कन्फेशन / सुषमा गुप्ता
यह बात 2017 से शुरू होती है। भाई को गए तकरीबन छह महीने हो चुके थे। माँ और पापा दोनों की हालत ऐसी थी कि मेरा लगातार समय अस्पतालों में बीत रहा था। बैक टू बैक पापा के ऑपरेशंस, सब कुछ हाथ से फिसलता हुआ लग रहा था। बेहद दुःख परेशानी भरे दिन थे। पर वह जिम्मेदारियों भरे दिन थे, सो मैं आंखों में नमी तक अफोर्ड नहीं कर सकती थी, ना भाई के जाने पर रो पाई कि बहुत कुछ सँभालना था उसके बाद। अंदर-अंदर अजीब-सा सब कुछ पत्थर होता जा रहा था। ऐसे में एक रात मैंने 'बनारस टॉकीज़' पढ़नी शुरू की। कोई रात के दस साढ़े दस बजे उठाई थी। दो बजे तक खत्म हो गई। इस दौरान बहुत बार हँसी, सच में हँसी और इतना हँसी कि हँसते-हँसते रोने लगी। मैंने फिर बेहद भावुक हो रात के तीन बजे किताब के लेखक सत्य को एक लंबा मैसेज किया मैसेंजर पर (तब मैं उन्हें नहीं जानती थी बस फेसबुक पर देखा था कि यह किताब उन्होंने लिखी है)
जवाब भी आया, वह भी शायद जाग ही रहे थे। मैंने बहुत लंबा मैसेज किया था बहुत भावुक होकर कि कैसे भाई के खोने के बाद आज छह महीने बाद मैं हँसी हूँ आपकी वजह से। उम्र में आप थोड़े छोटे ही हैं शायद मुझसे, जो चला गया भाई वह बड़ा था, पर मैं अबसे आपको भाई कहूँगी। बहुत प्रेम बहुत स्नेह से मैंने उनसे यह माँगा और उन्होंने भी उदार मन से कहा, हाँ बिल्कुल।
उसके बाद मैंने बनारस टॉकीज और दिल्ली दरबार अपने बहुत से दोस्तों को पढ़ने को कहा। स्कूल कॉलेज के बहुत से दोस्तों ने पढ़ी और खुश हुए। अभी तक भी, कोई मुझसे कहता है कि बहुत अवसाद में मन है तो मैं बोलती हूँ बनारस टॉकीज मँगा लो। फिर कुछ समय बाद सत्य की तीसरी किताब आई चौरासी।
जब हम फेसबुक पर नए-नए आते हैं, तो ज़रूरत से ज़्यादा भावुकता से भरे होते हैं अपने प्रिय लेखकों को लेकर। चौरासी आने पर मैंने एक बार फिर सत्य को मैसेज किया, एक बेवकूफी भरा मैसेज कि आप हास्य जॉनर में इतना सुंदर लिखते हैं, आपने चौरासी जैसे विषय पर किताब क्यों लिखी! यह मेरी नादानी बेवकूफी कुछ भी समझ लीजिए पर सत्य ने बहुत शांत सुंदर जवाब दिया था तब मुझे इस बात का। पर मेरा इस तरह महसूस करने के पीछे सच कुछ और था जो मैंने सत्य को कभी नहीं कहा। हालाँकि उस समय के जो दोस्त हैं, वे सब जानते हैं, पास पड़ोस भी जानता है और अब ज़िंदगी में कुछ करीबी दोस्त हैं, वे भी यह सब बहुत सालों से जानते ही हैं।
पर सोचती हूँ कि अब इसका कन्फेशन यहाँ भी करना चाहिए। सत्य की यह किताब थी 84 के सिख दंगों पर। 84 के सिख दंगों में मैंने कुछ ऐसा खो दिया है कि मैं इसके नाम से ही काँपती हूँ। जहाँ मेरा घर है दिल्ली में उसकी अगली गली में ही सरदारों के बहुत से घर थे। पंजाबी बाग मेन रोहतक रोड से उतरते ही पैरलल रोड, जहाँ पर मेरा स्कूल भी था 'न्यू स्टेट एकडेमी' मैं वहाँ छठी कक्षा तक पढ़ी हूँ। वह लड़का मेरे साथ पढ़ता था। हम उसे गुरी कहते थे पर उसका नाम गुरप्रीत नहीं था और असली नाम मैं यहाँ नहीं लिखूंगी। 84 के दंगों में मेरी उम्र इतनी कम थी कि उस वक्त दंगे-फसाद हत्या बलात्कार इन सबके मतलब भी नहीं पता था, पर वह समय इसलिए भी याद रहा कि कर्फ्यू के दिन, घर के आँगन में मैं और भाई (भाई जो अब नहीं रहा) जब बैट बॉल खेल रहे थे तब भाई से बॉल बाहर चली गई। अब क्योंकि पापा ने गेट पर बड़ा—सा ताला लगा रखा था दंगे और कर्फ्यू की वजह से तो बॉल कैसे वापस आए। वह गेट लाँघकर लेने गया। इस वजह से जल्दी-जल्दी गेट से जब वापस आँगन में उतर रहा था तो लोहे के गेट में एक घुमावदार पैने सरिए का उसके हाथ में कोहनी के पास ऐसा घुसा कि जैसे आम की फाँक में से आम निकाला जाए चम्मच भर के ऐसे मांस का टुकड़ा निकलकर बाहर गिर गया। मैं इतनी तेज चिल्लाई। ठीक-ठीक मुझे कुछ नहीं समझ आ रहा था कि यह हुआ क्या है। वह मांस का टुकड़ा मेरे सामने जमीन पर पड़ा था। दहशत से फिर बेहोश हो गई। रात गए होश आया। रोना बंद नहीं हु॥ बहुत देर और बुखार आ गया। बहुत समय बाद पता चला था कि उस दिन एनेस्थीसिया के बिना भाई के टाँके घर पर ही एक डॉक्टर ने लगाए, क्योंकि कर्फ्यू की वजह से सब कुछ बंद था। उसका हाथ का वह हिस्सा एक अजीब-सा गुमड़ 32 टाँकों के साथ हमेशा उन दंगों की निशानी की तरह रह। मेरे इसी ज़रूरत से ज़्यादा सेंसिटिव स्वभाव की वजह से मुझसे हमेशा इस तरह की बातें छुपाई जाती थी, जिनका असर ज़ेहन पर भयानक हो। यही वजह थी कि उन सरदार दोस्त परिवारों के घरों में क्या-क्या हुआ यह भी मुझे बहुत समय तक पता नहीं था।
पर 84 से डरने का वजह भाई की चोट नहीं थी, गुरी था / है। मैं अभी भी बहुत असहज होती हूँ तब का जिक्र आते ही। उस दंगे फसाद में उसके परिवार के साथ बहुत कुछ हुआ। उसकी दीदी के साथ क्या हुआ ...क्या लिखूँ... दंगों में जो होता है सबको पता है ...तब समझ नहीं थी... बाद के बहुत सारे सालों के बाद पता चला मुझे तो कि उस घोर वहशीपन के बाद उनको ज़िंदा जला दिया गया था और जब पता चला था तब ना जाने कितने समय सहमी रही छुप-छुपके रोती रही... जैसे कोई रीढ़ की हड्डी में किसी ने कुछ भर दिया था, जो हर वक्त जलता रहता था।
गुरी कभी-कभी मुझे स्कूल से घर आते हुए रास्ते में मिल जाता था। उसने स्कूल जाना फिर से शुरू किया था कि नहीं मैं नहीं जानती, क्योंकि मेरा स्कूल अब बदल चुका था। बचपन में उसका काम कभी भी पूरा नहीं होता था। वह रोज़ कॉपी माँगने आता था और माँ खीझ जाती थी कि तू खुद का होमवर्क खुद से क्यों नहीं करता पर वह इतने प्यार से कहता था आंटी जी हूणे दे दयो सच्ची कहदां फेर नी आवगां।
माँ पंजाब से हैं उसकी बोली पर मोहित होती और हँस देती। मेरा स्कूल बदल दिया गया था। पुराने स्कूल में वह क्या करता रहा क्या नहीं, मुझे नहीं पता। जैसे-जैसे बड़ा होता गया, सुंदर लगने लगा था। मुझे याद है अपनी बारहवीं के आसपास के दिनों में कई बार दिख जाता था मुझे स्कूल से लौटते हुए। जेबों में हाथ डाले सिर झुकाए चुपचाप गलियों में फिरता हुआ अकेला भरी दोपहर में भी। एक दो मिनट बात भी हो ही जाती, जो शुरू भी मैं ही करती थी; पर हम जिस माहौल में पले बढ़े थे, इस तरह भरी दुपहर सुनसान सड़कों पर खड़े होकर अकेले बात करना ठीक नहीं समझा जाता था, तो बस उसका हाल पूछती और आगे बढ़ जाती। वह भी औपचारिक-सा ही जवाब देता कि हाँ सब ठीक है, पर मैं तब भी देखती थी-बुझी आँखें सूखे होंठ...गहरी उदासी ...उदासी जो मुझे घंटों विचलित रखती, पर वह अपनी उदासी में भी बहुत सुंदर लगता था। मैं अकसर कहना चाहती, 'ओए सरदार तू तो बड़ा सोहणा लगदां है' पर कभी कहा नहीं कि मेरा स्वभाव भी उतना ही संकोची था। उसके नाम पर डायरी के बहुत सारे पन्ने भरे हुए हैं। स्कूल के दिन खत्म हो गए और कॉलेज के दिनों में बहुत कम ही ऐसा होता था कि कभी वह नज़र आए। जैसे-जैसे बड़े होते गए हाल चाल पूछने में भी एक संकोच आता गया। दूर से देखते, मुस्कान देते और बस आगे बढ़ जाते।
उम्र भर मुझे इस बात का बेहद अफसोस रहा और रहेगा कि काश यह उससे कभी कहा तो होता, कम से कम एक मुस्कान तो देखी होती उसके चेहरे पर मैंने फिर। तब ज़रूर कहना था पर नहीं कहा इसलिए अब मैं खुद को रोकती नहीं। लड़की हो या लड़का, कोई सुंदर लगे तो कह देती हूँ कि आप बहुत सुंदर हैं।
गुरी ने बहुत साल कोशिश की, पर नहीं सँभाल पाया ज़िंदगी को। उसने जो हैवानियत अपने सामने होती देखी थी, उसके दिमाग में गहरी धँस गई। बस 8 साल का तो था वह तब। कोई 15 सालों की कशमकश के बाद उसने... एक रोज़ आत्महत्या कर ली...
बचपन में उसका स्वभाव जितना चंचल था, उतना ही अंतर्मुखी हो गया था। कभी-कभी पता चलता था कि कैसा खुद में खोया और विक्षिप्त रहने लगा है। माँ बहन और उसके पिता को तो ज़िंदा ही जला दिया था उसकी आँखों के सामने। चाचा के सहारे ही सब चला। कह नहीं सकती कि पूरा सच क्या था, जितने मुँह उतनी बातें...पर उसे याद करके बहुत सारी रातें रोई हूँ। जो उसने उस दंगे की रात अपनी आँखों से देखा और तब मैंने नहीं देखा, वह मुझे अनगिनत रातों फिर दिखता रहा है और अभी भी दिखता है। सत्य की चौरासी पर अब एक सीरीज़ आई है ग्रहण। हर तरफ तारीफ़ है बहुत मन करता है कि देख लूँ पर हिम्मत नहीं होती...
सत्य उस दिन तुमको उस किताब के लिए इसलिए नहीं कहा था कि हास्य अच्छा लिखोगे और पीड़ा से भरा प्रेम नहीं, इसलिए कहा था कि यह मेरी अपनी कमी थी कि नहीं पढ़ पाऊँगी चौरासी पर लिखा तुम्हारा उपन्यास तो तुमको कह दिया अपनी मूर्खता और भावुकता में कि जो लिखते रहे हो, वही लिखो, जबकि किसी भी लेखक को एक दायरे में बाँधना या ऐसी अपेक्षा करना सच में बहुत बड़ी मूर्खता है।
चार साल हो गए जब पहला मैसेज किया था आपको और भाई कहा था। तब से अब तक आपकी मेरे मन में विशेष जगह है और सदा रहेगी। आपको हमेशा बहुत दुआएँ हैं।
पुरानी डायरियों से गुज़रते हुए एक बार फिर से तुम्हें बहुत याद किया गुरी...