कथादेश पुरस्कृत लघुकथाएँ / भीकम सिंह
‘कथादेश’ का साहित्य की विभिन्न विधाओं और अभिव्यक्ति के विविध रूपों के विकास में योगदान रहा है; लेकिन इस पत्रिका के माध्यम से ‘लघुकथा’ को व्यापक जनसमूह से जोड़ने की प्रक्रिया (अखिल भारतीय हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता) और उसे जनमानस की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना ही इस लेख का उद्देश्य है।
‘कथादेश’ पत्रिका, एल-57 बी, दिलशाद गार्डन, दिल्ली से प्रकाशित हो रही है। पत्रिका के संस्थापक-संपादक हरिनारायण हैं। वर्ष 2006 से इस पत्रिका ने लघुकथा डॉट कॉम के सहयोग से नया दायित्व अपने हाथों में लिया है, जो यह स्पष्ट करता है कि कथादेश का लघुकथा के विकास में उल्लेखनीय योगदान है, और वह दायित्व है- कथादेश अखिल भारतीय हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन कराना। वैसे तो साहित्य की विभिन्न विधाओं के विकास में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका के गंभीर विश्लेषण हुए हैं; लेकिन लघुकथाओं के विकास में पत्रिकाओं के योगदान का समुचित विवेचन मेरी नजर में अभी नहीं हुआ है।
‘कथादेश’ में प्रकाशित लघुकथाएँ हिन्दी लघुकथाओं के कथ्य, शिल्प, उद्देश्य और प्रभाव की दृष्टि से हमेशा भिन्न रही हैं, लेकिन लघुकथाओं को समृद्ध करने की प्रतियोगिता ‘कथादेश’ ने वर्ष 2006 से शुरु की। गौरतलब है कि इस पत्रिका ने अपने समय की लघुकथाओं को प्रकाशित ही नहीं किया, बल्कि प्रतियोगिता के माध्यम से जीवंत बनाया। वर्ष 2006 से आज तक जिन पुरस्कृत लघुकथाओं को ‘कथादेश’ ने प्रकाशित किया है, उन्हीं को पुस्तक रूप में नई किताब प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। जिसका संपादन हरिनारायण और सुकेश साहनी ने किया है। सुकेश साहनी और हरिनारायण 2006 के उपरान्त लघुकथाओं के बदलते हुए परिप्रेक्ष्य की पहचान करते हैं, प्रतियोगिता का आयोजन कराते हैं और लघुकथाकारों की व्यक्तिगत पीड़ा, कुंठा, निराशा, समाजोन्मुख अनुभूति, भावनाभूति, ईमानदारी, भ्रष्टाचार के इर्द गिर्द लिखी जा रही लघुकथाओं को ‘कथादेश’ का मंच देते हैं, उन्हें अभिव्यक्ति देते हैं। जिससे तत्कालीन लघुकथाओं के निहितार्थ को स्पष्ट किया जा सके। इसके पीछे उनकी दृष्टि और वैचारिक रुझान स्पष्ट नजर आता है। इस पुस्तक को पढ़ने से लघुकथा को समझने का अवसर मिलता है। वस्तुतः ‘कथादेश: पुरस्कृत लघुकथाएँ’ लघुकथाओं के लिए एक पृष्ठभूमि की तैयारी है जिसमें आनन्द (धरोहर, अपनी ही आग, उतरन, शुभ अशुभ, स्वाभिमान), संतोष सुपेकर (हम बेटियाँ हैं न!, महँगी भूख, आर्द्रता, लार पर आघात), अरुण कुमार (हलवा, गाली, रुदन), कस्तूरी लाल तागरा (गुलाब के लिए, पुरुष-मन, लेकिन जिन्दगी), धर्मेन्द्र कुशवाहा (कफ़न फरोश, मुर्दाफरोश, गन्तव्य), महेश शर्मा (सॉरी, डियर चे, जरुरत, लव-जिहाद), रामकुमार आत्रेय (बिन शीशों का चश्मा, टूटी चूडियाँ, एकलव्य की विडम्बना), चन्द्रमोहिनी श्रीवास्तव (बसेरा, अछूत खून), हरि मृदुल (खंडन, तिल), कुमार शर्मा ‘अनिल’ (मुजरिम, तो क्या…?), मार्टिन जॉन (ये कैसी डगर है, कौन बनेगा राष्ट्रवादी), जयमाला (फ़र्क, दृष्टि), डा. पूरन सिंह (माँ, भूत), रविन्द्र बतरा (खच्चर, इलाज), सविता पाण्डेय (छवियाँ ऐसे बनती हैं, चाँद के उस पार), सविता इन्द्र गुप्ता (तिलिस्म, बड़ा कौन) और उर्मिल कुमार थपलियाल (गेट मीटिंग, मुझमें मंटो) सहित कुल 125 लघुकथाएँ प्रकाशित हैं।
पुस्तक में प्रकाशित पुरस्कृत लघुकथाओं से स्पष्ट है कि अधिकांश लघुकथाएँ समय और समाज का यथार्थ समझने-समझाने का कथ्य लेकर रची गई हैं। समय और समाज की अनेक तरह की छवियों की उपस्थिति इस पुस्तक का कथ्यात्मक दस्तावेज है। एक मायने में इस पुस्तक में समकालीन लघुकथाकारों के तेवर बेहद स्पष्ट और मुखर हैं। इस क्रम में कुछ लघुकथाओं का विश्लेषा आवश्यक है-
लघुकथा प्रतियोगिता-1 में प्रथम स्थान पर आई लघुकथा (पावर विन्डो- अरुण मिश्रा) सामंती और फासिस्टी, नौकरशाह के चेहरे को बेनकाब करती हुई यथार्थ की जो तस्वीरें हमारे सामने रखती है, वह आज प्रासंगिक है। ‘‘साले हरामखोर तेरी यु जुर्रत… फिर अचानक उसको साहब की उपस्थिति का ध्यान आया। उसने चापलूसीभरे स्वर में कहा, ‘‘सॉरी सर, आपको हुए कष्ट के लिए क्षमा चाहते हैं।’’ साहब कुछ बोले नहीं, वापस आकर गाड़ी में बैठ गए। कप्तान ने जवानों को इशारा किया, पलक झपकते ही उन्होंने खेत का एक कोना उखाड डाला, मानो वे पूर्व प्रशिक्षित हों या फिर दूसरों का खेत उजाडना उनकी फितरत हो।’’
लघुकथा प्रतियोगिता-2 में पुरस्कृत लघुकथा (खच्चर, रविन्द्र बतरा) पालतू जानवर के सहारे गढ़ी गई है और पूरी लघुकथा एक संवेदनात्मक भावुक्ता जगाती है- ‘‘रामलाल की वसीयत के अनुसार रामलाल और उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद जब तक वह खच्चर जीवित रहेगा, उसके खान-पान का इंतजाम उनके बैंक खाते से किया जाए। न तो उनका मकान खच्चर के रहते बेचा जाए और न ही किराए पर दिया जाए।’’
लघुकथा प्रतियोगिता-3 में पुरस्कृत लघुकथा (प्रेमवती की चिट्ठी, गजेन्द्र रावत) एक पुलिसवाले की पारिवारिक स्थिति और जन-सामान्य की समस्याओं का करुण प्रभाव से विश्लेषण करती है और इस प्रभाव को क्रोध के चरम बिन्दु पर केन्द्रित करती है- ‘‘अब हाथों में उठाए बैनरों पर लिखी इबारत साफ दिखाई देने लगी- दवाइयों के दाम कम करो। महँगाई पर रोक लगाओ, शिक्षा मुफ्त करो। प्रकाश एक-एक बैनर को गौर से पढ़ने लगा, फिर आश्चर्यवश अचानक बोला ‘अरे… ये तो प्रेमवती की चिट्ठी है’।’’
लघुकथा प्रतियोगिता-4 में द्वितीय स्थान प्राप्त लघुकथा ‘पहला संगीत’ के लघुकथाकार अखिल रायजादा संवेदनहीनता को मनुष्यता के विरूद्ध मानते होंगे, तभी उन्होंने संवेदनशील गिटार वाले की आड़ में खूबसूरत कथ्य बुना- ’’लोकल अपनी रोज की रफ्तार में थी। मैंने केस से अपना नया गिटार बाहर निकाला और हैप्पी बर्थ-डे टू यू बजाने लगा। छोटा बच्चा गोद से उतर कर नाचने लगा, सहयात्री आश्चर्य में थे। लड़की की आँखों में अद्भुत चमक थी। ‘‘हैप्पी बर्ड-डे टू यू’’ बजाते पहली बार मेरी आँखे नम थीं।
लघुकथा प्रतियोगिता-4 में ही पुरस्कृत लघुकथा ‘फाँस’ में हरभगवान चावला ने जातिवादी शोषण की मानसिकता की एक लम्बी परम्परा का अवलोकन मात्र एक सौ पैंसठ शब्दों में किया है- ‘‘लड़का ओमप्रकाश बहुत अच्छा है। मेरे स्कूटर पर बैठने से पहले सीट को साफ किया, रास्ते में ठण्डा पिलाया, घर तक छोड़कर गया, पर एक बात फाँस की तरह चुभती है…. अब ये छोटी जात वाले हम पर मेहरबानियाँ करेंगे… क्या जमाना आ गया है।’’
कभी-कभी हम अपनी अनैतिक और असामाजिक गतिविधियों से अन्दर-अन्दर इतने छटपटाते रहते हैं कि विमर्श हमारे अन्दर ही गड़मड़ होने लगता है ‘कुत्ता’ लघुकथा में डा. चन्दर सोनाने ने अपनी भावनाओं को शब्दों में ऐसे पिरोया कि पूरा परिप्रेक्ष्य स्वतः उभर आए बोध का वातावरण उत्पन्न करता है, और कुत्ते के माध्यम से हराम की कमाई का बोध जगाता है। या यूँ कहें कि हमारी मनःस्थिति को व्यक्त करने के लिए (कुत्ता) प्रयोग किया जाता है।
लघुकथा प्रतियोगिता-5 में पुरस्कृत लघुकथा ‘गुलाब के लिए’ सही और गलत का फर्क तय करने की ओर इशारा करती है। हमारी आन्दोलनकारी संस्कृति के प्रश्न मन में जो सुगबुगाहट पैदा करते हैं उसे कस्तूरी लाला तागरा ने गुलाब और घास के माध्यम से पूँजीवाद और सर्वहारा में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया है।
‘हम बेटियाँ हैं न!’ संतोष सुपेकर की लघुकथा बेटियों के प्रति संकीर्ण मानसिकता को उजागर करती है कि पितृसत्तात्मक मानसिकता बेटियों की भावना और इच्छाओं के पँख कैसे कुतरती है। ‘‘पर दीदी, भैया के इतने सारे फोटो एलबम में हैं, हमारे तो बस दो चार ही फोटो हैं, ऐसा क्यों?’’ एक तरफा व्यवहार देखकर नन्ही अमिता खुद को रोक न सकी। ‘हम बेटियाँ हैं न!’ बड़ी ने समझाया।
लघुकथा प्रतियोगिता-6 में पुरस्कृत लघुकथा ‘अतिम चारा’ भी आकृष्ट करती है। जहाँ पौराणिक किंवदंती पर थोड़ी देर ठहरकर सोचने का समय मिल जाता है और पुरुष मानसिकता को खेमकरण सोमन की मौलिक प्रतिभा उजागर करती है।
लघुकथा प्रतियोगिता-7 में पुरस्कृत लघुकथा (रोशनी, डा. गजेन्द्र नामदेव) को उसके सीधे-सादे शिल्प ने दिलचस्प लघुकथा बना दिया है। एक लड़की के हाजिर जवाब से कथ्य के अन्तिम प्रभाव (पंच) में पाठक डूब जाता है।
लघुकथा प्रतियोगिता-8 में पुरस्कृत लघुकथा ‘एकलव्य की विडम्बना’ परीक्षा व्यवस्था की स्थितियों का विश्लेषण करती है, साथ ही कोचिंग केन्द्रों की कई कुण्ठाओं की गिरह खोलती हुई दिखती है- ‘‘यदि मैं तुम जैसे निर्धन छात्र को उनके साथ कक्षा में बिठाऊँगा, तो वे सब तुम्हारे साथ बैठने से इन्कार कर देंगे। छात्रों के माता-पिता भी किसी अन्य अकादमी में उन्हें प्रवेश दिलवाना पसन्द करेंगे, न कि मेरी अकादमी में।’’
‘बचपन-बचपन’ उच्च मध्य वर्गीय समाज और निम्न मध्य वर्गीय समाज की बच्चों के प्रति मनःस्थिति का वर्णन है जो भाषा के अर्थ से भिन्न है- ‘‘वाह-री सन्नो! यूँ तो कहेगी पगार कम पड़ती है और इतने महँगे खिलौने छोरे को दिलाती है, जो मैंने आज तक नहीं खरीदे?’’ इतना सुनते ही सन्नों की आँखें नम हो गईं। उसने रुँधे गले से कहा- ‘‘बाई जी! यह खिलौनो से खेलता नहीं, बल्कि खिलौनों की दुकान पर काम करता है।’’
इस लघुकथा में यह माने बिना नहीं रहा जा सकता कि मीरा जैन ने विवेक से इस घटना को बुना है।
लघुकथा प्रतियोगिता-9 में पुरस्कृत लघुकथा ‘एक स्पेस’ स्व अनुभव की जमीन पर तपी लघुकथा लगती है, जो मनःस्थिति की जटिलताओं को समझ पाने में सक्षम है- ‘‘हर किसी को, चाहे स्त्री हो या पुरुष अपने रिश्तों के बीच एक स्पेस चाहिए। रिश्ते बोझ न बनें, उनके दायरों में घुटन न लगे, इसके लिए शायद एक मर्यादित स्पेस चाहिए।’’
जब मध्यम वर्गीय समाज का एक बड़ा भाग घृणा का समर्थक और प्रचारक बन जाता है तो अपने अभिप्रायों को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों से दो-चार होना पड़ता है। इसलिए धर्म की श्रेष्ठता के अहंकार में डूबे शर्मा जी ‘बेकस पे करम कीजिये! सरकारें मदीना।’’ की रिंगटोन बर्दाश्त नहीं कर पाते, और मुस्लिम कुरैशी के कॉलर टोन ‘दर्शन दो घनश्याम मोरी अँखिया प्यासी रे’ सुनकर तो उन्हें गश ही आ जाता है। इस लघुकथा में कहीं कोई पेचीदगी नहीं, पूरे कथ्य को बड़े रोचक और स्वाभाविक प्रवाह के साथ महेश शर्मा ने बढ़ाया है।
लघुकथा प्रतियोगिता-11 में पुरस्कृत लघुकथा ‘जिन्दगी की रफ्तार’ में गहरी असंवेदना की छाप दिखाई देती है। वर्तमान समय में जहाँ भावनात्मक लगाव जिन्दगी की भागदौड़ में दब गया है उसी को अभिव्यक्त करने में यह लघुकथा सफल हुई है- ‘‘जलती आँखों से उसे घूरता व्यक्ति फूट गया- कम्बख्त! अभी गिरकर मर जाता, तो तेरा तो कुछ नहीं बिगडता! लेकिन साले ट्रेन लेट हो जाती, तो हमारा रूटीन बिगड़ जाता। टाइम टेबल टूट जाता। कितना नुकसान होता, पता है!’’
कथादेश पत्रिका प्रतियोगिता के माध्यम से लघुकथा विधा को समृद्ध कर रही है। एक ओर इन लघुकथाओं में विभिन्न पेशों, परिवेशों, समसामयिक घटनाक्रमों और सामाजिक विसंगतियों का चित्रण है तो दूसरी ओर उत्तर आधुनिक युग में उपभोक्तावाद के बाजार में पिसते-रिसते जीवन मूल्य, रिश्तों के खोखलेपन का चित्रण है। अधिकतर लघुकथाओं का कथ्य बेहद सादा होने के बावजूद ताजगी लिये हुए है, सभी लघुकथाकारों की भाषिक सहजता विषय के साथ पूरा न्याय करती प्रतीत होती है। अलग-अलग रंगत लिये लघुकथाओं के चयन/पुरस्कृत की कला सहज भाव से लघुकथाओं को पढ़ा ले जाने में सफल हुई है, जिसका श्रेय निर्णायक मण्डल को ही जाना चाहिए; क्योंकि कुछ लघुकथाओं की बारीकियाँ और बिम्ब मस्तिष्क पर छाप छोड़ते हैं, निःसंदेह यही ‘कथादेश: पुरस्कृत लघुकथाएँ’ पुस्तक की उपलब्धि है।
-0-कथादेश पुरस्कृत लघुकथाएः सम्पादक -हरिनारायण, सुकेश साहनी, पृष्ठः 160, मूल्यः350 रुपये सज़िल्द, वर्षः2020, प्रकाशकः नयी किताब प्रकाशन, 1/11829,ग्राउण्ड फ़्लोर, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032