कनक-कनक, सोना-सोना, हाय सोना-हाय सोना / मृदुल कीर्ति

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द्वापर युग का अवसान है, काल विभाजन की नियमावली के अनुसार कलयुग का आगमन हैं --कलयुग स्वयं को स्थापित करने के लिए स्थान की खोज में है। सबने स्थान देने से मना किया तो राजा परीक्षित से कलियुग ने बहुत आग्रह से स्थान माँगा, अनेकों तर्क और आग्रह से राजा परीक्षित ने अपने सोने के मुकुट में स्थान दे दिया। अब कलयुग को तो मनचाहा स्थान मिल गया। सर पर सोने के मुकुट में अर्थात बुद्धि के स्थान में कलयुग का वास, वह भी सोने में, जो सबका आकर्षण बिंदु और कमजोरी है, वह भी राजा के मुकुट में अर्थात राजसत्ता के रूप में। अतः सब कुछ कलयुग का मनचाहा हो गया।

महाभारत के सन्दर्भ में हमें यह कथा मिलती है। आज हम, सब कुछ वही तो चरितार्थ होता ही देख रहे हैं. सोने का नाम ही बुद्धि को भ्रमित कर देता है। कवि बिहारी ने कहा है--

कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय
वा खाए बौराए जग, या देखे बौराए

पहले कनक का अर्थ धतूरा है जिसे खाने से बुद्धि भ्रमित होती है किन्तु दूसरे कनक का अर्थ 'सोना' है जिसे देखने से ही बुद्धि भ्रमित होती है। चोर देख ले तो चोरी का भाव प्रबल होता है, ठग ठगने की सोचता है, कहीं पहन कर जाओ तो लुटेरे लूट लें, विरोध करो तो जान ले लें, परिवार के लोग देखें तो ईर्ष्यालु हो जाएँ, घर में रखो तो चोरी का ख़तरा नींद भी न आये, मुसीबत में सोना बेचो तो सुनार खूब ठगता है, सरकार से रेड का ख़तरा, और तो सब छोडो जिस औलाद के लिए यह सब जोड़ा वह भी सोना पाने को व्याकुल होते हैं, उनसे भी खतरा पैदा होता है। यह तथ्य स्वयं शंकराचार्य ने लिखा है की धन का ऐसा कुप्रभाव है कि अपनी संतान से भी भय हो जाता है। मुझे बचपन की एक सत्य घटना याद है। बहुत धनी की मृत्यु हुई, उसने बहुत ही कीमती अंगूठी पहन रखी थी जो आसानी से नहीं उतरी तो उंगली काट कर निकाली गयी। मृत देह बाहर पडी है अन्दर बंटवारे होते देखे गए हैं। चेन और चूड़ी आदि उतार लेना तो आम बात है। उस पर बाद को स्वामित्व के झगडे भी आम हैं। गरीब गले मिलकर दुःख बांटते है, अमीर धन बांटते हैं। सोने ने कटुता, विकार और जड़ता को ही बढाया है।

इतिहास उठा कर देख लो जितनी बुद्धि सोने के आकर्षण ने भ्रमित की उतनी किसी ने नहीं की। देश लुटे हैं, मंदिर टूटे है, आपसी बंधुत्व और अपनापन टूटा है -सब हुआ है लेकिन सोने का मोह टूटने की जगह बढ़ ही रहा है। एक और आश्चर्य की बात है की ज्यों-ज्यों सोना महँगा हो रहा है त्यों-त्यों इसके खरीदने वाले बढ़ रहे हैं। सोने की दुकानों में पहले से कहीं अधिक भीड़ आपको देखने को मिलेगी। दिनों दिन मानसिकता और अधिक बौरा रही है, जैसे सोना नहीं अमरत्व खरीद रहे हैं। सोने के आकर्षण ने मनुष्य का जितना नैतिक, चारित्रिक हनन और आंतरिक पतन किया जो काले अक्षरों में लिखा है जिसकी चरम सीमा का प्रमाण आज हर पल घटित होती घटनायें साक्षी हैं। एक तोला सोने का लालच सभी चारित्रिक सिद्धांतों से भारी हो जाता है। मनसा,वचना और कर्मा तीनों ही तरह के पतन का कारण यह सोना ही है।

सीता को भी सोने की चमक वाला मृग ही चाहिए था, जिसे अपने राम को ही लेने भेज देती है। सोने की चमक और सोने का नाम ही मति भ्रमित करता है, कहीं सोने का भी मृग होता है क्या? हम सबका राम भी सोने में खो जाता है जो सीता रूपी शांति का हरण कर लेता है। हम भूल जाते हैं कि सोने की लंका ही होती है अयोद्ध्या नहीं। जलती भी सोने की लंका ही है। हिरण्य कश्यप जिसका अर्थ है हिरण्य (सोना) कश्यप (तकिया ) और प्रहलाद की कथा भी सर्व विदित है। कितनी बिडम्बना है कि बुद्ध और महावीर जो राजपुत्र हैं,स्वर्ण और वैभव त्याग कर सत्य और आत्मतत्व की खोज में, शाश्वत तत्व की खोज में वीतरागी बन गए। साईं बाबा जिनका दूर-दूर तक सोने से कोई संपर्क नहीं था, इन सबकी मूर्तियाँ सोने की बनी हैं। श्रद्धा का प्रतीक भगवान् भी सोने का ही बना दिया। जब की भगवान शब्द की यदि व्याख्या की जाए तो –

भ --भूमि
ग --गगन
व --वायु
अ --अग्नि
न --नीर

इन पाँचों तत्वों के अधिष्ठाता का संयुक्त नाम भगवान् है जिनकी सत्ता कण-कण, अणु-अणु में व्याप्त है। इसमें सोना कहाँ से आ गया? आदि गुरु शंकराचार्य ने भी 'विवेक चूड़ामणि' में लिखा है कि:

अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेनेत्येव ही श्रुतिः,
ब्रवीति कर्मणो मुक्तेरहेतुत्वं स्फुटं यतः (विवेक चूड़ामणि --7)

'धन से अमरत्व की आशा नहीं'

बृहदारंयक उपनिषद में ऋषि याज्ञवल्यक ने अपनी पत्नी मैत्रेयी से भी कहा कि --

न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्व मानुशुः (बृह्दारंयक उपनिषद 2.4.2)

धन से अमृत्व संभव नहीं।

मंदिरों में भी धन की सत्ता के हिसाब से दर्शन होते हैं। जितना धनिक होगा उतनी ही अधिक देर वह विग्रह के पास रह सकता है और भीड़ से अलग विशेष दर्शन होगें। मन अन्दर अर्थात मन के अंतर्मुखी होने की अवस्था ही मंदिर है। मंदिर का तात्विक अर्थ मन का अंतर्मुखी होना है। स्वर्ण के स्वर्णिम स्वरुप से यदि प्रेम है तो प्रातःकाल के उदित सूर्य को देखो। क्या ब्रह्माण्ड में उससे सुन्दर स्वर्णिम सौन्दर्य कहीं है। इस मोह पाश से निकल कर स्वयं को जान पाने का समय यदि समय हो तो जानो कि तुम्हारा उद्गम कहाँ से है -हिरण्य गर्भ की नाभी से तुम्हारा जन्म हुआ है, जिसके चारो और मणिपुर क्षेत्र है। पर हम तो सोना धातु और कंकन सी मणियों पर ही रुके हैं। यह आज तक किसके काम आई जो अब मेरे काम आयेंगीं

तुम्हारे स्वयं के आनंद स्रोत्र क्या सूख गए हैं क्या जो एक पीली धातु में सुख और आनंद खोजते हो? जहाँ तुम्हारा मन है तुम भी वहीं हो। अब वह प्रियता चाहे व्यक्ति के प्रति हो या वस्तु के प्रति हो।

दूरस्थोपि न दूरस्थः यो यस्य मनसि स्थितः,
यो यस्सि हृदये नास्ति समीपस्थोति दूरतः।

सरहदें देह की हैं बिना देह का मन, जिसे चाहता है वहीं पर रहेगा,
कि तन एक पिंजरा, जहाँ चाहे रख लो की मन का पखेरू तो उड़ कर रहेगा

स्वर्ण कमाने में कष्ट, खर्च करने में कष्ट और उसकी रक्षा करने में कष्ट। जिस सोने से अतीव मोह है तो स्वाभाविक है कि मन भी वही पहरा देता रहेगा, एक जड़ वस्तु का पहरा जीव को भी जड़ बना देता है। क्या इतना दुर्लभ मानव जन्म इस पीली धातु सोने को एकत्र, सहेजने और सुरक्षा करने के लिए ही बना है। मन जहाँ और जिस वृत्ति में रहता है वही वृत्ति जीव के स्वभाव में आ जाती है, इस तरह वृत्तियाँ बदल जाती हैं तो कृतित्व बदल जाते है अंततः व्यक्तित्व भी बदल जाते है। जहाँ तुम्हारी प्रियता है वहीँ तुम हो, धन और सोने के प्रति प्रियता वृत्ति को अजगरी वृत्ति बना देती है क्योंकि तुम्हारा मन वहीं पहरा देता है जहाँ धन है तन कहीं भी हो। वस्तुतः तुम्हारी प्रियता का विषय ही तुम्हारा परिचय है। 'जैसा भाव वैसा स्वभाव ' 'जैसी रति वैसी मति वैसी ही गति' ' जैसा मन वैसा धन' संग्रह होता है। ज्ञानी पुस्तकें, लोभी सोना और धन, कामी वासनाएं, कृपण कबाड़ और भक्त भक्ति एकत्र करता है। यह तो बड़ी स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसमें तर्क-वितर्क का कोई स्थान ही नहीं है। ऐसे विकारी और जड़ विचारों से जीवन चलाना कागज़ की नाव से नदी पार करने के समान है। धन केवल साधन है साध्य नहीं।

ध +न = धन
ध =धारण
न =नहीं

वह जो धारण नहीं किया जा सकता। अर्थात धन को कोइ एक सदा के लिए धारित नहीं कर सकता। आज इसका तो कल उसका। तब ही लक्ष्मी को चंचला कहा गया है।

धन की अनिवार्यता

जैसे देह में रुधिर का संचरण होता है और बिना ठीक से रुधिर संचरण के देह स्वस्थ नहीं रह सकती ठीक वैसे ही धन के संचरण के बिना जीवन नहीं चल सकता अर्थात धन इतना अधिक आवश्यक है कि इसकी अनिवार्यता से नकारा नहीं जा सकता। धन की जगह केवल धन ही काम आता है और कुछ नहीं। धन अर्जित करने की प्रार्थनाओं और विधाओं से हमारे धर्म ग्रन्थ भरे पड़े हैं लेकिन धर्म से कमाया धन ही सात्विक धन है, इसे भूल जाते हैं। हम धन की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए, बात केवल धन के प्रति जो अनुचित दृष्टिकोण है, उसकी बात कर रहे हैं। आप यदि बेटी की शादी के लिए सोना एकत्र कर रहे हैं तो आप एक और सामाजिक बुराई को प्रबल बना रहे हैं। जो दहेज़ और सोना मांगे उस जगह शादी न करने लिए दृढ़ रहिये और न ही दहेज़ लीजिये। इसे मैंने स्वयं अपनाया है तब ही लिख रही हूँ। अपने बेटों की शादी में मैंने किसी से एक धागा भी नहीं लिया, न कोई वस्तु, न ही कोई उपहार।

आजकल हर जगह जमीन और मकान खरीदने का पागलपन भी ऐसा ही है। वकीलों और आय कर ऑफिस चक्कर लगाना, भूख प्यास मार कर बीमार होना, चिंता का बोझ दिल दिमाग पर रखना, दस सच झूठ बोलना आदि। आखिर क्यों और किसके लिए?

यहाँ चाहिए, वहां चाहिए, धरती का साम्राज्य चाहिए,
सच पूछो तो एक व्यक्ति को चौखट जितनी भूमि चाहिए

समय रहते संकट के समय के लिए कुछ अवश्य ही बनाना चाहिए, यह दूरदर्शिता है किन्तु पर्याप्त होने के बाद भी अपने स्वास्थ्य और चैन को दांव पर लगे पागलपन के पक्ष में नहीं हूँ।

यदि प्रभु कृपा से आप पर देने योग्य है तो 'द ' दान और 'द ' दया के बिंदु पर आ कर इस चित्र को, इस वास्तविकता को, इस नग्न सत्य को देखें। कितना हृदय विदारक है। यहाँ कुछ कहने को रह ही नहीं जाता। क्या किसी और तरह से खर्च किये धन से आत्म संतोष मिल सकता है जो इनको भोजन देकर मिल सकता है। कोई सोने का वरक लगा भोजन खाता है तो कोई एक दाने को तरसता है। कोई अति से मरता है तो कोई क्षति से मरता है। जिन पर प्रचुर धन है वे तिजोरी भरने की जगह भूखे का पेट भर दें तो आत्म-सुख और आत्म संतुष्टि उनको धन्य कर देगी। क्योंकि

गज धन,गौ धन, बाजधन और रतन धन खान,
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि सामान।

संग्रह

संग्रह तृष्णा और लालच की वृत्ति का ही विकसित रूप संग्रह है। प्यास तृप्त होती है किन्तु तृष्णा आग में घी तरह और बढ़ती है जिसका सही नाम लपस्या है। आवश्यकता हो या नहीं बस संग्रह को एक उन्माद की तरह करते ही जाना, जिसे मानसिक जड़ता और पागलपन से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। आवश्यकताएं नहीं कामनाएं दुःख देती हैं और कामनाएं कभी पूरी नहीं होती है। सोने के प्रति आकर्षण के भाव और संभाव बड़ी खलबली पैदा करते हैं।

आज इतना सोना ले लिया कल ऐसा करूंगा तो और जुड़ जाएगा। संग्रह, संग्रहीत और संग्रहकर्ता बस इसी दुराग्रह में जीवन बीत जाता है। संग्रह करने वाला जाता है संग्रह नहीं जाता। और -और की चाह वाले के मुहं में कौर भी नहीं जाता। धन संग्रह नहीं सदुपयोग के लिए है। संग्रह कर्ता का मन सदा ही अशांत रहता है और 'अशान्तस्य कुतः सुखं'

धन में शांति देने की क्षमता नहीं केवल सुविधा देने की है। धन से आप भोजन खरीद सकते हैं भूख नहीं, बिस्तर खरीद सकते हैं नींद नहीं। जिन धनिकों के पास जीवन की सारी ही सुविधायें हैं क्या वे शांति का जीवन जी रहे हैं। जिनके पास सोने के ढेर है क्या वे विपदाओं के घेरे में नहीं आते। जन्म-मृत्यु, कर्म-भोगऔर आकस्मिक विपदाओं से कोई भी नहीं बच सकता, चाहें सोने की खान का मालिक ही क्यों न हो।

देह धरे के दंड हैं, सब काहू को होय
ज्ञानी काटे ज्ञान से, मूरख काटे रोय

यह तथ्य केवल सोने के लिए नहीं आवश्यकता से अधिक संचित किये हर भौतिक वस्तु के लिए लागू होता है। कुछ लोगों को भूमि और जमीन हर शयर में खरीदने का शौक है। वस्तु कभी चित्त के आधीन नहीं होती, चित्त ही वस्तु के आधीन होता है।

प्रकृति के नियम सबके लिए ही सामान हैं। अतः शांति की इच्छा से शांति नहीं आती--इच्छाकी शांति से शांति आती है। मन और बुद्धि से ऊपर उठ कर जब जीव अंतरात्मा के साथ तद्रूप हो जाता है तब इच्छाओं का निर्माण बंद हो जाता है। यही वह बिंदु है जो भाव-समभाव से परे निर्भाव में ले जाता है। इसका यह अर्थ नहीं की संवेदन विहीन हो जा किन्तु संवेदन से जो उद्द्वेलन है उससे परे हो जा।संवेदन को सुख-दुःख पैदा करने की छूट न दें। यह भी याद रखो कि –

मनो दृश्यम इदं सर्वं

जब तक तुम देख सकते हो, संसार तब तक ही है।

सिकंदर दुनियां जीतने चला था और उसे मारा तो एक मच्छर ने मारा। ज्ञातव्य हो कि सिकंदर को मलेरिया हुआ था। विश्व विजेता को सारी विश्व की संपदा का एक कण भी काम नहीं आया। अतः धन का यदि सृजन करते हो तुम उसके स्वामी हो और संग्रह करते हो तो तुम दास हो। तुम सोने को नहीं भोगते, सोना तुमको भोगता है। जब-जब भी यह संग्रह किया हुआ सोना युगों के बाद किसी खुदाई में भी निकलता है तो भी चोरी, लालच,झूठ, बेईमानी अनीति और कलह को ही जन्म देता है। स्वामित्व या दासत्व का चयन तुम्हारी वृत्तियाँ ही करती हैं। ब्रह्मा ने सनत कुमार को जब उपदेश दिया तो तीन बार केवल 'द ', 'द ', 'द ' कहा अर्थात दान, दया और दमन इन तीन अक्षरों में तीन परम उपदेश थे। धन की भी तीन ही गतियाँ है --स्वयं उपयोग करो, दान करो अथवा समय खा जाएगा। अथ

वित्त दो चित्त परमेश में लगा दो

अपरिग्रह

आंतरिक मन की एक ऊँची अवस्था है। जिसके अनुसार संग्रह का निषेध और क्रमशः अपनी आवश्यकताओं का नियमन- संयमन करते हुए संचित पदार्थों को धीरे-धीरे कम करना। संग्रह बिना सिखाये आ जाता है, अपरिग्रह सिखाने पर भी नहीं आता है क्योंकि परिग्रह होते ही हम वस्तु से राग करने लगते हैं और राग से वीतराग का रास्ता मोह से भरा है। बात पुरानी है कुछ कपड़े अलमारी से छाँट कर देने के लिए रख दिए। कुछ दिनों के बाद किसी कारण से वह पैकेट खोला तो उसमें से दो अच्छे कपड़े मैं निकाल लाई। अब इस बिंदु पर आप देखें कि संग्रह और उसका राग देने के लिए निकाली वस्तु को भी कैसे वापस ले आता है? राग कब-कब प्रबल होकर हमें कमजोर कर देता है। इस आत्म-विश्लेषण ने मेरा बहुत उद्धार किया। अतः जब तक वस्तु का चित्त से संयोग नहीं होता तब तक वस्तु का और आपका कोई रिश्ता कायम नहीं होता।

पतंजलि योग दर्शन में महर्षि पतंजलि ने चित्त और वस्तु के संयोग का दर्शन उजागर किया है।

तदुपरागापेक्षित्वाचित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातं (कैवल्य पाद -17)

इन्द्रियों की समीपता से जिस पदार्थ की चित्त में परछाईं पड़ती है, उसी वस्तु को चित्त जान सकता है। और दीखने वाली वस्तु किसी एक चित्त के अधीन नहीं है,तथा दृश्य वस्तु चित्त से भिन्न है।

न चैकचित्ततन्त्रं वस्तु तद प्रमाणकं तदा किं स्यात (कैवल्य पाद 16)

क्योंकि अनेक चित्तों का विषय वह एक ही वस्तु विभिन्न प्रकार से बनती है। अतः हमारी समग्र चेतना का केंद्र बिंदु हमारे चित्त की वृत्ति ही होनी चाहिए क्योंकि जो जिस भाव से वस्तु को देखेगा उसकी व्यहार शैली भी वैसी होगी।

संसार में आये हुए इस नैतिक प्रलय का कारण केवल यही विकारी चित्त वृत्ति ही है। दृष्टि बदलते ही सृष्टि भी बदल जाती हैं। केवल उतने धन के पक्ष में हूँ जिसमें व्यक्ति के नैतिक, चरित्र, स्वास्थ्य, सुरक्षा, शांति और मानवीय मूल्यों का हनन न हो।

समय की धारा यदि बदलनी है तो विचारधारा भी बदलनी ही होगी।