कन्धे श्रवणकुमार के / हरिशंकर परसाई

Gadya Kosh से
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एक सज्जन छोटे बेटे की शिकायत करते हैं-कहना नहीं मानता और कभी मुँहजोरी भी करता है। और बड़ा लड़का ? वह तो बड़ा अच्छा है। पढ़-लिखकर अब कहीं नौकरी करता है। सज्जन के मत में दोनों बेटों में बड़ा फर्क है और यह फर्क कई प्रसंगों में उन्हें दिख जाता है। एक शाम का प्रसंग है। वे नियमित सन्ध्यावन्दन करते हैं (यानी शराब पीते हैं), कोई बुरा नहीं करते। बहुत लोग पीते हैं। गंगाजल खुलेआम पीते हैं, शराब छिपकर-गो शराब ज्यादा मजा देती है। आदमी बेमजा खुलकर बात करता है। और बामजा को छिपाकर, यानी सुख शर्म की बात मानी जाती है। लेकिन बात उन सज्जन की उठी थी। उन्हें सोडा की जरूरत पड़ती है। बड़ा लड़का कहते ही फौरन किताब के पन्नों में पेन्सिल रखकर सोडा लेने दौड़ जाता था। लाता छोटा भी है, पर फौरन नहीं उठता। पैराग्रफ पूरा करके उठता है। भारतीय पिता को यह अवज्ञा बरदाश्त नहीं। वह सीमान्तों पर सम्बन्ध रखता है। या तो बेटे को पीटेगा या उसके हाथ से पिटेगा। बीच की स्थिति उसे पसन्द नहीं। छोटा बेटा भी हरकत करता है। पिता जल्दी मचाते हैं, तो कह भी देता है ‘जाता तो हूँ’ ! उसके मन में सवाल और शंका भी उठती है। सोचता है-यह पिता फीस रोकर देता है, कपड़े बनवाना टालता जाता है, फिर यह नहीं सोचता कि इसे पढ़ाई के बीच से नहीं उठना चाहिए।

बड़े लड़के के मन में कभी सवाल और शंका नहीं उठे। वह मेरी ही उम्र का होगा। उसने वही किताब पढ़ी होंगी, जो मैंने पढ़ी थीं। हम सब गलत किताबों की पैदावार हैं। ये सवालों को मारने की किताबें थीं। स्कूल प्रार्थना से शुरू होता था-‘शरण में आये हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयालु भगवन !’ क्यों शरण में आये हैं, किसके डर से आये हैं—कुछ नहीं मालूम। शरण में आने की ट्रेनिंग अक्षर-ज्ञान से पहले हो जाती थी। हमने गलत किताबें पढ़ीं हैं और आँखों को उनमें जड़ दिया। छोटा लड़का दूसरी किताबें पढ़ता है और आँखें उनमें गड़ाता नहीं है, आसपास भी देख लेता है। वह अपनी आँखों को फूटने से बचाने की कोशिश कर रहा है। इससे सारे पिता-स्वरूप लोग परेशान हैं- भौतिक पिता, गुरू, बड़े-बूढ़े शासक और नेता। हमारी किताबों में पिता-स्वरूप लोग सवाल और शंका से ऊपर होते थे। शिष्य पक्षपाती गुरू को अँगूठा काटकर दे देता था और दोनों ‘धन्य’ कहलाते थे। अब शिष्य उपकुलपति से रिपोर्ट कर देता है कि अमुक अध्यापक शिष्यों के अँगूठे कटवाते हैं। यदि उपकुलपति ध्यान नहीं देते, तो वह विद्यार्थीयों का जुलूस लेकर विश्वविद्यालय पर धावा बोल देता है । हमें तो तीसरी कक्षा में ही उस भक्त की कथा पढ़ा दी गयी थी, जो अपने पुत्र को आरे से चीरता है। कुछ लोगों के लिए आदमी और कद्दू में कोई फर्क नहीं। दोनों ही चीरे जा सकते हैं। उस भक्त का नाम मोरध्वज था। ऐसी सारी कथाओं का अन्त ऐसा होता है जिससे चिरनेवालों को प्रोत्साहन मिले। भगवान प्रकट होते हैं और जिस पार्टी का जो नुकसान हुआ है, पूरा कर देते हैं-मृत को जिला देते हैं, जायदाद चली गयी है, तो वापस दिला देते हैं, किसी को मुआवजे के रूप में स्वर्ग भेज देते हैं। कथा के इस अन्त ने कितनी पीढ़ियों को आरे से चिरवा दिया होगा।

इस कथा पर न मैंने शंका की थी, न सज्जन के बड़े बेटे ने। मगर छोटा लड़का पूछेगा-पिताजी, चीरने से पहले यह बताइए कि भगवान इससे खुश होते हैं इसका सबूत क्या है ? फिर इसकी क्या गारण्टी कि वे आ ही जाएँगे ? उन्हें हजार काम लगे रहते हैं। फिर इसका क्या भरोसा कि वे कटे को जोड़ देते हैं ? अगर यह सब हो भी, तो भी आपके सत्यकल्पित विश्वास आपके अपने हैं। उनके लिए आप अपने को कटवाइए और अपनी हठ निभाइए। पहले जन्मे लोग अपनी सही-गलत मान्यता के लिए पीछे जन्मों को क्यों काटें ? एक पीढ़ी के लिए दूसरी पीढ़ी क्यों चीरी जाए ?

लड़के मुँह जोरी करने लगे हैं। कम्बख्तों की किताबें बदल गयी हैं। कोर्स इतनी जल्दी क्यों बदलने लगे हैं ? बड़े लड़के से कह दिया था कि अपनी किताबें सँभालकर रखना छोटे के काम आएँगी ! पर किताबें बदल गयीं। पुरानी किताबें किसी के काम नहीं आ रही हैं। एक ही किताब पीढ़ियों क्यों नहीं चलती ? पिताओं को यह चिन्ता है। बड़ा लड़का फौरन किताब में पेन्सिल रखकर सोडा लेने भाग जाता था। छोटा पैराग्राफ पूरा करके उठता है। भीष्म की कथा भी हमें तभी पढ़ा दी गयी थी। हमने भीष्म को ‘धन्य’ कहा था। छोटा लड़का शान्तनु को ‘धिक्कार’ कहेगा। ‘धन्य’ और ‘धिक्कार’ की जगहें बदल गयी हैं। लोगों को पता नहीं है। छोटा लड़का भीष्म से कहेगा-क्या तुमने भी वही किताबें पढ़ी थीं, जो हमारे बड़े भाई ने ? तुम पिता से क्यों नहीं कह सके कि जीवन भर के भोग के बाद भी आप की लिप्सा बनी हुई है, तो मैं क्या करूँ ? अपना संयम दे सकता, तो थोड़ा दे देता, जीवन कैसे दे दूँ ? राज्य से आप मुझे वंचित कर सकते हैं, पर मनुष्य का स्वाभाविक अधिकार मैं हरगिज नहीं छोड़ूँगा।

छोटा टिप्पणी करेगा-भीष्म ऐसा नहीं कह सके। उन्हें पिता ने आदमी से तीर चलाने वाली मशीन बना दिया। ऑटोमेटिक धनुष ! महाभारत का यह सबसे भला, तेजस्वी, आदरणीय, ज्ञानी व्यक्ति सबसे दयनीय भी है। मगर देख रहा हूँ कि श्रवणकुमार के कन्धे दुखने लगे हैं। यह काँवड़ हिलाने लगा है। काँवड़ में अन्धे परेशान हैं। विचित्र दृश्य है यह। दो अन्धे एक आँख वाले पर लदे हैं और उसे चला रहे हैं। जीवन से कटजाने के कारण एक पीढ़ी दृष्टिहीन हो जाती है, तब वह आगामी पीढ़ी के ऊपर लद जाती है। अन्धी होते ही उसे तीर्थ सूझने लगते हैं। वह कहती है- हमें तीर्थ ले चलो। इस क्रियाशील जन्म का भोग हो चुका है। हमें आगामी जन्म के भोग के लिए पुण्य का एडवांस देना है। आँखवाले की जवानी अन्धों को ढोने में गुजर जाती है। वह अन्धों के बताये रास्ते पर चलता है। उसका निर्णय और निर्वाचन का अधिकार चला जाता है। उसकी आँखें रास्ता नहीं खोजतीं, सिर्फ राह के काँटे बचाने के काम आती हैं।

कितनी काँवड़े हैं- राजनीति में, साहित्य में, कला में, धर्म में, शिक्षा में। अन्धे बैठे हैं और आँखवाले उन्हें ढो रहे हैं। अन्धें में अजब काँइयाँपन आ जाता है। वह खरे और खोटे सिक्के को पहचान लेता है। पैसे सही गिन लेता है। उसमें टटोलने की क्षमता आ जाती है। वह पद टटोल लेता है, पुरस्कार टटोल लेता है, सम्मान के रास्ते टटोल लेता है। बैंक का चेक टटोल लेता है। आँखवाले जिन्हें नहीं देख पाते, उन्हें वह टटोल लेता है। नये अन्धों के तीर्थ भी नये हैं। वे काशी, हरिद्वार, पुरी नहीं जाते। इस काँवड़वाले अन्धे से पूछो- कहाँ ले चलें ? वह कहेगा-तीर्थ ! कौन सा तीर्थ ? जवाब देगा केबिनट ! मंत्रिमण्डल ! उस काँवड़वाले से पूछो, तो वह भी तीर्थ जाने को प्रस्तुत है। कौन-सा तीर्थ चलेंगे आप ? जवाब मिलेगा अकादमी, विश्वविद्यालय ! मगर काँवड़े हिलने लगी हैं। ढोनेवालों के मन में शंका पैदा होने लगी है। वे झटका देते हैं, तो अन्धे चिल्लाते हैं-अरे पापी ! यह क्या करते हो ? क्या हमें गिरा दोगे ? और ढोनेवाला कहता है-अपनी शक्ति और जीवन हम अन्धों को ढोने में नहीं गुजारेंगे। तुम एक जगह बैठो। माला जपो। आदर लो, रक्षण लो। हमें अपनी इच्छा से चलने दो। अनुभव दे दो, दृष्टि मत दो ! वह हम कमा लेंगे।

राजनीति, साहित्य आदि तो बड़े प्रगट क्षेत्र हैं। अप्रगट रूप से भी, विभिन्न क्षेत्रों में श्रवणकुमार काँवड़ उतारने के लिए हिला रहे हैं। वे किन्हीं विश्वासों की आरी से चिरने को तैयार नहीं हैं। मैं कॉफी हाउस के कोने में बैठे उस युवक की बात नहीं कर रहा हूँ, जिसने गुस्से में दाढ़ी बड़ा ली है, जैसे उसकी दाढ़ी एक खास साइज और आकार की होते ही क्रान्ति हो जाएगी। बढ़ी दाढ़ी, ड्रेन पाइप और ‘सो ह्वाट’ वालों से यह नहीं हो रहा है। चुस्त कपड़े, हेयर स्टाइल और ‘ओ वण्डरफुल’ वालियों से भी यह नहीं हो रहा है। ये तो न विश्वास में सच्चे, न शंका में। यह बिना प्रदर्शन और शोर शराबे के घरों और परिवारों में हो रहा है। सुशील, विनम्र और आज्ञाकारी युवक-युवती काँवड़े उतारने लगें हैं किसी के विश्वास के ओर से कटने से इनकार करने लगे हैं। एक परिचित है, जिसका ज्योतिष में विश्वास है। उनकी शिक्षिता जवान लड़की है। जिससे वह शादी करना चाहती थी, उससे ग्रह नहीं मिले। एक-दो और योग्य वरों से मिलान किया पर ग्रह यहाँ भी नहीं मिले। उसके ग्रहों ने किसी नालायक से मिलने के लिए स्थिति सँभाली होगी। लड़की एक दो साल घुटती रही। एक दिन उसने नम्रता से परिवार से कह दिया-‘आप लोगों का इस ज्योतिष में विश्वास है, पर मेरा नहीं है। जो मेरा विश्वास ही नहीं है, उस पर मेरा बलिदान नहीं होना चाहिए।’ परिवार कुछ देर तो चमत्कृत रहा, फिर उसकी इच्छा से शादी कर दी। देख रहा हूँ कि मोरध्वज का आरा छीनकर फेंका जा रहा है। श्रवणकुमार के कन्धे दुखने लगे हैं। वह काँवड़ को उतार कर रखने लगा है। वे सज्जन परेशान हैं। छोटा लड़का पैराग्राफ पूरा करके उठता है। बड़ा तो फौरन पेन्सिल रखकर दौड़ जाता था।