कथा जीवाणु खोज की / विनोद रैना

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पुराने समय से ही यह बात चर्चा का विषय रही है कि सबसे छोटी जीवित चीज आखिर क्‍या है? प्राचीन समय में लोग छोटे-छोटे बीज देखते थे जिनसे पौधे उग आते थे। यह सवाल उनके मन में रहा होगा कि क्‍या इन बीजों से भी छोटे जीव-जन्‍तु होंगे?

इस बीच लोगों ने देखा कि अगर वस्‍तुओं को गोलाईदार काँच से देखा जाए तो वे बड़ी दिखती है। वास्‍तव में गोलाईदार काँच से वस्‍तुओं को देखने की शुरुआत सन 1650 में हुई। काँच के टुकड़ों को लैंस का नाम दिया गया। लैंस से चीजें बड़ी दिखती हैं, और अगर एक से अधिक लैंस किसी नली में एक खास क्रम में रखे जाएँ, तो इस तरह बनने वाले यंत्र को सूक्ष्‍मदर्शी (माइक्रोस्‍कोप) कहा जाता है। सूक्ष्‍मदर्शी की मदद से बाद में लोगों ने छोटी चीजों का अध्‍ययन शुरू किया, खासकर पिस्‍सू का। इसीलिए शुरू में माइक्रोस्‍कोप को पिस्‍सू काँच भी कहा जाता था। लेकिन यह पिस्‍सू काँच बहुत अच्‍छा नहीं था। लैंस के भीतर हवा के बुलबुले रहते और सतह भी बहुत साफ व चमकीली नहीं थी। इस वजह से देखी जाने वाली वस्‍तु बहुत साफ और स्‍पष्‍ट नहीं दिखती थी।

इधर हॉलैण्ड देश में ल्‍यूवेनहॉक नामक एक व्‍यक्ति लैंसों को बेहतर बनाने में जुटा हुआ था। वह न तो ज्‍यादा पढ़ा-लिखा था, न ही कोई वैज्ञानिक। उसकी तो लोहा-लँगड़ यानी हार्डवेयर की दुकान थी। उसने ऐसे लैंस बनाए, जिनकी सतह चमकदार थी और काँच में हवा के बुलबुले भी नहीं थे। इन लैंसों से चीजें अपने आकार से दो सौ गुना बड़ी दिखती थीं। ल्‍यूवेनहॉक ने कुल मिलाकर 419 लैंस बनाए। हालाँकि एक लैंस को बनाने में बहुत अधिक समय लगता था। पर ल्‍यूवेनहॉक जीवट आदमी था। वह नब्‍बे बरस जिया और अन्‍त तक काम ही करता रहा।

ल्‍यूवेनहॉक ने इन सूक्ष्‍मदर्शियों की मदद से चमड़ी, खून, बाल आदि को देखा। सन 1677 में उसने डबरे के पानी की एक बूँद को अपने माइक्रोस्‍कोप के नीचे रखा। पानी की बूँद में उसे कई छोटी-छोटी रचनाएँ दिखाई दीं। इनमें से कुछ जीवित थीं और एक सेन्‍टीमीटर के बीसवें भाग से भी छोटी थीं। जीवित रचनाएँ पानी की बूँद में हरकत करती थीं और कुछ खाती भी जाती थीं। ल्‍यूवेनहॉक से पहले शायद कोई कल्‍पना भी नहीं कर पाया था कि इतने छोटे जीव भी हो सकते हैं। इन जीवों को अब अमीबा, पैरामीशियम आदि नामों से जाना जाता है।

जैसे-जैसे सूक्ष्‍मदर्शी बेहतर होता गया वैसे-वैसे अधिक बारीक चीजों का अध्‍ययन करना सम्‍भव होता गया। सन 1683 में कुछ बिन्‍दुनुमा और तिनके जैसी रचनाएँ देखी गईं। ल्‍यूवेनहॉक को शक था कि ये रचनाएँ जीवित हैं। लेकिन अपने हर तरह के प्रयास के बावजूद वह इन रचनाओं का गहराई से अध्‍ययन करने में सफल न हो सका। अन्‍तत: इन रचनाओं को बैक्‍टीरिया या जीवाणु नाम दिया गया। यूनानी भाषा में बैक्‍टीरिया का अर्थ होता है - छोटे डण्‍डे। हिंदी में हम इन्‍हें जीवाणु कहते हैं। इन्‍हीं जीवाणुओं को रोगाणु या जर्म भी कहा जाता है। इस तरह ल्‍यूवेनहॉक पहला व्‍यक्ति था जिसने रोगाणुओं को देखा।

सन 1830 तक आते-आते न केवल अच्‍छी क्‍वालिटी के लैंस बनने लगे थे, बल्कि सूक्ष्‍मदर्शी बनाने के तरीके भी विकसित हुए थे। इन विकसित सूक्ष्‍मदर्शियों से ही बैक्‍टीरिया या जीवाणुओं का व्यापक अध्‍ययन हो पाया।

एक जर्मन जीववैज्ञानिक, फेरदिनाद जूलियस कोहन ने इन जीवाणुओं का सूक्ष्‍मदर्शी से गहरा अध्‍ययन किया। उसने अन्‍य जीवाणुओं के अलावा एक कोशीय वनस्‍पति शैवाल या एल्‍गी का भी अध्‍ययन किया। एल्‍गी वास्‍तव में सबसे छोटी वनस्‍पति है। 1860 के दशक में इन सभी जीवाणुओं के आकार, रहने के तरीकों, इनके विभाजन आदि का विस्‍तृत अध्‍ययन किया। अपने इस अध्‍ययन को उसने 1872 में तीन खण्‍डों वाली एक किताब में प्रकाशित किया। इस किताब का प्रकाशित होना एक तरह से बैक्‍टीरियोलॉजी जैसे विषय की स्‍थापना थी। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस किताब के प्रकाशन से 200 वर्ष पहले ल्‍यूवेनहॉक ने बैक्‍टीरिया देख लिए थे।

आज मानव जाति के लिए बैक्‍टीरिया का क्‍या महत्‍व है, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन उस समय तो लोगों को इस प्रश्‍न ने परेशान कर रखा था कि आखिर जीवाणु आते कहाँ से हैं?

यह तो पता था कि मानव जैसे बड़े-बड़े प्राणी, जानवर, पेड़-पौधे कैसे पैदा होते हैं। बड़े प्राणी बच्‍चों को जन्‍म देते हैं, पक्षी अण्‍डे देते हैं जिनमें से चूजे निकलते हैं और पेड़-पौधे बीजों को बोने से बनते हैं। लेकिन छोटे कीटों और कृमियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। ऐसा लगता था कि वे अपने आप ही पैदा होते हैं। कई लोगों का मत था कि ये सड़ी-गली चीजों से पैदा होते हैं। ऐसा समझा जाता था कि मृत चीजें सड़कर अपने आप अन्‍य जीवों में बदल जाती हैं। इस धारणा को स्‍वत: उत्‍पत्ति के सिद्धान्‍त के नाम से जाना जाता था। इस सिद्धान्‍त का एक उदाहरण सड़े-गले गोश्‍त का दिया जाता था। ऐसा लगता था कि जैसे सड़ते हुए गोश्‍त पर अपने आप कीड़े उत्‍पन्‍न हो रहे हैं। सन 1668 में एक इतालवी जीवशास्‍त्री फ्रांसिसको रेडी को एक प्रयोग सूझा। उसने देखा था कि सड़े हुए गोश्‍त पर हमेशा मक्खियाँ मँडराती रहती हैं। उसने सोचा शायद कीड़ों की उत्‍पत्ति से इनका कोई सम्‍बन्‍ध हो?

उसने गोश्‍त के कुछ टुकड़े छोटे-छोटे बर्तनों में रख दिए। कुछ बर्तनों को उसने बारीक कपड़ों से ढँक दिया, ताकि उनमें हवा तो जा सके लेकिन मक्‍खी नहीं। और बाकी बर्तन खुले छोड़ दिए। गोश्‍त के टुकड़े सड़ने लगे। लेकिन उन्‍हीं टुकड़ों पर कीड़े दिखाई दिए जिन पर मक्खियाँ बैठ सकतीं। कपड़ें से ढँके बर्तनों का गोश्‍त सड़ा तो लेकिन उनमें कीड़े नहीं पड़े। रेडी ने इस प्रयोग से यह निष्‍कर्ष निकाला कि मक्खियाँ सड़ते हुए गोश्‍त पर अण्‍डे देती हैं और अण्‍डों से ही कीड़े बन जाते हैं और कुछ समय बाद यही कीड़े मक्खियों में बदलकर उड़ जाते हैं। सूक्ष्‍मदर्शी की मदद से गोश्‍त पर अण्‍डे भी देखे गए।

रेडी के इस प्रयोग के कुछ साल बाद ही ल्‍यूवेनहॉक ने जीवाणुओं के होने का पता लगाया था। सवाल वही था कि जीवाणु कहाँ से आते हैं? यह तो मांस पर पैदा होने वाले कीड़ों से भी छोटे और सरल रचना के जीव थ। स्‍वत: उत्‍पत्ति सिद्धान्‍त कहीं जीवाणुओं पर तो लागू नहीं होता?

आखिरकार 1748 में एक अँग्रेज जीवशास्‍त्री, जॉन नीढम ने एक प्रयोग किया। उसने गोश्‍त का रस (सूप) लिया जिसमें अनेक जीवाणु थे। उसने सूप को उबाला ताकि सारे जीवाणु मर जाएँ। फिर उसने इस सूप को ऐसे बर्तन में रखा जो चारों तरफ से बन्‍द था। इस तरह यह तय था कि अब इस सूप में बाहर से कोई जीव प्रवेश नहीं कर सकता। अगर सूप में कोई जीव मिलता है तो इसका मतलब है वह अपने आप उत्‍पन्‍न हुआ होगा। कुछ दिन बाद नीएम ने जब बर्तन खोला तो उसमें अनकों जीव थे। नीढम इस निष्‍कर्ष पर पहुँचा कि जीवाणुओं की उत्‍पत्ति अपने आप होती है।

लेकिन एक अन्‍य इतालवी जीवशास्‍त्री, लजारो स्‍पेलेनजानी को लगा कि शायद नीढम ने सूप को ठीक से और देर तक न उबाला हो, इससे सम्‍भव है कुछ जीवाणु बच गए हों। उसने नीढम के प्रयोग को दोहराया। सूप को आधे घण्‍टे तक उबाला और फिर एक वैसे ही बर्तन में बन्‍द करके रख दिया। जब कई दिनों बाद लजारो ने बर्तन को खोला तो उसमें जीवाणु नहीं थे।

इस प्रयोग से यह बात तो स्‍पष्‍ट होती ही है कि वैज्ञानिक तरीके में ठीक-ठीक प्रयोग करने का क्‍या महत्‍व है।

कई लोग अभी सन्‍तुष्‍ट नहीं थे। उनका कहना था कि प्रकृति में तो उबलने जैसी प्रक्रिया कहीं नहीं होती है। शायद स्‍वत: उत्‍पत्ति के लिए हवा के कुछ रसायन जरूरी हों जो उबलने से नष्‍ट हो जाते हों। हो सकता है नीढम के प्रयोग में उबालने से सारे रसायन नष्‍ट न हो पाएँ हो और स्‍पेलेनजानी के प्रयोग में हो गए हों। और इसी कारण से निष्‍कर्षों में फर्क आ रहा हो। इन असन्‍तुष्‍ट लोगों ने यह भी कहा कि आखिरकार उबले हुए सूप को दुबारा हवा में रखने पर थोड़ी ही देर में उसमें जीवाणु पैदा हो जाते हैं। वे कहाँ से आए? शायद ठण्‍डी हवा का वातावरण मिलने पर अपने आप सूप में उत्‍पन्‍न हो गए हों।

लगभग सौ साल तक जीवशास्त्रियों के बीच इस बात पर विवाद होता रहा। 1858 में एक फ्रांसि‍सी रसायनशास्‍त्री, लुई पास्‍चर ने इस समस्या को सुलझाया। इसे विज्ञान के इतिहास में महत्‍वपूर्ण घटना के रूप में देखा जाता है।

पास्‍चर को शक था कि हवा में भी जीवाणु रहते हैं। उसने अपने शक को जाँचने के लिए एक प्रयोग किया। उसने थोड़ी-सी रुई ली और उसे पानी में डालकर अच्‍छी तरह उबाल लिया, ताकि उसमें छिपे सारे जीवाणु मर जाएँ। फिर रुई निकालकर हवा में रखी और थोड़ी देर बाद वापस उसी पानी में डाल दी। पानी में फिर से जीवाणु दिखाई देने लगे। याद रहे कि यह सारा काम सूक्ष्‍मदर्शी के सहारे से हो रहा था। इस प्रयोग से ऐसा लगा कि हवा में भी जीवाणु होते हैं। पास्‍चर ने एक और प्रयोग किया। उसने एक ऐसा तरीका सोचा जिसमें किसी बर्तन में भरे सूप में ठण्‍डी हवा लगातार जाती रहे लेकिन हवा के जीवाणु न पहुँचे। उसे इस बात का एहसास था कि हवा में जीवाणु धूल के कणों पर चिपके रहते हैं। उसने एक खास तरह का फ्लास्‍क बनाया। इस फ्लास्‍क तथा नली की रचना तुम चित्र में देख सकते हो। पास्‍चर ने इस फ्लास्‍क को सूप से आधा भर लिया और फिर सूप को उबाला। मुड़ी हुई नली से भाप को देर तक निकलने दिया। इस तरह सूप व नली में सभी जीवाणु मर गए। फिर उसने सूप को ठण्‍डा होने दिया। फ्लास्‍क की मुड़ी हुई नली को भी खुला ही रखा ताकि हवा अन्‍दर जा सके। हवा तो सूप तक पहुँच सकती थी, लेकिन धूल के कण मुड़े हुए हिस्‍से से ऊपर उठकर फ्लास्‍क के भीतर प्रवेश नहीं कर पाते थे, वे वहीं मुड़े हुए हिस्‍से में रह जाते थे। पास्‍चर ने महीनों तक फ्लास्‍क को ऐसे ही रखे रहने दिया, लेकिन सूप में कोई जीवाणु पैदा नहीं हुए। लेकिन फ्लास्‍क की नली को तोड़ते ही सूप में जीवाणु नजर आने लगे। 1864 में पास्‍चर ने अपने निष्‍कर्षों का सार्वजनिक रूप से एलान किया। कई अन्‍य व्‍यक्तियों ने प्रयोग को दोहराया और यही निष्‍कर्ष निकाला। तब यह बात साफ हो गई कि स्‍वत: उत्‍पत्ति जैसी कोई चीज नहीं होती है - न तो जीवाणुओं की और न ही पहली बरसात में मेंढकों और मछलियों के आकाश से गिरने की। पास्‍चर के इसी अध्‍ययन से रोगों के बारे में महत्‍वपूर्ण जानकारी मिली।

अब रोग तो ऐसी चीज है जिसके बारे में जानने के लिए सभी उत्‍सुक रहते हैं, क्‍योंकि कभी-न-कभी सभी इसकी गिरफ्त में आ ही जाते हैं। अगर एक व्‍यक्ति को बुखार आए तो हो सकता है दूसरे व्‍यक्ति भी बीमार हो जाएँ, या शायद पूरा परिवार, मोहल्‍ला, गाँव या शहर भी बीमार हो सकता है। सन 1300 में युरोप, अफ्रीका व एशिया में एक ऐसी महामारी फैली जिससे करोड़ों लोगों की मृत्‍यु हो गई। उस समय किसी को यह मालूम नहीं था कि रोग कैसे होते या फैलते हैं? कुछ लोग सोचते थे कि यह भूतप्रेत का काम है, तो कुछ सोचते थे कि बुरे कामों की सजा है यह। इस तरह किसी को भी इस बात का ज्ञान नहीं था कि बीमारियों को रोका भी जा सकता है। लोग महामारी के डर से हमेशा आतंकित रहते।

यह देखने में आया कि कुछ बीमारियाँ ऐसी हैं जैसे कि चेचक यदि किसी व्‍यक्ति को एक दफा हो जाए तो दुबारा नहीं होती थीं। ऐसा लगता था जैसे उस व्‍यक्ति ने उस बीमारी से लड़कर हमेशा के लिए मुक्ति पा ली हो।

सन 1770 में एडवर्ड जेनर नामक एक अँग्रेज डॉक्‍टर ने गायों को होने वाली बीमारी काउपॉक्‍स में दिलचस्‍पी ली। यह बीमारी कुछ-कुछ चेचक जैसी दिखती थी। गायों से यह मनुष्‍यों को भी होती थी। लेकिन चेचक की तरह नहीं। इसमें तो एकाध छाला ही निकलता बस। जहाँ जेनर काम कर रहा था, वहाँ के लोग काउपॉक्‍स को अच्‍छा मानते थे। क्‍योंकि उन्‍होंने देखा कि जिसे एक दफा काउपॉक्‍स हो जाए उसे दुबारा चेचक या काउपॉक्‍स नहीं होता था। लगभग बीस वर्ष तक अध्‍ययन करने के बाद जेनर ने एक खतरनाक प्रयोग करने की ठानी। 14 मई 1796 को उसने काउपॉक्‍स से पीड़ित एक दूध बेचने वाल महिला के शरीर पर उभरे छाले में एक सुई घुसाई और फिर इसी सुई से एक स्‍वस्‍थ बच्‍चे की चमड़ी को खरोंच दिया। इस बच्‍चे को कभी काउपॉक्‍स या चेचक नहीं हुआ था। बच्‍चे को काउपॉक्‍स हुआ और खरोंच की जगह पर छाला उभर आया।

जेनद दो महीने तक इन्‍तजार करता रहा। बच्‍चे को तो अब काउपॉक्‍स नहीं होने वाला था। लेकिन क्‍या बच्‍चा चेचक से भी मुक्‍त हो गया था? जेनर ने फिर एक जोखिम उठाया और दुबारा एक सुई से बच्‍चे को चमड़ी को खरोंचा। इस बार सुई चेचक के छाले में डाली गई थी। बच्‍चे को चेचक नहीं हुआ। दो वर्ष बाद जेनर ने फिर यही प्रयोग एक बच्‍ची पर किया। उसने पाया कि काउपॉक्‍स का हलका रोग लगने के बाद यह लोगों को चेचक से हमेशा के लिए मुक्ति दिलवा सकता है।

चिकित्‍सा विज्ञान में काउपॉक्‍स को वेवसीनिया कहा जाता है, जिसका लैटिन भाषा में अर्थ है - गाय। इसलिए जेनर के इस तरीके को वेक्‍सीनेशन नाम दिया गया, जिसे हम लोग टीका लगवाना कहते हैं। तो हर टीके में यही होता है कि उस रोग के कुछ जीवाणु टीके के माध्‍यम से बच्‍चे में पहुँचाए जाते हैं, जब रोग होता है तो शरीर उससे लड़ता है और शरीर में ऐसी प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है कि भविष्‍य में कभी वह रोग हो ही नहीं।

हालाँकि इस प्रकार से सभी रोगों को रोका नहीं जा सकता। क्‍योंकि चेचक की तरह बाकी रोगों का काउपॉक्‍स जैसा कोई भाई-भतीजा नहीं मिला। लेकिन इस बात से यह जरूर सोचा गया कि शायद एक व्‍यक्ति से दूसरे व्‍यक्ति तक रोग फैलने पर रोक लगाना सम्‍भव हो।

हंगरी के एक डाक्‍टर सेम्‍मलवाइज एक प्रसूतिगृह में काम करते थे। प्रसव के दौरान कई महिलाओं की मृत्‍यु हो जाती थी। इससे डॉक्‍टर बहुत परेशान थे।

सेम्‍मलवाइज ने एक नियम बनाया कि सभी डॉक्‍टर, मरीज के पास जाने से पहले कुछ खास रसायनों से हाथ धोएँगे। ऐसा करने पर अस्‍पताल में मृत्‍यु दर एकदम कम हो गई। लेकिन बाकी डॉक्‍टरों को हाथ धोने का यह काम एक झंझट ही लगता था। उन्‍होंने सेम्‍मलवाइज का तबादला करवा दिया और वापस अपने रास्‍ते पर आ गए। अस्‍पताल में मृत्‍यु दर फिर बढ़ गई।

आखिरकार इन सब बातों की सफाई फिर से पास्‍चर ने ही की। फ्रांस में शराब बनाने का एक बहुत बड़ा कारखाना है। एक बार वहाँ पर रखी शराब खट्टी होने लगी। लोग घबराए, क्‍योंकि करोड़ों रुपए की शराब खराब होने का डर था। पास्‍चर ने देखा शराब में कुछ अतिरिक्‍त जीवाणु मौजूद हैं जो नहीं होने चाहिए। ये जीवाणु शराब में अम्‍ल पैदा कर रहे थे। पास्‍चर ने कहा कि शराब को थोड़ा गर्म कर दिया जाए ताकि ये जीवाणु मर जाए। चकित शराब उत्‍पादकों ने ऐसा ही किया और शराब बच गई।

पास्‍चर के काम को एक जर्मन डाक्‍टर, रोबर्ट कोख ने आगे बढ़ाया। आहिस्‍ता-आहिस्‍ता यह बात स्‍थापित होती गई कि इन्‍हीं जीवाणुओं में से कुछ जिन्‍हें जर्म या कीटाणु कहते हैं, बीमारी की जड़ हैं।

आगे का इतिहास फिर कभी। हाँ, एक बात याद रहे - सभी जीवाणु बीमारी नहीं फैलाते। बहुत सारे हमारी मदद भी करते हैं - मिट्टी में रहकर व अन्‍य कई प्रकार से। और यह बात भी सही है कि अधिकांश जीवाणु गर्म करने से मर जाते हैं। सोचो तो दूध को गर्म करके क्‍यों रखते हैं? और गर्म न करने पर दूध खराब क्‍यों हो जाता है? ऑपरेशन के समय भी डॉक्‍टर अपने औजारों को अच्‍छी तरह क्‍यों उबालते हैं?

पास्‍चर ने यह विधि भी सुझाई कि किसी भी चीज को कीटाणु रहित करने के लिए लगभग 60 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर काफी देर तक गर्म करना चाहिए।

इस विधि को पाश्‍चुराइजेशन कहा जाता है।

जीवाणुओं के असर का पता करने के लिए वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में विभिन्‍न प्रयोग करते हैं। इनमें से कई जोखिम भरे भी होते हैं। इस चित्र में एक वैज्ञानिक मलेरिया पैदा करने वाले रोगाणुओं के वाहक मच्‍छरों के झुण्‍ड में हाथ डालकर अपना शोध कर रहा है।