिर जवाब दे ही गया वीर का। वह माँ की तबीयत से अधिक शैला की चिंता में घुला जाता था यकीनन।
वीर की बात सुनते ही अब तक मरणासन्न अवस्था में पड़ी किरण का चेहरा यकायक ताप से तमतमा गया। उसे कतई उम्मीद नहीं थी कि वीर ऐसे भी कह सकता है। कर सकता है। वह बिस्तर पर उठकर बैठ गई. उसका मलिन मुख किसी भयानक चंड से जल लाल काला हो उठा।
-"बहुत बड़ा हो गया है रे तू तो! अपने लिए हमसे अलग भी सोच सकता है तू। इसका तो मुझे सपने में भी गुमान न था।" एक-एक शब्द चबा-चबाकर कहा किरण ने।
वह वीर को खा जाने वाली नज़रों से घूरने लगी। उसके चेहरे को इतने विकृत रूप में कभी नहीं देखा था वीर ने। वह हड़बड़ाया-सा माँ की ओर लपका-"अम्मा... माँ... ऐसी बात नहीं है..."
-"ज्यादा बकवास न कर... सब समझती हूँ मैं!" किरण ने बुरी तरह हड़काया उसे।
-" तुम्हारी कसम अम्मा... तुम्हारे बिना... मेरा कुछ नहीं। अम्मा... सच! सच माँ... शैला की परेशानी भी तो समझो! वह फफकता हुआ अपनी माँ के चरणों में झुक गया। झुका रहा। कई पल यों ही बीत गए. किरण पता नहीं किन विचारों में खोई हुई थी। उसने अपने चरणों में झुके पुत्र के कंधे पर अब तक किसी भी आश्वासन का हाथ नहीं रखा था। स्थिति बहुत ही गंभीर थी। वक़्त उदास-सा दोनों के पास से गुजर रहा था।
-"अम्मा..." वीर अपनी माँ के घुटने हिलाते हुए शिशु सदृश बिलखता रहा।
-"सुन, एक काम कर... कल तू मुझे शैला के पिता के दफ्तर ले चल। शैला की माँ मुझे कुछ सुलझी हुई महिला नहीं लगीं। अपने परिवार के रसूख पर अभिमान करती हुई वे बात को बिगाड़ देंगी। मुझे ऐसा लगा उनसे मिलकर। तभी मैं उस दिन उनसे कोई भी बात किए बिना चली आयी थी। शैला के पिता से बात करूँ तो शायद बात बने..." पता नहीं किन भावनाओं में बहकर किरण ने बेटे के कांधे पर हाथ रखा। याकि बेटे के हाथ से निकलने के डर से भयभीत वह बेटे के पक्ष में निर्णय लेने को विवश थी।
सुनते ही गुलाब-सा खिल उठा वीर। माँ का हाथ चूमता उसे गले से लगा बैठा। जैसे कोई विध्वंस होने से बच गया हो।
-"माँ... माँ... अम्मा..."
-"हाँ रे... माँ कभी अपने बच्चों को दुखी नहीं देख सकती। भले उसके लिए उसे अपनी बलि ही क्यों न चढ़ानी पड़े।" वह कातर दृष्टि से अपने पुत्र का सलोना मुखड़ा चूमने लगी।
-"नहीं अम्मा... ऐसा कुछ नहीं होगा। शैला सब संभाल लेगी। बस, आप एक बार वहाँ ज़िक्र छेड़ आओ... बाकी सब शैला..."
-"ठीक है! ठीक है! चल उठ। ढंग से भोजन कर... कई दिन हुए भोजन भी ढंग से नहीं किया तूने और सुन, अपने पापाजी को ये बात बताने की कोई ज़रूरत नहीं है। जब बात बन जाएगी तो सीधे खुशखबरी ही सुनाएँगे उन्हें..." उसने उसे बीच ही में टोका।
-"ठीक है अम्मा..."
प्रफुल्लित वीर का आँखें पोंछना देखती रही किरण।
आज उसने वीर के पिता को जी भर निहारा। भाग-भाग कर उनके सभी काम किए. उनके लिए बढ़िया-सा नाश्ता तैयार किया और बाद इसके उन्हें ऑफिस जाते दूर तक देखती रही।
गाड़ी में बैठी तो ऐसे बैठी जैसे अपने आखिरी उड़नखटोले पर बैठ गई हो आज।
जैसे ही वीर ने शैला के पिता के ऑफिस के सामने गाड़ी रोकी। किरण ज़ोर से चिहुँक उठी-"तू मत आना भीतर। यहीं रुक...जब तक मैं न पुकारूँ"
-"अम्मा, लेकिन..."
-"यहीं रुक! जब तुझसे कहा तो!"
-"ठीक है अम्मा..."
किरण की आँखों में आँसू भर आए. वह कई पल वीर को एकटक निहारती रही-"तेरी क्या गलती है बेटा...तू तो अंजान है...ज़िंदगी ही बेरहम है जो मासूमों को सजा देती है। काश! बीता बीत जाता!" होंठों में बुदबुदाई और बाद इसके वह झटके से ठाकुर गजेंद्र के ऑफिस की ओर बढ़ गई.
"क्या हुआ है माँ को... अम्मा का व्यवहार इन दिनों अजीब-सा क्यों हैं।" हैरान वीर अपनी माँ की मानसिक स्थिति को समझ नहीं पा रहा था। एक बार ये शादी वाली बात बन जाए फिर वह माँ को बहुत खुश रखेगा। कोई दुख न देगा। वह और शैला अम्मा की खूब सेवा करेंगे। मन को तसल्ली देता रहा...
-"ठाकुर साहब हैं क्या अंदर... मुझे उनसे मिलना है..."
-"जी, हैं...एक मिनट रुकिए. मैं उनसे पूछकर आता हूँ।"
वह दो मिनट बाद ठाकुर के केबिन में थी।
-"जी, आइए...आइए. बताइए मैं आपकी क्या सेवा कर सकता..." निष्ठुर शख्सियत वाले चेहरे पर शराफत का मुलम्मा। स्वर इतना मीठा जैसे शहद। सामने बैठी अधेड़ महिला को बिना ठीक से देखे ही सेवा को तत्पर। आज का जनसेवी. जवान युवती होती तो नज़र न हटती उसके चेहरे से उसकी।
कई पल वह चुप बैठी उसे घूरती रही।
-"जी, बताइए मैं आपकी क्या सेवा..."
-"सेवा की मुझे नहीं, तुम्हें ज़रूरत है!" अचानक स्वर कठोर हो उठा किरण का।
-"क्या मतलब... कौन हैं आप?" असमंजस में बैठे ठाकुर को जैसे किसी खतरे का भान हुआ। वह सावधान होकर बैठ गया। कहीं विपक्षी पार्टी की तो नहीं। तत्क्षण दिमाग में घूमा।
स्वर पहले से भी अधिक नरम और मीठा-"जी, मैंने आपको पहचाना नहीं।"
-"पहले खुद को तो पहचान ले गजिया... तेरी बेटी बिन-ब्याही माँ बनने वाली है। ज्ञात है तुझे..." स्वर इतना कड़वा और तीखा था कि एक मिनट नहीं लगा ठाकुर को उस स्त्री को पहचानने में।
-" किरनी तू! तू यहाँ कैसे...? और ये क्या बकवास कर रही है तू! एक मिनट के सौंवे हिस्से से भी पहले अपनी कुर्सी से उछला ठाकुर गजेंद्र किरण के आख़िरी शब्दों को सुनते हुए.
-"बकवास नहीं है! सच है ये! मेरा बेटा उसके पेट में पल रहे बच्चे का बाप है। वीर प्रताप सिंह। यकीन न हो तो अपनी बेटी से फोन कर पूछ ले अभी। दोनों कोर्ट मेरीज करने जा रहे हैं।" मामला जितना संवेदनशील था। उतने ही ग़लत ढंग से उसे पेश कर रही थी किरण। जाने क्या हुआ था उसे। लगता था बात बनाने नहीं बिगाड़ने आई है।
-"ठहर तू... बताता हूँ तुझे अभी! कुम्हारी कहीं की। तेरी ये औकात कि तू मुझसे अपना रिश्ता जोड़े।" गजेंद्र फूंफकारते हुए शैला को फोन मिला रहा था। उसे किरण की बात का रत्ती भी यकीन न था। फिर भी वह अपनी तसल्ली कर लेना चाहता था।
-"हाँ, पापा मैं वीर से शादी करना चाहती हूँ। उसकी माताजी आज आपसे मिलने आएंगी। वीर ने बताया है मुझे। पापा प्लीज़... हाँ कर दे...ना..." और... और गजेंद्र के ऊपर जैसे ये वज्रपात था। एक तो किरनी सामने थी। ऊपर से उसकी बेटी ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा था। बाकी जानकारी लेना आवश्यक न था। वह समझ चुका था किरण जो कह रही है। सच कह रही है।
विषैली मुस्कान बिखेरे किरण खा जाने वाली नज़रों से सामने बैठी उसे लगातार घूर रही थी।
-"अब क्या कहेगा गजिया... और क्या करेगा तू! तब जब मैं तुझे तेरे गुनाह की सजा सुनाऊँगी। जिस आग में मैं बरसों जली। अब पूरी उम्र जलेगा तू।" आँखों में अंगारे भर वह गजेंद्र को जैसे बस भस्म कर देने वाली थी।
-"ऐ! कुम्हारी, अपनी औकात मत भूल... भूल गई क्या तू! मेरी बेटी की चिंता तू मत कर। उसे संभालने के लिए अभी मैं ज़िंदा हूँ और सक्षम भी। अपनी सोच। अपने बेटे की खैर मना... अगर वह मेरी बेटी से दोबारा मिला तो ज़िंदा ज़मीन में गड़वा दूंगा उसे। बड़ी आई मुझे धमकाने... साली, खुद ही निकलेगी यहाँ से या लात मारकर बाहर करूँ तुझे।" ठाकुर गजेंद्र का रोम-रोम किसी ज्वालामुखी-सा धधक रहा था। उसके मुंह से जैसे विषैले सर्पों के जहर की बौछार हो रही थी।
किरण के स्थान पर यदि इस समय और कोई स्त्री होती तो काँपती हुई भागती वहाँ से। पर किरण जैसे पत्थर हो गई थी। बोलते-बोलते गालियाँ देते गजेंद्र हाँफता रहा और वह बुत बनी उसे देखती रही।
-"भला लग रहा है मुझे... तुझे कुत्ते की तरह हाँफते देखकर... कुत्ते की मौत भी मरेगा तू। इसका भान है मुझे। तेरे पापों की सजा स्वयं ईश्वर ने निर्णीत की है। मैं तो पहले भी लाचार थी। आज भी लाचार हूँ।" बिना किसी खौफ। बिना किसी डर के किरण अटल बैठी रही। उसकी धमनियों में रक्त के तेज प्रवाह की चप-चप आवाज़ उसे निडर बना रही थी।
-"सुन, तेरी धमकियों से ना डरता मैं। तुम्हारी बहादुरी जानूँ हूँ मैं। अपने बेटे को आगे करके जो तूने मुझसे बदला लिया है न... ये तूने अच्छा नहीं किया... नहीं किया... समझ ले आज से तू बिन बेटे की हो गई. अब निकल यहाँ से!" ठाकुर गजेंद्र की इच्छा अवश्य किरण की गर्दन मरोड़ने की रही होगी नहीं तो इतने ज़ोर से दाँत नहीं भींचता वह कि दांतों के किट-किट की आवाज़ भी किरण तक पहुंचे।
-"गजिया, आज मैं फिर उस कष्ट में हूँ। जिसमें पच्चीस साल पहले तूने मुझे झोंका था। पर फिर भी मैं यही चाहती हूँ कि तेरे जैसे हर पापी को ऐसी ही सज़ा मिले" ये दर्द था कि बददुआ।
-"तू सीधे-सीधे यहाँ से जाती है, या बुलाऊँ चपड़ासी को। साली..."
-"अरे रे रे, इतना क्रोध! जल जाएगा तू! स्वयं ही जल जाएगा।"
वह नागिन-सी फूत्कार उठी-
-"पहले असल बात तो सुन... फिर बुलाना चपड़ासी को। चपड़ासी को क्या मैं तो कहूँ हूँ सारी दुनिया को बुलाना। अपनी पत्नी रजनी को बुलाना। बेटी को बुलाना। रिश्तेदारों को बुलाना। सारे समाज को बुलाना। सबको बुलाना... पर पहले सुन तो ले... ये जो वीर है ना... वीर! मेरा बेटा... दरअसल ये तेरे पापों का प्रतिफल है! तू इसे मार भी नहीं सकता। जानता है क्यूँ...? क्योंकि ये तेरे उसी गुनाह का फल है जो तूने पच्चीस बरस पहले बलपूर्वक मेरे गर्भ में रोपित किया था। मेरी शादी से ठीक आठ दिन पहले!"
-"बता... कैसी रही सज़ा? उस ऊपर वाले की? तेरा ही बेटा और तेरी ही बेटी!" वक्र दृष्टि और वक्र हो गई.
जैसे आसमान से गिरा ठाकुर रामेश्वर...
-"ऐ... ऐ...क्या बकवास है ये... तू इतना नीचे... झूठ बोलती है तू... ऐसा कैसे... मैं कैसे मान लूँ... ना ना... झूठ! झूठ! झूठ!"
कंटीली-सी हवा लहराई और एक क्रूर अट्टहास हवा में तैर गया।
-" नहीं सोचते न! हाँ, नहीं सोचते... तुम जैसे बलात्कारी किसी मासूम का बलात्कार करते कि-इससे पैदा संतान यदि किसी दिन अंजाने में तुम्हारे अपने ही खून को बर्बाद, अस्तमित कर बैठी तो! नहीं सोचते न... कि बड़ी होकर यही अनचाही सन्तानें किसी दिन तुम्हारी ही चाही और जायज़ बेटी-बेटे से विवाह कर बैठी तो! शारीरिक सम्बंध बना बैठी तो! नहीं सोचते ना... अब सोचोगे... हाँ, अब सोचोगे। सोचना पड़ेगा तुम लोगों को। सोचना पड़ेगा। पृथ्वी थक चुकी है अब तुम जैसे पिशाचों की विधिविरुद्ध क्रियाकलापों से उपजे बीज, फलों को सींचते-सींचते। अब सब उगल देगी वह। सब... हा-हा हा...
-"यकीन न हो तो डीएनए करवा लेना। पर, एक बात सुन ले ध्यान लगाकर! यदि मेरे बेटे को कुछ भी हो गया तो सोच ले... तेरा क्या हश्र करूंगी मैं। कुम्हारी हूँ दो चक्को में पीसकर तेरा मलीदा न बना दिया तो कहना। तू इंसान नहीं है... जानती हूँ मैं। इसी वास्ते एक लंबा खत भेज चुकी हूँ मैं एक विश्वासी पत्रकार को। ऐसी अवस्था में वह बिना कुछ भी सोचे तेरा काला चिट्ठा सारे अखबारों में छपवा देगा। चुप दफा कर दे अपनी बेटी को कहीं। या तू ही छोड़ दे ये शहर। चला जा... वहाँ, जहाँ वीर तुझे कभी न ढूंढ पाये। वरना मेरा पूत है वह। जब ज़िद्द पर आएगा तो तू संभाल न पाएगा। फेर देता फिरयो उसके सवालों के जवाब... मैं तो चली।" कहते ही कुर्सी छोड़ दी किरण ने।
'मैं भी तो कम गुनहगार नहीं। न मैंने वीर को जन्म दिया होता न आज ये समस्या मेरे सामने आती। काश! हमें कोई स्वतन्त्रता मिली होती। ममता और परिस्थितियों के भंवर में फंसकर ऐसे बच्चों को जन्म देना काश! हम स्त्रियॉं की मजबूरी न होता। पर, ऐसे पापियों का क्या... जो अनजान बच्चों को अंजाने में ही ऐसे पापों की और धकेल रहे... अपना ही भाई और अपनी ही बहन... छि!'
वह भीतर ही भीतर लज्जित होती रही। पर उसका लज्जित होना स्वयं उसके लिए बिलकुल नहीं था। वह तो लज्जित थी ईश्वर के बनाए दो इन्सानों में से किसी एक के बलपूर्वक दूसरे के जीवन को तबाह करने पर। ऐसी अनचाही औलादों को पृथ्वी पर लाने और अक्सर उनके पूरे जीवन को तंग बदरंग रस्तों से गुजरने को मजबूर करने वालों पर। वह लज्जित थी समाज की दमघोंटू रस्मों के चलन पर। पर इसका सही-सही दोषी कौन है के तर्क वितर्क से परे...
-"अम्मा... क्या रहा..." माँ का अब तक का विचलित मौन वीर का धीर छीने था।
-"अरे हाँ! सब ठीक रहा। वो, शैला की माँ से बात करेंगे। सुन, तू कुछ दिन अभी शैला से मिलियो मत। अच्छा नहीं लगता न विवाह से पहले ऐसे..." किरण ने कलेजे पर पत्थर रख कर मुसकुराते कहा।
अब वीर कैसे इंकार करता। वह तो आसमान में उड़ने लगा।
एक दिन गया। दूसरा भी गया। आज तीसरा दिन... कोई बेकली थी जो उसके कलेजे को जकड़े थी। वह हँसना चाहती। हँस न पाती। खाना चाहती। खा न पाती। शनै-शनै शरीर पीला निस्तेज। किसी अनहोनी की आशंका हर घड़ी। आज की सुबह भी कुछ अलग-सी न थी। सुबह के नौ बजे तक वीर का ऑफिस निकलना रोज की भांति था। पर ये क्या उसके निकलने के कुछ देर पश्चात ही-
-"अम्मा... अम्मा..." वीर बदहवास-सा उसकी ओर गिरता, पड़ता, दौड़ता चला आ रहा था।
-"क...क्या हुआ रे...ऐसे कैसे तू बुरी तरह रो रहा..." किरण का कलेजा मुंह को आ गया।
-"अम्मा..." वीर ने सिसकते हुए एक अखबार उसके आगे कर दिया।
किरण ने झपटकर अखबार उसके हाथ से छीना-सामने ही एक बड़ी खबर छपी थी-'शहर के जाने-माने बिजनेसमैन ठाकुर गजेंद्र सिंह जी की सुपुत्री कुमारी शैला की कल रात एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. वे चौबीस बरस की थीं...'
" हा! ...
उसने रोते बिलखते अपने वीर को अपने कलेजे में छुपा लिया।
वाह रे पुरुष... तेरी झूठी शान... तेरी झूठी ज़िंदगी।
आज फिर एक स्त्री की बलि। आज कठघरे में कौन...?
गहरी आँखों में गहरी संवेदना... उसने शैला की आत्मा की शांति को आसमान की ओर हाथ जोड़ दिये।