कथावाचक और श्रोता चौपाल की खोज में / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :17 दिसम्बर 2015
कुछ समय पूर्व संजय लीला भंसाली और शाहरुख खान के बीच तय हुआ था कि इरोज और भंसाली की पीरियड फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' 18 दिसंबर को लगेगी और 25 दिसंबर को 'दिलवाले' लगेगी परंतु इरोस कंपनी के दिल्ली वितरक ने समझौते के खिलाफ दिल्ली के समस्त एकल सिनेमाघरों को दो सप्ताह के लिए बुक कर लिया, जिसका अर्थ था कि 'दिलवाले' को दिल्ली और यूपी में एकल सिनेमा नहीं मिलेंगे। इस परिवर्तन के कारण रोहित शेट्टी और शाहरुख ने निर्णय लिया कि वे भी 18 दिसंबर को ही फिल्म का प्रदर्शन करेंगे। दरअसल, यह द्वंद्व मात्र भंसाली और शाहरुख के बीच नहीं है वरन् इरोस कंपनी व शाहरुख के बीच भी है। विगत कई वर्षों से शाहरुख ने अपनी किसी फिल्म के लिए पूंजी निवेश के इरोस कंपनी के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया है। अब अानंद राय, जिनके स्थायी पूंजी निवेशक इरोस हैं और उनकी 'एक बौने की कथा' पर शाहरुख अभिनय करने वाले हैं, उस फिल्म में भी यह समस्या आएगी कि शाहरुख इरोस का साथ नहीं चाहते, क्योंकि उनका पहले ही अन्य कॉर्पोरेट से अनुबंध हो चुका है। इसी तरह का संकट सलमान खान अभिनीत आदित्य चोपड़ा की फिल्म को भी आएगा। आदित्य चोपड़ा किसी भी कॉर्पोरेट से धन नहीं लेते, वे स्वयं के धन से फिल्म बनाते हैं परंतु सलमान का सैटेलाइट अधिकार का लंबा अनुबंध स्टार टेलीविजन से है, जबकि आदित्य चोपड़ा ने अपनी फिल्मों के सैटेलाइट अधिकार स्टार को नहीं दिए हैं, अन्य कंपनी के साथ अनुबंध है। इस प्रकरण में सलमान खान मात्र इस फिल्म के लिए स्टार कंपनी को मना रहे हैं।
दरअसल, बड़े सितारों की फिल्मों के सैटेलाइट अधिकार अत्यंत महंगे बिकते हैं, जबकि दक्षिण भारत के निर्माता को सीमित क्षेत्र होने के कारण सैटेलाइट अधिकार के लिए कम धन मिलता है और उनकी आय का स्रोत सिनेमाघर में प्रदर्शन है। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत के मात्र 9 हजार एकल सिनेमा में पचास प्रतिशत दक्षिण भारत में हैं, जबकि अधिक जनसंख्या वाले उत्तरप्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश में आबादी दक्षिण भारत से अधिक है परंतु सिनेमाघर कम है। पंजाब के सारे एकल सिनेमा बंद हो चुके हैं और वहां केवल मल्टीप्लेक्स का राज है, जिस कारण पंजाब में शेर रहे धर्मेंद्र परिवार की फिल्मों का अपने ही प्रांत में व्यवसाय कम हो गया है। अगर मल्टीप्लेक्स दो गुटों के बदले एक होकर मोनोपॉली उद्योग में बदले और उसमें अमेरिकन कंपनी भागीदार हो जाए तो भारतीय फिल्म से 55 के बदले 65 प्रतिशत का शेयर मांगेंगे और अमेरिका की एक्शन की डब की गई फिल्मों के लिए अधिक प्रदर्शन समय ले लेंगे। तब भारतीय सिनेमा का अार्थिक आधार मात्र एकल सिनेमा होगा, जिसकी संख्या 12 हजार से घटकर अब 9 हजार रह गई है। जमीन के दाम बढ़ने से एकल सिनेमा जमीन बेचना चाहते हैं।
अत: भारतीय सिनेमा का भविष्य इस बात पर टिका है कि प्रांतीय सरकारें एकल सिनेमा की जटिल और अव्यावहारिक नियमावली को बदलकर सरल बनाएं अन्यथा प्रतिवर्ष सभी भाषाअों में 1500 फिल्में बनाने वाला उद्योग 500 के नीचे पहुंचेगा और धीरे-धीरे भारत में अमेरिका और चीन की फिल्मों का बाजार जम जाएगा। चीन में प्रतिवर्ष 20 से ज्यादा अमेरिकी फिल्मों का प्रदर्शन नहीं होता और वे चीनी भाषा में डब भी नहीं करते, जबकि भारत में असीमित मात्रा में अमेरिकन फिल्में आती हैं और हर भाषा में डब होती है। अब तो वे भोजपुरी, निमाड़ी जैसी बोलियों में भी डब कर रहे हैं और अमेरिकी पाठ्यक्रम की नकल पर बने भारतीय पाठ्यक्रम पढ़े किशोर और युवा, अमेरिकी सिनेमा की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
अमेरिका ने प्रदर्शन क्षेत्र पर कब्जा करके ही यूरोप और इंग्लैंड के सिनेमा उद्योग को लगभग समाप्त कर दिया है। दरअसल, अब तक उनके सिनेमाई अश्वमेध को भारत ने ही रोक रखा था। 102 वर्षीय भारतीय सिनेमा असमय मृत्यु की कगार पर खड़ा है। अब प्रांतीय सरकारें लाइसेंसिंग का सरलीकरण करें तथा कॉर्पोरेट व भारतीय सिनेमा के प्रेमी एकल सिनेमा को अधिक संख्या में बनाएं। अफसाने सुनाए जा रहे हैं और सुनने वाले भी थके नहीं है परंतु चौपाल (सिनेमाघर) ही उठा दिया गया है।