कड़ियाँ / तेजेन्द्र शर्मा
दादाजी नहीं रहे. राज पर इस समाचार का कुछ अजीब-सा असर हुआ था. बहुत निर्लिप्त भाव से उसने यह समाचार सुना था. जब फूफाजी ने सुबह-सुबह आकर सूचना दी, तो राज उस समय घर में नहीं था. वह सुबह की दौड लगाने 'हैप्पी क्लब' गया हुआ था. घर पहुंचा तो घर में चुप्पी-सी छायी हुई थी. घर में उसका सामना स्नेह से हुआ. स्नेह यानी राज की छोटी बहन, जिसे वह चिढ़ाने के लिए 'फत्तो' के नाम से पुकारता था. पूछा, अरी फत्तो, आज स्कूल नहीं गयी? भैया, दादाजी का देहांत हो गया. स्नेह ने बुझी हुई आवाज में बताया. राज की निगाह उठी, उसने फूफाजी को बैठे देखा. वह उन्हें 'खटारा फूफा' कहा करता था. उनकी खटारा कार बाहर खड़ी देखकर उसे पहले ही आश्चर्य हुआ था कि आज सुबह-सुबह बुआ क्या करने आ गयीं, क्योंकि बुआ अक्सर राखी या भैयादूज पर ही आती थीं. फूफा को देखते ही राज को अपने जीवन की एक घटना कुरेदने लगती है. तब घर की आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी. राज ने हायर सेकंडरी के बाद स्टेनोग्राफी का कोर्स कर लिया था और नौकरी की तलाश में था. आख़िरकार खटारा फूफा ने ही अपने एक मित्र से कहकर राज को दो सौ रूपये महीने पर स्टेनो की एक नौकरी दिलवा दी थी. साथ ही एक हिदायत भी दी थी कि 'देखो बेटा, नौकरी तो तुम्हारी लग गयी पर एक बात का ख़्याल रखना कि सूरी (राज का बॉस) को कभी पता न चले कि मैं तुम्हारा फूफा हूं. मैंने उसे बताया है कि तुम मेरे पड़ोस में रहते हो.' बकरी ने दूध दिया भी तो, मेंगनी डालकर. खटारा फूफा की इस हिदायत के बाद तो राज वह नौकरी करना ही नहीं चाहता था, पर मां के काफी समझाने-बुझाने पर चुप रह जाना पड़ा. लेकिन तीन महीने बाद ही राज इस नौकरी को छोड एक बैंक में लग गया था.
इस चक्कर में राज ने रिश्तों पर एक शोध ही कर डाला. वह सोचता था कि फूफा, मौसा, चाची, मामी - इन सबका रिश्ता मुझसे क्या है, यह तो सबको मालूम है, किंतु मैं इनका क्या लगता हूं? अगर हमारे पुरखों ने इस संबंध को कोई नाम ही नहीं दिया तो इसका एक ही अर्थ है कि मैं इनका कुछ नहीं लगता.
मगर लोकलाज तो रखनी ही होती है. उसने फूफा के पांव छुए. पापा तैयार हो रहे थे, अस्पताल जाने के लिए और फूफा बता रहे थे, भाई साहब, कल शाम पिताजी सैर के लिए निकले थे. उधर से इलाके के कुछ शरारती लडक़े तेजी से कार भगाते आ रहे थे.और उन्होंने कार उनपर चढा ही.'रिब्स' तो सारी टूट गयीं. रात भी बेहोशी में आपका ही नाम रटते रहे.
राज फिर हैरान! उसे दादाजी की वे बातें याद आने लगीं जो उन्होंने पूरे होशो-हवास में उससे कही थीं-'राजकुमार, मैंने तो कह दिया है कि मनोहर लाल (राज के पिता) मेरी अर्थी को हाथ भी न लगाये, चहे चील-कौवे ही मेरी लाश को क्यों न खा जाएं.' और बेहोशी में वे उसके पापा का ही नाम पुकारते रहे! विश्वास नहीं होता. राज को कभी भी अपने पापा व दादाजी के बीच के संबंध समझ नहीं आये अपने जिन दो बेटों पर वे जान छिड़कते थे; वे तो उनके पास ही थे. फिर पापा को याद क्यों किया? क्या अंतिम समय में अपने किये पर पश्चाताप कर रहे थे? मुझे क्यों नहीं याद किया? मेरे भी तो देनदार थे!
उसे अपने पापा पर भी आश्चर्य हो रहा था. दादी के मरने पर दादाजी ने कहा था - 'मनोहर, तुम्हारी मां मेरे और तुम्हारे बीच एक पुल थी. आज वह पुल ढह गया है.' और दादी के जाने के बाद न तो पापा ने और न दादाजी ने ही उस पुल को दोबारा बनाने की चेष्टा की. पर आज, सिर्फ समाचार मिलते ही मम्मी और पापा दोनों चलने को तैयार हो गये!मम्मी, जिनको अपनी ससुराल से सिवाय बुराई के कभी कुछ नहीं मिला, वह भी इस समय रो रही हैं. उन्हें दादाजी ने कभी पसंद नहीं किया. कहते - 'राज बेटे, तुम्हारी मां अगर चाहे तो मनोहर से, मुझसे और अपने भाई-बहनों से एक साथ बनाकर रखे. आदमी वही करता है जो उसकी औरत चाहती है.'
इस तरह राज पर एक और रहस्य खुला था कि इस पूरे संसार में संबंधों को बिगाड़ने का काम औरतें ही करती हैं. पर वे औरतें उसकी दादी, चाची या बुआ भी तो हो सकती हैं. सिर्फ उसकी मम्मी ही क्यों?प्रश्न तो बहुत सारे थे, परंतु उनके उत्तर कहीं छिपे हुए थे.
ठीक है. आप और मम्मी चलिए. मैं 'हाफ़-डे' करके सीधे श्मशान-घाट पहुंच जाऊंगा. राज की उहापोह उसे परेशान किये थी।
पापा-मम्मी चले गये. स्नेह को भी साथ लेते गये. घर में राज अकेला रह गया. जाते हुए हिदायतें दी गयी थीं - 'ताला ठीक से बंद कर देना, दूध ढंककर रखना,' इत्यादि-इत्यादि.
राज के मानस-पटल पर फिर पुरानी यादें उभरने लगीं. उन दिनों राज आठ-नौ वर्ष का रहा होगा. पापा का तंबादला पंजाब से दिल्ली हो गया था. पापा ने दादाजी को पत्र लिखा थाः 'यदि आप आज्ञा दें तो कुछ दिन परिवार सहित आपके साथ ही रहना चाहूंगा. वैसे, महीने भर में मुझे सरकारी क्वार्टर भी मिल जायेगा.'
तार की गति से पत्र का उत्तर पहुंचा थाः 'यहां का घर छोटा है. अपने लिए मकान का प्रबंध करके ही दिल्ली आना. यहां तो बहुत दिक्कतें हैं.'
राज के बाल सुलभ मन पर दादाजी की पहली छवि यह बनी थी कि दादाजी उसे अपने साथ नहीं रखना चाहते. आख़िर क्यों?
दफ़्तर के लिए तैयार होने लगा राज. उसका मन कुछ उचाट-सा हो रहा था. रह-रहकर एक ही बात उसके दिमाग में घुमड़ रही थी कि दादाजी के जीवन में पैसे का ही सबसे अधिक महत्व क्यों था? उनके लिए जीवन में सफल होने का मतलब था बंगले, गाड़ियां, पैसा और बस पैसा! जो बेटे और बेटियां अमीर थे, उनसे तो दादाजी का बहुत प्यार था, लेकिन जो अमीर नहीं बन पाये, दादाजी की लिस्ट में से उनका नाम कटता गया. अंबाले वाली बुआ तो पिछले बारह वर्ष से विधवा हैं. चार बच्चे भी हैं उनके, पर दादाजी ने अंबाला की ओर कभी भूलकर भी नहीं देखा.
कहीं ऐसा तो नहीं कि दादाजी के प्रति बहुत कठोर हो रहा है राज? आखिर दादाजी देखने में 'विलेन' तो नहीं लगते! फिर पापा से उनकी इस कदर बेरूखी क्यों? वैसे एक बार उन्होंने इस सिलसिले में जरूर कुछ कहना चाहा था -'राज, एक वक्त था जब मनोहर की बहुत जरूरत थी. बड़ा बेटा है; मैंने सोचा था कि मेरी बाज़ू बनकर खड़ा होगा. पर वह अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ता रहा. कितना समझाया था उसे कि पढ़-लिखकर कुछ बन ले. क्या मिला उसे आखिर आज़ादी की लड़ाई से?'
'परंतु दादाजी, उन दिनों तो हर कोई देश की ख़ातिर बलिदान देने को तैयार रहता होगा. गांधी, नेहरू सब ही।'
'नेहरू प्रधानमंत्री बन गया. मनोहर की तरह छोटी सी नौकरी नहीं कर रहा. अरे, अगर स्वतंत्रता सेनानी था भी तो उसका फ़ायदा उठाता. लोगों को देखे, किसी ने परमिट ले लिये हैं, कोई फ़ैक्टरियां खोले बैठा है. एक यह है कि हरिश्चंद्र बने घूमते हैं.'
दादाजी भी अपनी जगह ठीक थे. आख़िर उनकी भी कुछ अपेक्षाएं रही होंगी अपने बेटे से. वे अवश्य चाहते रहे होंगे कि जो दुःख उनके परिवार को पापा के कारण सहने पडे, उनका मुआवजा तो कम-से-कम उन्हें मिल पाता. लेकिन दादाजी घोर 'प्रैक्टिकल' और पापा महा-आइडियलिस्ट. निबाह होता भी तो कैसे?
किंतु अब, जबकि दादाजी नहीं हैं, क्या राज को उनके विषय में इस तरह सोचना चाहिए? नहीं! मृत व्यक्ति की तो केवल बड़ाई की जाती है. उनके गुण गाये जाते हैं. आज यही हो रहा होगा वहां. हर रिश्तेदार दादाजी की शान में कसीदे पढ़ रहा होगा. दादाजी तिहत्तर के होकर गये हैं - पूरा जीवन जीकर, किंतु रोने वाले तब भी उनके असामायिक निधन पर शोक प्रकट कर रहे होंगे.
लेकिन क्या राज भी उनसे लिपटकर रो पायेगा? आखिर क्यों वह दादाजी के प्रति सहज नहीं हो पाता? दादी के मरने पर तो राज बहुत रोया था. पर दादी तो उसे प्यार भी बहुत करती थीं. उसकी बड़ी बहन की शादी पर देने के लिए दादी ने एक सोने का सेट बनवाया था. आखिर दीदी उनकी सबसे बडी पोती जो थी. वह तो पांच हज़ार कैश भी देने वाली थीं. पर विवाह से छः-सात महीने पहले दादी सबको रोता हुआ छोड़ ग़यीं.
विवाह के समय पापा गये थे दादाजी के पास. छूटते ही दादाजी ने कहा था-'किस सेट की बात कर रहे हो तुम! जिसने देना था वह तो मर गयी. मैं तो तुम्हें फूटी कौड़ी भी देने के हक में नहीं हूं. वो तो सविता मेरी भी पोती लगती है, इसलिए कुछ-न-कुछ तो देना ही पडेग़ा.' और दादाजी ने पांच सौ रूपये दिये थे अपनी सबसे बडी पोती के विवाह पर!
यह तो हो नहीं सकता कि दादाजी का दिल न हो. बिरजू चाचा और नारायण चाचा से तो बहुत प्यार था उन्हें. उनके तो बच्चों को भी बहुत प्यार करते थे वे. फिर राज का ही भाग्य ऐसा क्यों? राज बेचैन हो उठा. उसका मन दफ़्तर जाने को नहीं हो रहा था. उसने फैसला किया कि आज वह दफ़्तर नहीं जायेगा.
बहुत प्रयत्न करने पर भी दादाजी के बारे में सोचने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा था. एक के बाद एक यादें उसके दिमाग को मथे जा रही थीं.
पापा की बदली शिमला हो गयी थी. घर की माली हालत तो कभी भी अच्छी नहीं रही, और अब तो घर में डालडा घी भी प्रयोग होने लगा था. मम्मी थैले में छुपाकर डालडा घी लाया करती थीं कि कहीं कोई पड़ोसी देख न ले. पापा तब भी चिल्लाया करते थे-'कोई चोरी तो नहीं कर रहे! अपने बच्चों को भूखा तो नहीं मार रहे! अगर देसी नहीं खरीद सकते, तो कुछ तो लेंगे ही!'
दादाजी, दादी और बिरजू चाचा का परिवार, सब शिमला आये हुए थे. मम्मी ने मटर-पनीर की सब्ज़ी बनायी थी, कढ़ी-चावल और साथ में सूजी का हलवा. चाचा-चाची, बच्चों और दादी ने तो खाना खा लिया, पर दादाजी तो देसी घी के बिना खाने की सोच ही नहीं सकते थे. उन्होंने सूखी रोटी, दही में नमक-मिर्च डालकर खायी और उसी शाम बाज़ार जाकर दो किलो देसी घी ले आये-'बहू, हमने तो कभी डालडे में बना खाना खाया नहीं. अब इस उमर में क्या स्वाद बदलेंगे! हमारा खाना इसी में बना दिया करो.'
पापा बुरी तरह आहत हुए थे और मम्मी रूआंसी.
वहीं पापा ने उनसे राज की पढ़ाई की बात शुरू की थी कि शिमला में दसवीं क्लास में उसे दाखिला नहीं मिल पा रहा, अतः वह वापस दिल्ली में जाकर पढ़ना चाहता है. और दादाजी ने अपने ज्ञान-भंडार के द्वार खोलते हुए जवाब दिया था-'मनोहर, बच्चे हमेशा मां-बाप के पास ही अच्छे लगते हैं. हमें देखो! तुम्हारे समेत सात बच्चे थे, पर सबको ठीक से पाला. जो परवरिश मां-बाप अपने बच्चों को दे सकते हैं वह और कोई नहीं दे सकता.'
इस तरह एक बार फिर दादाजी ने राज को जता दिया था कि उनके घर में उसका स्वागत नहीं है. राज में भी तो दादाजी का ही ख़ून था. गर्मी खा गया. प्रतिज्ञा की कि पढ़ूंगा तो दिल्ली में ही; नहीं तो पढ़ाई छोड दूंगा. और ऐसे में काम आये उसके पापा के दोस्त, ईश्वरदास, जो वहीं दादाजी के घर के पास करोलबाग में रहते थे.
दादाजी को झटका लगा था. रिश्तेदारों में दबी ज़ुबान बातें होने लगी थीं. दादाजी मन-ही-मन तिलमिला उठे थे, पर समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें.
समझ तो ख़ैर राज भी नहीं पा रहा था कि वह दादाजी के अंतिम संस्कार में शामिल होने जाये या नहीं। दादाजी के दोहरे मानदंडों को वह समझ नहीं पाता था. बिरजू चाचा के बच्चों के बारे में कहते थे-'भई, असल से सूद ज्यादा प्यारा होता है.' और राज के लिए-'देखो, राज, तुम्हारे साथ हमारा जो भी रिश्ता है, वह मनोहर की वजह से है. अगर मनोहर हमसे बनाकर नहीं रखेगा तो हम तुम्हें कैसे प्यार दे पायेंगे?'
राज को दादाजी की यह दलील कभी समझ में नहीं आयी. वह चीख-चीखकर दादाजी से कहना चाहता था कि 'मै भी आप ही का खून हूं दादाजी! मुझे भी आपका प्यार पाने का उतना ही हक़ है जितना कि बिरजू चाचा के बच्चों को. मैं भी आपका सूद हूं. मुझे मूल से मत तोलिये. मेरे तो नाना-नानी भी नहीं हैं. आपके प्यार का जितना हकदार मैं हूं, उतना तो कोई भी नहीं. 'किंतु दादाजी तक उसकी बात कभी पहुंच नहीं पायी.
वह स्वयं से ही तर्क-वितर्क करता रहता. यदि दादाजी की पापा से नहीं बनती तो इसमें उसका क्या दोष? वह तो दादाजी, दादी व चाचा का समान रूप से आदर करता है. फिर वह दादाजी के प्यार से वंचित क्यों रहे? लाख चाहकर भी वह दादाजी व पापा के मन की गांठें नहीं खोल पाया था.
फिर आया दीवाली का त्योहार. चारों ओर रोशनी. सत्य की असत्य पर जीत. संभवतः अबकी बार दादाजी का हृदय-परिवर्तन हो ही जाये राज ने सोचा. पापा का पत्र भी आया था जिसमें दीवाली पर दादाजी के घर जाने की हिदायत थी. बिरजू चाचा स्वयं उसे लेने आये थे. और दादाजी की ओर से उसे पहला तोहफ़ा मिला था एक 'ग्रे' वर्सटेड पैंट का कपड़ा और एक सफेद कमीज़. बहुत अच्छा लगा था. फिर से दिमाग़ ने सोचा, 'नहीं, दादाजी इतने बुरे तो नहीं. अगर प्यार न होता तो यह सब क्यों करते?' मगर कुछ तय नहीं कर पाया राज.
उस रात खाने पर दादाजी ने कहा था-'राज बेटा, उस दिन भी दीवाली ही थी. घर में ख़ुशी का माहौल था. अभी लक्ष्मी-पूजा शुरू ही की थी कि पुलिस आ पहुंची भी मनोहर लाल को पकड़ने. और हमारी दीवाली, अमावस में बदल गयी थी. साहबज़ादे के क्रांतिकारी कारनामों से तंग आ गया था सारा घर.'
लेकिन पिता-पुत्र के संबंधों के कारण तीसरी पीढ़ी क्यों यातना भोगे? क्या दादाजी को मुझसे अधिक प्यार नहीं होना चाहिए था? पापा के हिस्से का प्यार क्या उसके हिस्से में नहीं पड़ना चाहिए था?
आखिरकार राज ने श्मशान घाट चलने का फैसला किया. कपड़े-वपड़े पहनकर जैसे ही कलाई में बांधने को घड़ी उठायी कि फिर दादाजी याद आ गये. एक बार उन्होंने कहा था-'राज तुम दसवीं पास कर लो. तुम्हें एक घड़ी ले दूंगा. अब तुम घड़ी पहनने लायक हो गये हो.'
दसवीं तो हो गयी पर घड़ी? उसे न आना था, न आयी. वह दादाजी व पापा के संबंधों की भेंट चढ ग़यी. फिर घड़ी क़ी ओर देखा. फिर दादाजी की याद आयी. घड़ी, घड़ी, दादाजी!
रसोई का सामान ठीक से रखा. मैला कपडा लेकर साइकल को साफ करने लगा. लेकिन हर चीज़ कहीं-न-कहीं दादाजी से जुड़ जाती थी. मसलन, 'राज, तुम्हारे पास साइकल नहीं है न. हायर सैकेण्डरी पास कर लो एक नयी साइकल ले दूंगा.'
बाल-सुलभ मन में फिर एक नया उत्साह. हायर सेकेण्डरी में अच्छे रिजल्ट के लिए दो गुनी मेहनत. रिजल्ट निकला और फर्स्ट डिविजन की खबर वाला समाचार-पत्र लेकर वह दादाजी के घर पर. पीठ ठोंकी, अच्छे रिज़ल्ट के लिए शाबाशी दी, किंतु साइकल? वह भी घड़ी क़े पास पहुंच गयी थी!
पापा ने रूआंसा चेहरा देखा. बात समझ में आ गयी. एक नयी साइकल राज को मिल गयी. दादाजी का चेहरा थोड़ा धुंधला हो गया. पापा का चेहरा साफ़ दिखायी देने लगा.
राज श्मशानघाट पहुंचा. अभी दादाजी वहां नहीं पहुंचे थे. इधर-उधर कई मुर्दे जल रहे थे. चारों ओर मृतात्मा के लिए रोते, दुःखी होते संबंधी-मरे हुओं का टैक्स वसूलते पंडे. एक चिता की लकड़ी थोड़ी ग़ीली थी, अतः धुआं उठ रहा था और लाश जलने में कठिनाई हो रही थी. ठी तभी - दादाजी चार कंधों पर सवार हुए वहां पहुंचे. पापा! इनको क्या हुआ? सिर मुंड़ा हुआ, धोती शरीर पर लपेटे, हाथ में कमंडल - जल से भरा. दोनों चाचा के सिर देखें वहां बाल मौजूद थे. फिर पापा!
सब रो रहे थे. चिता सजाई जा रही थी. सबकी आंखें नम. राज दादाजी की ओर देख रहा था. अपनी घड़ी और साइकल के बारे में पूछ रहा था. उसके मन से एक ही आवाज़ उठ रही थी, “दादा जी आप कैसे मर सकते हैं? आप तो मेरे देनदार हैं। आप नहीं मर सकते!”
पापा ने चिता का चक्कर लगाया और चिता को अग्नि दी. अब दादाजी से कभी मुलाक़ात नहीं हो पायेगी. क्या राज की सारी निराशाएं भी चिता के साथ ही जल जायेंगी? शोले ऊपर उठने लगे. एकाएक राज को लगा कि चिता में से एक साइकल निकली और शोलों के ऊपर स्थिर हो गयी. कुछ ही क्षणों में साइकल का एक पहिया घड़ी बन गया और दूसरा पहिया पापा का मुंड़ा हुआ सिर और दोनों पहिये घूमने लगे. घड़ी मुंड़ा हुआ सिर, साइकल!
राज से देखा नहीं गया. उसने मुंह फिर लिया.