कनुप्रिया-राधा की विह्वलता का दर्पण / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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प्रेम मनुष्य की सहज एवं शाश्वत पिपासा है। जीवन से उसके निष्कासन की बात भले ही सोची जाए; परन्तु उसे गरदनिया देकर बाहर नहीं निकाला जा सकता। यदि हममें मानवता का अल्पांश भी जीवित है, तो संघर्षरत रहकर भी हम प्रेम की उपेक्षा नहीं कर सकते। सत्य तो यह है कि संघर्ष की थकान को दूर करने के लिए प्रेम-भरा आँचल पाने की बेचैनी होती ही है, जो क्लान्त मन को मृगछौने की तरह आँचल में छुपाकर समूची थकान को सोख ले। भारती जी ने राधा के द्वारा नाट्य एकालाप में भाव-विह्वलता में कुछ भी कहलवाया हो; परन्तु माता, भगिनी आदि के रूपों को छोड़कर राधा का प्रेमाकुल और प्रेम-भरा जगत् समर्पित करने वाली राधा का रूप ही प्रमुख है।

युद्ध के हाहाकार से या तो कोई पागल हो जाएगा या जंगली जानवर बन जाएगा। राधा को ये दोनों ही पसन्द नहीं हैं; क्योंकि उनमें से किसी के सथ भी वह तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकेगी। वह समर्पिता कि भाँति तैयार है, कृष्ण को अपने स्नेह-भरे आँचल में छुपा लेने के लिए, युद्ध की विभीषिका से उसका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए। राधा का यह रूप रक्त-पिपासु विश्व के तिरस्कार के साथ-साथ प्रेमपूरित संसार की आवश्यकता पर बल देता है।

भारती जी राधा को युगीन सन्दर्भ देने में पूर्णत: सफल हुए हैं। राधा का लीला-सहचरी या जन्म-जन्मान्तर की सखी का रूप पीछे छूट जाता है। रूमानियत भारती जी की अभिव्यक्ति को नहीं दबा सकी; क्योंकि वह अनायास और स्वाभाविक है। पौराणिक सन्दर्भ को बार-बार बीच में खींचकर बीच में लाने का प्रयास किया गया, जो असफल रहा; क्योंकि राधा कि रागात्मक वृत्ति उसे मानवीय स्तर के अधिक निकट ले आती है, तो अलौकिक स्तर से जोड़ नहीं पाती। इतना अवश्य है कि राधा का रूप कनुप्रिया में देश-काल की सीमा लाँघकर सार्वकालिक और सार्वजनीन हो गया है। कारण, कृष्ण अक्षौहिणी सेनाओं के संचालन में घिरे हैं, तो राधा अपनी माँग को आम के बौर से (कृष्ण की आत्मीयता जिससे जुड़ी है) सजाए प्रतीक्षारत है। कहाँ अक्षौहिणी सेनाओं का संगठन करने वाले कृष्ण और कहाँ एकाकी खड़ी राधा-प्रेम की लघुता। प्रेम की यही लघुता उसके अक्षुण्ण प्रेम की परिचायक है।

राधा मानव-प्रेम की आवश्यकता को जीवन का अनिवार्य अंग मानती है। इसी कारण उसके किसी भी कथन में अनास्था का स्वर नहीं है। प्रेम की पवित्रता अक्षुण्ण है। भारती जी एक मुक्तक में

तप्त माथे पर, नज़र के बादलों को साधकर

रख दिये तुमने सरल संगीत से निर्मित अधर

आरती के दीपकों की झिलमिलाती छाँह में ' बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर।

1-पूर्वराग में कनुप्रिया के भावबोध और विविध प्रसंगों का मंथन करें, तो उसकी व्यथा सामने आती है। राधा को सहवास-सुख छोड़कर चले आने और समर्पण में न रीतने का अनुताप है, तो कहीं अंशतः ग्रहण कर लेने पर भी सम्पूर्ण बनकर लौटने में समर्पण की सार्थकता है।

2-मंजरी परिणय-'जन्म जन्मान्तर की रहस्यमयी लीला की / एकान्त-संगिनी मैं' प्रणय के इस स्तर में वैष्णव-संस्कार का आभास होता; लेकिन चरम साक्षात्कार के क्षणों में भी जड़ और निष्पन्द हो जाना, न तो पृथक् होना है और न विलय होना। राधा इतना तो समझती ही है कि लाज तन की नहीं होती, वरन् मन की भी होती है। लाज के कारण मिलन के क्षणों में तन की झिझक से भी बढ़कर मन की झिझक होती है-

एक मधुर भय एक / अनजाना संशय / एक आग्रह-भरा गोपन, एक निर्व्याख्या वेदना, उदासी /

जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है। (मंजरी-परिणयःआम्र बौर का गीत)

भय, संशय, गोपन, उदासी आदि सभी भावों को कनुप्रिया 'सरचढ़ी सहेलियों' के समान बताती है। संश्लिष्ट बिम्बों के माध्यम से भारती ने कनुप्रिया कि भाव-संकुल अभिव्यक्ति को चित्रमय कर दिया है। कनुप्रिया के 'नववधू' रूप का सहज चित्रांकन-

बनघासों की पगडण्डी पर / कृष्ण द्वारा आम्रमंजरी को चूर-चूर करके बिखेरना जैसे उसकी सूनी, पवित्र माँग में सिन्दूर भरने का कार्य था-

उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी, उजली, पवित्र माँग भर रहे थे साँवरे?

पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर / इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त होकर /

माथे पर पल्ला डालकर / झुककर तुम्हारी चरण-धूलि लेकर /

तुम्हें प्रणाम करने-नहीं आई, नहीं आई, नहीं आई। (मंजरी-परिणयःआम्र बौर का गीत)

यह निषेध था अपने अस्तित्व को बचाए रखने का, किसी भी तरह विलीन न होना। कृष्ण महावर रचाने के लिए राधा के पैर गोद में रखते हैं, तो वह लजाकर मुँह फेरकर निश्चल बैठ जाती है। घर आने पर वही राधा महावर की बनी उन रेखाओं को एकान्त में चूम लेती है-

अपने उन्हीं चरणों को / अपलक निहारती हूँ.../ जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को /

चारों ओर देखकर धीमे-से / चूम लेती हूँ। (मंजरी-परिणयःआम्र बौर का गीत)

राधा जब पुकारने पर देर से पहुँचती है, कृष्ण चले जाते हैं। रात भी गहरा आई है और वह कितनी देर तक बाँह से उसी आम्र की डाली को घेरे चुपचाप रोती रहती है। भला उसकी असमर्थता को कनु कैसे जानेगा-

पर तुम्हें यह कौन बताएगा साँवरे / कि देर से ही सही

मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गई (मंजरी-परिणयःआम्र बौर का गीत)

राधा का मन प्रेम से आप्लावित है; परन्तु नारी सुलभ लज्जा उसे अवश कर देती है-

तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती / तो मेरे साँवरे-लाज मन की भी होती है।

यह मन की लाज और देर से आना उसकी अवशता है, तो उसे चन्दनबाहों में भरकर बेसुध होने से वंचित क्यों करेंगे? भावविभोरता और सहज तन्मयता के क्षणों की अनुभूति केवल सुगन्ध का रूप धारण कर लेती है। तन का आभास उस समय रह नहीं पाता। राधा कि यह तन्मयता स्थूल से ऊपर उठकर है-

मुझे ऐसा लगा है / जैसे किसी ने सहसा इस जिस्म के बोझ से मुझे मुक्त कर दिया /

और इस समय मैं शरीर नहीं: मैं मात्र एक सुगन्ध हूँ। (मंजरी-परिणयःआम्र बौर का अर्थ)

राधा के प्रश्नों में सहजता है। वहाँ उसका समाधान भी सहजसाध्य है। बुद्धि के आयाम कृत्रिम और तर्क-वितर्क में गुँथे हुए हैं, जिनसे मानवता कि समस्याएँ नहीं सुलझाई जा सकतीं। सहज रागात्मक स्तर पर ही मानवता की समस्याओं का समाधान निकल सकता है। यही राधा कि प्रतीक्षा है-लहूलुहान हारे-थके विचारों के लौटने की प्रतीक्षा। कृष्ण का महान् विस्मयकारी और इतिहास-प्रवर्तक का रूप राधा तत्त्व से रहित होने पर 'शिव' नहीं हो सकता; अतः 'कनुप्रिया' में राधा और कृष्ण के कालातीत और समष्टिवादी रूप (जो देशकाल से परे है) का ही महत्त्व है।

राधा प्रेम के मूल्य का अन्वेषण करती है, तो कभी उसे स्वय को ही नकार देना पड़ता है, तो कभी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती दिखाई देती है। 'मैं' की पुनरावृत्ति उसे स्वत्व का आभास तो कराती रहती है। रागात्मक सम्बन्धों की पृष्ठभूमि उसके मन में विगत स्मृतियाँ कभी फाँस की तरह गड़ती हैं, कभी उनकी मधुरता से राधा कि साँस-साँस सुरभित हो जाती है, तन खिल उठता है। कभी संशय (जो क्षणिक है) उसे झकझोर देता है, असहाय होने का बोध कराने लगता है। इस प्रकार सभी रस भिश्र रूप में ही प्रयुक्त हुए हैं। फिर भी राधा के मादक क्षणों को भारती जी ने सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान की है। भारती जी के शब्द चित्रों में वैष्णव संस्कार खोजना जिस प्रकार की भूल है, उसमें पश्चिमी संस्कार का आरोप करना भी उसी प्रकार की नासमझी है। रक्तरंजित इतिहास को मोड़कर प्रेम के चरणों में बिठाना क्या रोमानी संस्कार है? युधिष्ठिर इतिहास को न बदलकर स्वय को बदलने कe लिए हिमालय पर चले गए। राधा ने मूल समस्या को ही स्पर्श किया है।

कृष्ण ने एक बार आग की लपटों से राधा को दोनों हाथों में फूल की थाली की तरह सहेजकर उठा लिया था और लपटों से बाहर ले आए थे। राधा ने खीझ में भले ही कहा हो कि कान्हा मेरा कोई नहीं है; पर 'घनघोर वर्षा के समय' राधा ने उसी कान्हा को आँचल में दुबका लिया था-

चितवन की छाँह में खड़े होकर / ममता से मैंने अपने वक्ष में / उस छौने का ठण्डा माथा दुबकाकर /

अपने आँचल से उसके घने-घुँघराले बाल पोंछ दिए। (मंजरी-परिणयःतुम मेरे कौन हो)

3-सृष्टि-संकल्प: काम जीवन का प्रमुख अंग है। काम की पूर्त्ति जीवन को नए आयाम प्रदान करती है। दो शरीरों से मन और हृदय की लयात्मकता ही सृष्टि की लयात्मकता है।

जब मैं प्रगाढ़ वासना, उद्दाम क्रीड़ा / और गहरे प्यार के बाद

थककर तुम्हारी चन्दन-बाहों में / अचेत, बेसुध हो जाती हूँ

यह निखिल सृष्टि लय हो जाती है। (सृष्टि-संकल्प: सृजन-संगिनी)

लीन होना निष्क्रिया का प्रतीक नहीं है। प्रगाढ़ तृप्ति के लिए शरीरों से परे की चेतना बार-बार लौटकर आती है-

तुम फिर, फिर उसी गहरे प्यार को / दोहराने के लिए / मुझे आधी रात जगाते हो / आहिस्ते से, ममता से-

और मैं फिर जागती हूँ .. वह आधी रात का प्रलयशून्य सन्नाटा / फिर

काँपते हुए गुलाबी जिस्मों / गुनगुनाते स्पर्शों / कसती हुई बाहों /

अस्फुट सीत्कारों / गहरी सौरभ-भरी उसाँसों /और अन्त में एक सार्थक शिथिल मौन से

आबाद हो जाता है / रचना कि तरह / सृष्टि की तरह-

और मैं फिर थककर सो जाती हूँ / अचेत-संज्ञाहीन-

इसके बाद फिर गहन अँधेरा, फिर राधा को जगाया जाना, प्रगाढ़ विलास। यह विलास जुड़ा है अतृप्त क्रीड़ा की अनन्त पुनरावृत्तियों से। सभी स्मृतियाँ छन-छनकर आती रहती हैं। राधा कि यह आत्मरति प्रवाह में बहती हुई असंख्य सृष्टियों का क्रम है, जो राधा के ही शब्दों में-

महज़ हमारे गहरे प्यार / प्रगाढ़ विलास / और अतृप्त क्रीड़ा कि अनन्त पुनरावृत्तियाँ हैं

राधा का शारीरिक सौष्ठव धर्मवीर भारती के स्पष्ट और रूपात्मक बिम्ब विधान से और अधिक सजीव एवं सार्थक हो गया-

अगर ये उत्तुंग हिमशिखर / मेरे ही-रुपहली ढलान वाले गोरे कन्धे हैं-जिन पर तुम्हारा / गगन-सा चौड़ा और साँवला और

तेजस्वी माथा टिकता है / ... हिलोरें लेता हुआ सागर

मेरे ही निरावृत्त जिस्म का / उतार चढ़ाव है (सृष्टि-संकल्प: आदिम भय)

भारती जी ने राधा के सौन्दर्य को चित्रित करने के लिए लाक्षणिक प्रयोग किया है। उरोजों के लिए 'चन्दन फूलों' का प्रयोग नितान्त नवीन ही नहीं; बल्कि सार्थक भी है-

अगर ये उमड़ती हुई मेघ-घटाएँ / मेरी ही बल खाती हुई वे अलकें हैं

जिन्हें तुम प्यार से बिखेरकर / अक्सर मेरे पूर्ण विकसित

चन्दन फूलों को ढक देते हो (सृष्टि-संकल्प: आदिम भय)

राधा कि देह-गठन सुकुमार और लावण्यमयी है। सूर्यास्त बेला में झरते हुए झरने में जो धाराएँ आरोपित की गई हैं-

अजस्र प्रवाही झरने / मेरी ही स्वर्णवर्णी जंघाएँ हैं।

लेकिन राधा के लिए ये सब सौन्दर्य के उपादान प्रश्न बनकर रह जाते हैं। यदि ये उस सृष्टि नियामक की क्रीड़ाओं के साधन हैं, तो भय किस बात का। यही आदिम भय का रूप धारण कर लेता है॥ उसे लगता है-जैसे यह दिगन्त व्यापी अँधेरा हो-

मेरे शिथिल अधखुले गुलाब तन को / पी जाने के लिए तत्पर है।

यह आदिम भय ही दुगुने आवेग से उसे 'कनु' के, पास खींच लाता है। बाहों के बन्धन और संकुल हो जाते हैं, इतना निकट कि

और निकट और निकट / कि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जाएँ और यह मेरा निर्मम कसाव है / और अन्धा और उन्माद-भरा /

और मेरी बाहें / नागवधू की गुंजलक की भाँति / कसती जा रही हैं। (सृष्टि-संकल्प: केलि सखी)

मिलन के मादक और मधुर क्षणों में राधा का गुलाबी तन, तन मात्र न रहकर, पिपासाकुल प्रेम की पुकार बन जाता है-

हलका गुलाबी, गोरा रुपहली धूप-छाँव-वाली-सीपी जैसा जिस्म /

अब जिस्म नहीं है-एक पुकार है (सृष्टि-संकल्प: केलि सखी)

4-इतिहास: राधा यौवन की इन उद्दाम लालसाओं से भरी स्मृतियों से यथार्थ के धरातल पर सोचती है। , तो उसे अपना तन बीते हुए मेले-सा सुनसान लगता है। कितनी मार्मिक व्यथा है! उल्लास और रस-भरा तन सिर्फ़ याद बनकर रह गया है। विषाद को अभिव्यक्त करती भारती जी की उपमा कितनी मार्मिक बन पड़ी है-

मन्त्र-पढ़े बाण-से छूट गए तुम तो कनु केवल शेष रही मैं / काँपती प्रत्यंचा-सी (इतिहासः विप्रलब्धा)

प्रत्यंचा का उपमान खालीपन का सालने वाला प्रतीक है। राधा का संशय उसे और अधिक विषाद से भर देता है। 'कुरुक्षेत्र का कृष्ण' राधा के प्रेम से सिंचित होकर ही बना। उसका वियोग तो राधा के लिए असह्य है-

नीचे की घाटी से / ऊपर के शिखरों पर जिसको जाना था, वह चला गया'

कृष्ण तो महान् हो गए; लेकिन

हाय मुझी पर पग रख / मेरी बाहों से / इतिहास तुम्हें ले गया। (इतिहास-सेतु: मैं)

राधा का इतिहास के प्रति यह रुझान ठीक ही है। उनको महान् बनाने में जिसका हाथ था, उनकी पीड़ा क्या इतिहास समझ सकेगा। राधा के इस प्रश्न का कृष्ण के पास क्या उत्तर होगा!

सुनो कनु, सुनो!

क्या मैं एक सेतु थी तुम्हारे लिए!

लीलाभूमि और युद्धक्षेत्र के / अलंघ्य अन्तराल में'

कृष्ण के द्वारा उसके जिस्म को सेतु बनाया जाना राधा को ज़रूर खला होगा। अपने कनु को कुरुक्षेत्र की विभीषिका से दूर खींचने के लिए प्रतीक्षारत राधा 'उसी आम के नीचे' आ खड़ी होती है, जहाँ मधुर मिलन हुआ करता था। राधा के प्रेम की सहजता, उसकी अन्यमनस्कता से प्रकट होती है-

सिर्फ़ मेरी अनमनी भटकती उँगलियाँ / मेरे अनजाने, धूल में तुम्हारा / वह नाम लिख जाती हैं।

और ज्यों ही सचेत होकर / अपनी उँगलियों की / इस धृष्टता को जान पाती हूँ /

चौंककर उसे मिटा देती हूँ (इतिहास: उसी आम के नीचे)

कृष्ण के महान् बनने में कनुप्रिया का भी बहुत कुछ टूटकर बिखरा है।

तन की शक्ति निरंकुश होती है, जो विचारहीनता के भँवर में घिरने से सुन्दर को भी नष्ट कर देती है। राधा को आशंका है-

यदि ग्रामवासी सेनाओं के स्वागत में / तोरण नहीं सजाते /

तो क्या सारा ग्राम नहीं उजाड़ दिया जाएगा (इतिहास: अमंगल छाया)

प्रजा का दर्द है महायुद्ध में व्यक्ति की अवशता। पाप-पुण्य, धर्माधर्मवाला होने पर भी युद्ध उसे नहीं जँचता। यह उसकी विवशता है। युद्ध करने वाले कनु का उससे कब परिचय हो पाया! जिस 'जमुना' में राधा अपनी छवि निहारा करती थी, अब वहाँ की स्थिति कितनी विकट है-

वहाँ अस्त्र-शस्त्रों से लदी हुई /

अगणित नौकाओं की पंक्ति / रोज़-रोज़ कहाँ जाती है? (इतिहास: एक प्रश्न)

कृष्ण के युद्ध विषयक रूप की विद्रूपता गहरे व्यंग्य में प्रकट होती है। फूलों से खिला उपवन, लाशों से पटा रणक्षेत्र-दोनों की अलग-अलग अनुभूतियाँ हैं-

चारों दिशाओं से / उत्तर को उड़-उड़ जाते हुए /

गृद्धों को क्या तुम बुलाते हो! (जैसे बुलाते थे भटकी हुई गायों को) (इतिहास: एक प्रश्न)

इस प्रश्न में राधा कि विवशता और व्यथा साफ़ झलकती है। अर्जुन को दिया गया उपदेश राधा के भावक्षेत्र से बाहर की अवधारणा है। वे सभी शब्द राधा के लिए अर्थहीन हैं, जो-

यदि वे मेरे पास बैठकर / मेर रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुए /

तुम्हारे काँपते हुए अधरों से नहीं निकलते......

अर्जुन ने इनमें चाहे कुछ भी पाया हो / मैं इनको सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय! (इतिहास:-शब्द: अर्थहीन)

राधा कृष्ण के हर शब्द में तन्मयता का ही आभास पाती है, जो उसके अन्तरतम तक उतरता चला जाता है-

हर शब्द को अँजुरी बनाकर / बूँद-बूँद तुम्हें पी रही हूँ /

और तुम्हारा तेज / मेरे जिस्म के एक नए मूर्च्छित संवेदन को /

धधका रहा है। (इतिहास: शब्द: अर्थहीन)

राधा 'समुद्र स्वप्न' में कनु की युद्ध से खिन्नता की कल्पना करती है-

थककर / इन सबसे खिन्न, उदासीन विस्मित और / कुछ-कुछ आहत /

मेरे कन्धों से टिककर बैठ गए हो। (इतिहास: समुद्र स्वप्न)

यह शरीर और मन दोनों ही थके कृष्ण का रूप है। कृष्ण बाँह उठाकर कुछ कहते रह जाते हैं; पर सुनता कोई कुछ भी नहीं। थककर फिर राधा के वक्षस्थल में ही चैन पाते हैं-

मेरे वक्ष के गहराव में / अपना चौड़ा माथा रखकर /

गहरी नींद में सो गए हो...और मेरे वक्ष का गहराव /

समुद्र में बहता हुआ, बड़ा-सा ताज़ा क्वाँरा, मुलायम, गुलाबी वट-पत्र बन गया है।

यहाँ 'गहराव' में शब्दचित्र प्रस्तुत किया है। भारती जी ने वक्ष के गहराव के लिए 'ताज़ा क्वाँरा, मुलायम, गुलाबी वट-पत्र' के उपमान की प्रस्तुति नूतनता लिये हुए है। सांकेतिक भाषा में उरोजों के लिए विस्तार, नवलता, कवाँरपन, कोमलता और गुलाबीपन सभी विशेषताओं को सँजो दिया है।

कृष्ण का बूढ़े पीपल के नीचे चुपचाप बैठना बाहुबल की सबसे बड़ी पराजय है। बूढ़ा पीपल एक पूरी पीढ़ी की जीत को हार में बदल रहा है। चुपचाप बैठना चिन्तन की थकान, व्यर्थता और अनिश्चितता की ओर इंगित करता है। कृष्ण जैसे योगिराज भी उस बूढ़े पीपल के प्रभाव से नहीं बचे-

और पहली बार जैसे तुम्हारी अक्षय तरुणाई पर

थकान छा रही है / ......एक गहरी साँस लेकर /

तुमने असफल इतिहास को / जीर्ण वसन की भाँति त्याग दिया है। (इतिहास-समुद्र स्वप्न)

इतिहास को त्याग देना, उस पूरी पीढ़ी के अस्तित्व को नकारना है, जो युद्ध के लिए हर समय तत्पर रहती है। चाहे वह दुर्योधन हो, चाहे अर्जुन-रक्त दोनों के कारण बहता है। प्रेम ही वह आश्रय-स्थल है, जहाँ कुछ राहत मिलती है। दर्द से थके हुए 'कनु' को बहुर दिन बाद राधा की याद आती है। साँवरी, शिथिल बाहें, काँपते अधर, सब एक गहरी पुकार है। राधा के ही शब्दों में-

सब त्यागकर / मेरे लिए भटकती हुई। (इतिहास-समुद्र स्वप्न)

5-समापन: यह अन्तिम और सबसे छोटा अध्याय है। जन्मजन्मान्तरों की अनन्त पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर राधा प्रतीक्षारत है, कृष्ण में बिना विलीन हुए। फिर आना था; इसलिए विलीन नहीं हुई और अब वह सब छोड़-छाड़कर आ गई, क्योंकि-

कि इस बार इतिहास बनाते समय / तुम अकेले न छूट जाओ (समापन)

राधा के बिना कृष्ण को इतिहास का त्याग करने के लिए बाध्य होना पड़ा; इसीलिए राधा कहती है-

प्रगाढ़ केलि क्षणों में अपनी अन्तरंग / सखी को तुमने बाहों में गूँथा

पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु? (समापन)

राधा ने प्रेमतत्त्व की अनिवार्यता पर बल दिया है। प्रेम के बिना इतिहास अधूरा है, रक्त-पिपासु है-

तुम्हारे इतिहास का / शब्द, शब्द, शब्द, ......

राधा के बिना / सब / रक्त के प्यासे / अर्थहीन शब्द,

राधा कृष्ण के अस्तित्व में विलीन नहीं हुई। वह आद्यन्त प्रेमसिक्त है, प्रणय-समर्पिता है, फिर भी अपना अलग अस्तित्व बनाए हुए है। 'समापन' तक कृष्ण से मिल भी नहीं पाई, फिर भी उसका विश्वास अडिग है कि कृष्ण को युद्ध की विभीषिका के बाद उसके आँचल में आश्रय पाना ही होगा। कनु और कनुप्रिया के भावों का सामंजस्य युग की आवश्यकता है। यह सामंजस्य होना बाकी है। सामंजस्य का न होना ही मानवता का अधूरापन है। धर्मवीर भारती ने इस अधूरेपन के द्वारा ही युगचेतना को अभिव्यक्ति दी है। इतिहास के रक्तपिपासु शब्दों की अन्त्येष्टि के लिए कनुप्रिया अपनी सहजता, भोलेपन और नासमझी (युगीन आवश्यकता को समझते हुए भी) के साथ कनु की प्रतीक्षा में खड़ी है; ताकि उसकी वेणी में अग्निपुष्प गूँथने वाली अँगुलियाँ इतिहास के अर्थ ढूँढ सकें, इतिहास को सार्थकता प्रदान कर सकें। यही राधा का आन्तरिक संकट भी है, लीन न होना भी।

इतिहास और समापन के अध्याय राधा के प्रणय को एक नए परिप्रेक्ष्य में नई दृष्टि प्रदान करते हैं। पौराणिक सन्दर्भ आधुनिक युग की संवेदना को परिपुष्ट करते हैं। भारती जी ने कनुप्रिया में नाट्य एकालाप के माध्यम से ही राधा के गहन प्रेम से भरे हृदय को भावसिंचित अभिव्यक्ति प्रदान की है। सहज जीवन की तन्मयता, प्रश्नों का उद्गम, राधा के कैशोर्य सुलभ भाव जिस तरह के है, न उसी के अनुरूप कनुप्रिया का काव्यबोध भी है। राधा के मन में प्रश्न या आग्रह उभरते हैं, वे धीरे-धीरे विकसित होते हैं। दूसरे आयाम बुद्धि के हैं, जिनका सहजता से तालमेल सम्भ नहीं। अज्ञेय जी का कथन है-'मानवता की समस्याएँ मानव की जिस अखण्ड एकता के स्तर पर हल की जा सकती हैं, वह विज्ञान अथवा तर्क का स्तर नहीं; बल्कि सहज रागात्मक सम्बन्ध का स्तर है।'

कनुप्रिया की रचना 1959 में हुई। भारती जी उस समय 33 वर्ष के रहे होंगे। अन्धायुग (1954) की चिन्ता, संघर्ष और खुरदुरेपन से दूर यह भारती की प्रेम के उद्दाम आवेश की रचना है। भारती जी ने राधा के भाव-जगत् को चित्रित करने लिए भाषा कि सरसता को बनाए रखा है; लेकिन जिस्म, नशीले जैसे शब्द खटकते हैं।

इस प्रकार राधा के प्रश्नों का एक ही उत्तर है-कनु उसका सर्वस्व है। यही प्रश्न कभी उसकी व्यथा के कारण भी बन जाते हैं; विशेषतः उस समय, जब वह अन्तर्द्वन्द्व की गहराई में उतरती है। राधा की इस स्वीकारोक्ति में ही कनुप्रिया का सार निहित है-

'कनु मेरा लक्ष्य है, मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!'

-0-वर्ष 1980 (नारंगी, गुवाहाटी)