कथा संस्कृति: वैश्विक परिदृश्य / कमलेश्वर

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यह कहना प्रामाणिक और उचित ही है कि भारत संसार का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ कथापीठ रहा है। यह देश कहानी की जन्मभूमि है। वैसे यह कहना अनुचित नहीं होगा कि विश्व की समस्त अर्वाचीन, लुप्त-विलुप्त और प्राचीनतम सभ्यताओं के नीचे से यदि कहानियों के आधार स्तम्भ हटा दिये जाएँ तो सारी सभ्यताएँ भरभराकर कच्ची मिट्टी की तरह गिर पड़ेंगी। सभ्यताओं के अस्तित्व और उनकी संरचना की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत भी कहानियाँ ही हैं। कहानी के बिना बड़ी से बड़ी मानव सभ्यता के इतिहास के शुभारम्भ को नहीं जाना जा सकता। यहाँ कि तक संसार के आदि ग्रन्थों की सारी संरचना, कहानियों पर ही टिकी हुई है। वैदिक संहिताएँ (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) विश्व-साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इनके दौर में भी कथाओं, किंवदन्तियों, मिथक प्रसंगों और आख्यानों की कमी नहीं है। प्रत्येक वैदिक देवता कहानी से ही जन्मता है। वह किसी न किसी कहानी की ही देन है। सभी सभ्यताओं का यह सत्य है। वह चाहे अमेरिकी आदिवासियों की अजटेक-माया सभ्यता रही हो या चीन की, मिस्र की, सुमेरी या अक्कादी। भारतीय सभ्यता तो वेद, ब्राह्मण, पुराण, उपनिषद्, महाभारत, रामायण आदि की असंख्य कहानियों का खजाना है, जिसके द्वारा लौकिक और अलौकिक जीवन के तथ्यों और सत्यों को रूपायित किया गया। धर्मग्रन्थों के जितने भी अलौकिक प्रसंग या विवरण हैं, वे तो कहानी के बिना पूरे ही नहीं हो पाते, यहाँ तक कि अध्यात्म और दर्शन में भी कथा दृष्टान्तों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बनी ही रहती है।

आज भी भारत में लोक-कथापीठों की कमी नहीं है। यह लोककथाएँ ही साहित्य में भी पहुँचीं, क्योंकि कहानियों का मूल स्रोत लोकधर्मी कथा प्रतिभा ही है। वैदिक कथा साहित्य के साथ ही भारत बौद्ध और जैन कथाओं का भी आदि देश है। बौद्ध वाङ्मय की जातक कथाएँ तो आज भी श्रीलंका, कम्बोडिया, म्याँमार आदि देशों में बेहद लोकप्रिय हैं और भगवान गौतम बुद्ध के पूर्वजन्मों के वे विवरण रात-रातभर बैठकर सुने और सुनाये जाते हैं। यह रामकथा की ही तरह घर-घर में प्रचलित हैं। इसके अलावा जातक कथाओं का यह खजाना दुनिया भर में कहानियों का सबसे बड़ा कोष है। पंचतन्त्र की पशु-पक्षी कथाएँ तो संसारभर में बेमिसाल हैं ही। यह कहानियाँ मात्र लोक स्मृति में ही मौजूद नहीं हैं बल्कि इनके दृश्य साँची और भरहुत आदि के बौद्ध-स्तूपों पर भी अंकित हैं।

वैदिक कथाएँ तो बहुत प्राचीन हैं ही। अभी तक पुराण-कथाओं, महाभारत और रामायण के रचना समय का अन्तिम निर्धारण नहीं हो पाया है, पर बौद्ध-कथाओं का समय ईसा के जन्म से पाँच सदी पहले से लेकर ईसा के बाद की पहली और दूसरी सदी तक फैला हुआ है। भगवान महावीर स्वामी और भगवान गौतम बुद्ध समकालीन हैं। जैन श्रमण साहित्य भी कहानियों से आप्लावित है, पर जैन-कालीन प्राकृतभाषा के कथा ग्रन्थ सुरक्षित नहीं रहे, जबकि बौद्धकालीन पाली भाषा के धम्म और कथा ग्रन्थ आज भी काफी-कुछ सुरक्षित हैं। वैदिक, बौद्ध और जैन कथाओं का आदान-प्रदान, लेन-देन और संवर्धन भी चलता रहा है। बौद्ध विद्वान भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने जातक ग्रन्थों की जो टीका लिखी है, उसमें उन्होंने लिखा है कि प्राचीन बौद्ध कथाओं में से कई एक कहानियाँ अपने विकसित रूप में महाभारत और रामायण में मिलती हैं। वैसे कौसल्यायन जी की स्थापना को वाद-विवाद का विषय नहीं बनना चाहिए, पर यह सहज ही माना जा सकता है कि कहानियों का लेन-देन लगातार जारी रहा है। यह मात्र संस्कृत, पाली और प्राकृत भाषाओं के बीच ही जारी नहीं रहा है बल्कि क्षेत्रीय और जनपदीय बोलियों और भाषाओं में तो लोक-कथाओं का लेन-देन जारी था ही।

बौद्ध और जैन कथाओं ने धर्म-प्रचार में बड़ी भूमिका अदा की है। यह कहानियाँ अधिकांशतः उस समय की हैं, जब वैदिक संस्कृत का लोप हो रहा था। यह पाली, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं और साहित्य का उदय काल था। वैदिक संस्कृत लौकिक संस्कृत में पर्यवसित हो चुकी थी और ब्राह्मणवादी वैदिक धर्म के प्रति जन-साधारण वीतराग हो चुका या हो रहा था। लौकिक संस्कृत विकसित होती पाली और प्राकृत के सामने नहीं टिक पायी। यों भी वैदिक समाज वर्णवादी ब्राह्मणों के हाथों में चला गया, अतः उसकी सामाजिक संरचना और कार्यश्रेणी विभाजन आम जनता को रास नहीं आ रहा था। उनके पौराणिक प्रवचन और आध्यात्मिक विमर्श लोगों के सांसारिक जीवन और उसकी समस्याओं से विरक्त थे। आर्य-आध्यात्मिकता और अपने-अपने परा-जीवन, ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व के प्रश्न समाज की सामूहिकता को नकार कर व्यक्ति की निजी व्यक्तिवादिता को प्रश्रय दे रहे थे...वर्णवाद ने जो श्रम-विभाजन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था, वह समाज में श्रम करने और जीने के अधिकार के नियमों से अधिक वर्ण-विशेष की वर्चस्वता और श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता था, अतः जन-साधारण की बहुसंख्या वैदिक पुराण, जन्मगत सामाजिक शोषण के सिद्धान्त, पाखण्ड और पुरोहितवाद से ऊबकर ब्राह्मणवादी आर्य व्यवस्था की विरोधी हो रही थी।

वह भाषा संस्कृत, जिसे देव और दैवी भाषा माना जाता था, वह लोगों के मन से उतर गयी थी। सच पूछिए तो यह वैदिक संस्कृत का अवसान काल था। इस समय बोलचाल की बड़ी सशक्त भाषाएँ पाली, प्राकृत और अपभ्रंश पनप रही थीं। लगभग समस्त बौद्ध साहित्य और भिक्षुओं के आपसी व्यवहार की भाषा पाली थी और जैन धर्म-सम्प्रदाय और श्रमणों की भाषा प्राकृत! यही कारण है कि भारतीय कथा कथन और कथा रचना की भाषा भी मुख्यतः पाली और प्राकृत हो गयी। पाली में बौद्धों का लगभग समस्त साहित्य रचा गया और प्राकृत में जैन तथा अन्य साहित्य।

बौद्धों का पाली में लिखित साहित्य की तरह जैन सम्प्रदाय का धार्मिक और कथा साहित्य प्राकृत में लिखा गया। इसमें भी कहानियों का विपुल भण्डार है। बौद्ध भिक्षुओं की तरह जैन साधु भी अपने धर्म-प्रचार के लिए दूर-दूर देशों में भ्रमण करते थे। उनके लिए यह आवश्यक भी था। धर्मों में संहिताओं और धार्मिक आदेशों के नियम मौजूद हैं। जैनियों के ऐसे ही एक ग्रन्थ ‘बृहत्कल्पभाष्य’ में बताया गया है कि जैन साधु को आत्मशुद्धि के लिए तथा दूसरों को धर्म में स्थिर करने के लिए लगातार जनपद विहार करना चाहिए तथा जनपद विहार करने वाले साधु को मगध, मालवा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गौड़, द्रविड़, विदर्भ आदि देशों की भाषा में जनसाधारण को उपदेश देना चाहिए। उसे देश-देश के रीति-रिवाजों और आचार-विचार का ज्ञान होना चाहिए जिससे उसे हास्यभाजन न बनना पड़े। जाहिर है कि इन यात्राओं से क्षेत्रीय बोलियों का निश्चय ही आदान-प्रदान हुआ और एक-एक क्षेत्र की लोकोक्तियों और लोककथाओं की आपसी सामाजिकता भी निश्चय ही स्थापित हुई होगी।

जैन साहित्य की प्राचीनतम कथा सम्पदा आगम साहित्य के नाम से पहचानी जाती है। यह कथाएँ पैशाची प्राकृत भाषा में लिखी गयीं। पाली, प्राकृत और लौकिक संस्कृत के सम्मिश्रण से बनती अपभ्रंश भी तब मौजूद थी और इन भाषाओं का जनसाधारण में बहुत प्रचलन था। वैदिक संस्कृत जनसाधारण की भाषा नहीं रह गयी थी। स्वयं वैदिक ब्राह्मण रचना तो वैदिक संस्कृत में करते थे पर उनकी बोलचाल की भाषा पाली या प्राकृत ही थी। वैदिक संस्कृत को लेकर जनसाधारण में भाषायी अरुचि उत्पन्न हो चुकी थी। इसका एक दृष्टान्त मराठी शोधकर्ता डॉ. माधव मुरलीधर देशपाण्डे और अपने हिन्दी विद्वान डॉ. राजमल बोरा ने पेश किया है :

“एक राजपुत्र पेड़ के नीचे बैठा हुआ था। उस समय उसने एक सम्भाषण (आपस की बातचीत) सुना। वह उक्त भाषा के सम्बन्ध में तर्क करने लगा। प्रथम तो वह कहता है कि सम्भाषण संस्कृत में नहीं है क्योंकि संस्कृत तो अत्यन्त दुर्बोध भाषा है और कठिन भी है, दुर्जनों के हृदय सदृश कठोर है। यह सम्भाषण प्राकृत में भी नहीं है क्योंकि प्राकृत सज्जनों के हृदय की तरह सुखद रहती है और उसमें प्रकृति का सुन्दर वर्णन रहता है और प्राकृत शब्द संस्कृत जैसे एक-दूसरे से सन्धि से युक्त नहीं रहते। यह सम्भाषण अपभ्रंश में भी नहीं है क्योंकि अपभ्रंश में शुद्ध-अशुद्ध संस्कृत और प्राकृत का मिश्रण रहता है। वह तो बाढ़ आने वाले पानी सदृश अनियन्त्रित रहती है किन्तु यह सम्भाषण तो प्रेमी और प्रेमिका की बातों के सदृश सुन्दर है। ये सम्भाषण इन तीनों प्रकार की भाषाओं में ठीक से बैठता नहीं इसलिए इसे पैशाची कहना अधिक ठीक होगा। राजपुत्र का निर्णय था कि यह सम्भाषण पैशाची में होगा।”

यों यदि भारतीय प्राकृत को पैशाची मान लिया जाए तो पैशाची का भौगोलिक विस्तार चीनी तुर्किस्तान तक मानना पड़ता है। दूसरी ओर सिन्धु नदी के तट तक तो उसका विस्तार था ही। सिन्धु नदी के पूर्व में जमुना तक शौरसेनी का विस्तार था। इस तरह पैशाची, शौरसेनी का संस्कार प्राप्त कर रही थी। ओड़ीसा के विद्वान भाषाविद् मार्कण्डेय के अनुसार पैशाची के तीन प्रधान भेद बतलाए गये हैं, उनमें कैकेय के बाद दूसरा भेद शौरसेनी पैशाची का है। तीसरा भेद पांचाल पैशाची का है। पैशाची को संस्कृत ही नहीं, प्राकृतों के रूपों से सम्बद्ध मानने का प्रयत्न व्याकरण-ग्रन्थों में क्यों हुए, इसके कारण भाषा-समुदायों के आपसी सम्बन्धों में खोजने होंगे। ईसा की आठवीं सदी में जैन साहित्यकार उद्योतन सूरि ने ‘कुवलयमाला’ ग्रन्थ में प्राकृत की कथा दी है। उस कथा का संक्षिप्त विवरण डॉ. माधव मुरलीधर देशपाण्डे ने ‘संस्कृत आणि प्राकृत भाषा’ (मराठी ग्रन्थ) में दिया है। उसमें एक कथा संकलित है, जिसमें पैशाची का विशद उल्लेख है।

विशेष ध्यान देने की बात यह है कि पैशाची को अन्य भाषाओं से अलग बतलाया गया है। गुणाढ्य की पैशाची को इसी तरह अलग माना गया है। प्राकृतों में उसकी गणना नहीं है। प्राकृत के रूपों का जैसा सम्मान हुआ है, वह सम्मान भी पैशाची को नहीं मिला। पेशावर, चीनी तुर्किस्तान, ईरान में जो सम्मान पैशाची को मिला, वह सम्मान पैशाची को भारत में नहीं मिला। विशेष रूप से गुणाढ्य के काल में उसे सम्मान नहीं मिला। बाद में विद्वान भूल गये कि पैशाची कैकेय की भाषा है। वे उसे विन्ध्याचल के पास की भाषा मानने लगे। पिशाच भाषा कहने लगे। राजशेखर ने तो उसे ‘भूत-भाषा’ कह दिया है। यह सब क्यों हुआ? जिस पैशाची भाषा के माध्यम से बौद्ध और जैन धर्म का विस्तार मध्य एशिया के देशों एवं भाषा में हुआ, उस भाषा को भारत में अनदेखा दिया गया।

गुणाढ्य की बृहत्कथा को पैशाची की एकमात्र साहित्यिक रचना के रूप में जाना जाता है। मूल ग्रन्थ तो लुप्त है। उसके संस्कृत अनुवाद उपलब्ध हैं। मराठी में कथासरित्सागर का अनुवाद पाँच खण्डों में उपलब्ध है। वह सोमदेव द्वारा अनूदित कथासरित्सागर का अनुवाद है। उसके कथाखण्ड लम्बक के आठवें तरंग में गुणाढ्य की वह कथा, जिसका उल्लेख डॉ. माधव देशपाण्डे ने किया है, वह यहाँ प्रस्तुत है-‘गुणाढ्य के दो शिष्य गुणदेव और नन्दिदेव थे। शिष्यों ने प्रस्ताव किया था कि उक्त कथा सातवाहन राजा के योग्य है। गुणाढ्य ने शिष्यों की बात मान ली। गुणाढ्य तो राजधानी पहुँचकर देवी के मन्दिर में ठहर गया। वे दोनों शिष्य सातवाहन राजा के दरबार में पहुँच गये। उनके साथ वह महाकथा का ग्रन्थ था। उन्होंने वह ग्रन्थ राजा को दिखलाया और कहा - “यह गुणाढ्य की रचना है!” किन्तु राजा उस समय स्वयं अपनी विद्या से अभिभूत था। उसमें मत्सर की भावना थी। उसे ये दोनों ही शिष्य पिशाच की तरह दिखलाई दे रहे थे। और फिर वह ग्रन्थ पैशाची में लिखा हुआ था। फिर क्या? राजा ने कहा - “इस महाग्रन्थ में सात लाख श्लोक हैं किन्तु पैशाची भाषा में हैं। यह भाषा बहुत नीरस लगती है, अलावा इसके यह रक्त से लिखी गयी है। इस पैशाची कथा को धिक्कार हो।”

शिष्यगण चकित रह गये। वे ग्रन्थ लेकर गुणाढ्य के पास गये और सारा वृत्त कह सुनाया। सुनकर गुणाढ्य का मन खिन्न हो गया। खिन्न भावना से वह वहाँ से निकट के वन में पहाड़ी पर गया। प्रदेश रमणीय था और एकान्त स्थल था। वहाँ वह ग्रन्थ का एक-एक पृष्ठ उठाकर पढ़ने लगा। उसे पशु-पक्षी सुन रहे थे। पढ़ना पूरा होने पर उस पृष्ठ को उसने अग्निकुण्ड को समर्पित कर दिया। उसके शिष्यों की आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। वे विवश थे। अन्ततः उन दोनों ने उसे अग्निकुण्ड को पृष्ठ समर्पित करने से रोका। अब तक उसने नरवाहनदत्त का चरित्र जलाया नहीं था। सात कथाओं में से इस एक कथा के भी एक लाख श्लोक थे। गुणाढ्य जब कथावाचन कर रहा था, उस समय वन के पशु, भैंसे, हिरन, सूअर आदि सब मण्डलाकार रूप में उसे घेरकर खड़े थे और कथा सुन रहे थे। कथा सुनने के लोभ में उन्होंने घास खाना बन्द कर दिया था। उनकी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। वे सब स्तब्ध और निश्चल बैठे थे। ठीक उसी समय राजा अस्वस्थ हो गया। वैद्यों ने निदान किया और कहा कि शुष्क मांस खाने के कारण ऐसा हुआ है। राजा ने रसोइयों को बुलवाया और पूछा। उन्होंने कहा - “हम क्या करें? मांस लाने वाला हमें शुष्क मांस दे रहा है।” उसने व्याध को बुलवाया। उसने कहा - “इस समय निकट के वन में अग्निकुण्ड जलाकर एक कथावाचक बैठा हुआ है। वह अपने ग्रन्थ का पूरा पृष्ठ पढ़कर सुनाता है और पढ़े हुए पृष्ठ को अग्नि को समर्पित कर देता है। उसके इस कथावाचन को वन के पशु सुनते हैं। उन्होंने घास खाना छोड़ दिया है। इसीलिए उनका मांस शुष्क होता जा रहा है।” इस चमत्कार को सुनकर राजा स्वयं उस वन में गया। उसने देखा वह कथावाचक सचमुच उन पृष्ठों को अग्निकुण्ड को समर्पित कर रहा है। उसकी जटाएँ बढ़ गयी थीं और पशुओं की आँखों से भी अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। गुणाढ्य का शरीर भी कृश हो गया था। पशु-गण उसे घेरकर बैठे हुए थे। राजा ने तब गुणाढ्य से सारा वृत्त सुनाने को कहा। गुणाढ्य ने अपना सारा वृत्त सुनाया। राजा को लगा, गुणाढ्य तो ‘माल्यवान गण’ का अवतार है। राजा ने अपना माथा गुणाढ्य के चरणों में रखा। तब उसने कहा कि श्री शंकर ने अपने मुख से जो कथा सुनायी है, वह मुझे सुनाइए। गुणाढ्य ने कहा - “हे राजा, मैंने तो सात लाख श्लोक भेजे थे किन्तु उनको आप द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। सात कथाओं में से 6 कथाएँ तो मैंने अब तक अग्नि को समर्पित कर दी हैं। छः लाख श्लोक तो भस्म हो गये हैं। अब सातवीं कथा, एक लाख श्लोकों की शेष रह गयी है। वह है। स्वीकार कर लें। मेरे शिष्य इसे संस्कृत में तुझे समझाकर कहेंगे।” उसके बाद शेष कथा लेकर राजा लौट गया। बाद में उसने दोनों शिष्यों को बुलवाया। उनका सम्मान किया। गुणाढ्य ने तो बाद में समाधि ले ली थी। वह शापमुक्त हो गया था और उसे स्वर्ग का अपना पद मिल गया था। राजा ने शिष्यों से सारा वृत्त जानकर आरम्भ का कथापीठ लिखने को कहा। इस कथापीठ के - लम्बक के - आठ तरंग हैं। उन आठों तरंगों में से ऊपर दी गयी कथा अन्तिम और आठवें तरंग की है।’

राजा का वन में जाना, गुणाढ्य को कथावाचन करते सुनना और बृहत्कथा के पृष्ठों को अग्निकुण्ड में जलाते जाना और इसे लेकर सातवाहन राजा के मन का जो पश्चात्ताप वहाँ दिया गया है, वह भी एक कहानी ही है, क्योंकि यह निश्चय ही क्षेपक है जो बाद में जोड़ा गया। ब्राह्मणवादी-वर्णवादी आर्य समुदाय का यह चरित्र है कि जिसे भी रचना, संरचना या विचार के क्षेत्र में सार्वजनिक स्वीकृति प्राप्त होती है और वे उससे घृणा करते हुए भी जब उस रचना या विचार को नकार नहीं पाते तो उसे मिथकीय स्वरूप देकर अपने वाङ्मय में सम्मिलित कर लेते हैं। बिलकुल यही बौद्ध धर्म के साथ नहीं हुआ था क्या? संसार जानता है कि सनातनी ब्राह्मण-वर्णवादी धर्म ने प्राचीन समय में बौद्ध धर्म (और जैन धर्म) का भी भीषण विरोध किया था। यहाँ तक कि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म को देश-निकाला ही दे दिया था। भारत में तब वैदिक ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं के बीच धर्मयुद्ध भी चले थे। तमाम बौद्ध विहारों और जैन पूजास्थलों को मन्दिरों में परिवर्तित किया गया था। यहाँ तक कि बौद्ध और जैन धर्म के केन्द्र साकेत में आज कोई महत्त्वपूर्ण बौद्ध या जैन अवशेष नहीं मिलता। उसे सनातनी हिन्दुओं की रामनगरी अयोध्या के रूप में स्थापित कर दिया गया। लेकिन फिर भी जब गौतम बुद्ध के बौद्ध धर्म को वे ब्राह्मणवादी-वर्णवादी नहीं मिटा पाये, गौतम बुद्ध को नहीं नकार पाये, तो उन्हीं गौतम बुद्ध को अपनी पौराणिक कथा संस्कृति में विष्णु के आठवें अवतार के रूप में स्वीकृत कर लिया। मजबूरी ही सही, पर भारतीय विचार परम्परा में समन्वय की यह भी एक सार्थक रीति है!

कथा संस्कृति पर बात करते हुए भाषा और उसकी उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि कहानियों ने हमेशा आम-आदमी, अपने समय के सर्व-साधारण व्यक्ति की भावनाओं और उद्भावनाओं को ही वाणी दी है। कहानी लगातार एक समसामयिक, समकालीन, सर्वसाधारण की अभिव्यक्ति का ही स्वर रही है। इसीलिए किसी भी दौर, जाति या समाज के सामान्य मनुष्य के जीवनगत-समाजगत सत्य को उस दौर की कहानियों के बिना नहीं समझा जा सकता! हर सदी के आम आदमी का इतिहास कहानियों में तलाशा जा सकता है। परन्तु भारत में साहित्य की एक कुलीन परम्परा हमेशा मौजूद रही है, जो जनसाधारण की रचना, विधा और उसकी भाषा को कुलीनता के अहंकार में नकारती रही है!

भारतीय साहित्य की मुख्य धारा में विचार, सोच और रचना की स्वीकृति और अस्पृश्यता की यह परम्परा सदियों पुरानी है। साहित्य की सत्ता में दखल रखनेवाले ऋषियों, मनीषियों और ग्रन्थकारों ने अपनी भाषायी और यथास्थितिवादी वैचारिक दुनिया निर्मित कर ली थी, साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र बना लिया था और जो उससे अलग और असहमत होता था, वह अपनी भाषा सहित उनके लिए ‘अछूत’ बन जाता था। वैदिक साहित्य और वैदिक संस्कृत के दौर तक तो विचार की उन्मुक्तता की परम्परा अटूट चलती रही। वैदिक संहिताओं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-तक तो वैदिक देवताओं की कहानियाँ और किंवदन्तियाँ चलती रहीं, तब तक लौकिक संस्कृत भाषा का स्वरूप भी सामने नहीं आया था। पर जड़तावादी आर्य मनीषी स्वयं वैदिक संस्कृत के स्वाभाविक विकास का रास्ता रोककर खड़े हो गये थे। यही रचना के क्षेत्र में हुआ। इन्द्र और अन्य वैदिक देवताओं के अलावा कुछ भी लिखना सम्भव नहीं था और वैदिक महापुरुषों के महानायकत्व से असहमत होना तब सम्भव नहीं था। तब तक धार्मिक, नैतिक और अलौकिक (जादुई) कहानियाँ तो लिखी जा सकती थीं पर लौकिक कहानियाँ (साहित्य) उसी तरह अवांछित, अलक्षित, अनपेक्षित और उपेक्षित थीं, जैसी कि आज भी ‘संस्कृत विद्वानों’ के सीमित समाज में दिखाई देता है। महाभारत काल तक यथास्थितिवादी वैदिक साहित्य का और साथ ही भाषायी स्तर पर वैदिक संस्कृत का यह दौर अबाध रूप से चलता रहा। यह अलिखित, अकथित वर्जना केवल रचना के स्तर पर ही नहीं, भाषा के स्तर पर भी थी।

याद कीजिए नयी कहानी के दौर के नये कथ्य और भाषायी क्षेत्रीयता की प्रयोगशीलता को! रेणु के ‘मैला आँचल’ के नये और अछूते यथार्थवादी राजनीतिक कथ्य को, उसकी भाषायी क्षेत्रीयता के कारण साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रियों और यथास्थितिवादियों ने लगभग खारिज कर दिया था। यहाँ तक कि बाबू शिवपूजन सहाय की ‘ग्रामीण दुनिया’ और नागार्जुन के उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ और ‘बलचनमा’ को फोकस में नहीं आने दिया गया था। क्योंकि उन रचनाओं का कथ्य और उनकी भाषा उस समय के रूढ़ साहित्यशास्त्रियों को स्वीकार नहीं थी।

लगभग ऐसा ही दौर तब भी वैदिक कथा वाङ्मय और संस्कृत भाषा को लेकर चल रहा था। उस दौर को देखें तो महाभारत के पश्चात भारतीय कथा परम्परा में गुणाढ्य की महास्रोतस्विनी ‘बृहत्कथा’ के रूप में सामने आयी थी। यह लौकिक कथाओं का महासागर था। उद्भट विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी के शब्दों में-”बृहत्कथा में कहानी ने अपना सहज (लौकिक) रूप पाया, वह जन-जन के मन में रमी। समाज में कही-सुनी जानेवाली कथाओं से जुड़कर आगे बढ़ी। रामायण और महाभारत के पश्चात बृहत्कथा कदाचित भारतीय साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित और अनुप्रमाणित करने वाला ग्रन्थ है!” गुणाढ्य ने कथ्य और भाषा की समस्त वर्जनाओं को तोड़ दिया था। गुणाढ्य की कथाएँ ब्राह्मणवादी वैदिक नहीं, लौकिक थीं और उनकी भाषा वैदिक संस्कृत नहीं, लौकिक संस्कृत (पैशाची) थी। वही शिवपूजन सहाय, नागार्जुन और रेणु की तरह!

शायद यहाँ यह बताने की जरूरत नहीं कि गुणाढ्य की बृहत्कथा भारत का पहला ग्रन्थ है जिसके कारण भारत दुनिया का पहला कथापीठ बन पाया। क्षेमेन्द्र तथा सोमदेव ने सारी प्रेरणा गुणाढ्य से ही प्राप्त की है। शुरू-शुरू में तो गुणाढ्य को नकारा ही नहीं बल्कि धिक्कारा गया। उन्हें सदियों उपेक्षित रखा गया, क्योंकि वे ब्राह्मण-पौराणिक साहित्य के अनुगामी नहीं थे। वे मौलिक और परम्परा से अलग थे, अतः यथास्थितिवादी विद्वान गुणाढ्य को मंजूर नहीं कर पा रहे थे। यथास्थितिवादियों ने उन्हें लगभग अछूत और अवांछित मान रखा था। उनकी लौकिकताधर्मी कहानियों की तो बात ही छोड़िए, उनकी भाषा लौकिक संस्कृत (पैशाची) तक को समकालीन विद्वानों ने मंजूर नहीं किया था।

परिवर्तनधर्मी गुणाढ्य और उनकी भाषा के प्रति व्यवस्थावादियों में इतनी हिकारत थी कि उनकी सहज लौकिक संस्कृत को उन्होंने पैशाची नाम दे दिया था। यानी पिशाचों की भाषा! कथ्य को नकारने के लिए जड़तावादी विद्वानों ने लौकिक भाषा को खारिज कर दिया था, क्योंकि वे व्यवस्थावादी-यथास्थितिवादी बदलने और नव्य को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थे और यह तब था जब कि बौद्ध और जैन धर्म वैदिक धर्म की जड़ता से विद्रोह करके सामने आ चुके और स्थापित हो चुके थे। बौद्ध पाली भाषा और जैन प्राकृत भाषा को अपना चुके थे। आठवीं सदी तक संस्कृत अव्यवहृत हो चुकी थी।

गुणाढ्य की ईसा से एक सदी पहले की बृहत्कथा से ही क्षेमेन्द्र की ‘बृहत्कथा मंजरी’ और सोमदेव की ‘कथासरित्सागर’ (दसवीं-ग्यारहवीं सदी) निःसृत हैं। आखिरकार अहंकारी वैदिक ब्राह्मणों को बृहत्कथा के कई अनुवाद संस्कृत में करने पड़े। जिस भाषा का तिरस्कार जड़तावादी साहित्यकारों ने किया, उसका भौगोलिक क्षेत्र वैदिक संस्कृत से लगभग पच्चीस गुना ज्यादा विस्तृत था। वह चीनी तुर्किस्तान से लेकर ईरान, सिन्धुघाटी, मथुरा और विन्ध्याचल तक फैली थी। सातवाहन राजाओं के काल तक वैदिक संस्कृत का क्षेत्र बहुत सीमित हो चुका था। वह सर्वसाधारण के लिए पठनीय नहीं रह गयी थी। संस्कृत काव्य-रचना सूख चुकी थी लेकिन भाषायी और बौद्धिक अहंकार की स्थिति भयानक थी।

गुणाढ्य और उनकी कालजयी रचना ‘बृहत्कथा’ के साथ वही व्यवहार किया गया जो दो-तीन दशक पहले दलित रचना के साथ किया गया और अब भी भाषायी संस्कारशीलता का सवाल उठाकर आदिवासी-जनजातीय रचना के साथ किया जा रहा है! हालाँकि जिस प्राकृत को हिकारत से पैशाची कहा गया, और आज जिसका नामोनिशान तक बाकी नहीं है, वह बहुत बड़े भूभाग की भाषा थी और मौलिक कथा रचना उसी पैशाची प्राकृत में हो रही थी। वैदिक और लौकिक संस्कृत से कितना विराट और विस्तृत था भारतीय कथा भाषा का यह क्षेत्र, यह डॉ. राजमल बोरा के इस विवरण से स्पष्ट है :

“प्रस्तुत प्रसंग में इतना कहना है कि ईरान का सम्बन्ध मगध तक था और वहाँ के मग कबीले के लोग पेशावर पहुँच गये थे और राज्य करते थे। इन मगों को दारयवहु ने परास्त किया और वहाँ पर अपना राज्य स्थापित किया। पेशावर के मगों की राजभाषा पैशाची रही है। यह पैशाची, वैदिक संस्कृत से मिलती-जुलती है। इस भाषा को उस समय खरोष्टी लिपि में लिखा जाता था। ईरान व उसके पूर्व के देशों में-सिन्धु नदी के तट तक के देशों में-खरोष्टी लिपि का प्रचलन था। पैशाची में उस समय जो लिखा गया, वह सब खरोष्टी में लिखा जाता होगा। उक्त लिपि को नकारा गया, उसे ठीक से पढ़ा नहीं गया-इसीलिए पैशाची के लोक-वाङ्मय का लोप हुआ है। हम देखते हैं कि बौद्धकाल में पैशाची का व्यवहार लोकभाषा-(सम्पर्क भाषा के रूप में) भारत में होने लगा था। उस भाषा के महत्त्व को प्राकृत भाषा के व्याकरण लिखनेवालों ने जान लिया और उसका अलग से उल्लेख अपने व्याकरण-ग्रन्थों में किया। यह इस बात का सबूत है कि पैशाची अपने समय की जीवन्त भाषा थी, पैशाची का भौगोलिक विस्तार बहुत बड़े भूभाग तक मानना पड़ता है। सिन्धु नदी के तट तक तो उसका विस्तार था ही। सिन्धु नदी के पूर्व में जमुना तक शौरसेनी का विस्तार था। इस तरह पैशाची, शौरसेनी का संस्कार भी प्राप्त कर रही थी। ओड़ीसा के भाषा विज्ञानी मार्कण्डेय के अनुसार पैशाची के तीन प्रधान भेद बतलाए गये हैं, उनमें कैकेय के बाद दूसरा भेद शौरसेनी पैशाची का है। तीसरा भेद पांचाल पैशाची का है। यह सर्व-साधारण की भाषा बन चुकी थी!”

विशेष बात यह है कि संस्कृत पण्डितों द्वारा पैशाची को अन्य भाषाओं से अलग बतलाया गया है। गुणाढ्य की पैशाची को इसी तरह अलग माना गया है। ब्राह्मण विद्वानों द्वारा प्राकृतों में उसकी गणना नहीं की गयी है। प्राकृत के रूपों का जैसे सम्मान हुआ है, वह सम्मान भी पैशाची को नहीं मिला। पेशावर, चीनी तुर्किस्तान, ईरान में जो सम्मान पैशाची को मिला, वह सम्मान उसे भारत में नहीं मिला। विशेष रूप से गुणाढ्य के काल में उसे सम्मान नहीं मिला। बाद में विद्वान भूल गये कि पैशाची कैकेय की मुख्य भाषा है और शौरसेनी से उसका निकटतम लेन-देन रहा है। वे उसे विन्ध्याचल के पास की भाषा मानने लगे। पिशाच भाषा कहने लगे। राजशेखर ने तो उसे भूत-भाषा कहा ही है। यह सब क्यों हुआ? जिस भाषा के माध्यम से जैन धर्म का विस्तार देश में और बौद्ध धर्म का विस्तार मध्य एशिया के देशों एवं भाषा में हुआ, तो उसकी लोकप्रियता के कारण भारत में वैदिक संस्कृत के विद्वानों की विरक्ति धार्मिक मतभेदों के कारण और बढ़ गयी।

परन्तु इससे एक बड़ा तथ्य स्थापित होता है कि भाषा के साथ मात्र धर्म ही देश की सीमा के बाहर नहीं गया बल्कि वह कथा परम्परा भी उन देशों में पहुँची जो धर्म और उसके प्रचारकों के सम्पर्क में आये। निश्चय ही आदान-प्रदान दोतरफा रहा होगा...

जैन धर्म की कथाओं को लेकर स्थिति दूसरी ही रही है। जैन कथाओं के आगम ग्रन्थ बहुत प्राचीन हैं। जो स्थान वैदिक साहित्य में वेद और बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक का है, वही स्थान जैन साहित्य में आगमों का है। आगम ग्रन्थों में महावीर स्वामी के उपदेश तथा जैन संस्कृति से सम्बन्ध रखनेवाली कथा कहानियाँ संकलित हैं। आचार्य जगदीश चन्द्र जैन के शब्दों में “जैन-परम्परा के अनुसार महावीर निर्वाण (ईसवी सन् के पूर्व 527) के 160 वर्ष पश्चात् (लगभग ईसवी सन् के 367 पूर्व) मगध देश में बहुत भारी दुष्काल पड़ा, जिसके फलस्वरूप जैन भिक्षुओं को अन्यत्र विहार करना पड़ा। दुष्काल समाप्त हो जाने पर जैन श्रमण पाटलिपुत्र (पटना) में एकत्रित हुए और यहाँ खण्ड-खण्ड करके ग्यारह अंगों का संकलन किया गया, बारहवाँ अंग किसी को स्मरण नहीं था इसलिए उसका संकलन नहीं किया जा सका। इस सम्मेलन को ‘पाटलिपुत्र-वाचना’ के नाम से पुकारा जाता है। कुछ समय पश्चात् जब आगम-साहित्य का फिर विच्छेद होने लगा तो महावीर निर्वाण के 827 या 840 वर्ष बाद (ईसवी सन् के 300-313 पूर्व) जैन साधुओं के दूसरे सम्मेलन हुए। एक आर्यस्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में और दूसरा नागार्जुन सूरि की अध्यक्षता में बलभी में। मथुरा के सम्मेलन को ‘माथुरी-वाचना’ के नाम से पुकारा जाता है। तत्पश्चात् लगभग 150 वर्ष बाद, महावीर निर्वाण के 980 या 993 वर्ष बाद (ईसवी सन् के 453-466 वर्ष) बलभी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में साधुओं का चौथा सम्मेलन हुआ, जिसमें सुव्यवस्थित रूप से आगमों का अन्तिम बार संकलन किया गया। इसे ‘बलभी-वाचना’ के नाम से पुकारा जाता है। वर्तमान आगम इसी संकलन का रूप है।”

जैन आगमों के उक्त तीन संकलनों के इतिहास से पता लगता है कि समय-समय पर आगम-साहित्य को काफी क्षति उठानी पड़ी, और यह साहित्य अपने मौलिक रूप में सुरक्षित नहीं रह सका। यही कारण मालूम होता है कि बौद्धों के विपुल साहित्य के मुकाबले में यह साहित्य बुहत न्यून है, तथा इस साहित्य में विकार आ जाने से ही सम्भवतः दिगम्बर सम्प्रदाय ने इसे मान्यता देना अस्वीकार कर दिया। जो कुछ भी हो, इस समय तो जैनों के पास यही निधि अवशेष है जिसके सहारे जैन संस्कृति का ढाँचा तैयार किया जा सकता है। इन नष्ट-भ्रष्ट, छिन्न-विच्छिन्न आगम ग्रन्थों में अब भी ऐतिहासिक और अर्ध-ऐतिहासिक इतनी विपुल सामग्री है कि उसके आधार पर भारत के प्राचीन इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय लिखा जा सकता है। आगम कथाओं के यह ग्रन्थ मात्र कथा ग्रन्थ नहीं हैं, इनमें समाजशास्त्रीय जानकारियों का विपुल खजाना भी मौजूद है। यह सामाजिक इतिहास के ग्रन्थ भी सिद्ध हुए हैं।

ईसा के पूर्व लगभग चौथी शताब्दी से लगाकर ईसवी सन् पाँचवीं शताब्दी तक की भारतवर्ष की आर्थिक तथा सामाजिक दशा का चित्रण करनेवाला यह कथा साहित्य अनेक दृष्टियों से महत्त्व का है। आगम ग्रन्थों में जैन भिक्षुओं के आचार-विचारों का जो विस्तृत वर्णन है, वह बौद्धों के धम्मपद, सुत्तनिपात तथा महाभारत (शान्तिपर्व) आदि ग्रन्थों से बहुत अंशों में मेल खाता है, और डॉ. विण्टरनित्ज़ आदि विद्वानों के कथनानुसार यह श्रमण-काव्य का प्रतीक है। भाषा और विषय आदि की दृष्टि से जैन आगमों का यह भाग सबसे प्राचीन मालूम होता है।” डॉ. जैन के ही अनुसार -

“भगवती, कल्पसूत्र, आवोइय, ठाणांग, निरयावलि आदि ग्रन्थों में भगवान महावीर, उनकी चर्या, उनके उपदेशों तथा तत्कालीन राजा, राजकुमार और उनके युद्ध आदि का विस्तृत वर्णन है, जिससे जैन इतिहास की लुप्तप्राय अनेक अनुश्रुतियों का पता लगता है। नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अन्तगडदसा, अनुत्तरोववाइयदसा, विवागसुय आदि ग्रन्थों में महावीर द्वारा कही हुई अनेक कथा कहानियाँ तथा उनकी अनेक शिष्य-शिष्याओं का वर्णन है, जिससे जैन-परम्परा-सम्बन्धी अनेक बातों का परिचय मिलता है। रायपसेणिय, जीवाभिगम, पन्नवणा आदि अन्य ग्रन्थों में वास्तुशास्त्र, संगीत, वनस्पति आदि सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन है जो प्रायः अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता।”

अतः यह कहा जा सकता है कि भारतीय कहानियों की परम्परा मात्र, धार्मिक, नैतिक और प्रचारवादी नहीं थी। उन कथाओं में हमें तत्कालीन समय के आचार-व्यवहार, शिष्टाचार, सामाजिक, सांस्कृतिक संकेत और विवरण भी मिलते हैं, जो मात्र उपदेश या मनोरंजन तक सीमित नहीं रहते बल्कि वे अपने समय की सभ्यतागत व्यावहारिक जानकारियों के साथ-साथ समाज में किये जा रहे, व्यावहारिक, वैचारिक, और मनुष्य के विकसित होते जीवन का प्रामाणिक परिचय भी दे रहे थे।

सही पूछिए तो हमारी कथा की लौकिक परम्परा संस्कृत में उतनी नहीं है जितनी कि पाली और प्राकृत में मौजूद है। इसमें भी सबसे बड़ा कथा भण्डार पैशाची प्राकृत में मौजूद था। डॉ. राजमल बोरा के अनुसार -

“पैशाची भाषा भारत की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है। वह वैदिक संस्कृत की समकालीन और लोक-व्यवहार की भाषा रही है। वैदिक काल में, वैदिक संस्कृत का व्यवहार करने वाले ऋषि-मुनि भी लोक-व्यवहार में-बोलचाल में-पैशाची का उपयोग करते थे। वैदिक भाषा का जहाँ-जहाँ उपयोग होता था या उसका अपना जो भौगोलिक क्षेत्र था, उस क्षेत्र में पैशाची लोकभाषा के रूप में प्रचलित रही है। दरद परिवार का भौगोलिक क्षेत्र, पैशाची का क्षेत्र रहा है। इस तरह से विचार करें तो पैशाची दरदीय परिवार की प्रमुख भाषा हो जाएगी। पहले दरदीय भाषाओं पर विचार करते समय ग्रियर्सन ने दरद परिवार के विकल्प में पैशाची परिवार, नामकरण करना चाहा था किन्तु पैशाची के प्रति लोक-भावना को देखकर उक्त नामकरण नहीं किया। ग्रियर्सन ने तो कश्मीरी को दरद परिवार की भाषा कहा है और इस नाते से कश्मीरी का भौगोलिक क्षेत्र पैशाची का भी भौगोलिक क्षेत्र हो जाता है। कश्मीर से हिमालय के पश्चिम में और गान्धार से आगे ईरान की सीमाओं तक और दक्षिण में सिन्ध तक पैशाची भाषा का भौगोलिक विस्तार लोक-व्यवहार की भाषा के रूप में हो गया था। सातवाहन वंश के राजाओं के काल में वह भाषा मध्यदेश में मगध की सीमाओं तक पहुँची है और बाद में सातवाहनों के दरबार में भी पहुँची। पैशाची में लोक-वाङ्मय का विपुल लेखन हुआ है किन्तु वह सब लुप्त हो गया है। उस वाङ्मय में गुणाढ्य का नाम लिया जाता है। पैशाची में लिखी कथाओं का संस्कृत अनुवाद हमें प्राप्त है। मूल पैशाची का ग्रन्थ मिलता नहीं है। यों पैशाची का भौगोलिक क्षेत्र जितना व्यापक है, उतना ही उसका ऐतिहासिक काल भी वैदिक संस्कृत के काल से सातवाहन राजाओं के काल तक व्याप्त रहा है। मार्कण्डेय, हेमचन्द्र और राजशेखर ने अपने ग्रन्थों में पैशाची का उल्लेख किया है। ग्रियर्सन ने भी पैशाची भाषा पर स्वतन्त्र पुस्तक लिखी है। संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थों की तरह बाद में जब प्राकृत के ग्रन्थ लिखे जाने लगे, उस समय प्राकृतों के विविध भेद बतलाते समय पैशाची को भी जोड़ा जाने लगा। यह प्रक्रिया हेमचन्द्र के काल तक चली आयी है और बाद में मार्कण्डेय ने भी पैशाची भाषा पर विचार किया है। पैशाची का उपयोग व्यवहार में करने पर भी उक्त भाषा के प्रति भावना अच्छी नहीं रही है। उक्त भाषा की ऐतिहासिक काल में उपेक्षा होती रही है। इसी से वह लुप्त होती गयी।”

पाठकों को यह फिर बताना जरूरी है कि जिसे हम कथा संस्कृति के रूप में मात्र भारतीय समझ रहे हैं वह कथा संस्कृति वैश्विक है! वास्तव में गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ वैश्विक कथा संस्कृति का स्रोत है। बृहत्कथा की कथा शैली विलक्षण, अद्भुत ही नहीं बल्कि वह मूलतया प्रयोगधर्मी है। यह सच है कि पैशाची प्राकृत में लिखित बृहत्कथा लुप्त हो चुकी है। यही एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके कई अनुवाद वैदिक संस्कृत में हुए। क्षेमेन्द्र और सोमनाथ दोनों ही कश्मीर के थे, सोमनाथ ने ही बृहत्कथा का संस्कृत अनुवाद कथासरित्सागर के रूप में किया। यदि सोमनाथ कृत यह अनुवाद उपलब्ध न होता तो भारत की बहुमूल्य कथा सम्पदा हमारे पास नहीं होती। बृहत्कथा का हमारी कथा परम्परा में कितना सम्मान और महत्त्व था, वह इसी तथ्य से स्पष्ट है कि वैदिक संस्कृत के उद्भट विद्वानों ने बार-बार इस पैशाची कथाकृति का आदर से जिक्र किया है। सच पूछिए तो बृहत्कथा का सम्मान किसी भी रूप में महाभारत और रामायण से कम नहीं था। धार्मिक पक्ष की बात छोड़ दीजिए, लौकिक कथा रचना में बृहत्कथा रामायण और महाभारत से अधिक रोचक, परिपुष्ट और प्रयोगधर्मी है, इसकी शैली को नमन करना पड़ता है, जिसमें से कहानियों में से कहानियाँ निकलती चली जाती हैं! सदियों बाद कथा कथन की इसी शैली की अनुकृति ‘अरेबियन-नाइट्स’ में की गयी, जहाँ शहरजाद प्रत्येक रात एक अधूरी कहानी सुनाती है और उसे एक ऐसे उत्सुकता भरे बिन्दु पर छोड़ देती है जहाँ से सुलतान शहरयार कहानी समाप्त होने की प्रतीक्षा करता है और कथा सुनाने वाली शहरजाद की जान प्रत्येक रात बचती जाती है। ‘अरेबियन-नाइट्स’ की इस अद्भुत कथा शैली का जनक कथाकार गुणाढ्य था! गुणाढ्य की इस विलक्षण कथा शैली का उपयोग जैन आगम कथाओं की एक कहानी ‘चतुराई का मूल्य’ में भी हुआ है जिसमें उसकी पात्र कनकमंजरी ‘अरेबियन-नाइट्स’ की शहरजाद की ही तरह एक उत्सुकतापूर्ण अधूरी कहानी ही सुनाती है। जाहिर है कि गुणाढ्य और जैन आगमकथा ‘चतुराई का मूल्य’ की विलक्षण शैली ‘अरेबियन-नाइट्स’ के लिखे जाने से सदियों पहले विकसित की जा चुकी थी। शहरजाद से सम्बन्धित इस विलक्षण कथा शैली की रचनात्मक विशेषता को जनाब इन्तज़ार हुसैन के आलेख-‘आधुनिक कहानी की रचना संस्कृति’ में देखा, परखा और जाना जा सकता है। वैसे पंचतन्त्र तथा संस्कृत के अन्य कथा ग्रन्थों में भी कहानी की इस अद्भुत शैली का प्रयोग हुआ है।

बृहत्कथा की कथाकथन की इसी समृद्ध परम्परा का लगातार उपयोग हमारी लोक-कथाओं में भी हुआ है। बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि वे रचनाएँ हैं जो बृहत्कथा से सीधी प्रभावित या विकसित हैं। यह था हमारी कथा परम्परा का लौकिक लोक-वाङ्मय जो घरों से लेकर लोकोक्तियों तक फैला हुआ है। बैताल पचीसी के तो कई रूप और संस्करण मिलते हैं जो सोमनाथ और क्षेमेन्द्र की कथा रचनाओं में भी शामिल हैं। किस्सा तोता-मैना भी ऐसी ही लोककथा है जो प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी के बीच उद्बोधन की शैली में रचित है। इसके अतिरिक्त ‘शुकसप्तति’ में तोता एक सौदागर की पत्नी प्रभावती को सत्तर बोध-कथाएँ सुनाता है...

विश्वकथा परिदृश्य पर यदि देखें तो यह निर्विवाद रूप से स्थापित है कि सिन्दबाद जहाजी की कथा, ईसप और बोकोशियो की कथाएँ, ‘कलेला दमना की कथाएँ’ आदि अरब देशों से होती हुई पूरी दुनिया में पहुँची हैं! इनसे ग्रीस, रोम, अरब देश, फारस और अफ्रीका महाद्वीप भी अछूते नहीं रह पाये!

यह कहानियाँ हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं जो वैश्विक कथा सभ्यता एवं संस्कृति का स्वरूप हमारे सामने रखती हैं। इन कहानियों ने लम्बी यात्राएँ की हैं। इसका अकाट्य प्रमाण है हमारी जैन आगम कथाओं की प्रथम कहानी-‘चावल के पाँच दाने’, जो बाइबिल की चौथी कहानी है, यह सेण्ट मैथ्यू की सुवार्ता 25 और सेण्ट ल्यूक की सुवार्ता 19 में भी लगभग ज्यों की त्यों मौजूद है!

इसी तरह, ‘बिना विचार करने का फल’, ‘छोटों के बड़े काम’, ‘भिखारी का सपना’, ‘चतुर रोहक’ आदि कथाएँ कुछ रूपान्तर के साथ सर्वसाधारण में प्रचलित हैं, जिनका किसी सम्प्रदाय-विशेष से सम्बन्ध नहीं। ये लोककथाएँ भारतवर्ष में पंचतन्त्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर, शुकसप्तति, सिंहासन बत्तीसी, बैताल पचीसी आदि ग्रन्थों में पायी जाती हैं, तथा ‘ईसप की कहानियाँ’, ‘अरेबियन नाइट्स की कहानियाँ’, ‘कलेला दमना की कहानी’ आदि के रूप में ग्रीस, रोम, अरब, फारस, अफ्रीका आदि सुदूर देशों में भी पहुँची हैं। इन कथाओं का उद्गम-स्थान मूलतः भारतवर्ष माना जाता है, यद्यपि समय-समय पर अन्य देशों से भी, देश-विदेश के यात्री बहुत-सी कथा कहानियाँ अपने साथ भारत लाते रहे हैं।

बौद्धों के पाली साहित्य की तरह जैनों का प्राकृत साहित्य भी कथा कहानियों का विपुल भण्डार है। बौद्ध भिक्षुओं की तरह जैन साधु भी अपने धर्म-प्रचार के लिए दूर-दूर देशों में विहार करते थे। हमने पहले भी दर्ज किया है कि बृहत्कल्पभाष्य में जनपद-परीक्षा प्रकरण में बताया है कि जैन साधु आत्मशुद्धि के लिए तथा दूसरों को धर्म में स्थिर करने के लिए जनपद-विहार करे, तथा जनपद-विहार करने वाले साधु को मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्नाटक, द्रविड़, गौड़, विदर्भ आदि देशों की लोकभाषाओं में कुशल होना चाहिए, जिससे वह भिन्न-भिन्न देशों की भाषा में जनसाधारण को उपदेश दे सके। उसे देश-देश के रीति-रिवाजों का और आचार-विचार का ज्ञान होना चाहिए जिससे उसे हास्यभाजन न बनना पड़े। ये श्रमण देश-देशान्तर में परिभ्रमण करते हुए लोककथाओं द्वारा लोगों को सदाचार का उपदेश देते थे, जिससे कथा साहित्य की पर्याप्त अभिवृद्धि हुई।

और अब कथा संस्कृति के इस वैश्विक संकलन और स्वरूप के बारे में कुछ आवश्यक बातें दर्ज कर देना जरूरी है।

पौराणिक कथाएँ

हमारी संस्कृति का प्रमुख आधार चूँकि प्राचीन वाङ्मय है, इसलिए कथा कहने-सुनने की परम्परा के विकास का यह प्रमुख स्रोत है। प्राचीन वाङ्मय के विचार, सन्दर्भ, चिन्तन, मान्यताएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। वेद, पुराण, उपनिषद्, आरण्यक, महाभारत, रामायण, इत्यादि में अन्तर्निहित कथाएँ-उपकथाएँ भले ही तत्कालीन समाज को ध्यान में रखकर रची गयीं, परन्तु उनके मानव मूल्य और सामाजिक महत्त्व को शाश्वत माना गया है। पौराणिक कथाएँ कथा संस्कृति की रचना-शैली में हैं जो कि मूल रूप से उपदेशवाचक हैं। इनमें नीति, अनीति, सुविचार-कुविचार आदि मानवीय प्रवृत्तियों के मानदण्ड तैयार किए गये हैं। इनकी चिरन्तनता और उपादेयता इसलिए भी बरकरार है कि भारतीय संस्कृति, संस्कार और दर्शन-चिन्तन का आरम्भ यहीं से समझा गया है। पौराणिक कथाओं में दृष्टान्त एक आधार-भूमि है। चरित्र मनोवृत्तियों की भाँति दिखाई देते हैं। चरित्रों की चारित्रिक परिणति ही में कथा की निष्पत्ति होती है। इसमें साहस और गुणों को व्याख्यायित किया जाता है। प्रस्तुत पुस्तक में जो पौराणिक कथाएँ संकलित की गयी हैं, वे मात्र मानव-मूल्यों का चित्रण भर नहीं करतीं। सृष्टि के आरम्भ, समाज के निर्माण की भी गाथा कहती हैं। जिसमें प्रमुख हैं-सुमेरी सभ्यता की गिलगमेश की महागाथा, जल-प्रलय की प्राचीन कथाएँ, प्रथु की कथा, त्रिशंकु की कहानी, प्रमथ्यु का विद्रोह, सावित्री और सत्यवान की कथा, साधु और गणिका की कथा, रोमहर्षण और अष्टावक्र की कथा इत्यादि। ये पौराणिक कथाएँ कालान्तर में कथा परम्परा की वाहक बनीं। इन आरम्भिक कथाओं में भी सामाजिक आशय का प्रकटीकरण हुआ है। यह ठीक है कि पौराणिक कथाओं का मूलाधार अध्यात्म-विमर्श तथा धार्मिक और ईश्वरीय कथ्य रहा है, किन्तु इनमें रोमहर्षण और अष्टावक्र जैसी कथाएँ भी दबी-छिपी हैं-जो दलितों और विकलांगों के प्रति उपहास और उपेक्षा का चित्रण भी करती हैं।

कथासरित्सागर

सोमदेव द्वारा रचित कथासरित्सागर का रचनाकाल सन् 1029 ई. से 1064 ई. के बीच माना जाता है। इसी समय आचार्य क्षेमेन्द्र ने बृहत्कथामंजरी की रचना भी की थी। इससे पूर्व गुप्तकाल में बुधस्वामी ने बृहत्कथा श्लोक-संग्रह की रचना की थी। इस ग्रन्थ में छोटी-छोटी उपदेश-कथाओं का संग्रह है। किन्तु ये तीनों कथा ग्रन्थ गुणाढ्य की ‘बड़कहा’ (प्राकृत) यानी बृहत्कथा से अनुप्रमाणित ही माने जाते हैं। कथा साहित्य में गुणाढ्य को वाल्मीकि और व्यास के समान ही प्रतिष्ठा प्राप्त है। समझा जाता है कि गुणाढ्य आन्ध्र के राजा सातवाहन के समकालीन थे, जिनका समय पुराणों के अनुसार 495 ई. पू. से 490 ई.पू. है। कुछ आधुनिक शोधकर्ता सातवाहन तथा शालिवाहन को एक ही मानकर गुणाढ्य का समय 78 ई. के आस-पास का मानते हैं।

कथासरित्सागर का अर्थ है कथाओं का समुद्र। इसमें ईसा-पूर्व के समय से लेकर मध्यकाल तक की भारतीय परम्पराओं और सांस्कृतिक धाराओं का अभूतपूर्व खजाना है। इसमें संस्कृत साहित्य की अनेक अमर रचनाओं मसलन दशकुमारचरित, कादम्बरी, भवभूतिकृत मालती-माधव तथा ऐतिहासिक किंवदन्तियों-बैताल पचीसी, किस्सा तोता-मैना, सिंहासन बत्तीसी के अलावा इसमें ईसप की नीतिकथाओं, विश्व के अनेक देशों में प्रचलित मूर्ख कथाओं, यात्रा विषयक कथाओं और परीकथाओं के बीज विद्यमान हैं। वास्तव में बृहत्कथा से निःसृत कथासरित्सागर हमारी कथा कहानी परम्परा तथा हमारी जातीय-सांस्कृतिक विरासत का सर्वोत्तम प्रतिनिधि है-जिसमें अनेक साक्ष्य व प्रमाण एक ही साथ प्राप्त हो जाते हैं। प्रस्तुत संकलन में कथा परम्परा के इस प्रमुख स्रोत को समझने के लिए यहाँ से वररुचि की कथा, गुणाढ्य की कथा, राजा विक्रम और दो ब्राह्मणों की कथा, सूरसेन और कैवर्तकुमार की कथा को शामिल किया गया है।

बौद्ध तथा जैन कथाएँ

भारत में प्राचीन काल से ही दो मुख्य परम्पराएँ दिखाई देती रही हैं, एक ब्राह्मण-परम्परा तथा दूसरी श्रमण-परम्परा। ब्राह्मण-परम्परा के उपासक मूलतः ब्राह्मण जाति के लोग थे, जो कि वेद को प्रमुख स्रोत मानते थे और उसे ईश्वरीय ज्ञान का प्रमुख जरिया समझते थे। वे वैदिक देवताओं की पूजा-अर्चना करते थे। वे कर्मकाण्ड में विश्वास रखते थे तथा वर्णाश्रम व्यवस्था को स्वीकार करते थे। किन्तु श्रमण-परम्परा को मानने वालों ने वेदों के स्थान पर लोक-प्रचलित मान्यताओं, कथाओं को अपनाया, वैदिक ऋषियों की जगह योगी और तपस्वियों को माना तथा वैदिक कर्मकाण्ड के स्थान पर चिन्तन, मनन, तप, संयम, त्याग और ब्रह्मचर्य को तरजीह दी तथा जाति-व्यवस्था के स्थान पर कर्म-व्यवस्था को महत्त्वपूर्ण समझा। ...बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म इसी श्रमण-परम्परा के अनुगामी सिद्ध हुए एवं इन धर्मों से निःसृत कथाएँ, उपदेशोक्तियाँ इत्यादि बौद्ध कथा/जातक कथा/और जैन कथा/आगम कथा/ की संज्ञा से अभिहित की गयीं। विद्वान मानते हैं कि बौद्ध धर्म पद्धति और जैन धर्म पद्धति में कम ही तात्त्विक अन्तर है। फलस्वरूप बौद्ध कथाओं और जैन कथाओं के स्वरूप तथा आन्तरिक विवेचन में भी कम ही अन्तर है। अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत की श्रेष्ठ कहानियाँ’ में डॉ. जगदीश चन्द्र जैन ने इस तरफ विशेष रूप से इशारा किया है। उन्होंने पुस्तक की भूमिका में रहस्योद्घाटित किया है कि इसका कारण यह है कि ये दोनों धर्म एक ही देश में जन्मे और पनपे। दोनों ने वेद, वर्ण-व्यवस्था, यज्ञ आदि को अस्वीकार कर लोकाचार और लोक-भाषा का आश्रय लिया और लोकोपयोगी कथा साहित्य द्वारा जनता तक पहुँचने का प्रयत्न किया। दोनों धर्मों के कथा साहित्य में ऐसे अनेक आचार-विचार, उपदेश वाक्य, गाथाएँ और पारिभाषिक शब्द हैं-जो कि एक समान हैं।...संकलित कथाओं के माध्यम से ज्ञात होता है कि बुद्धकालीन और जैनकालीन रीति-रिवाज कैसे थे तथा उनके अपने-अपने सामाजिक लक्ष्य क्या थे। इन कहानियों से यह भी जाहिर होता है कि बौद्ध और जैन धर्मोपदेशक एक नीतिवान और कर्म प्रधान आध्यात्मिक समाज का निर्माण चाहते थे। इन कहानियों में से अधिकांश तो विश्व-भ्रमण कर चुकी हैं। मसलन ‘मौत की दवा’ तथा ‘कृतघ्न राजकुमार’ आदि कहानियाँ तो दूसरे देशों तक पहुँच चुकी हैं-जिनके दृष्टान्त महाभारत, रामायण, पंचतन्त्र, हितोपदेश, ईसप की कहानियाँ, अरेबियन नाइट्स आदि में भी पाये जाते हैं। प्रस्तुत संग्रह में सूकर जातक एक महत्त्वपूर्ण जातक-कथा है, जिसे प्रस्तुत किया है भदन्त आनन्द कौशल्यायन ने। जैन कथाओं में ‘पाँच दाने चावल के’ सर्वाधिक लोकप्रिय और मान्यताप्राप्त ऐतिहासिक कथा है।

इस पुस्तक में इन्द्र चन्द्र शास्त्री और जगदीश चन्द्र जैन द्वारा तलाशी गयी बौद्ध और जैन कथाओं की कुछ झलकियाँ विशेषतः रखी गयी हैं।

नैतिक कथाएँ

नैतिक कथाओं से तात्पर्य नीति प्रधान अथवा नीति-अनीति बोध की कथाओं से है, इसलिए नैतिक कथाओं को किसी सुनिश्चित कालक्रम में विभाजित नहीं किया जाना चाहिए। नैतिक कथाओं के मूल में शुद्ध आचरण पर जोर और सम्यक् सामाजिक ज्ञान प्राप्त करना होता है। मसलन किस वक्त, क्या सही है और क्या निषिद्ध है, कहानी में इसी परिज्ञान का बोध किसी पात्र अथवा घटना के द्वारा कराया जाता है। किसी ऐतिहासिक या काल्पनिक पात्र द्वारा कोई कथावाचक इस शिक्षा का प्रचार-प्रसार करता है। उल्लेखनीय है कि लोककथा की ही भाँति नैतिक कथा भी श्रमण-परम्परा की देन है। कालान्तर में जिस प्रकार लोक-कथा को लिपिबद्ध किया गया, उसी प्रकार नीति कथाओं को भी यह समझकर संकलित किया गया कि कथा संस्कृति की परम्परा और विकास में इस शैली का एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। पुस्तक में संकलित नैतिक कथाएँ अपने समय की बेहद लोकप्रिय नीतिवान कथाएँ हैं।

पंचतन्त्र एवं हितोपदेश

पंचतन्त्र एवं हितोपदेश की कथाएँ अब लोकोक्तियाँ बन चुकी हैं। बाजार में पंचतन्त्र की अनगिनत कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं। सबकी भाषा और शैली में भी बड़ा अन्तर है, लेकिन उपदेश या सन्देश की केन्द्रीयता सबमें बरकरार है। पंचतन्त्र भारत ही नहीं दुनिया की प्रमुख कथा कृतियों में से है। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘पंचतन्त्र की कहानियाँ’ पुस्तक की भूमिका में प्रख्यात लेखक और इतिहासकार भगवान सिंह ने लिखा है कि, “यदि संसार की पाँच सबसे अधिक लोकप्रिय कलाकृतियों का नाम लेना हो तो इनमें से एक नाम पंचतन्त्र का होगा। इन पाँचों में भी इसका स्थान सबसे ऊपर हो तो कोई आश्चर्य नहीं।”

दुनिया जानती है कि पंचतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। कहा जाता है कि खुसरो ने भारत को जिन दस उपलब्धियों की वजह से श्रेष्ठ घोषित किया था उनमें शतरंज का खेल और पंचतन्त्र की रचना भी शामिल है। उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में इन दोनों का प्रचलन खूब जोरों से हुआ। चूँकि पंचतन्त्र की कथाएँ रहस्य, रोमांच, हाजिरजवाबी और ज्ञान का अद्भुत कोष हैं इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि मूल पंचतन्त्र की कथाओं की शैली और तर्ज पर संसार भर में अनेक कथाओं का सूत्रपात और सृजन हुआ है। पंचतन्त्र की कथाएँ घनचक्कर, रँगा सियार, बेकार पचड़े में रहना, मगरमच्छ के आँसू, नकली शेर, बाघ की खाल, ढोल की पोल, बगुला भगत, बन्दर को उपदेश, टिटिहरी का संकल्प, गधे का आलाप, मरे सिंह को जलाना, सोये शेर को जगाना, पढ़े-लिखे मूर्ख, नंगी क्या हँसे, नकल के लिए भी अकल चाहिए, शेखचिल्ली की उड़ान, सोने की मुहर देने वाला साँप या सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी इत्यादि कहानियाँ लोकोक्तियों के रूप में प्रचलित हैं। इन ग्रन्थों को ज्ञान का कोश भी कहा जा सकता है। पंचतन्त्र की ऐतिहासिकता के बारे में टिप्पणी करते हुए भगवान सिंह कहते हैं कि “ये किसी एक पण्डित द्वारा एक दिन या एक दौर में लिखकर पूरी की गयी कहानियाँ नहीं हैं। इनकी एक बहुत लम्बी परम्परा है जो वैदिक काल से भी पीछे तक जाती है। ऋग्वेद में मेढक, साँप, दुन्दुभी, अप्सरा, देवता, राक्षस, नदी सभी को पात्र बनाकर पेश किया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों आदि में भी उस फन्तासी का भरपूर उपयोग किया गया है।...प्राचीन समाज में जीवन के मर्म को कथाओं में पिरोने की परम्परा अन्यत्र भी रही है। इसके प्रमाण भारत के अतिरिक्त चीन, यूनान, अफ्रीका, लातिन अमेरिका आदि देशों की प्रचलित लोक-कथाओं में मिल सकते हैं। परन्तु कुछ बातों में भारत की विशेषताएँ हैं और उन विशेषताओं ने पंचतन्त्र को पंचतन्त्र बनाने में मदद की है। वह बातें हैं ज्योतिष, चिकित्सा, गणित, नौवहन, शिल्प शास्त्र, दण्ड-संहिता, अर्थशास्त्र, व्याकरण आदि को पद्यबद्ध करके लिखना।” निश्चय ही इन भारतीय विशिष्टताओं की वजह से पंचतन्त्र की कथाएँ सर्वाधिक लोकप्रिय हुईं। प्रस्तुत पुस्तक में कथा परम्परा के इस अटूट सूत्र का विकास क्रम दर्शाने के लिए कुछ कहानियाँ संकलित की गयी हैं।

विश्व-कथा: प्राचीन तथा कुछ आधुनिक कहानियाँ

भारत दुनिया का पहला कथापीठ जरूर है किन्तु दुनिया की अन्य प्राचीनतम सभ्यताओं वाले देशों - चीन, ग्रीस, यूनान, रूस, आयरलैण्ड, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका - में भी संस्कृति, मिथक-कथा, दन्त-कथा, लोक-कथा का एक सुदीर्घ इतिहास है। यहाँ हम विश्व-कथा से कुछ चुनिन्दा प्राचीनतम कथाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। ये लोकप्रिय लोक कथाएँ हैं-दन्त-कथाएँ भी हैं और मिथक कथाएँ भी हैं। ‘सफेद बन्दर’ किसी अज्ञात चीनी लेखक की लिखी कहानी है। यह सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में लिखी गयी थी। यह कहानी आदिम मान्यताओं और अनुभूतियों का उत्कृष्ट मिश्रण करती है। इसी तरह ‘स्वागतम्’ जैसी कहानी की रचना रोमन साहित्य की आरम्भिक कृतियों में से है जिसे ऐपुलियस ने प्रथम शताब्दी में रचा था। पहली सदी की ही रचना है-प्यार की खोज। इसके लेखक हैं - ओविड। ‘प्यार की खोज’ उस समय की सर्वाधिक चर्चित कृति है। इसी कृति से ‘प्रेमिका की सलाह’ कथा ली गयी है। जापानी कथा ‘नाश्ते के बाद’ ऐसी रचना है जो कि डायरी शैली में लिखी गयी है। इसकी लेखिका रूई शोनागोन तत्कालीन महारानी की सहचरी थीं-इसका रचनाकाल दसवीं सदी है।

...तात्पर्य यह कि विश्व-कथा से ली गयी प्राचीनतम कथाओं में तत्कालीन सोच, समाज और जीवन-शैली की झलकियाँ तो हैं ही-सबसे प्रमुख है यह स्पष्ट और साबित होना कि कथा परम्परा का इतिहास सुदीर्घतम है-और कालान्तर में विकसित कथा सभ्यता में इन कथाओं-उपकथाओं का योगदान सार्वकालिक तौर पर उल्लेखनीय है। साथ ही इसमें कालजयी कुछ आधुनिक कहानियाँ भी शामिल की गयी हैं, जिनका होना ‘कथा संस्कृति’ के लिए बहुत जरूरी था।

यात्रा-कथाएँ

परिशिष्ट के रूप में इस पुस्तक का यह दस्तावेज खण्ड है। इस खण्ड में दुर्लभ यात्रा-संस्मरण हैं। हिन्दुस्तान की सांस्कृतिक विरासत विदेशी अध्येताओं और शासकों के लिए भी हमेशा आकर्षण का केन्द्र रही है इसलिए अध्ययन अथवा जिज्ञासा-तुष्टि के उद्देश्य से की गयी हिन्दुस्तान की यात्राएँ जिन घटनाक्रमों, कथा बिम्बों इत्यादि का विवरण व विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं, वे कहीं-न-कहीं कथा संस्कृति के विकास का हिस्सा बनकर हमारे सामने हाजिर होती हैं। यात्रा-वृत्तान्त को यात्रा-कथा कहना गैर-वाजिब नहीं समझना चाहिए। इतिवृत्त कथा व्यक्ति के बारे में भी हो सकता है, स्थान विशेष के लिए भी हो सकता है, अथवा इतिहास-खण्ड का भी इतिवृत्त हो सकता है। पुस्तक में फिरदौसी, तैमूरलंग, इब्नबतूता, अबेदर रज्जाक समरकन्दी, आफानासी निकीतिन, डॉ. बर्नर, वाल्तेयर, रिचर्ड बर्टन, मार्क ट्वेन, लियो तोल्स्तोय, डेविड रेन, शिव नायपॉल, वी.एस. नायपॉल, मोपासाँ इत्यादि विद्वान साहित्यकारों की भारत सम्बन्धी यात्रा-कथाएँ यहाँ संकलित की गयी हैं। ये यात्रा-कथाएँ हिन्दुस्तानी कथा संस्कृति में अपना योगदान प्रस्तुत करती हैं, साथ ही, हिन्दुस्तान की कथा विरासत को लेकर अपना एक नजरिया पेश करती हैं। इन नजरियों को परखने से आत्म-सम्भ्रम का दूर होना तो एक तथ्य है, परन्तु मनुष्य-सभ्यता के इतिहास में कहानी की महत्ता और उसकी शाश्वत आवश्यकता और उपस्थिति की अनिवार्यता का अमिट प्रमाण भी है!