कन्या भ्रूण हत्या: कानून से ज़्यादा समाज जिम्मेदार / अमित त्यागी

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बालिकाओं पर हो रहे अत्याचार के विरुध्द आवाज़ उठाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ सरकारी तंत्र की नहीं है, बल्कि देश के प्रत्येक नागरिक को इसके लिए आगे आने की जरूरत है। मेरा मानना है कि महिला सशक्तिकरण से पहले बालिकाओं के सशक्तिकरण के लिए कार्य करना ज़्यादा आवश्यक है। इस काम की शुरूआत माइक्रो लेवेल पर अर्थात घर से होनी चाहिए। महिलाओं पर होने वाले अपराधों की पहली शुरुआत कन्या भ्रूण हत्या से शुरू होती है। बेहद चिंताजंक और विचारणीय तथ्य है कि हमारे देश के सबसे समृध्द राज्यों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है। संपन्न तबके में यह कुरीति ज्यादा है। बालिका भूण हत्या की प्रवृत्ती गैरकानूनी, अमानवीय और घृणित कार्य है। हमारे देश की यह एक अजीब विडंबना है कि सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद समाज में कन्या-भ्रूण हत्या की घटनाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। दुर्भाग्य है कि स्त्री-पुरुष लिंगानुपात में कमी हमारे समाज के लिए कई खतरे पैदा कर सकती है। इससे सामाजिक अपराध तो बढ़ ही रहे हैं साथ साथ महिलाओं पर होने वाले अत्याचारऔर अपराधों मे भी निरंतर वृद्धि हो रही है। कन्या भ्रूण हत्या पर कुछ तथ्यों को देखते हैं। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 1981 में 0-6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात 1000-962 था जो 1991 में घटकर 1000-945 और 2001 में 1000-927 रह गया। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्ष 2001 से 2005 के अंतराल में करीब 6,82,000 कन्या भ्रूण हत्याएं हुई हैं। इस लिहाज से देखें तो इन चार सालों में रोजाना 1800 से 1900 कन्याओं को जन्म लेने से पहले ही दफ्न कर दिया गया। समाज को रूढ़िवादिता में जीने की सही तस्वीर दिखाने के लिए सीएसओ की यह रिपोर्ट पर्याप्त है।

अब ज़रा कुछ क़ानूनों को भी समझ लेते हैं। 1995 में बने “जन्म पूर्व नैदानिक अधिनियम 1995 (प्री नेटन डायग्नोस्टिक एक्ट, 1995 )” के मुताबिक बच्चे के जन्म से पूर्व उसके लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है। इसके अंतर्गत सबसे पहले गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 के अन्त र्गत गर्भाधारण पूर्व या बाद लिंग चयन और जन्मू से पहले कन्याष भ्रूण हत्याम के लिए लिंग परीक्षण करने को कानूनी जुर्म ठहराया गया है. इसके साथ ही गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम 1971 के अनुसार केवल विशेष परिस्थितियों मे ही गर्भवती स्त्री अपना गर्भपात करवा सकती है। जब गर्भ की वजह से महिला की जान को खतरा हो या महिला के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को खतरा हो या गर्भ बलात्कार के कारण ठहरा हो या बच्चा गंभीर रूप से विकलांग या अपाहिज पैदा हो सकता हो। आईपीसी मे भी इस संबंध मे प्रावधान मौजूद हैं। धारा 313, 314, 315 में स्त्री की सहमति के बिना गर्भपात करवाने वाले को आजीवन कारावास तक की सज़ा का प्रावधान है। इसका अर्थ है की कानून कमजोर नहीं है। सज़ा का प्रावधान भी पर्याप्त है। कहीं न कहीं कानून के अनुपालन एवं संबन्धित व्यक्तियों मे इच्छा शक्ति की कमी है। शायद बात साफ है कि कानून का पालन करने और करवाने वाले दोनों ही इस सामाजिक षड्यंत्र मे शामिल हैं। जब तक समाज के एक बड़े तबके कि सोच मे बदलाव नहीं होगा, स्थिति नहीं बदलने वाली है।

कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा देने वाले कुछ कारण मे दहेज नाम का एक अभिशाप ऐसा है जो कन्या भ्रूण हत्या को और फैलाने में सहायक है। महंगाई और गरीबी मे कैसे कैसे इंसान अपने परिवार का पेट पालता है और उसके बाद दहेज की चिंता । एक गरीब के लिए दहेज का बोझ इतना अधिक होता है कि वह चाह कर भी अपनी देवी रुपी बेटी को उतना प्यार नहीं दे पाता जितने की वो हकदार होती है ? लेकिन यह स्त्री-विरोधी नज़रिया किसी भी रूप में सिर्फ गरीब परिवारों तक ही सीमित नहीं है, बड़े बड़े ऋण लेकर अमीर दिखते लोगों मे तो ये बीमारी ज़्यादा पैर पसार चुकी है । भेदभाव के पीछे सांस्कृतिक मान्यताओं एवं सामाजिक नियमों का भी अधिक हाथ है। अगर देखा जाएं तो एक बड़ा दोष धार्मिक मान्यता का भी लगता है जो सिर्फ पुत्र को ही पिता या माता को मुखाग्नि देने का हक देती है। मां बाप के बाद पुत्र को ही वंश आगे बढ़ाने का काम दिया जाता है. हिंदू धर्म में लड़कियों को पिता की चिता में आग लगाने की अनुमति नहीं होती मसलन ज्यादातर लोगों को लगता है कि लड़के न होने से वंश खतरे में पड़ जाएगा। पहले तो लड़कियों के काम करने पर लोगों को बहुत आपत्ति होती थी किन्तु इसमे तो अब सुधार दिखने लगा है। कन्या भ्रूण हत्या में पिता और समाज की भागीदारी से ज्यादा चिंता का विषय है इसमें मां की भी भागीदारी। एक मां जो खुद पहले स्त्री होती है, वह कैसे अपने ही अस्तितव को नष्ट कर सकती है और यह भी तब, जब वह जानती हो कि वह लड़की भी उसी का अंश है। कभी कभी औरत ही औरत के ऊपर होने वाले अत्याचार की जड़ होती है यह कथन ऐसे मे गलत नहीं कहा जा सकता है। घर में सास द्वारा बहू पर अत्याचार, गर्भ में मां द्वारा बेटी की हत्या और ऐसे ही कई चरण हैं जहां महिलाओं से “एक स्टैंड” की उम्मीद की जाती है किन्तु कुछ दवाबों की वजह से शायद वो नहीं ले पातीं । स्त्रियों पर बढ़ता अत्याचार समाचारों का एक आम हिस्सा हो गया है। लेकिन एक महत्वपूर्ण जानकारी आपको देता हूँ कि जितनी स्त्रियाँ बलात्कार, दहेज और अन्य मानसिक व शारीरिक अत्याचारों से सताई जाती हैं, उनसे कई सौ गुना ज्यादा तो जन्म लेने से पहले ही मार दी जाती हैं। वाणी और विचार में स्त्री को देवी का दर्जा देने वाले किंतु व्यवहार में स्त्री के प्रति हर स्तर पर घोर भेदभाव बरतने और उस पर अमानुषिक अत्याचार करने वाले हमारे समाज का यह क्रूरतम रूप है। आधुनिक तकनीक का दंभ भरने वाला और कंक्रीट के जंगलों में विचरण करने वाले समाज को स्वयं को जंगली बनने से बचाने का प्रयास तो करना ही चाहिए।